#साइकिल_से_सैर का मेरा शौक आगरा में आने के बाद लगातार क्षेपकों का शिकार होता रहा है। पिछले साल जनवरी में नई हरक्यूलिस खरीदने के बाद जब मैं सैर को निकला तो साइकिल के कल-पुर्जों ने चूँ-चाँ करके यह बता दिया कि इसे जल्दी ही उसकी दुकान पर सर्विसिंग के लिए ले जाना पड़ेगा।
आगरा में एम.जी. रोड के हरिपर्वत चौराहे के एक कोने पर जमी 'पॉपुलर सायकल स्टोर' नामक ऊंची दुकान किसी नए व्यक्ति को सहज ही आकर्षित कर लेती हैं। अस्तु, मैं भी साइकिल लेने वहीं चला गया था। लेकिन उस साइकिल के साथ एक वर्ष के अनुभव ने मुझे उस उक्ति के साक्षात उदाहरण के दर्शन करा दिए जिसे हम 'ऊंची दुकान- फीका पकवान' के रूप में रटते आए हैं।
दर असल कॅरोना के लॉक डाउन में जो थोड़ी सी ढील मिलती थी तो हम चुपके से साइकिल लेकर निकल लेते थे। लेकिन इस सवारी ने मानो मेरी सैर में खलल डालने का प्रण कर रखा था। मेरा निजी अनुभव यह था कि एक अच्छी साइकिल को समतल और पक्की सड़क पर चलते समय बिल्कुल शांत रहना चाहिए। केवल टायर के रबर द्वारा सड़क की सतह छूते हुए नाचने पर एक हल्की और मधुर गरगराहट की आवाज होती है जो कर्णप्रिय लगती है। लेकिन मेरे हाथ में 'पॉपुलर' वालों ने जो साइकिल थमाई थी उसके अगले हिस्से से जैसे कराहने की आवाज आती थी। चलती हुई साइकिल में अगले पहिए की धुरी, रिम, टायर, मडगार्ड, ब्रेक व चिमटा ये सभी मिलकर ऐसी आवाज निकालते कि मैं बार-बार हैरान होकर आगे झुकता और उस विचित्र ध्वनि के स्रोत का पता लगाने की कोशिश करता। दुकान वाले को भी चार-पाँच बार दिखाया लेकिन उसके मिस्त्री ने हर बार पहिया हवा में उठाकर घुमाया और दिखा दिया कि सेटिंग बिल्कुल ठीक है और कोई आवाज नहीं आ रही है। एक दिन मैंने एक अन्य मिस्त्री को दिखाया तो उसने आगे के सभी छर्रे बदल डाले। उसका बिल चुकाकर जब मैं आगे बढ़ा तो वह कराहने की आवाज चीत्कार में बदल गयी थी। मैंने पलटकर मिस्त्री से शिकायत की तो उसने पूछा - आपने इसे पॉपुलर से खरीदा था क्या? मैंने हाँ में सिर हिलाया तो उसने मुस्कराते हुए कहा कि तब ये ठीक नहीं कर पाऊंगा। एक रहस्यानुभूति के साथ मैं निराश होकर घर वापस आ गया।
अगले दिन मैंने यह बात अपने सरकारी ड्राइवर व अर्दली से बतायी। वे दोनों मेरी चिंता में सम्मिलित हो गए और समस्या का समाधान तलाशने में जुट गए। दो-तीन दिन के बाद मयंक ने कहा कि साहब आप इजाजत दें तो इसे सिकंदरा के पास एक सरदार जी की दुकान पर ले जाकर दिखा दूँ। उन्होंने दावा किया है कि इसके रोग का निदान और उपचार गारंटी के साथ कर देंगे। उनके पास बहुत होशियार मिस्त्री हैं। मैंने उसे इजाजत ही नहीं दी बल्कि साइकिल को सरकारी गाड़ी पर लादकर सरदार जी को दिखाने स्वयं भी पहुँच गया।
सरदार जी ने बड़ी देर तक साइकिल के एक-एक कलपुर्जे को नचा-घुमाकर देखा, माथा खुजलाया, पूरी रामकहानी सुनी और लंबी सांस लेकर बोले - इसमें छोटी-छोटी ढेर सारी कमियां हैं। ठीक करवा देंगे लेकिन इसे छोड़ना पड़ेगा। चूंकि मुझे दो-तीन दिन मुख्यालय से बाहर ही रहना था इसलिए मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया और एक साल की उम्र में ही प्रायः अनचली साइकिल की 'ओवर-हॉलिंग' का कार्यादेश देकर चला आया।
तीन दिन बाद जब मैं पूरे उत्साह से बनी-संवरी साइकिल के दर्शन और प्राप्ति की आशा लिए सरदार जी की दुकान पर गया तो वे मौके से नदारद थे। दो-तीन मिस्त्री अपना-अपना काम कर रहे थे और मेरी हरक्यूलिस एक किनारे खड़ी थी। उसका अगला टायर नया लगा था। लेकिन और कोई परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं था। वहाँ का सबसे वरिष्ठ मिस्त्री जो एक पैर से विकलांग था, उसने मेरी उत्कंठा भाँप ली।
उसने हमें इशारे से बुलाया और बोला- मालिक तो अभी आ जाएंगे लेकिन आपकी साइकिल पूरी तरह बन नहीं पायी है। इसका आगे का चिमटा, झूला और पीछे का हब बदलना पड़ेगा जो आपसे पूछे बगैर नहीं बदल सकते। मैंने विस्फारित नेत्रों से सवाल किया - ऐसा कैसे?
