सम्बन्धित पिछली कड़िया-
किताबों की खुसर-फुसर भाग-१
किताबों की खुसर-फुसर एक क्षेपक
किताबों की खुसर-फुसर एक और क्षेपक
किताबों की खुसर-फुसर भाग-२
किताबों की खुसर-फुसर भाग-१
किताबों की खुसर-फुसर एक क्षेपक
किताबों की खुसर-फुसर एक और क्षेपक
किताबों की खुसर-फुसर भाग-२
पिछले साल मैने एक अत्यन्त प्रतिष्ठित संस्था के एक समृद्ध पुस्तकालय में जाकर वहाँ मौजूद किताबों की जो खुसर-फुसर सुनी थी, उसका वर्णन सत्यार्थमित्र के पन्नों पर दो किश्तों में किया था। लम्बे समय से लकड़ी और लोहे की आलमारियों में जस की तस पड़ी हुई किताबों की भाव भंगिमा देखकर और पीड़ा व उलाहना भरी बातें सुनकर मेरा मन इतना व्यथित हुआ था कि उसके बाद कभी अकेले में उन किताबों के पास जाने की मुझे हिम्मत नहीं हुई। अलबत्ता मैने उनकी कहानी यहाँ-वहाँ प्रकाशित और प्रसारित कराकर यह कोशिश की थी कि सुधी पाठकों और हिन्दी सेवियों के मन में उन बोलती किताबों के प्रति सम्वेदना जागृत हो, और लोग उनका हाल-चाल लेने अर्थात् उनके पन्ने पलटने के लिए पुस्तकालय तक जा सकें।
मेरे इस प्रयास से उन पुस्तकों का कोई भला हो पाया हो या नहीं, लेकिन मुझे यह लाभ जरूर हुआ कि मुझमें कदाचित् एक ऐसी इन्द्री विकसित हो गयी जो किताबों की बातचीत सुन सकती है और उनसे अपनी बात कह भी सकती है। मैने उस पुस्तकालय की सभी किताबों को एक बार पलटवाकर, झाड़-पोंछ कराकर और उनके निवास स्थल की मरम्मत व रंगाई-पुताई कराकर जो पुण्य लाभ अर्जित किया उसी के ब्याज से कदाचित् यह संवाद शक्ति अर्जित हो गयी है। जैसे कोई आयतें उतरकर मेरे जेहन में नमूँदार हो गयी हों। हाल ही में मुझे अपनी इस छठी इन्द्री का अनुभव फिर से हुआ।
उस दिन इस संस्था के सभागार में एक साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित था। एक कहानी संग्रह का लोकार्पण और राष्ट्रीय स्तर के हिन्दी साहित्य के एक विद्वान द्वारा कहानी साहित्य पर एक उद्बोधन होना था। उस समय एक वक्तव्य राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बना हुआ था जिसमें हिन्दी ब्लॉगजगत में कूड़ा प्रकाशित होने की बात कही गयी थी। इस साहित्यिक समागम में इस विषय पर भी कुछ सुनने की उम्मीद थी मुझे। आमन्त्रण पत्र पर छपे समय के हिसाब से मैं दो-चार मिनट पहले ही पहुँच गया था, ताकि सीट मिल जाय और कुछ छूट जाने की आशंका न रहे, लेकिन वहाँ पहुँचने पर बताया गया कि कार्यक्रम शुरू होने में अभी कुछ देर लगेगी, क्योंकि मुख्य अतिथि अभी नहीं पधारे हैं। कुछ अन्य गणमान्यों (VIPs) का भी रास्ते में होना बताया गया।
मैने अन्दर जाकर देखा तो सभागार बिल्कुल सूना था। बैनर, पोस्टर, माइक, स्पीकर, दरी, चादर, कुर्सी, मेज, पानी की बोतल, सरस्वती देवी का फोटो, हार, दीपक, तेल, बाती, मोमबत्ती, दियासलाई, कपूर, माला, बुके, स्मृति चिह्न इत्यादि सामग्रियों को कुछ कर्मचारी यथास्थान जमा रहे थे। आड़ी तिरछी कुर्सियों को सीधा किया जा रहा था लेकिन उन्हें पोछा नहीं जा रहा था। मैने अनुमान किया कि अगले आधे घण्टे में कुछ भी ‘मिस’ नहीं होने वाला है। मैं वहाँ से इत्मीनान से निकलकर पुस्तकालय की दिशा से खुद को बचाता हुआ संस्था के सचिव महोदय के कक्ष में जाकर बैठ गया।
