हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

हाय रे तेरी किस्मत...

 DSC00173

तीर्थयात्रा से लौटकर दुबारा कामकाज सम्हालने को जब मैने ऑफिस में प्रवेश किया तो पाया कि नये बॉस ने कदम रखते ही यहाँ रंग-रोगन लगवाकर, गमले रखवाकर, सुनहले अक्षरों में नामपट्टिका लगवाकर और ‘फेसलिफ्ट’ के दूसरे तमाम उपायों द्वारा यह संकेत दे दिया है कि अब हमारा कोषागार किसी कॉर्पोरेट ऑफिस की तरह ही चाकचौबन्द  और समय की पाबन्दी से काम करेगा। सब कुछ चमकता-दमकता हमारे कॉन्फिडेन्स को बढ़ाने वाला था।

अपने कक्ष में जाकर मैने मेज पर लगी फाइलों, बिलों व चेकों के अम्बार को एक-एक कर निपटाना शुरू किया। बीच-बीच में बुजुर्ग पेंशनर्स का आना-जाना भी होता रहा। करीब तीन घण्टे तक लगातार दस्तख़त बनाने के बाद मेज साफ हुई और मुझे यह सोचने की फुर्सत मिली कि घर से क्या-क्या काम सोचकर चले थे।

वायरल हमले से त्रस्त बच्चों व पत्नी की दवा, खराब हो गये घर के कम्प्यूटर को ठीक कराने के लिए किसी तकनीकी विशेषज्ञ की खोज, हिन्दुस्तानी एकेडेमी में जाकर वहाँ होने वाले आगामी कार्यक्रम की तैयारी की समीक्षा, वहाँ से प्रकाशन हेतु प्रस्तावित पुस्तक के लिए ब्लॉगजगत से प्राप्त प्रविष्टियों का प्रिन्ट लेकर उसे कम्पोजिंग के लिए भेंजना, इसी बीच ट्रेनिंग के लिए परिवार छोड़कर एक सप्ताह के लिए लखनऊ जाने की चिन्ता और अपनी गृहस्थी के तमाम छोटे-छोटे लम्बित कार्य मेरे मन में उमड़-घुमड़ मचाने लगे। मेज पर हाल ही में लगा पुराना कम्प्यूटर कच्छप गति से बूट हो रहा था। नेट का सम्पर्क बार-बार कट जा रहा था। लैन(LAN) की खराबी बदस्तूर कष्ट दे रही थी। चारो ओर से घिर आयी परेशानियों का ध्यान आते ही मन में झुँझलाहट ने डेरा डाल दिया।

तभी एक नौजवान कमरे में दाखिल हुआ। चेहरा कुछ जाना-पहचाना लगा। उसने जब एक कागज मेरे सामने सरकाया तो ध्यान आया कि दो-तीन सप्ताह पहले यह एक विकलांग लड़की को पहिए वाली कुर्सी पर बिठाकर ले आया था। उस लड़की को अपने पिता की मृत्यु के बाद पारिवारिक पेंशन स्वीकृत हुई थी। उसी पेंशन के प्रथम भुगतान से पहले दो गवाहों के माध्यम से की जाने वाली औपचारिक पहचान के लिए वह लड़की मेरे सामने लायी गयी थी।

imageइस लड़के की चचेरी बहन थी वह लड़की। मुझे याद आया कि इसने उसकी पेंशन दिलाने में जो मदद की थी उसके लिए मैने इसे  शाबासी दी थी, और पेंशन का चेक उस लड़की के बैंक खाते में तत्काल भिजवा दिया था। वही लड़का आज कुछ परेशान सा जब मुझसे मिला तो मैने पूछा-

“क्या हुआ? पेंशन तो मिल गयी न...?”

“नहीं सर, बैंक वाले बहुत परेशान कर रहे हैं” उसके स्वर में अजीब शान्ति थी।

“क्यों, क्या कह रहे हैं...?”

“आपने तो देखा ही था... वह बोल नहीं पाती है। अनपढ़ है। हाथ-पैर भी सीधे नहीं हैं। सिग्नेचर बना नहीं सकती है।”

“बैंक वालों ने उसका खाता तो खोल ही दिया था न...। शायद उसकी बड़ी बहन के साथ संयुक्त खाता था...?” मैने मस्तिष्क पर जोर देते हुए पूछा।

“जी सर, खाते में पैसा भी चला गया है। ...लेकिन जब पैसा निकालने गये तो बोले कि यह पेंशन का पैसा है इसलिए इसे बड़ी बहन के दस्तख़त से नहीं निकाला जा सकता।”

