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सोमवार, 7 सितंबर 2009

प्रगति मैदान के पुस्तक मेले से खबरें अच्छी नहीं हैं...

 

किताबों की खुसर-फुसर... भाग-४

“...स्टॉल में रखी किताबें एकदम अकेली हैं। उनका अकेलापन अस्तित्ववादी नयी कविता और नयी कहानी के अकेलेपन से ज्यादा बड़ा सच है और भयावह है। दूर-दूर तक कोई नहीं दिखता। दिखते हैं तो ऊँघते प्रकाशक और उनके कर्मचारी। लोग उनतक नहीं पहुँच रहे हैं। ज्यादा से ज्यादा यही किया जा सकता है कि मेला लगा दिया जाय, लेकिन अगर कोई नहीं आए तो क्या करें?”

यह दृश्य दिल्ली के प्रगति मैदान का है और यह व्यथा बयान कर रहे हैं दैनिक हिन्दुस्तान के सम्पादकीय पृष्ठ पर श्री सुधीश पचौरी जी जो ‘बिन्दास’ नाम से स्तम्भ लिखते हैं। यह पढ़कर मुझे वह खुसर-फुसर फिर याद गयी जो मैने पिछले दिनों सत्यार्थमित्र पर आपसे बाँटना शुरू किया था, लेकिन बात पूरी नहीं हो पायी थी। मैने हिन्दुस्तानी एकेडेमी सभागार में आयोजित एक पुस्तक विमोचन समारोह के समय इस संस्था के बिक्री अनुभाग की आलमारियों में बन्द (कैद) किताबों का कष्ट वहाँ बैठकर देखा और सुना था।

इस संस्था ने अबतक हिन्दी की लगभग डेढ़ सौ और उर्दू की क़रीब तीस पुस्तकों का प्रकाशन किया है। इनमें से कोई पच्चीस किताबें तो पिछले डेढ़-दो वर्ष के भीतर ही आयी हैं। इन्ही नयी नवेली किताबों की आपस में जो बतकही सुनायी दी थी उससे मेरा मन खिन्न हो गया था।

abhidharm1 Bhartiya Jyotish Me Prayag Diye Ka Raag रामकथा और तुलसीदास Vrat aur parva घाघ और भड्डरी

(पुस्तकों को बड़ा करके देखने के लिए उनपर चटका लगाएं)

मैने बिक्री अनुभाग के उस कमरे में देखा कि डॉ. कविता वाचक्नवी की लिखी एक पुस्तक इस बात से तो खुश थी कि पाण्डुलिपि के रूप में लम्बा समय अज्ञातवास के रूप में बिताने के बाद अन्ततः आकर्षक रूप में इसका प्रकाशन हो गया और समारोह पूर्वक लोकार्पण भी करा दिया गया, लेकिन बड़े साहित्यिक मंचों और पत्र-पत्रिकाओं में इस शोधपरक कृति की समीक्षा नहीं होने से निराशा के भाव भी स्पष्ट नजर आ रहे थे। उसे ‘दिये का राग’ ने समझाया कि ऐसी जाने कितनी किताबें इस संस्था की आलमारियों और तहखाने में छापकर रखी गयी हैं जिनको सिर्फ़ लिखने वाला ही भलीभाँति जानता होगा।

ऐसा इसलिए नहीं है कि उनकी गुणवत्ता में कोई कमी है, या उन्हें कोई बेचना नहीं चाहता, बल्कि समस्या यह है कि निजी प्रकाशकों की भाँति बाजार को समझने, प्रचार-प्रसार की आधुनिक तकनीकों का प्रयोग करने और सरकारी विभागों द्वारा थोक खरीद के लिए चयनित कराने की कोई सुविचारित नीति इस संस्था द्वारा न तो बनायी गयी है और न ही उसके क्रियान्वयन का कोई ढाँचा ही खड़ा किया गया है।

PrayagPradeep भारतीय चित्रकला उर्दू साहित्य में हिन्दुस्तानी तहज़ीब ज्ञान कोश सूर्यविमर्श समाज भाषा विज्ञान