मिस्त्री ने बताया कि इसमें चिमटा छोटी साइज का लगा है। यह छब्बीस के बजाय 24 नम्बर का लगा है इसीलिए पहिया ठीक से सेट नहीं हो रहा। झूला (ब्रेक सिस्टम) भी छोटा लगा हुआ है जो इस साइकिल का ओरिजिनल नहीं है। मिस्त्री ने दुकान से सही साइज का एक चिमटा निकलवाकर साइकिल में लगे छोटे चिमटे के साथ एक तुलनात्मक प्रस्तुति भी कर दी।
इस बीच सरदार जी आ गए। उन्होंने आगे जोड़ा कि साइकिल के पिछले पहिए में भी हब और रिम बेमेल है। अर्थात इसके हब में तीलियाँ फंसाने के लिए जितने छेद बने हैं उतनी तीलियों वाला रिम लगा ही नहीं है। अगले टायर में गांठें थीं इसलिए नया टायर-ट्यूब डलवा दिया। सारी बाल-बेअरिंग नयी डलवा दी। बाकी सब नट-बोल्ट कसवाकर टनाटन करवा दिया, लेकिन ये तीन आइटम बड़े और महंगे हैं। कायदे से इन्हें पॉपुलर स्टोर द्वारा रिप्लेस किया जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने नई साइकिल में गलत नम्बर का पार्ट लगा दिया है।
अब मुझे समझ में आ गया कि पिछले एक साल से मैं एक ठग किस्म के दुकानदार के चक्कर में परेशान था। गलत साइज के पुर्जे लगाकर उसने साइकिल की वह दशा कर दी थी जो उस व्यक्ति की हो जाती होगी जिसने अपने से दो नम्बर छोटी साइज का अंडरवियर और दो नम्बर बड़ी साइज की हवाई चप्पल पहन रखी हो। उसे सिर्फ खड़ा रहना हो तबतक तो ठीक है, लेकिन इस पहनावे के साथ दौड़ लगानी पड़े तो जो गत होगी वही मेरी साइकिल के साथ हो रही थी। अब मैंने महसूस किया कि छोटा सा चिमटा अपने से बड़ी साइज की रिम, ब्रेक सिस्टम और सवार के बोझ तले दबकर किकियाता रहता था और इस रहस्य से बेखबर मैं अपनी सैर के मजे को किरकिरा होता देखता और खीझता रहता था।
मैंने सरदार जी का सात-आठ सौ का बिल भरा और उस फीके पकवान को लादकर एकबार फिर उसी ऊंची दुकान पर पहुंच गया। दुकान का मालिक अपनी धूर्तता और बेईमानी के ऊंचे सिंहासन से उतरने को कतई तैयार न हुआ। सबकुछ सुनने के बाद उसने पूछा - आप दूसरी दुकान पर गए ही क्यों? उस सड़कछाप दुकान वाले सरदार की हैसियत नहीं है कि मेरे जैसे बड़े डीलर के सामान में कमी निकाल दे। आपकी साइकिल मैं ठीक करा देता लेकिन आप आए नहीं तो क्या करूँ। मैंने बताया कि मैं स्वयं और मेरा अनुचर मिलाकर 5-6 बार यहाँ आ चुके हैं लेकिन आपके किसी मिस्त्री ने यह गलत नम्बर का चिमटा नहीं देखा। देखा भी होगा तो बताया नहीं क्योंकि आपने ही उन्हें भी प्रशिक्षण दे रखा है। अपनी झेंप को छिपाने के लिए उसने विनम्रता के बजाय आक्रामकता का सहारा लिया और बोला कि यह गलती कम्पनी की है। हम क्या करें? लेकिन सरदार जी ने मेरे ज्ञान-चक्षु खोल दिए थे। यह कि साइकिल की किट खोलकर