“फिर उसका अंगूठा क्यों नहीं लगवा लेते? ...अपने सामने अंगूठा निशान लगवाकर प्रमाणित करें और भुगतान कर दें।” मैने आसान हल सुझाया।

“नहीं सर, वो कहते हैं कि जब तक लड़की से पूछने पर वह बताएगी नहीं कि वह फलाँ है, और अमुक धनराशि निकालना चाहती है तबतक कोई बैंक अधिकारी उसका अंगूठा निशान प्रमाणित नहीं करेगा।” उसने परेशानी बतायी।

“...तो फिर अभिभावक के रूप में बड़ी बहन के साथ संयुक्त खाता इसीलिए तो खोला गया होगा कि वह पैसा निकाल सके और अपनी विकलांग बहन का भरण-पोषण कर सके?”

मैने पूछा तो उसने बताया कि मैनेजर साहब इसे बैंककर्मी की गलती से खोला गया खाता बता रहे हैं और पेंशन का पैसा वापस भेंजने को कह रहे हैं। कहते हैं कि अक्षम बच्चे के लिए केवल माँ-बाप ही गार्जियन हो सकते हैं। दूसरा कोई तभी अभिभावक बन सकता है जब उसे सक्षम न्यायालय अधिकृत करे।

“...वैसे उसके परिवार में और कौन लोग हैं?” मैने उत्सुकतावश पूछ लिया।

“कोई नहीं सर...। चाचा-चाची दोनो मर चुके हैं, तभी तो उसे फेमिली पेंशन मंजूर हुई है। केवल यही दोनो अकेले शहर में रहती हैं। चाचा ने हम लोगों से अलग होकर यहाँ एक छोटा सा मकान बनवा लिया था। हम लोग गाँव पर रहते हैं। इन लोगों का अब गाँव पर कुछ नहीं है।”

“क्यों? तुम्हारे चाचा का हिस्सा तो खेती-बाड़ी में रहा होगा।” मैने उससे कुछ और जानने के उद्देश्य से पूछा।

“ऐसा है सर, चाचा बहुत दारू पीते थे। पुलिस में सिपाही थे। केवल दो बेटियाँ थीं जिसमें एक विकलांग ही थी। इसलिए सब कुछ बेंच-बेंचकर पीते गये। कहते थे- किसके लिए बचाकर रखूंगा...” वह बेहद भावशून्य चेहरे से बता रहा था।

“जब रिटायर हुए तो पता चला कि चाची को कैंसर है। उनके इलाज में भी बाकी जमीनें बिक गयीं। ...अन्ततः चाची मर भी गयीं और चाचाजी कंगाल हो गये।” उसका चेहरा बेहद शान्त था।

मैने पूछा कि जब वे रिटायर हुए होंगे तो तीन-चार लाख रूपये तो मिले ही होंगे। उनका क्या हुआ?

“चाची के मरने के तुरन्त बाद चाचा को पता चला कि उनके गले में भी कैंसर है। ...तीन बार ऑपरेशन कराया गया। बहुत महंगा इलाज चला..., लेकिन तीसरे ऑपरेशन के आठ दिन बाद वे भी मर गये।” वह यन्त्रवत्‌ बताता जा रहा था।

“उफ़्फ़्‌” मेरे मन में पीड़ा भर गयी। मैं उसकी ओर देख नहीं पा रहा था, “फिर तो कोर्ट का ही सहारा लेना पड़ेगा उसकी बड़ी बहन को अभिभावक बनाने के लिए...”

“सर मैं कोर्ट से भी लौट आया हूँ। ...जज साहब ने कहा कि किसी को इसका गार्जियन तभी बनाया जा सकता है जब यह पुष्ट हो जाय कि यह पागल और मानसिक दिवालिया है। इसके लिए सी.एम.ओ. (Chief Medical Officer) से लिखवाकर लाना होगा।”

“तो क्या सी.एम.ओ. के यहाँ गये थे?”

