हे तात,
आज तुम वापस घर लौट आये। मन को जो राहत मिली है उसका बयान नहीं कर पा रहा हूँ। तुम्हारा साथ वापस पाकर मुझे उस टाइप की खुशी मिल रही है जैसी सीमा पार गुमशुदा मान लिए गये सैनिक की देशवापसी पर उसके घर वालों को होती है। कोई उम्मीद नहीं कर रहा था कि तुम सकुशल अपने घर वापस आ जाओगे। वह भी जिस बुरी हालत में तुमने घर छोड़ा था और जिस तरह से तुम्हारा परिचय पत्र भी खो चुका था, मुझे कत्तई उम्मीद नहीं थी कि इतनी बड़ी दुनिया में कोई तुम्हें पहचानने को तैयार होगा, तुम्हारी सेवा-सुश्रुषा करेगा, तुम्हारी बीमारी की मुकम्मल दवा करेगा और फिर पूरी तरह स्वस्थ हो जाने पर हवाई टिकट कटाकर तुम्हें मेरे घर तक पहुँचवा देगा।
मैने सोचा कि तुम्हें वापस भेजने वाले को धन्यवाद दूँ, लेकिन इस पूरी कहानी में इतने अधिक लोग सहयोगी रहे हैं और उनमें अधिकांश को मैं जान-पहचान भी नहीं पा रहा हूँ इसलिए इस सार्वजनिक मंच से एक बार ही उन सबको सामूहिक धन्यवाद ज्ञापित कर देता हूँ।
तुम्हारे साथ मैंने जो किया वह कत्तई अच्छा व्यवहार नहीं कहा जा सकता। अपने सुख के लिए मैंने तुम्हारे साथ बहुत नाइंसाफी की। जब भी कभी हम साथ चले मैं अपना सारा बोझ तुम्हारे कंधे पर डाल देता और खुद मस्ती से इतराता चला करता। तुम इतने निष्ठावान और सेवाधर्मी निकले कि कभी उफ़् तक नहीं की, कोई शिकायत नहीं की। शायद तुमने अपना माथा ठोंक लिया कि जब मैंने तुम्हें तुम्हारे जन्मदाता से रूपयों के बदले खरीदा है तो आखिरी साँस तक मेरी सेवा करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, तुम्हारी नियति है। बिल्कुल गूंगा गुलाम बनकर रहे तुम मेरे साथ। जरूरत पड़ने पर तुमने मेरे भाइयों की सेवा भी उसी तत्परता से की। कोई भेद नहीं रखा।
एक बार तो तुम मेरे एक मित्र को लोक सेवा आयोग तक इंटरव्यू दिलाने चले गये। उसने पता नहीं तुममें क्या खूबी देखी कि एक दिन के लिए तुम्हें मुझसे मांगकर अपने साथ ले गया। मैने समझाया भी कि यह तो अभी बिल्कुल नया-नया आया है, मै भी इसके व्यवहार से भली भाँति परिचित नहीं हूँ। तुम्हें पता नहीं रास आये या न आये। वह बोला- “यह नया है तभी तो ले जा रहा हूँ। मुझे अनुभवी और पुराने साथियों के साथ ही तो परेशानी होती है। जब तक साथ रहेंगे, रास्ते भर पता नहीं क्या-क्या चर्र-पर्र करते रहेंगे। बार-बार मूड डिस्टर्ब होने की आशंका रहेगी। कॉन्फिडेन्स गड़बड़ाने का डर बना रहेगा। इंटरव्यू तो अपने दिमाग से देना है, फिर रास्ते भर इनकी सिखाइश और बक-बक की ओर ध्यान क्यों बँटाना? यह नया है तो मुझमें कोई खामी तो नहीं दिखाएगा। इसके चेहरे पर जो चमक है वह आत्म विश्वास बढ़ाने वाली है। यह खुशी से शांतिपूर्वक साथ चलेगा और सुकून से बिना कोई खटपट किए वापस आएगा। मुझे कुछ आराम ही रहेगा।” मैंने बिना कुछ कहे तुम्हें उसके साथ भेज दिया। तुम्हें तो घूमने का बहाना चाहिए। और क्या?
