मुझे
नहीं मालूम कि सबसे पहले यह विचार कैसे पैदा हुआ लेकिन एक बार मन में यह बात आ गयी
तो मुझे बेचैन करने लगी। मानो एक अजीब सी शक्ति मेरे ऊपर हावी हो गई हो। मैं यह काम
जल्द से जल्द पूरा करने के लिए व्यग्र हो उठा।
मैंने उस पैकेट को अपनी बगल में दबा लिया और अपनी मंजिल की ओर चल पड़ा।
अपने दाएँ-बाएँ सतर्क निगाहों से मैं ऐसे देखता जा रहा था जैसे कोई गलत काम करने जा
रहा हूँ।
दरअसल पिछली रात मुझे अचानक अंजली की तस्वीर मिल गई थी और जैसे ही मैंने
उसकी तस्वीर देखी मुझे महसूस हुआ कि अब मुझे उससे मिलना ही चाहिए।
किसी आदमी का पहला प्यार उसके दिल में स्थायी घर बना लेता है।
दस साल। दस लंबे साल बीत गए हैं।
तब अंजली ने एक धनकुबेर से शादी कर ली थी। उसने एक रुतबे से शादी कर ली
थी। मेरा दिल टूट गया था।
फिर भी मेरे मन में उसके प्रति कोई नफरत या गुस्सा नहीं है। कोई बदले
की भावना भी नहीं। कभी होगी भी नहीं। कैसे हो सकती है? मैंने उसे सच्चा प्यार किया
था। मैं उसे अभी भी प्यार करता हूँ। मैं उसे हमेशा प्यार करता रहूंगा। हमेशा, अपने
मरने के दिन तक।
मैं उसपर अपना प्रभाव जमाने के लिए बिल्कुल उतावला हो रहा था। उसको कोई
उपहार देने से तो यह बिल्कुल जाहिर हो जाने वाला था।
मुझे तो यह भी पता नहीं था कि उसने मेरे बारे में अपने पति को कितना बताया
है… 'हमारे' बारे में कितना बताया है…?
उसके बच्चे शायद मेंरे बच्चों के उम्र के ही होंगे। हो सकता है थोड़े बड़े
हों।
ऐसा कहा जाता है कि किसी भी शादीशुदा औरत के दिल में उतरने का रास्ता
उसके बच्चों के माध्यम से होकर जाता है। मैंने अपने बगल में दबाया हुआ पैकेट फिर से
देखा जो एक उपहार था।
जी हाँ, मेरी बाँह के नीचे दबा हुआ यह एक उपहार ही था - दीपावली का उपहार।
यह 'चिल्ड्रंस इनसाइक्लोपीडिया' का डीलक्स सेट था जिसे मैंने अपने बेटे
और बेटी को दीपावली पर देने का कई सालों से वादा किया था। मैं इसे पिछले तीन
सालों से खरीद नहीं पाया था क्योंकि यह बहुत महंगा था। लेकिन आज इसी महंगे 'चिल्ड्रेन्स
इनसाइक्लोपीडिया डीलक्स सेट' का दिवाली-गिफ्ट मैं अंजलि के बच्चों को देने जा रहा था
- सिर्फ उसपर अपना प्रभाव जमाने के लिए।
मैंने दरवाजे की घंटी बजाई तो मेरे मन में आगे आने वाले दृश्य के बारे
सोचकर एक भूचाल सा आ गया। अचानक मेरे ध्यान में आया कि मुझे यह भी नहीं पता कि अंजली
मुझे देखकर खुश होगी भी या नहीं। ऐसा तो नहीं कि वह मुझे देखकर मुझे न पहचान पाने का
बहाना कर दे या मुझे वास्तव में पहचान ही न पाए।
दरवाजा खुला। अंजली का शानदार व्यक्तित्व सामने था। वह बेहद आकर्षक रूप
में खड़ी थी। उसने मुझे अपनी चमकीली मुस्कान से स्वागत किया और सच्ची प्रसन्नता के
साथ मेरी अगवानी की।
ओह संजीव, तुम्हें देखकर बहुत अच्छा लग रहा है... इतने सालों बाद कितना
खुशनुमा है तुमसे अचानक मिलना...! लेकिन तुम मुझे ढूंढ कैसे पाये?