वे फोन पर जमे हुए थे। सामने टेलीफोन नम्बरों की डायरी खुली हुई थी। एक के बाद एक अनेक लोगों का नम्बर मिलाते जा रहे थे और एक ही मज़मून का अनुरोध करते जा रहे थे, “ ...आदरणीय फलाने जी, अभी चल दिए कि नहीं...! सब लोग आ चुके हैं... बस आपकी ही प्रतीक्षा है... जल्दी आ जाइए... आपके आते ही कार्यक्रम शुरू हो जाएगा... हाँ-हाँ, सब लोग हैं, आइए... नमस्कार।”
यह फोनवार्ता इतनी यन्त्रवत् हो रही थी, और विषयवस्तु की इतनी पुनरावृत्ति हो रही थी कि अपनी मुस्कराहट छिपाने के लिए मुझे वहाँ से उठ जाना पड़ा। मैने ठीक सामने वाले कक्ष में कदम बढ़ा दिया, जहाँ इस संस्था द्वारा स्वयं प्रकाशित की गयी पुस्तकों का बिक्री काउण्टर है। इस कक्ष का वातावरण और नक्शा किसी दुकान सरीखा कतई नहीं है। इस कक्ष की चारो दीवारों से सटकर रखे हुए बुकशेल्व्स से एक बड़ा घेरा बनता है जिसके बीच में दो बड़ी-बड़ी मेंजें सटाकर रखी हुई हैं। इनके एक ओर दो कुर्सियाँ लगी थीं जिनमें से एक पर एक वृद्ध व्यक्ति बैठे थे, और कोहनी मेज पर टिकाए कुछ कागजों में खोये हुए थे। मैने अनुमान किया कि ये शायद ‘दरबारी जी’ होंगे जिन्हें सचिव जी ने अभी-अभी ‘हर्षबर्द्धन’ के साथ बुलाया था। मेज पर अनेक नयी ताजी आयी हुई किताबें पड़ी थीं जिनका शायद स्टॉक में अंकन किया जाना था।
मेरे इस प्रयास से उन पुस्तकों का कोई भला हो पाया हो या नहीं, लेकिन मुझे यह लाभ जरूर हुआ कि मुझमें कदाचित् एक ऐसी इन्द्री विकसित हो गयी जो किताबों की बातचीत सुन सकती है और उनसे अपनी बात कह भी सकती है। मैने उस पुस्तकालय की सभी किताबों को एक बार पलटवाकर, झाड़-पोंछ कराकर और उनके निवास स्थल की मरम्मत व रंगाई-पुताई कराकर जो पुण्य लाभ अर्जित किया उसी के ब्याज से कदाचित् यह संवाद शक्ति अर्जित हो गयी है। जैसे कोई आयतें उतरकर मेरे जेहन में नमूँदार हो गयी हों। हाल ही में मुझे अपनी इस छठी इन्द्री का अनुभव फिर से हुआ।
उस दिन इस संस्था के सभागार में एक साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित था। एक कहानी संग्रह का लोकार्पण और राष्ट्रीय स्तर के हिन्दी साहित्य के एक विद्वान द्वारा कहानी साहित्य पर एक उद्बोधन होना था। उस समय एक वक्तव्य राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बना हुआ था जिसमें हिन्दी ब्लॉगजगत में कूड़ा प्रकाशित होने की बात कही गयी थी। इस साहित्यिक समागम में इस विषय पर भी कुछ सुनने की उम्मीद थी मुझे। आमन्त्रण पत्र पर छपे समय के हिसाब से मैं दो-चार मिनट पहले ही पहुँच गया था, ताकि सीट मिल जाय और कुछ छूट जाने की आशंका न रहे, लेकिन वहाँ पहुँचने पर बताया गया कि कार्यक्रम शुरू होने में अभी कुछ देर लगेगी, क्योंकि मुख्य अतिथि अभी नहीं पधारे हैं। कुछ अन्य गणमान्यों (VIPs) का भी रास्ते में होना बताया गया।
मैने अन्दर जाकर देखा तो सभागार बिल्कुल सूना था। बैनर, पोस्टर, माइक, स्पीकर, दरी, चादर, कुर्सी, मेज, पानी की बोतल, सरस्वती देवी का फोटो, हार, दीपक, तेल, बाती, मोमबत्ती, दियासलाई, कपूर, माला, बुके, स्मृति चिह्न इत्यादि सामग्रियों को कुछ कर्मचारी यथास्थान जमा रहे थे। आड़ी तिरछी कुर्सियों को सीधा किया जा रहा था लेकिन उन्हें पोछा नहीं जा रहा था। मैने अनुमान किया कि अगले आधे घण्टे में कुछ भी ‘मिस’ नहीं होने वाला है। मैं वहाँ से इत्मीनान से निकलकर पुस्तकालय की दिशा से खुद को बचाता हुआ संस्था के सचिव महोदय के कक्ष में जाकर बैठ गया।