“जी सर, लेकिन वहाँ भी काफी दौड़ने के बाद डॉक्टर साहब ने कह दिया कि यह लड़की जब पागल ही नहीं है तो कैसे लिख दें कि पागल है। ...कह रहे थे कि विकलांग होने में और पागल होने में बहुत अन्तर है।”

“उनसे कहो कि यह लिख दें कि इसकी शारीरिक विकलांगता और मानसिक अक्षमता इस प्रकार की है कि बैंक खाते का संचालन नहीं कर सकती...। इसके आधार पर तो जजसाहब को उसका अभिभावक बड़ी बहन को बना देना चाहिए।” मैने आशा जतायी।

“अब मैं बिल्कुल हार चुका हूँ साहब... मैं खुद ही गरीब परिवार का हूँ। इस चक्कर में मेरे अपने बड़े भाई ने मुझे अलग कर दिया है क्योंकि मैं चाचा की लड़कियों की सहायता में अपने घर से पैसा खर्च करता हूँ। ...बोले कि अपना हिस्सा बाँट लो और उसी में से खर्च करो इनके ऊपर... मैं अपना नहीं लगाने वाला...।”

अब मैं निरुत्तर हो चुका था। उस लड़के की परिस्थितियाँ विकट थीं... और उससे भी अधिक कठिन उस विकलांग बालिका व उसकी बड़ी बहन की जिन्दगी थी जिनकी बीस व बाइस की उम्र के आगे पीछे कोई नहीं था। इस लड़के का धीरज जवाब दे रहा था। उसने बताया कि पेंशन के एरियर से बड़ी वाली की शादी करना चाहता था और उसके बाद मासिक पेंशन से छोटी वाली का गुजारा हो जाता लेकिन...

मैने बैंक मैनेजर को फोन मिलाया तो उन्होंने यह साफ़ कर दिया कि माँ-बाप के अलावा ‘नेचुरल गार्जियन’ केवल कोर्ट के ऑर्डर से ही बनाया जा सकता है। बिना उस ऍथारिटी के हम पेंशन का पेमेण्ट नहीं कर सकते।

...इसके बाद मुझे अपनी छोटी-मोटी परेशानियाँ क़ाफूर होती नजर आयीं। अब तो उस लड़की की कठिनाई में मन उलझ सा गया है।

अन्ततः हम इस उलझन को सुलझाने के लिए विशेषज्ञों की राय आमन्त्रित करने को मजबूर हुए हैं, मामला अभी लम्बित है। ध्यान रहे कोषागार से पेंशन का भुगतान शत-प्रतिशत पेंशनर के बैंक खाते में ही किए जाने का प्राविधान है।

किसी उचित समाधान के लिए आप अपनी राय देना चाहेंगे क्या?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

25 टिप्‍पणियां:

  1. Wishshadnya to nahee hoon isliye kya kahoon / Ladkee ki madad ho jay yahee prarthana hai.

    जवाब देंहटाएं
  2. अरे भाई, बुरा न मानना सरकारी काम ऐसे ही होता है। बेचारा लड़का बाईपास वाला रास्ता पकड़ना ही नहीं चाहता। बहुत भोला है क्या?

    3 महीने से मैं अपने घर के बगल में खुले मैनहोल का चैम्बर नहीं बनवा पा रहा हूँ - स्वस्थ व्यक्ति हूँ, छोटा सा काम । विकलांगों की कौन सुध ले?
    नगर निगम वाला जल संस्थान भेजता है। जल संस्थान वाला कहता है कि आप के पत्र में त्रुटि है। कल एक टुच्चा सा ठीकेदार आया था, श्रीमती जी से बोल गया कि इसमें बच्चे या गाय कैसे गिर सकते हैं? आप ने यह क्यों लिखा? कोई गिर कर मर जाय तभी मानेंगे। तुर्रा ये कि कोई पत्र की पावती भी देने को तैयार नहीं। बड़ी मुश्किल से दिया तो सिर्फ हस्ताक्षर और डेट, न नाम न मुहर। बताया गया ऐसे ही होत है। जल संस्थान के मुख्य ऑफिस माँ फैक्स तक नहीं ! माया बहिनी पत्थर दर पत्थर लगवाने में करोड़ो खरच रही हैं...... छोड़ यार, तुम भी कहोगे कहाँ सुबह सुबह पकड़ कर सुनाने लगे !
    _______________________
    कानूनी राय लो। अपने दिनेश राय द्विवेदी जी हैं ना। एक ठो नोटिस भेजवा तो बैंक वालों को। फिर देखो कैसे भरतनाट्यम करते नजर आते हैं। सब कुछ नियमावली से निकल आएगा। बड़े घामड़ होते हैं ससुरे। मुझे होम लोन देने में इतनी आनाकीनी की थी - आखिरकार उनकी नियमावली में से ही रास्ता निकल आया।

    जवाब देंहटाएं
  3. ये तो बडी उलझन है। तरह तरह की परेशानियां ।

    कानूनी जानकार न होने के कारण इस पर मैं कुछ कह सकने की स्थिति में नहीं हूँ सिवाय इसके कि कोर्ट या वकील का सहारा लिया जाय।

    Adoption कानून शायद इसमें मदद करे।

    जवाब देंहटाएं
  4. सरकारी कामकाज का यही ढंग है ...अफसरों की भी गलती नहीं ...नियम से हटकर कुछ करे तो गाज उन पर ही गिरेगी ...भावना कितनी ही सही क्यों न हो ..!!