जब साइकिल कसी जाती है तो कभी-कभार बेमेल पुर्जे निकल आते हैं जिन्हें दुकानदार कम्पनी में भेजकर बदलवा लेते हैं। ग्राहक को सही मेल के पुर्जे लगाकर देने की जिम्मेदारी तो दुकानदार और साइकिल कसने वाले मिस्त्री की है। जब मैंने यह ज्ञान उस बेईमान के कान में उड़ेला तो उसने फोन उठाकर कम्पनी में बात की। फिर उसने टका सा जवाब दिया कि अब यह मॉडल बन्द हो गया है। यदि पुराने स्टॉक से चिमटा मिल पाया तो वे भेजेंगे। मैंने खिन्न होकर साइकिल वहीं छोड़ दी और बाहर निकलकर घर आ गया।
तीन-चार दिन बाद मेरे अर्दली ने घर में आकर बताया कि वह दुकान पर गया था। उसने पाया कि साइकिल का चिमटा बदल दिया गया है और अब साइकिल बढ़िया चल रही है। मैंने खुश होकर उसे शाबासी दी और साइकिल देखने के लिए बाहर निकला। मेरी खुशी अल्पकालिक ही रह गयी। उस धूर्त ने जो चिमटा लगाया था वह सही नम्बर का जरूर होगा लेकिन उसके लोहे में जंग लगी हुई थी और उसका रंग भी अलग था। किसी भिन्न मॉडल और अलग रंग की पुरानी साइकिल से निकाला हुआ वह पैबंद जैसा चिमटा मुझे त्रिशूल की तरह बेध गया।
अब इस पीड़ा की एक ही दवा थी - नई साइकिल।
अतः मैंने अगले ही क्षण निर्णय ले लिया। अब इस निर्णय का क्रियान्वयन हो चुका है। मैं एस.आर.एस. मॉल के बेसमेंट में सजे डेकाथेलान स्टोर से 'रॉकराइडर' का बेस मॉडल लेकर आया हूँ जिसे चलाकर मन को असीम शांति मिल रही है। एक ऐसा सुकून जो पैर में चुभे काँटे के निकल जाने पर मिलता है। अब फिरसे सड़क की सतह को छूकर घूमते पहिए से मधुर गरगराहट का कर्णप्रिय संगीत सुनाई देने लगा है। अब समय मिला तो साइकिल से सैर की कहानियाँ फिरसे सुनाऊंगा।
पुछल्ला : मेरे नवागत बॉस भी साइकिल से सैर का शौक रखते हैं। एक दिन सायंकालीन बैठक को अचानक स्थगित करते हुए उन्होंने इसका कारण बताया कि उन्हें पॉपुलर साइकिल स्टोर जाना है। अपने और बच्चों के लिए तीन-चार साइकिलें लेनी हैं। मैंने लगभग घबराते हुए उनसे कहा कि उस ठग के पास कतई मत जाइएगा। उन्होंने मेरी बात फौरन मान ली और हम दोनों 'डेकाथेलान स्टोर' की ओर चल पड़े।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
आखिर सही गंतव्य तक पहुंच ही गये। साईकिल पुराण रोचक रहा। डेक्थलान बनारस में भी है क्या?
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर यात्रा प्रसंग।
जवाब देंहटाएंअन्तर्राष्ट्रीय मूर्ख दिवस की बधाई हो।
ऑनलाइन जमाने में पुराने दुकानदार इस बात को नहीं समझते कि कस्टमर सैटिस्फैक्शन क्या चीज है। इस लेख को पढ़कर ही कितने लोग उस दुकानदार के विषय में सतर्क हो जाएंगे।
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