तुमने मुझसे कभी कुछ मुँह खोलकर नहीं मांगा। तुम दरवाजे के बाहर बैठे रहते या घर के कोने में चुपचाप दुबके रहते। टकटकी लगाये रहते कि मैं कब तुम्हें अपने साथ ले चलने वाला हूँ। तुमने खुद अपना खयाल कभी नहीं रखा। मुझे ही जब तुम्हारी दीन-हीन शक्ल-सूरत पर तरस आती तो थोड़ी बहुत साफ़-सफाई के लिए किसीसे कह देता या खुद ही हाथ लगा देता। वैसे मुझे यह तरस भी अपने स्वार्थ में ही आती। तुम्हें मेरे साथ चलना होता था, इसलिए तुम्हें मैली-कुचैली हालत में रखता तो अपनी ही नाक कटती न! जब किसी अच्छी शादी-व्याह, जन्मदिन पार्टी, सालगिरह इत्यादि का निमन्त्रण हो या खास सरकारी मीटिंग में बड़े अधिकारियों से मिलने जाना हो तो मैं तुम्हे कुछ ज्यादा ही महत्व देता। तुम्हारी सादगी और गरिमापूर्ण उपस्थिति से मुझमें आत्मविश्वास बढ़ जाता। तुम बोल नहीं पाते वर्ना मैं पूछता कि जिस दिन मेरी ही तरह तुम्हारी विशेष साज-सज्जा होती उस दिन तुम जरूर गेस कर लेते होगे कि किसी खास मौके पर बाहर निकलना है।
तुमने जब भी मेरे साथ कोई यात्रा की मुझे सुख देने का पूरा प्रयास किया। मेरी सुविधाओं का ख़याल रखते रहे। मेरा बोझ ढोते रहे। ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर तुम आगे-आगे चलकर मेरे लिए उसकी तकलीफ़ कम करने का जतन करते रहे। तुमने इतना तक खयाल रखा कि मेरे पाँव में काँटे न चुभने पाये। मुझसे पहले तुम जमीन पर पाँव रखते ताकि काँटे हों भी तो तुम्हे पता चल जाय और मुझे कोई धोखा न हो। सड़क जल रही हो तो मुझे उसपर नंगे पाँव नहीं चलने देते। तुमने अपने लिए कीचड़ भरा रास्ता चुन लिया होगा लेकिन मेरे पाँव कभी गीले नहीं होने दिया। आज पीछे मुड़कर देखता हूँ कि मैं निरा स्वार्थी और अहंकारी बनकर तुम्हारा खरीदार होने के दंभ में तुम्हारी चमड़ी से एक-एक पैसा वसूल कर लेने की फिराक़ में लगा रहा जबकि तुमने बिना कोई शिकायत किए मेरी सेवा को अपना धर्म समझा। मैने तुम्हे जैसे चाहा वैसे इस्तेमाल किया। तुम्हारी राय या सहमति लेने की जरुरत भी नहीं समझी। लेकिन हद तो हद होती है। मैने एक बार हद पार की और तुमसे हाथ धोने की नौबत आ गयी।
हुआ यों कि एक बार मैं एक पहाड़ी इलाके में यात्रा पर गया। किसी ठंडी पहाड़ी का इलाका नहीं था बल्कि वहाँ कुछ पथरीले शुष्क टीले थे जिनके ऊपर एक वैश्विक शिक्षण संस्था आकार ले रही थी। उसी संस्था के मुखिया ने मुझे बुला भेंजा था। सुबह-सुबह हम टीले पर बने पथरीले रास्ते से ऊपर की ओर टहलते हुए जा रहे थे। तभी मुझे दूर चोटी पर कुछ परिचित लोग दिखायी दिए। वे लोग भी आगे की ओर बढ़ रहे थे। दूरी इतनी थी कि उन्हें आवाज देकर रोका नहीं जा सकता था। वे लोग आपस में बात करते हुए तेज कदमों से बढ़े जा रहे थे। मैने आव देखा न ताव, उन्हें पाने के लिए दौड़ लगाने लगा। मुझे तुम्हारा भरोसा कुछ ज्यादा ही