कभी देश भर के साहित्यकारों और हिन्दुस्तानी भाषा व साहित्य के अनुरागियों की तीर्थस्थली रही यह संस्था आज योग्य और ऊर्जावान कर्मचारियों तथा पूर्णकालिक पदाधिकारियों की कमी का दंश झेल रही है। शासन ने स्थानीय प्रशासनिक अधिकारियों को इस संस्था को संचालित करने की अतिरिक्त जिम्मेदारी सौंप दी है। संस्था के मनोनीत सचिव द्वारा अपनी व्यक्तिगत अभिरुचि के जोर से अनेक उम्दा पुस्तकों के प्रकाशन कराये गये और कुछ उपयोगी विचार गोष्ठियाँ भी करायी गयीं। लेकिन ऐसे अधिकारी के पास अपने मूल विभाग के प्रशासनिक कार्यों से जो समय बचता है वह इस गुरुतर कार्य के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता।

“तुम्हें क्या लगता है, यह दुकान वृद्ध हो चले दरबारी जी के हाथों में कितने दिन और चल पायेगी..?” प्रयाग प्रदीप ने  विजयदेव नारायण शाही के छँठवा दशक से पूछा।

श्री शालिग्राम श्रीवास्तव की १९३७ में प्रकाशित यह पुस्तक पाठकों की भारी मांग पर पुनर्मुद्रित होकर हाल ही में आयी है। इलाहाबाद से किसी भी रूप में जुड़े होने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह पुस्तक अनिवार्य संग्रह के लायक है, लेकिन पुरानी साख के बावजूद इसकी बिक्री भी बहुत उत्साहजनक नहीं है।

निराला की काव्यदृष्टि Diye Ka Raag Maa ke Liye Chawal Naye-Naye Kavita Ki Jatiyata सूर्यविमर्श

इस अनुभवी प्रश्न का जवाब दिया नये नवेले सूर्य विमर्श ने, “पिछले दिनों यहाँ से  पुस्तकालयाध्यक्ष, बिक्री सहायक, विपणन प्रभारी, प्रकाशन अधिकारी, वेब साइट संचालन विशेषज्ञ, आदि अनेक पदों हेतु प्रस्ताव किया गया है। लेकिन समस्या यह है कि इस स्वायत्तशासी संस्था की शक्तियाँ जिस कार्य परिषद में निहित हैं उसका अस्तित्व ही अधर में लटका हुआ है। कार्यपरिषद के गठन और उसके द्वारा सर्व शक्तिमान कार्य समिति के चुनाव के बाद ही कार्मिक प्रबन्धन किया जा सकता है।”

“फिर तो यह काफी लम्बी प्रक्रिया लगती है... शायद निकट भविष्य में पूरी होती नहीं दिखती...” घाघ और भड्डरी ने सहज अनुमान लगाते हुए बात पूरी की।

फादर (डॉ.) कामिल बुल्के द्वारा १९७६ में दिये गये व्याख्यान पर आधारित लोकप्रिय पुस्तक रामकथा और तुलसीदास के तीसरे संस्करण ने बताया कि जब वह पहली बार १९७७ में छपकर आयी थी तब भी ये कर्मचारी इसी प्रकार एकेडेमी की सेवा कर रहे थे। सरकारी अनुदान से इन्हें जो वेतन तब मिलता था वही वेतन आज भी मिल रहा है।

हिन्दुस्तानी लेख अनुक्रमणिका छठवा दशक Roop Lahariya Deep Dehari Dwar Keshav Granthavali-1 Hai To Hail

(पुस्तकों को बड़ा करके देखने के लिए उनपर चटका लगाएं)

वर्ष १९३३ में पहली बार प्रकाशित भारतीय चित्रकला के दूसरे नवीन संस्करण ने इन कर्मचारियों का जो चित्र खींचा वह मन को दुःखी कर गया। आजादी से पहले के जमाने से संस्था में जुटने वाले बड़े-बड़े साहित्यकारों और विद्वानों की सेवा में अपने किशोरवय से लगे रहने वाले और एकेडेमी को ही अपने जीवन का श्रेय-प्रेय मान चुके श्री ईश्वर शरण अब छिहत्तर साल की उम्र में कार्यालय अधीक्षक तो बने हुए हैं लेकिन इसके बदले उन्हें जो मानदेय मिल रहा है उससे दो जून की रोटी जुटाना ही दूभर है, अपनी बिटिया की शादी का बोझ कैसे उठाएं? दूसरों की हालत भी इनसे कुछ अलग नहीं है।

“...जो उम्र परिवार के बीच आराम करने की है उसमें एकेडेमी की नौकरी क्यों..?” संस्कृति पुरुष पं. विद्यानिवास मिश्र ने पूछा।