हम दोनों एक दूसरे को देख रहे थे। अंजली पूरी तरह खिल गई थी। वह बेहद
मोहक लग रही थी। इतनी उत्कृष्ट और इतनी उज्ज्वल दिख रही थी कि उसे देखकर मेरे भीतर
जो गहरी भावुकता उमड़ रही थी उसको मैं शब्द नहीं दे सकता। मैं उसकी चमकती आंखों में
देखता रहा। मैं बिल्कुल सम्मोहित हो गया था उसकी अद्भुत सुंदरता से।
"मुझे घूरना बंद करो" अंजली ने टोका। उसकी बड़ी-बड़ी शरारती
आंखें नाच उठी थीं।
"तुम इतनी सुंदर और इतनी कमसिन लग रही हो कि..."
"लेकिन संजीव, तुम तो बूढ़े लग रहे हो। देखो ना, तुम्हारे बाल भी
सफेद होने लगे हैं..." यह कहते-कहते अंजली रुक गयी। उसे शायद अपने कहे पर पछतावा
हो रहा था।
फिर अचानक अंजलि ने अपना हाथ मेरे हाथ की ओर बढ़ाया और बोली - मैं आज
तुम्हें देख कर बहुत खुश हूँ। आओ, अंदर आओ संजीव...।
उसका घर बहुत बड़ा था... जरूरत से कहीं ज्यादा बड़ा। वहाँ धन और वैभव
चारों तरफ बिखरा पड़ा था।
अंजली की चाल-ढाल बिल्कुल एक राजरानी की तरह थी। उसकी बातचीत का सलीका
बेहद आत्मविश्वास से भरा हुआ और कुलीनों जैसा था।
किम् आश्चर्यम्...!
हमेशा किसी से जुड़े रहने की भावना उसके जीवन की प्रेरक शक्ति थी। दौलत,
रुतबा, सामाजिक प्रतिष्ठा और सफलता - उसने जीवन में जो कुछ भी चाहा उसे पा लिया
था। मैं अपने मन में उठती ईर्ष्या और अपने असफलता-बोध को रोक नहीं पा रहा था।
"तुम्हें मेरा घर अच्छा लगा?" उसने पूछा। "बैठ जाओ,
...और तुम इतनी खोए-खोए क्यों लग रहे हो?"
मैं सोफे पर बैठ गया। मैंने बगल की मेज पर गिफ्ट वाला पैकेट रख दिया था
- वही दीपावली का उपहार जो मैंने अंजली के बच्चों के लिए खरीदा था ताकि मैं उसे 'इंप्रेस'
कर सकूँ।
अंजलि मेरे सामने बैठ गई।
"तुम्हें कैसे पता चला कि मैं यहाँ रहती हूँ? हम तो अभी एक महीना
पहले ही मुंबई शिफ्ट किए हैं " उसने पूछा। मैंने अपनी जेब से एक बटुआ निकाला और
उसे अंजलि को दे दिया। फिर मैंने उससे कहा, "यह तुम्हारे हसबैंड का पर्स है। मैंने
इसमें तुम्हारी तस्वीर देखी।"
अंजली ने बटुआ खोला और उसमें रखी हुई चीजों को देखने लगी।
"तुम्हें पुलिस वालों पर यकीन नहीं है न?" मैंने मुस्कुराते
हुए पूछा।
अंजलि झेंप गयी। उसने बटुए को मेज पर रख दिया।
उसकी आंखों में मेरे प्रति मुक्त प्रशंसा के भाव थे जब वह बोली,
"आईपीएस...?" "यह तो बहुत कमाल की बात है। ...मैंने कभी नहीं सोचा था
कि तुम इतना अच्छा करोगे...!" "वैसे तुम अभी क्या हो? ...सुपरिंटेंडेंट?
