कई दिनों बाद आज सुबह सैर को निकला। बरामदे में खड़ी साइकिल कई दिनों से शिकायत कर रही थी। इसे छोड़कर मैंने दुबारा बैडमिंटन खेलना शुरू कर दिया था। नये बॉस को कम्पनी देने के बहाने मैंने डॉक्टर की सलाह को मटिया दिया था। अपने मन की दबी इच्छा को यह बहाना मिलते ही मैंने हवा दे दी। अब घुटने की तकलीफ़ को नी-सपोर्ट बांधकर दबा देता हूँ और रात के दस बजे तक खेल कर स्टेडियम से वापस आता हूँ।
ऐसे में सुबह साइकिल से सैर करना मुश्किल हो गया। लेकिन आज मैं खुद के लिए नहीं बल्कि साइकिल का मन रखने के लिए निकल पड़ा।
एक और बात यहाँ बताता चलूँ। जब मैंने स्वास्थ्य कारणों से साइकिल खरीदी थी तो बैडमिंटन के एक साथी खिलाड़ी ने विनोद किया था कि "दो-चार दिन बाद जब आप बोर होकर साइकिल खड़ी कर देंगे और इसे बेच देने का विचार बनाएंगे तो मुझे सबसे पहले बताइयेगा। मुझे एक सेकेण्ड-हैण्ड साइकिल खरीदनी है।" उनकी यह बात भी मुझे चुनौती जैसी लगती है।
तो आज मैंने सिर्फ टोकन साइक्लिंग की। अपनी कॉलोनी से निकलकर इन्दिरा उद्यान के सामने से महानंदपुर की ओर गया। यह मुहल्ला बिल्कुल गाँव जैसा है। सरकारी कॉलोनी से सटा हुआ है इसलिए यहाँ की आर्थिक गतिविधि इससे जुड़ी हुई है। सरकारी बंगलों व अन्य आवासों में झाड़ू-पोछा-बर्तन की काम वालियाँ इसी बस्ती से निकलती हैं। अपना परिवार लखनऊ, इलाहाबाद या अन्यत्र छोड़कर रायबरेली में नौकरी करने वालों के कुछ घरों में खाना बनाने वाली भी यहीं से जाती हैं। इस मुहल्ले में दुग्ध व्यवसाय भी खूब फल-फूल रहा है। यहाँ छोटी-बड़ी अनेक डेयरियां दिखी जहाँ डब्बा लिए अनेक शहराती बुजुर्ग और बच्चे दूध नपवाने की प्रतीक्षा करते दिखे। बाकी घरों में भी इक्का-दुक्का दुधारू पशु जरूर दिखे।
मेरी नजर फिर एक बार गाय और भैंस के रहन-सहन के बीच दिखने वाले भारी अंतर पर टिक गयी। गायें जहाँ साफ-सुथरे स्थान पर नहा-धुलाकर बांधी गयी दिख रही थीं वहीं भैसों के लिए मानो जान-बूझकर नरक कुण्डों की रचना की गयी थी। घुटने तक कीचड़ और गोबर के दलदल में खड़ी या एक-तिहाई शरीर उसी में डुबाकर बैठी हुई भैंस आराम से पगुरी करती दिखी।
बड़ा अंतर है जी - गाय और भैंस में। मेरे एक संपन्न रिश्तेदार की छोटी बेटी ने कहीं नाले में लोटती भैंस को देख लिया था। तबसे उसने भैंस का दूध पीना छोड़ दिया। आज वह बड़ी होकर विश्वविद्यालय में पढ़ रही है लेकिन भैंस के दूध से मेल अभी भी नहीं हो सका है। यह सुनकर मुझे पहले तो आश्चर्य हुआ था लेकिन अब लगता है कि बच्ची की सोच में कोई लोचा नहीं था।
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
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