वे फोन पर जमे हुए थे। सामने टेलीफोन नम्बरों की डायरी खुली हुई थी। एक के बाद एक अनेक लोगों का नम्बर मिलाते जा रहे थे और एक ही मज़मून का अनुरोध करते जा रहे थे, “ ...आदरणीय फलाने जी, अभी चल दिए कि नहीं...! सब लोग आ चुके हैं... बस आपकी ही प्रतीक्षा है... जल्दी आ जाइए... आपके आते ही कार्यक्रम शुरू हो जाएगा... हाँ-हाँ, सब लोग हैं, आइए... नमस्कार।”
यह फोनवार्ता इतनी यन्त्रवत् हो रही थी, और विषयवस्तु की इतनी पुनरावृत्ति हो रही थी कि अपनी मुस्कराहट छिपाने के लिए मुझे वहाँ से उठ जाना पड़ा। मैने ठीक सामने वाले कक्ष में कदम बढ़ा दिया, जहाँ इस संस्था द्वारा स्वयं प्रकाशित की गयी पुस्तकों का बिक्री काउण्टर है। इस कक्ष का वातावरण और नक्शा किसी दुकान सरीखा कतई नहीं है। इस कक्ष की चारो दीवारों से सटकर रखे हुए बुकशेल्व्स से एक बड़ा घेरा बनता है जिसके बीच में दो बड़ी-बड़ी मेंजें सटाकर रखी हुई हैं। इनके एक ओर दो कुर्सियाँ लगी थीं जिनमें से एक पर एक वृद्ध व्यक्ति बैठे थे, और कोहनी मेज पर टिकाए कुछ कागजों में खोये हुए थे। मैने अनुमान किया कि ये शायद ‘दरबारी जी’ होंगे जिन्हें सचिव जी ने अभी-अभी ‘हर्षबर्द्धन’ के साथ बुलाया था। मेज पर अनेक नयी ताजी आयी हुई किताबें पड़ी थीं जिनका शायद स्टॉक में अंकन किया जाना था।
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मैने चारो ओर एक उचटती सी दृष्टि डा्ली और दरबारी जी के सामने कुर्सी खींच कर बैठ गया।
“लगता है ज्यादा लोग नहीं आएंगे...!” मैने यूँ ही बात छेड़ी।
दरबारी जी शान्त थे। क्या जवाब देते? मौन रहकर सहमति जताना ठीक समझा होगा शायद। ...तभी मुझे कुछ खनकती हुई हँसने की आवाजें सुनायी दीं। मैने चौक कर पीछे देखा। कोई नहीं था। ...फिर पारदर्शी शीशे के पीछे से झाँकती लक-दक चमक बिखेरती हरि चरित्र नामक मोटी पुस्तक की हरकत दिखायी दी।
उसे शायद इस छोटी सी बात में कुछ ज्यादा ही रस मिल गया था। मैंने हैरत से उसकी ओर घूरा। जो बात निराशा पैदा करने वाली थी उसपर ऐसी हँसी? “आखिर बात क्या है...?” मैने उसे पुचकार कर पूछा।
वह एकाएक गम्भीर हो गयी। मैने उसके मन के भाव जानने की कोशिश की तो दार्शनिक अन्दाज में उसने जो बताया उसका सार यह था कि करीब सात सौ पृष्ठों की इस अनूठी पुस्तक की पान्डुलिपि को एक लम्बे समय से सहेजकर रखने वाले डॉ. शिवगोपाल मिश्र के सपनों को पूरा करने के लिए ‘हिन्दुस्तानी एकेडेमी’ ने इसे प्रकाशित तो कर दिया, लेकिन न तो आज लोकार्पित होने वाले कहानी संग्रह की तरह जन सामान्य तक पहुँचने का उसका भाग्य है, और न ही सरकारी खरीद के माध्यम से देश भर के पुस्तकालयों तक इसके जाने की कोई सम्भावना दिखती है। इसी से बेचारी कुछ विचलित सी हो गयी है।
श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में श्रीकृष्ण की समस्त लीलाओं का वर्णन हुआ है। संस्कृत में होने के कारण जब जन-सामान्य को इन लीलाओं को समझने में कठिनाई होने लगी, तो उनका भाषानुवाद होना स्वाभाविक था। सर्वप्रथम संवत् १५८७ में रायबरेली (उ.प्र.) निवासी श्री लालचदास ने दशम् स्कन्ध का अवधी में भाषानुवाद “हरि चरित्र’ के नाम से किया। इसकी विशेषता है कि उन्होंने ९० अध्यायों का अपनी बुद्धि के अनुसार दोहा-चौपाई शैली में अनुवाद प्रस्तुत कर दिया था। सन्त कवि तुलसीदास से ४४ वर्ष पूर्व अवधी में हरि-चरित्र की रचना सचमुच एक अनूठा प्रयास है। ‘सम्पूर्ण हरि चरित्र’ का अभी तक प्रकाशन नहीं हुआ था। अब कई प्राचीन हस्त-लिपियों के आधार पर इसका प्रामाणिक पाठ प्रस्तुत किया गया है। लेकिन इसका भविष्य क्या है?