    जवाब देंहटाएं
  5. हम तो घबरा जाते हैं इन नियमों से । हमे तो कुछ भी नहीं पता इसका समाधान ! द्विवेदी जी ही बतायेंगे ।

    जवाब देंहटाएं
  6. क्या राय दें..अभी तो पढ़कर दुखी मन लिए बैठे हैं.

    जवाब देंहटाएं
  7. सरकारी सेवा में रहते हुए तो कोई जवाब नहीं बन पायेगा !

    जवाब देंहटाएं
  8. परिस्थिति तो दुखद है ही लेकिन आपकी सम्वेदना सराहनीय है। दिनेश भाई या और कोई कानूनी बिशेषज्ञ से ही कुछ रास्ता बताने की अपील करता हूँ ताकि उस पीड़िता को मदद मिल सके।

    सादर
    श्यामल सुमन
    www.manoramsuman.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  9. बैंक का कोई सहृदय अधिकारी ही इस समस्‍या को सुलझा सकता है। बैंक मेनेजर चाहे तो स्‍वयं प्रमाणित कर सकता है।

    जवाब देंहटाएं
  10. त्रिपाठी जी, समस्या बहुत गंभीर है। अनेक बार ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं जिन में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं होते। यहाँ भी ऐसी ही परिस्थिति है। लेकिन यहाँ परेशानी किसी प्रावधान के कारण उत्पन्न नहीं हुई है अपितु बैंक की हठधर्मी के कारण उत्पन्न हुई है। इस में बैंक अपनी गलत खाता खोलने की गलती भी स्वीकार कर रहा है। यह एक उपभोक्ता मामला भी है। इस मामले में आप द्वारा दिए गए विवरण से लड़की की विकलांगता का प्रकार पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो रहा है। फिर भी प्रत्येक जिला मुख्यालय पर जिला जज की अध्यक्षता में स्थाई लोक अदालतें स्थापित हैं। स्थाई लोक अदालत में बहिन या चचेरे भाई को वाद मित्र बनाते हुए तथा बैंक और पेंशन विभाग को पक्षकार बनाते हुए मामले की शिकायत प्रस्तुत कराएँ। स्थाई लोक अदालत मामले की जटिलता को समझ कर उचित आदेश दे सकती है।

    जवाब देंहटाएं
  11. मन खिन्न सा हो जाता है.. ये सब पढ़ सुनकर.. खुद को बिलकुल असहाय महसूस कर रहा हूँ.. पर सच कहू तो मैं भी इस किस्से को ज्यादा से ज्यादा दो दिन याद रखूँगा.. संवेदनायो की उम्र बहुत छोटी हो गयी है आजकल.. या फिर उन्हें हमने सिर्फ रियलिटी शो के लिए बचाकर रखा है..

    अभी तो उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना कर सकता हूँ.. जल्द ही उनका काम हो जाए..

    जवाब देंहटाएं
  12. जब सिस्टम (न्यायालय और सम्बंधित विभाग) अपने आपको सुस्त और अक्षम बता रहा है तो पीड़ित जनता का क्या भला होगा.

    नियम कानून तो नागरिकों के कल्याणार्थ बनाए जाते हैं. ये हिन्दुस्तान में हमार दुर्भाग्य है की कल्याण की मंजिल भयंकर कष्ट से गुजरने के बाद मिलती है (या नहीं भी मिलती है).

    डा० श्रीमती गुप्ता के अनुसार बैंक का कोई सहृदय अधिकारी ही इस समस्‍या को सुलझा सकता है। बैंक मेनेजर चाहे तो स्‍वयं प्रमाणित कर सकता है। कुछ अछे लोगो / बैंक-कर्मियों की मौजूदगी में मैनेजर ऐसा करने के लिए प्राय स्वतंत्र होते हैं. मुझे नहीं लगता की भविष्य में मैनेजर पर कोई गाज गिरेगी. ऐसा करने पर हम मैनेजर की प्रशंसा करेंगे.

    जवाब देंहटाएं
  13. sach mann udas ho gaya,ishwar kare koi hul nikle aur us bachhi ki maddar ho jaye.