था। लेकिन शायद तुम दौड़ने के लिए बने ही नहीं थे। संकोच में तुम कुछ बोल न सके। मेरे साथ दौड़ लगाते रहे। हमने उन लोगों को करीब एक किलोमीटर की दौड़ लगाकर पकड़ तो लिया लेकिन जल्द ही मुझे तुम्हारी तकलीफ़ का पता चल गया। मेरी ऊँखड़ी हुई साँस तो कुछ देर में स्थिर हो गयी लेकिन तुम्हारा हुलिया जो बिगड़ा तो सुधरने का नाम नहीं ले रहा था। लगभग कराहने की आवाज करने लगे तुम। मैंने तुम्हें सम्हालते हुए चलने में मदद की और गेस्ट हाउस में आने के बाद लिटाकर छोड़ दिया। फिर बाकी समय तुम मेरा साथ नहीं दे सके। तुम्हारे तलवे में फ्रैक्चर सा कुछ हो गया था। मुझे वापसी यात्रा में तुम्हें टांग कर चलना पड़ा।
जब हम घर वापस लौट गये तो तुम्हारी दुरवस्था देखकर मुझे लगा कि अब तुम मेरे किसी काम के नहीं हो। मुझे तुम्हारे ऊपर दया तो आ रही थी लेकिन उससे ज्यादा मुझे अपने हजार रूपए बेकार चले जाने का अफ़सोस होने लगा। तुम कोने में पड़े रहते मुझे आते-जाते देखते रहते। तुम्हारी देख-भाल में कमी आ गयी और तुम्हारा स्वास्थ्य और बिगड़ता गया। घर में एक बेकार का बोझ बन गये तुम। श्रीमती जी ने एक बार संकेत किया कि इसे किसी मंदिर या अनाथालय पर छोड़ आइए। किसी भिखारी के हाथ लग जाएगा तो शायद उसके काम आए। सुनकर मेरा कलेजा काँप गया। मुझे चिंता होने लगी कि मेरी अनुपस्थिति में कहीं तुम्हें ठिकाने न लगा दिया जाय। मैं तुम्हारे साथ पैदा हुई समस्या के एक सम्मानजनक निपटारे का रास्ता ढूँढने लगा।
(2)
एक दिन बाजार में घूमते हुए मुझे वही आदमी मिल गया जिससे मैने तुम्हें खरीदा था। मैं फौरन उसके पीछे लपक लिया। भीड़-भाड़ के बीच उससे बात करना मुश्किल था। उसने मुझे पहचान तो लिया लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा था कि उससे कैसे बात करूँ। उसने शायद मेरे असमंजस को भाँप लिया। वह बातचीत में गजब का चालाक था। उसी ने शुरुआत की- “ कहिए साहब, जो सामान मैने आपको दिया था वह अच्छा चल रहा है न? कोई शिकायत वाली बात तो नहीं है?” मुझे अब तरकीब सूझी। मैने चेहरे पर निराशा के भाव मुखर किए और बोला- “तुम्हारा सामान तो वैसे बड़े काम का था, लेकिन अब खराब हो गया है। घर में बेकार पड़ा रहता है। कहीं आने-जाने लायक नहीं रह गया है। अगर उसे वापस ले लेते तो ठीक रहता। जिस बुरी हालत में वह है उसको अब उसे बनाने वाले (जन्म देने वाले) ही ठीक कर सकते हैं। उसे उसकी कम्पनी को (अपनी माँ के पास) भेज दिया जाय तो शायद उसे नयी जिन्दगी मिल जाय।”
जानते हो, तुम्हें मेरे हाथों बेंचते समय उसने यह कहा था कि दो-तीन महीने में कोई शिकायत हो तो वापस लाइएगा, दूसरा ले जाइएगा। मेरे पास बहुत से हैं। मैंने उसे इस ‘वारण्टी’ की याद दिलायी। हाँलाकि उसका चेहरा यह साफ शक़ करता दीख रहा था कि यह खरीद-फ़रोख्त तीन महीने के भीतर की नहीं है। लेकिन मैने जब यह कहा कि इस सामान की रसीद तो है नहीं कि सबूत के तौर पर पेश कर दूँ। तुम्हें अगर मेरी बात पर भरोसा हो तो उसे वापस ले लो नहीं तो मेरा घाटा तो हो ही रहा है। वह जब किसी काम का नहीं रह जाएगा तो हम कबतक उसे ढोते रहेंगे।