आजकल पुस्तकों की पाठक संख्या का जो हाल है,
“लगता है ज्यादा लोग नहीं आएंगे...!” मैने यूँ ही बात छेड़ी।
दरबारी जी शान्त थे। क्या जवाब देते? मौन रहकर सहमति जताना ठीक समझा होगा शायद। ...तभी मुझे कुछ खनकती हुई हँसने की आवाजें सुनायी दीं। मैने चौक कर पीछे देखा। कोई नहीं था। ...फिर पारदर्शी शीशे के पीछे से झाँकती लक-दक चमक बिखेरती हरि चरित्र नामक मोटी पुस्तक की हरकत दिखायी दी।
उसे शायद इस छोटी सी बात में कुछ ज्यादा ही रस मिल गया था। मैंने हैरत से उसकी ओर घूरा। जो बात निराशा पैदा करने वाली थी उसपर ऐसी हँसी? “आखिर बात क्या है...?” मैने उसे पुचकार कर पूछा।
वह एकाएक गम्भीर हो गयी। मैने उसके मन के भाव जानने की कोशिश की तो दार्शनिक अन्दाज में उसने जो बताया उसका सार यह था कि करीब सात सौ पृष्ठों की इस अनूठी पुस्तक की पान्डुलिपि को एक लम्बे समय से सहेजकर रखने वाले डॉ. शिवगोपाल मिश्र के सपनों को पूरा करने के लिए ‘हिन्दुस्तानी एकेडेमी’ ने इसे प्रकाशित तो कर दिया, लेकिन न तो आज लोकार्पित होने वाले कहानी संग्रह की तरह जन सामान्य तक पहुँचने का उसका भाग्य है, और न ही सरकारी खरीद के माध्यम से देश भर के पुस्तकालयों तक इसके जाने की कोई सम्भावना दिखती है। इसी से बेचारी कुछ विचलित सी हो गयी है।
श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में श्रीकृष्ण की समस्त लीलाओं का वर्णन हुआ है। संस्कृत में होने के कारण जब जन-सामान्य को इन लीलाओं को समझने में कठिनाई होने लगी, तो उनका भाषानुवाद होना स्वाभाविक था। सर्वप्रथम संवत् १५८७ में रायबरेली (उ.प्र.) निवासी श्री लालचदास ने दशम् स्कन्ध का अवधी में भाषानुवाद “हरि चरित्र’ के नाम से किया। इसकी विशेषता है कि उन्होंने ९० अध्यायों का अपनी बुद्धि के अनुसार दोहा-चौपाई शैली में अनुवाद प्रस्तुत कर दिया था। सन्त कवि तुलसीदास से ४४ वर्ष पूर्व अवधी में हरि-चरित्र की रचना सचमुच एक अनूठा प्रयास है। ‘सम्पूर्ण हरि चरित्र’ का अभी तक प्रकाशन नहीं हुआ था। अब कई प्राचीन हस्त-लिपियों के आधार पर इसका प्रामाणिक पाठ प्रस्तुत किया गया है। लेकिन इसका भविष्य क्या है?