    जवाब देंहटाएं
  14. ऐसे मे गुस्सा ही आता है।क्या कर सकते हैं अपने ही खून का घूंट पीने के सिवाय जी तो चाहता है की खून पी जाऊं……………………………।

    जवाब देंहटाएं
  15. नियम/कानून और अक्षमता/रेडटेपिज्म के स्तर की समस्या है। समाधान तो उससे इतर - संवेदना/रिश्वत/दबंगई/राजनीति/ईश्वरेच्छा के स्तर पर तलाशना होगा।

    जवाब देंहटाएं
  16. मन खिन्न हो जाता है ऎसे समाचार सुन कर ,क्या बेंक बाले अंधे है देख नही सकते इस बच्ची को.
    अब क्या राय दे अपनी इस अंधेर नगरी मै, आप का लेख पड कर मन दुखी हो गया, क्या बीतती होगी इन गरीब बच्चो पर

    जवाब देंहटाएं
  17. डी एम के समक्ष एक एप्लीकेशन दीजिये । सारी कहानी बयां कीजिये । दानों बहने डी. एम. के समक्ष उपस्थित हों । डी एम को पावर है अगर वो सर्टिफाई कर देते हैं तो बैंक मान जायेगी ।

    जवाब देंहटाएं
  18. शायद इन सुझावों में से कुछ काम आये. बाकी प्रार्थना करने के अलावा हम कर भी क्या सकते हैं?

    जवाब देंहटाएं
  19. त्रिपाठी जी,
    सरकारी नियमों की यही जड़ता है जिसके कारण सही आदमी चक्कर काटता है और चालबाज अपना काम बना लेते हैं। आज़मगढ़ के ’मृतक’ जी का प्रकरण इसका ज्वलंत उदाहरण है।
    मेरे एक मित्र सड़क के किनारे मकान बना रहे थे। सामने एक पेड़ था उनका आवागमन अवरुद्ध हो रहा था। उन्होने थ्रू प्रॉपर चैनल दो साल तक कार्यवाही की लेकिन पेड़ टस से मस नहीं हुआ। फिर जंगल विभाग के एक कर्मी ने उक्ति सुझाई और पॆड़ हट गया। हुआ यह कि रात में कथित रूप से एक ट्रक पेड़ से टकराया और पेड़ धराशायी हो गया, जिसे जंगल विभाग वाले बाद में उठा ले गये। यह भी बता दूँ कि यह युक्ति उन्हे सबसे पहले अनुभवी लोगों ने सुझाई थी लेकिन तब उन्हे अपने कानून पालक नागरिक होने का बड़ा गर्व था।
    कानून और व्यवस्था की बहुत सी समस्यायें (नक्सली समस्या सहित) इसी संवेदनहीनता से उपजती हैं। हम उस पीड़िता से केवल सहानुभूति व्यक्त कर सकते हैं बस!

    जवाब देंहटाएं
  20. स्वागत है... आशा है तीर्थयात्रा सुखद रही होगी।

    जहाँ तक इस पसेमंजर मसले की बात है, कानून की आँखों की पट्टी खोलने के कई तरीके सुझा दिये गये हैं। उम्मीद है, कोई काम कर जाये।

    जवाब देंहटाएं
  21. कभी-कभी तो मुझे लगता है कि संवेदनशील होना अपने-आपमें एक ग़ुनाह है.

    जवाब देंहटाएं
  22. us din post padhkar mai chuppi sadh gaya kyonki ispar koi spast ray nahi de sakta tha, aaj jab ye dekhne baitha ki dekhen kya suggestions aaye hain to lagbhag sabhi log ye case bhagwan ko samarpit karte najar aa rahe hain. chaliye meri taraf se bhi bhagwan bhala karen.......

    जवाब देंहटाएं
  23. वाकई सरकारी ऑफिस भी संवेदना के श्रोत्र हो सकते हैं ...........सिड अच्छा लिखा आपने......तीर्थ यात्रा कहाँ की कर आये?

    जवाब देंहटाएं
  24. बस पढ़ कर एक क्रोध मिश्रित खिन्नता ही आती है. कुछ सलाहें मिली हैं ,शायद कुछ रास्ता भी निकले.
    आपसे मिलना रह गया देखिये कब होता है.
    दीवाली की शुभकामनायें.

    जवाब देंहटाएं
  25. तब से अब तक काफी बर्फ गिर चुकी है, उत्सुकता है यह जानने की कि अंततः क्या हुआ? सरकार पेंशन बाँध सकती है तो पेंशन को गरीब के हाथ तक पहुँचने का तरीका भी बनाना चाहिए. क्या यह फ़रियाद डीएम् तक पहुँच सकी?

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणी हमारे लिए लेखकीय ऊर्जा का स्रोत है। कृपया सार्थक संवाद कायम रखें... सादर!(सिद्धार्थ)