...डिप्टी कमिश्नर?" अंजलि ने पूछा।
अब मेरे झेंपने की बारी थी।
"नहीं-नहीं, मैंने लजाते हुए होठ दबाते हुए कहा।
"मैं तो बस एक सब-इंस्पेक्टर हूँ।"
"ओह!..." उसने कहा।
वह अपनी निराशा छिपाने की कोशिश कर रही थी। लेकिन मैं उसकी आंखों की भाषा
को पढ़ चुका था। यह बारीक भेद मुझसे छिप न सका।
अचानक उसके दृष्टिकोण में बदलाव आने लगा। मैं ठीक-ठीक उसके हावभाव को
बदलते हुए देख पा रहा था।
"अच्छा बताओ, तुम्हारे हस्बैंड मि. जोशी घर पर हैं क्या?" मैंने
पूछा।
"नहीं, वो अभी भी अपने ऑफिस में हैं..।" उसने बताया।
"ओहो, मुझे लगा वे घर पर आ गए होंगे..." मैंने कहा।
"मैं तुम्हारे लिए चाय बनाती हूँ।" इतना कहकर वह खड़ी होने
लगी।
"प्लीज बैठ जाओ अंजली! चलो बातें करते हैं।" मैंने अपनी घड़ी
की ओर देखते हुए कहा।
"अभी 6:30 बज चुके हैं। हम लोग मिस्टर जोशी की प्रतीक्षा कर लेते
हैं। हो सकता है वे मुझे ड्रिंक ऑफर करें उसके बाद शायद डिनर भी..."
"मेरे हस्बैंड रात में बहुत देर से लौटते हैं।" अंजली ने कहा।
"वैसे भी, वे कम्पनी के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं। इतना ज्यादा काम
रहता है, तमाम कांफ्रेंसेज और इम्पोर्टेन्ट बिजनेस मीटिंग्स रहती हैं। वे कम्पनी के
टॉप-बॉस हैं, बहुत ही सफल और बहुत ही व्यस्त आदमी हैं।"
अंजली ने जिस प्रकार मुझे समझाया वह बहुत ज्यादा स्पष्ट था। वह जो कहना
चाहती थी मैंने उसे बिल्कुल ठीक-ठीक समझ लिया था। अब उसने विषय बदला और पूछा,
"तुम्हे मेरे हस्बैंड का पर्स कहाँ मिला?"
"मेरे थाने में। कल शाम को इसे गुम-सामान वाले सेक्शन में कोई जमा
कर गया था।" मैंने साफ झूठ बोला था।
अंजली ने कहा, "बड़ी अजीब बात है, उन्होंने इसके बारे में कुछ बताया
नहीं मुझे...!"
मैंने दबी जुबान से कहा, ''हो सकता है उन्होंने ध्यान न दिया हो।"
"वैसे भी वे इतने बड़े आदमी हैं, इतने व्यस्त रहते हैं कि पर्स जैसी छोटी-मोटी
चीज के खो जाने के बारे में क्या ध्यान देंगे...!
"हाँ, ये भी सही है..." अंजलि ने एक रूखी सी दृष्टि डालते हुए
कहा।
अंजलि ने पर्स को एक बार फिर खोला और उसमें के क्रेडिट कार्ड और ड्राइविंग
लाइसेंस को बारीकी से चेक करने लगी।
पहले तो वह बहुत कंफ्यूज दिखी। फिर उसने मेरी तरफ बहुत कड़ी निगाह से
देखा लेकिन कहा कुछ भी नहीं। लंबे समय तक एक सन्नाटा बना रहा। बहुत ख़राब लगने वाली
चुप्पी थी। अंजली मुझे लगातार घूरती जा रही थी - बिल्कुल मेरी आंखों में देखते हुए।
जैसे उसे नफरत हो गई थी मुझसे। भयंकर नाराजगी और उपेक्षा से भरी हुई दृष्टि थी उसकी।
अब मैं बेहद असहज महसूस करने लगा।
अचानक मुझे उस उपहार वाले पैकेट की याद आ गई जो मैंने अंजली के बच्चों
के लिए खरीदा था। मैंने बड़े उत्साह से आश्चर्य करने वाली भंगिमा बनाकर पूछा,
"अंजली! तुम्हारे बच्चे कहाँ है? ...मैंने उनके लिए ये दिवाली-गिफ्ट ले रखा है
...बस उनके लिए एक छोटा सा उपहार..."