“क्योंकि यहाँ के कर्मचारियों को सेवानैवृत्तिक लाभ दिये जाने की कोई व्यवस्था नहीं है...।” मेरे मुँह से यह बरबस निकल पड़ा। लेकिन दूसरों की दृष्टि में अकारण हवा में बात करता जान कर मैने अपने को संयत कर लिया।

अभिधर्म कोश के चार खण्ड एक साथ बोल पड़े, “जाने क्यों १९६५ के बाद किसी परवर्ती वेतन आयोग की संस्तुति  इन कर्मचारियों पर लागू नहीं हुई। आज जो कर्मचारी यहाँ सबसे ज्यादा वेतन पाता है उसको भी किसी सरकारी चपरासी से आधी तनख्वाह ही मिलती है। १९६५ के वेतनमान अभी भी चल रहे हैं। पेंशन आदि की तो कोई बात ही नहीं है...।”

यहाँ बताते चलें कि  १९४२ के भारत छोड़ो आन्दोलन में आचार्य नरेन्द्र देव अहमदनगर किले की जेल में बन्द किए गये थे। वहीं पर उन्होंने वसुबन्धु कृत बौद्ध दर्शन की व्याख्या के ग्रन्थ का फ्रेन्च भाषा से हिन्दी में अनुवाद किया था। इस अनुवाद के आठ अध्यायों को एकेडेमी ने १९५८ में चार खण्डों में प्रकाशित किया था। इसका दूसरा संस्करण २००८ में प्रकाशित कराया गया है। लेकिन इस अमूल्य निधि को भारतवर्ष और दुनिया के दूसरे हिस्सों में जाने की प्रतीक्षा लम्बी होती जा रही है।

बातें तो और भी जारी थीं, ...लेकिन एक कर्मचारी ने मेरी तन्द्रा भंग करते हुए बताया कि पुस्तक विमोचन समारोह के मुख्य अतिथि महोदय पधार चुके हैं और काम भर की भीड़ भी इकठ्ठा हो चुकी है...। मैने अपनी डायरी उठायी और सभागार की ओर चल पड़ा। पीछे से खुसर-फुसर की आवाजें तेज होती चली गयीं...।

उन बेबस ध्वनियों ने मेरा पीछा करना जारी रखा है...। मैने अपनी सीमाओं के भीतर रहते हुए कुछ रास्ते तलाशने भी जारी रखे हैं। लेकिन पुस्तक मेले की खबरें पढ़ने के बाद मेरे धैर्य की परीक्षा और कठिन हो गयी है।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

 

21 टिप्‍पणियां:

  1. किताबों का दुखड़ा सुनकर मन दुखी हो गया।

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  2. यहां मुंबई में भी लगभग यही हाल है। अंग्रेजी की ऑक्सफोर्ड या क्रॉसवर्ड बुकस्टोर पर तो लोग आते भी हैं, लेकिन हिंदी की किताबों के लिये कहीं किसी को जैसे समय ही नहीं है।

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  3. कई पहलुओं से विचार करने की जरूरत है और एक व्यावहारिक रणनीति भी -अपना प्रयास आप जारी रखें ! आपके आने के बाद कम से कम लोगों को यह तो पता चला की इलाहाबाद में एक हिन्दुस्तानी अकैडमी भी है !