मेरी इस बात का जाने क्या असर हुआ कि वह तुम्हें वापस लेने पर राजी हो गया। बस एक शर्त रख दी कि तुम्हारे असली जन्मदाता जो निर्णय लेंगे उसे ही सबको मानना पड़ेगा। पैसा वापस होने की कोई उम्मीद न करें। उसने साफ़ कहा कि मैं तो दो पैसे के लिए केवल मध्यस्थ की भुमिका निभाता हूँ। माल कोई और बनाता है, इस्तेमाल कोई और करता है। मैं उन्हें केवल मिलवा देता हूँ। …उस दिन मैंने सिर्फ़ इस बात पर संतोष किया था कि घर में बेकार हो चुकी एक चीज हट गयी। तुम चूँकि अपने मूल स्थान वापस जा रहे थे इसलिए एक प्रकार के अपराधबोध से मुक्त होने का भाव तो मन में था ही, लेकिन अपने रूपये डूब जाने की आशंका से मन दुखी भी था।
आज जो तुम पूरी तरह से स्वस्थ होकर वापस मेरे घर मेरी सेवा करने के लिए भेंज दिए गये हो तो मुझे अजीब से भावों ने घेर लिया है। तुम्हें देखकर यह लगता ही नहीं है कि मेरे साथ उस पथरीली दौड़ में तुम्हारे पाँव जाया हो गये थे। तुम्हारा यह लिम्ब ट्रान्सप्लांट किसी कुशल सर्जन का किया लगता है। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं है। सोच रहा हूँ कि मेरे कारण तुम विकलांग हो गये, लेकिन तुम्हारी चिकित्सा में मुझे दमड़ी भी नहीं लगानी पड़ी। मैंने बड़ी चतुराई से उस बाजार की साख पर प्रश्नचिह्न लगा दिया जिस बाजार से मैने तुम्हें खरीदा था। इसका असर यह हुआ कि अगले ने अपनी जबान की रक्षा के लिए सबकुछ दाँव पर लगा दिया।
वह चाहता तो मुझसे टाल-मटोल कर यूँही टहला देता। वह भी तब जब मैने उस शहर से अपने ट्रान्सपर की जानकारी भी उसे दे दी थी। लेकिन वह बन्दा या तो अपनी जबान का बहुत पक्का था या मेरी लानत-मलानत का असर इतना जबर्दस्त था कि उसने मेरा नया पता नोट किया और अपना मोबाइल नम्बर दिया। एक गुप्त कोड नम्बर भी बताया जिसका उल्लेख कर देने भर से वह पूरी बात समझ जाता और संकेत में ही तुम्हारी ‘लेटेस्ट कंडीशन’ बताता रहता। कब तुम अपनी माँ के पास पहुँचे। कब तुम्हारी जाँच करायी गयी, कब ऑपरेशन हुआ। कब अस्पताल से बाहर आये। मुझे पता चला कि तुम्हारे घर वाले तुम्हें हमेशा के लिए वापस रखने को राजी नहीं हुए। यह तय हुआ कि जिसने तुम्हें एक बार खरीद लिया उसी की सेवा में तुम्हें जाना चाहिए। भले ही तुम्हें सेवा के लायक बनाने में उन्हें बड़ा खर्च उठाना पड़े। डॉक्टर ने कहा कि खराब हो चुके अंग को पूरा ही बदलना पड़ेगा। परिवार बड़ा था। जाने कैसे स्पेयर अंग का जुगाड़ हो गया। यदि यह कृत्रिम अंग प्रत्यारोपण है तो अद्भुत है। बिल्कुल ओरिजिनल जैसा।