यह सुनने के बाद अंजली के चेहरे पर जो भाव उभरे वह देखते ही मुझे तुरंत
अंदाजा हो गया कि मैंने भयानक रूप से गलत बात कह दी थी। सहसा उसकी आंखों में आँसू उमड़
आए थे। अचानक अंजली बहुत अकिंचन, कमजोर और असुरक्षित सी दिखने लगी।
उसकी सच्चाई जानने के बाद बहुत गहरा पश्चाताप मेरे मन के भीतर घर कर गया।
बिना बताए ही मैं समझ गया कि अंजली के कोई बच्चे नहीं थे। मैं यह भी समझ गया कि मैंने
उसके जख्मों पर नमक रगड़ दिया है। मैं बिल्कुल असहाय होकर उसकी ओर देखने लगा। अपनी अज्ञानता
की दुहाई देकर भी कोई फायदा नहीं होने वाला था।
शायद भविष्य में कभी अंजली मेरी इस हरकत को समझ पाए। लेकिन उस क्षण तो
समझाने की कोशिश करने में भी कोई उम्मीद नहीं थी।
उसकी चोट बहुत गहरी थी और इसे शांत रहकर गुजर जाने देने के अलावा मेरे
पास कोई चारा नहीं था। हम वहाँ बिल्कुल शांत बैठे थे। हमें समझ में नहीं आ रहा था कि
क्या बात करें।
कानों को बिल्कुल सुन्न कर देने वाली शांति थी - एक अवांछित, बेढब शांति।
कितना अजीब है न कि आपने जिस क्षण के लिए खूब रिहर्सल किया हो उसका
अंजाम इतना अलग हो जाए। अब मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था।
मैं फौरन सोफे से उठ खड़ा हुआ और तेज कदमों से दरवाजे की ओर बढ़ने लगा।
अचानक मुझे लगा कि मैंने दीपावली के उपहार वाला पैकेट वहीं छोड़ दिया है जो मैंने अंजली
के अस्तित्वहीन बच्चों के लिए खरीदा था। लेकिन मैं पीछे नहीं मुड़ा। पता नहीं क्यों...!
अचानक मैंने अपने पीछे अंजली की आवाज सुनी, "संजीव, मत जाओ! मैं
तुमसे बात करना चाहती हूँ।" बहुत ठंडे स्वर में अंजली ने बोला था। मैं वहीं रुक
गया। मैं अंजली के कदमों की आवाज साफ-साफ सुन सकता था। मैं पीछे मुड़ा ताकि उसका सामना
कर सकूँ। अब वो थोड़ी सामान्य हो चुकी थी।
"तुमने मुझसे झूठ बोला संजीव!" अंजली ने कहा, "मैं सच
जानना चाहती हूँ कि तुमने मेरे हस्बैंड का पर्स कहाँ पाया था।"
मैं नहीं सोच पा रहा था कि क्या कहूँ। मैंने उसकी ओर से आँखें चुरा लेने
की कोशिश की।
"बोलो संजीव!" अंजली ने फिर कहा। "प्लीज मुझे बताओ, तुमने
मेरे हस्बैंड का पर्स कहाँ पाया!"
जब मैं उलझन में होता हूँ तो सच ही बोल पाता हूँ। इसलिए मैंने अंजली से
कहा, "कल हमने एक अड्डे पर छापा मारा था। ऊँचे लोगों के एक कॉलगर्ल रैकेट के अड्डे
पर कल रात..."
मैं इसके आगे नहीं बोल पाया। लगभग माफी मांगते हुए मैंने कहा, "आइ
एम सॉरी, मुझे नहीं पता था...!"
"हाँ, तुम्हें नहीं पता था - लेकिन मैं जानती हूँ - मुझे हमेशा से
संदेह था - और अब, जबकि तुमने उस रंडीखाने में मेरे पति का पर्स पाया है तो मेरा शक
सही साबित हो गया।" उसने एक तरह से मजाक उड़ाते हुए कहा।
मैं बिल्कुल शांत बना रहा। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ। फिर अचानक
अंजली चिल्लाने लगी। नामर्द... नीच... उन वेश्याओं के पास जा रहा है अपनी मर्दानगी
सिद्ध करने!