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  4. चँवर में डूबे धान से उपर आसमान को झाँकते पत्ते से लगते हैं हम।
    हम जो हिन्दी की किताबें पढ़ते हैं और कभी जोश में बोलने लगें तो अकेले हो जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? कहीं हम अलग दुनिया में तो नहीं जी रहे? कहीं ऐसा तो नहीं कि जमाना गली नं. 36 में जा रहा है और हम अभी भी गली नं. 63 में हाँक पार रहे हैं?..
    पानी चँवर की खासियत और पहचान लेकिन कभी कभी धान को गला भी देता है।...
    धान की कितनी ही किस्में खत्म हो गईं। जो बची हैं वो मिलावटी हैं। धान को तो पेट भी भरना है- विकराल गति से बढ़ती आँख मूँदे भागती दुनिया का। आम जन का पेट 'काला नमक' चावल से तो नहीं भरेगा, उसे तो 'चाइना 4' चाहिए।
    ...हिन्दी वाले। बहुत जल्दी पाला पटक देते हैं। शायद कुछ को बुरा लगे लेकिन धार के विपरीत चलाना हो या साथ बहते हुए भी अपनी विशिष्टता ऐसे बनाए रखनी हो कि धारा में योगदान भी हो - दोनों में तप, निष्ठा और निरंतरता की आवश्यकता होती है। कितने हैं ऐसे ?
    ब्लॉग जगत में ही कितने ही समर्पित और प्रतिभाशाली लोग कुछ देर हाँक पारने के बाद चुप हो गए!
    ....
    सीमित आय में मैकडोनाल्ड से बच्चे को नए डिश खिला दो या हिन्दी एकेडमी से किताबें ले लो। दोनों नहीं हो सकते। प्राथमिकता क्या होनी चाहिए?
    मैं बैकवर्ड आज भी मेनू कार्ड और किताबों दोनों के पहले दाम देखता हूँ। एक बार ऐसे ही खरीद ली तो एक कविता ही रच मारी थी।
    ...
    लाइब्रेरियाँ और पुस्तकों से बातें ! अच्छी कही। वहाँ शांति होनी चाहिए। शांति भंग करने के लिए हमारे पास समय कहाँ है? लाइब्रेरी तक जाना, पढ़ना और आना, मॉल में सिनेमा जाने के सामने कहाँ ठहरता है!....

    लगे रहो बन्धु। ...धान की 'काला नमक' वेराइटी अभी भी माँग में है। चँवर न तो अभी सूखे हैं और कभी कभी गला देने के उपद्रव के बाद भी धान तो उपजा ही रहे हैं....

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  5. पता नहीं हम कहाँ जा रहे है..

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  6. पुरानी दुर्लभ पुस्तकों के नए संस्करण शीघ्रता से न बिकते हों लेकिन उन की उपलब्धता सुनिश्चित करते हैं। फिर आज मार्केटिंग का जमाना है। इन पुस्तकों की कितनी हुई है आप अच्छी तरह जानते हैं। मार्केटिंग से सड़ी-बासी मिठाई बेची जा सकती है और ताजा मिठाई देखी जा सकती है।

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  7. दुखद

    गनीमत है मेरी अगली पीढ़ी के तराजू में किताबें अभी भी भारी पड़ती हैं

    गिरिजेश राव जी की टिप्पणी ने कुछ और भी सोचने का मौका दिया

    बी एस पाबला

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  8. कोई न कोई कारण तो होगा अपेक्षा का जो..अंग्रेजी में पढने ओर छपने की स्थितिया लगातार बदली ओर सुधरी है

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  9. YE STHITI DUKHAD TO HAI HI ...... PAR IS BAAT KE KAARNO PAR BHI VICHAAR KARNE KI JAROORAT HAI ...... AAJ KE VYAVSAAYIK YUG MEIN AISI PUSTAKON KA BHI PRACHAAR VYAVSAAYIK TAREEKE SE HI HO SAKTA HAI .......

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  10. गिरिजेश जी की टिप्पणी के बाद क्या कहूँ ? अफसोसनाक स्थिति है हिन्दी पुस्तकों की ।

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  11. " पत्र-पत्रिकाओं में इस शोधपरक कृति की समीक्षा नहीं होने से निराशा के भाव भी स्पष्ट नजर आ रहे थे।"

    ऐसा नहीं है बन्धु। कविता वाचक्नवी की कृति ‘कविता की जातीयता’ पर न केवल पत्र-पत्रिकाओं में चर्चा हुई बल्कि ब्लाग पर भी समीक्षाएं लिखी गईं।

    रही बात बिक्री की तो यह सर्वविदित है कि आज ‘खरीद कर’ पुस्तक कोई नहीं पढ़ता:)

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  12. सोचने की बात है - ज्यादा लिखा/कहा और पढ़ा/सुना जा रहा है।
    बस किताबें नहीं बिक रहीं! :(

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  13. गिरिजेशजी की मैकडोनाल्ड और किताब वाली बात जांची हमें तो.

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  14. जब मैं किताबों को दुखी देखता हूं तो मन भारी हो जाता है ।

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  15. kitabe log kharidenge ji bas kuchh vivadit likhiye.sidha-sidha koi padhana nahi chahata.jaswant singh ko dekhiye, karode kama liye hai unhone.

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  16. Kitab se aap bahut kuch seekhtein hain. Dunia ko dekhne parkhne ki drishti deti hain kitabein. Par afsos ki kitabon ko padhne ki pravritti chut si gayi hai shayad isiliye ye dukhdai haalat hain..

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