मुझे क्या, मैं तो बहुत खुश हूँ। खोयी पूँजी लौट आयी है। वह भी घर बैठे ही। बस फोन कर-करके उस मध्यस्थ को ललकारता रहा। उसने भी अपनी जबान पूरी करने की कसम खा ली थी। उसने तुम्हारे परिवार को फोन कर-करके तुम्हारे ठीक हो जाने के बाद अपने पास बुला ही लिया। तुम बोल नहीं सकते इसलिए तुम्हारे गले में मेरे नये घर का पता लिखकर टाँग दिया और रवाना कर दिया। तुम्हें पहुँचाने वह खुद तो नहीं आया लेकिन वहाँ से यहाँ तक पड़ने वाले हर स्टेशन पर उसके भाड़े के आदमी मौजूद थे। मुझे पता चला कि उस आदमी ने तुम्हारी बीमार हालत में तुम्हें तुम्हारे जन्मस्थान तक हवाई जहाज से भेंजा। तुम्हारी वापसी यात्रा भी हवाई मार्ग से हुई है।
मुझे दो सप्ताह से तुम्हारा इन्तजार था। इंटरनेट बता रहा था कि तुम दिल्ली से नागपुर ्के लिए २६ तारीख को उड़ चुके हो। बाद में २७ ता. को नागपुर से वर्धा भी चले आये हो। लेकिन वर्धा स्टेशन से मेरे घर तक आने में तुम्हें पन्द्रह दिन लग गये। आज पता चला कि जिस आदमी को तुम्हें पहुँचाने की जिम्मेदारी दी गयी थी वह बीमार हो गया था। तुम्हें अपने घर पर ही रखे हुए था। आज पूछताछ करवाने पर वह तुम्हें लेकर आया।
आज जब तुम मेरे घर वापस आये हो तो लम्बी यात्रा की थकान तुम्हारे चेहरे पर साफ झलक रही है। तुम्हारी `बेडिंग’ के भी चीथड़े हो गये हैं। जाने कितने लोगों के हत्थे चढ़ने के बाद तुम अपने असली ग्राहक के पास वापस आ गये। अब सबकुछ ठीक हो जाएगा।
अब मैं तुम्हारे साथ कोई बुरा बर्ताव नहीं कर सकता। अपने पिछले दुर्व्यवहार पर पछता रहा हूँ। अब तुम्हें उस तरह तंग करने की सोच भी नहीं सकता। कल सुबह तुम्हारी मालिस-पॉलिश अपने हाथ से करूंगा। तुम्हारी आज जो सूरत है वह मेरी उस गलती की याद दिला रही है। उसे हमेशा याद रखने के लिए तुम्हारी एक तस्वीर खींच लेता हूँ। बुरा मत मानना। अब तो मैं तुम्हें बहुत लाड़-प्यार से रखने की सोच रहा हूँ। चिंता मत करना इस बीच अपनी सेवा के लिए मैने कुछ और ‘साधन’ जुटा लिए हैं। सारा बोझ अकेले तुमपर नहीं डालूंगा। तुमको दौड़ पर साथ ले जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अब तुम अपनी जमात के वी.आई.पी. हो चुके हो। बस, अब इतना ही। तुम्हारा बोधप्राप्त हितचिंतक…
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
क्या बात है चरण-आवरण के नाम आपकी ये पोस्ट जोरदार है ।
ReplyDeletevaah bhaayi vaah koi to he jisne chrn paduka kaa jivnt chitrn kiyaa vese khavt he ke kisi ke chritr kaa aaynaa uske chrn padukaaon ka haal dekh kr lgaya ja skta he or apane is siddhaant pr hi bhut kuch likh dala he bhut khub bdhayi ho. akhtar khan akela kota rajsthan
ReplyDeleteओल्ड इज गोल्ड वरना अब तो लोगों की पसंद बड़ी नुकीली है -पढ़ा पहाडा ,निकला जूता -दाद देनी होगी इस लेखन शैली की !