ऐसे ही कुछ शब्दों से अंजली ने अपनी शादी के राज की बातें उजागर कर दी।
मैंने उसकी ओर सहमी हुई नजरों से देखा। अब उसके हाव-भाव संयत और आवेगहीन हो गए थे।
लेकिन उसकी आंखों में जो गुस्सा था वह साफ झलक रहा था।
मैं संज्ञा शून्य हो गया था। किंकर्तव्यविमूढ़। फिर अचानक मेरे मुंह से
निकल पड़ा - "चिंता मत करो, अंजली! मैंने सारे आरोप खत्म कर दिए हैं। मैं इसे
देख लूंगा। सब दबा दूंगा।"
मुझे अभी भी नहीं पता कि मैंने ये शब्द क्यों कहे लेकिन इन शब्दों को
सुनने के बाद अंजली में एक बहुत बड़ा परिवर्तन होता दिखाई देने लगा।
अंजली अचानक पागल सी हो गई। इतनी खंड-खंड, व्यथित और गुस्से में दिखाई
देने लगी कि मैं बिल्कुल डर सा गया।
मुझे डर लगने लगा कि अंजली इस पागलपन में कुछ भी गड़बड़ कर सकती है - और
मुझे मार भी सकती है - शायद वह मुझे चाटा ही रसीद कर दे - वह कुछ भी हिंसक काम कर सकती
थी। यह सब सोचते ही मैं अपने आप पीछे हट गया।
लेकिन अंजली अचानक मुड़ी और कमरे से बाहर आ गई। मैंने थोड़ा इंतजार किया।
थोड़ी देर के लिए बिल्कुल जड़वत हो गया था मैं - किसी पत्थर की मूर्ति जैसा।
थोड़ी देर बाद जब मैं सहज हो पाया तो मैंने तय किया कि अब चलना चाहिए।
मैं दरवाजे की ओर बढ़ने लगा।
"रुको…!" अंजली की चिल्लाहट मेरे कानों में पड़ी। मैं फिर रुक
गया और पीछे मुड़ा। वह मेरी ओर तेज कदमों से आ रही थी। उसने अपना दाहिना हाथ मेरी और
बढ़ाया। उसके हाथों में पांच सौ के नोट वाले बंडल थे। वह मेरे ऊपर बरस पड़ी -
"अच्छा! तो तुम इसके लिए मेरे पास आए थे! है ना? …तुम मुझसे रिश्वत लेना चाहते
थे और केस को दबाना चाहते थे… मुझसे भी? कुत्ते... कमीने... मुझे उम्मीद नहीं थी कि
तुम इतना नीचे गिर जाओगे। लो ये पैसे लो और मेरे घर से दफा हो जाओ! अभी मेरे घर में
इतना ही कैश है, तुम्हें अगर और चाहिए तो तुमको पता है मेरे हस्बैंड कहां मिलेंगे।
पता है या नहीं?"
"बस करो अंजली!" मैं बोल पड़ा, "प्लीज, ऐसा मत सोचो…"
"नीच!" अंजली गुस्से में थी और उसके चेहरे पर तिरस्कार का भाव
था। "बहुत घटिया और नीच हो तुम… पहले से ही ऐसे थे! …चलो अब मेरे घर से निकल जाओ,
गंदे ब्लैकमेलर! और आगे से कभी मैं तुम्हारा मुँह नहीं देखना चाहती…!"
उसने करेंसी नोटों का बंडल मेरे ऊपर दे मारा। बंडल से मेरे सीने
पर चोट लगी और वे छिटककर जमीन पर गिर पड़े। नोट मेरे पैरों के आस-पास चारो ओर बिखर
गए।
"मैं तुम्हें प्यार करता हूँ अंजली!" मैंने कहा। मैं उसे अपनी
सच्ची भावना दिखाना चाहता था।
"प्यार…?" उसने आश्चर्य दिखाते हुए कहा। उसकी आग उगलती आंखों
से गुस्सा टपक रहा था। "तो तुम यहाँ यह देखने आए थे कि तुम्हारे बुझ गये प्यार
की लौ अब कितनी समृद्ध हो गयी है! है न?"
अंजली थोड़ा रुकी और फिर व्यंगपूर्वक बोली - "तब तो तुम बहुत
खुश हुए होगे… मेरी 'सक्सेस' देखकर…?"