ReplyDeleteजूता पुराण बढ़िया है ..!
ReplyDeleteसिद्धार्थ जी बस थोडा लम्बा हो गया, मुझे तो लगा था कि यह वही जूता तो नहीं जो कभी बुश के सर तक जा चढता है और कभी उमर अबदुल्ला के। आपके इन तात को हमारा भी जूतास्पर्श। चरणस्पर्श तो आजकल होता नहीं बस सब जूते को ही स्पर्श करते हैं या फिर घुटने को ही। बढिया पोस्ट, बधाई।
ReplyDeleteक्या बात है भाई...पोला पर्व से सीधे जूता पर्व पर आ गये। अब आपके इस जूता चिन्तन के बारे में हम क्या कह सकते हैं।
ReplyDeleteमजेदार जी.
ReplyDeleteये जूता पुराण जबर्दस्त्त रहा ..शानदार लेखन शैली रही.
ReplyDeleteजब तक काम आएगा... घसीटते रहो :)
ReplyDeleteअद्भुत!!!
ReplyDeleteबहुत देर तो समझ में ही नहीं आया कि कौन हैं यह वीआईपी।
ReplyDeleteडैडी,
ReplyDeleteतुम्हारे लिखने का तो जवाब नहीं। कोई यह तबतक नहीं समझ पाएगा कि यह पोस्ट एक जूते के बारे में है जबतक वह जूते कि फोटो नहीं देख लेगा।
ऐसा लग रहा है कि यह पोस्ट एक अनाथ बच्चे के
बारे में है।
Ha...Ha...Ha... :)
यह पोस्ट टिप्पणी करने लायक नहीं!
ReplyDeleteचरण स्पर्श मांगती है।
सन्नाट..बहुत ही वी आई पी कवरेज मिली. :)
ReplyDeleteबेहतरीन, मजा आ गया.
हे भगवान!
ReplyDeleteइन जूतों की चरणवन्दना करने को मन करता है। जूतों के चरण किधर होते हैं?
'जूता' सही है या 'जूते' - मेरा मतलब कि इस/न की चर्चा करते एकवचन का प्रयोग किया जाना चाहिए या बहुवचन का?
कंफ्यूज हो रहा हूँ अनुज! शंका समाधान करो।
एक बात तय है - 'चरण पादुका' प्रयोग ग़लत होता है क्यों कि पादुका में पाद यानि चरण सम्मिलित है। यह बात अख्तर खान जी के लिए कही है। वैसे आप ने भी प्रयोग किया है क्या? मुझे तो नहीं दिखा।
... जूतों ने अच्छी बकबक करा दी। आभार।
@गिरिजेश राव
ReplyDeleteजूता और जूते दोनो सही हैं। जब पहनने के काम आयें तो ‘जूते’ हैं और बाकी (प्रहार या प्रक्षेपण आदि करने के) समय में एक जूता भी काम आ जाता है।
संयोग से मैने चरण-पादुका का प्रयोग नहीं किया है। वस्तुतः मैंने इसके किसी भी पर्यायवाची का प्रयोग नहीं किया है। जूते का भी नहीं:)
अब क्या कहूँ......
ReplyDeleteग्रेट !!!
बडे दिन बाद लौटा तो पाया कि आप नेहरू का नगर छोड़ गांधी के सेवाग्राम पहुँच गये हैं. नये स्थान हेतु शुभकामनायें.
ReplyDeleteकाश जूते की फ़ोटो उपर ही टांग दी होती :)
ReplyDeleteवागीशा जी के कमेंट से बिल्कुल सहमत हूं। ले्खनकला की दाद तो देना भूल ही गया। बधाई।
ReplyDeleteपहले तो मैं समझ ही नहीं पाया कि आखिर किस वी आई पी की बात हो रही है , सचमुच प्रशंसनीय ही नहीं अद्भुत है आपकी लेखन शैली, अच्छा लगा पढ़कर !
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