उसके शब्दों में जो कुटिलता थी और जो उपहास था - कि उसके दुर्भाग्य पर
मैं प्रसन्न होउंगा - इसका मुझे सर्वाधिक दुख हुआ। मेरे दिल को बहुत चोट लगी।
मैं पीछे मुड़ा और अंजली के घर से बाहर निकल आया। जब मैं गेट के पास पहुँचा
तो मेरी पीठ पर किसी चीज से चोट लगी। मैं दर्द से कराह उठा। चिल्ड्रेन्स इनसाइक्लोपीडिया
के तीनों भाग जमीन पर गिरकर फैले हुए थे। रुपहले रंग का गिफ्ट-रैपर फट गया था।
जी हाँ, वह दीपावली का उपहार - जो मैंने अंजली के उन बच्चों के लिए खरीदा
था जो कभी थे ही नहीं - जो मैंने उसे इंप्रेस करने के लिए खरीदा था - चिल्ड्रंस इनसाइक्लोपीडिया
के तीन भाग - सभी जमीन पर बिखर गये थे। उनका रुपहला रैपर चिथड़ा हो गया था।
मैं जानता था की अंजली दरवाजे पर खड़ी होकर मेरी ओर देख रही होगी। लेकिन
पीछे मुड़कर देखने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। मैंने किताबों को इकट्ठा किया और बाहर
के अंधेरे की ओर चल पड़ा।
उपसंहार :
जब शराब का नशा कम हुआ और मैं होश में आया तो मुझे यह अंदाजा हुआ कि मैं
अपने घर के बिस्तर में हूँ। यद्यपि कमरे में धूप छनकर आ रही थी लेकिन मुझे सबकुछ धुंधला
नजर आ रहा था। फिर धीरे-धीरे चीजें स्पष्ट होने लगीं। मेरी बेटी बिस्तर पर मेरे पास
बैठी थी। उसने धीरे से मेरा हाथ छुआ। उसकी आँखों में आँसू थे।
मेरा बेटा बिस्तर के दूसरी ओर अलग-थलग खड़ा था। उसकी आँखें डरी हुई थीं।
मेरी पत्नी मेरी ओर प्रेम व दयाभाव से निहार रही थी। उसने मुझसे कहा-
"इतने प्यारे दीवाली-गिफ्ट के लिए बच्चे आपको थैंक-यू कहना चाहते हैं। वे बहुत
ज्यादा खुश हैं..."
उसने अपने हाथों में वही इनसाइक्लोपीडिया का सेट थाम रखा था - वही 'कीमती'
इनसाइक्लोपीडिया - जो मैंने अंजली के बच्चों के लिए दीवाली-गिफ्ट के रूप में खरीदा
था - ताकि मैं अंजली पर प्रभाव जमा सकूँ।
मैंने बस सिर हिलाकर अपनी पत्नी को जवाब दिया। फिर मैंने बच्चों की ओर
देखा। मेरे बच्चे अपनी माँ के हाथों में रखी इनसाइक्लोपीडिया को देख रहे थे।
उसके बाद मेरे बच्चों ने मेरी ओर बहुत प्यार और कृतज्ञता के भाव
से देखा। मैं मुस्करा दिया और उनकी और बढ़ा। बच्चों ने मेरा हाथ पकड़ लिया और मेरी ओर
देखकर मुस्कराने लगे। मैंने उनकी आँखों में विशुद्ध दोषरहित प्रसन्नता देखी। यह ऐसा
प्यार था जो मैंने पहले कभी भी महसूस नहीं किया था। खुशी के आँसू मेरी आँखों से छलक
पड़े।
मुझे प्यार के बारे में पता चल चुका था। जी हाँ, मैं प्यार का असली मतलब
अब जान पाया था।
इस दीपावली के दिन मुझे 'प्यार का उपहार' मिला था।
(इति)
मूल अंग्रेजी कथाकार : विक्रम कर्वे
http://karvediat.blogspot.in/2016/10/diwali-gift-story.html
हिंदी रूपांतर - सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
www.satyarthmitra.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपकी टिप्पणी हमारे लिए लेखकीय ऊर्जा का स्रोत है। कृपया सार्थक संवाद कायम रखें... सादर!(सिद्धार्थ)