आजकल पुस्तकों की पाठक संख्या का जो हाल है,
और पुस्तक व्यवसाय में लगे व्यापारिक प्रतिष्ठानों द्वारा जिस प्रकार की एग्रेसिव कैम्पेन चलायी जाती है उसके मुकाबले एक शहर तक सिमटी आधुनिक प्रचार-प्रसार और विपनन के संसाधनों से विहीन सार्वजनिक संस्था के कन्धे पर सवार होकर यह मोटी-तगड़ी पुस्तक कितना रास्ता तय कर पाएगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। कदाचित् इसी बोध से एक नैराश्य भाव इसकी खोखली हँसी में उभर आया था, क्योंकि कम श्रोताओं की बात सुनकर इसके ईर्ष्या भाव में जरूर कुछ कमी आयी होगी, और बरबस ये भाव निकल पड़े होंगे। (जारी...)
[अगली कड़ियों में हम कुछ और गोपनीय बातों का खुलासा करेंगे, जो मुझे उन चन्द घन्टों में उनके बीच बैठकर पता चलीं। शर्त यह है कि आप को इन बातों में कुछ रस मिल रहा हो, जिसकी गवाही आपकी टिप्पणियाँ देंगी।]
[अगली कड़ियों में हम कुछ और गोपनीय बातों का खुलासा करेंगे, जो मुझे उन चन्द घन्टों में उनके बीच बैठकर पता चलीं। शर्त यह है कि आप को इन बातों में कुछ रस मिल रहा हो, जिसकी गवाही आपकी टिप्पणियाँ देंगी।]
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
बहुत खूबसूरत लगी किताबो की खुसर पुसर आनंद आ गया
ReplyDeleteपंडित जी बधाई
बहुत खूबसूरत लगी किताबो की खुसर पुसर आनंद आ गया
ReplyDeleteपंडित जी बधाई
सच तो यह है की ये कृतियाँ केवल पुस्तकालयों की आलमारियों की ही शोभा बढाती रह जाती हैं -भाषा भनिति भूति भल सोयी सुरसरि सम सब कर हित होई !
ReplyDeletekitaabon की khusur pusur जाने कितने और bhed kholegi................ लाजवाब जी
ReplyDeletekitaabon की khusur pusur जाने कितने और bhed kholegi................ लाजवाब जी
ReplyDeleteकिताबो की खुसर पुसर ..बहुत लाजवाब!!
ReplyDeleteकहा भी गया है किताब मनुष्य के सच्चे मित्र होते हैं.
रस अगर आराम करते हुए मिल जाय तो आदमी 'रसाराम' हो जाता है। हम अभी वही हैं।
ReplyDeleteकिताबों से बात करना सीख लिए हो अच्छी बात है। अगली बार नखलौ आना तो हमें भी सिखाना। चालू रखो तब तक तो जो कहोगे उसी में से रस चुराना पड़ेगा।
आयत ओयत पर कम लिखो। बवाल का पूरा चांस रहता है। कहीं ऐसा न हो कि नव वेदमार्गियों की तरह लोग तुम्हें लेकर बहम पाल लें। आज कल बक्त नाजुक चल रहा है - सँभल कर लिखो।
वैसे किताबों से 'सुअरा' के बारे में भी बात करना । कुछ काम की लगे तो पहले अपने अरविन्द भैया को बताना । आज कल उसे लेकर बड़े मानसिक कष्ट में हैं बेचारे। मुझे cc मार्क कर देना ताकि ताजी प्रगति पर मैं भी 'नमूँदार' रहूँ। 'नमूँदार' का सही प्रयोग किया न ?
किताब हो, एकांत हो, समय हो तो रोमांस हो ही जाता है।
ReplyDeleteमेरे ghar के पास ही पुस्तकालय है और मैने uskee सदस्यता ली हुई है
ReplyDeleteअक्सर जब किताब ले कर आता हूँ तो उस पर लगी मुहर से पता चलता है की २० साल पुराणी किताब २० बार भी नहीं पढी गई
अभी यशपाल कृत "मेरी प्रिय कहानियां" पढ़ रहा हूँ जो ३६ साल में केवल १४ बार पढी गई है
अब इससे ज्यादा क्या कहूं
इस विषय को आगे भी जारी रखे
वीनस केसरी
भैया, जब पाठक ब्लाग की ओर रुख कर गये तो पुस्तक और पुस्तकाळ्य तो धूल ही चाटेंगे ना:)
ReplyDeleteयहां से चोरी करने की इच्छा हो रही है।
ReplyDeleteआगे का इंतजार है।
ReplyDeleteChaltee rahe ye khusar pusar.
ReplyDelete{ Treasurer-S, T }
बहुत बढ़िया. जारी रखें. हमें भी तो पता चले कि बाकी पुस्तकों ने आपको क्या-क्या बताया. अनूठी सीरीज होगी यह.
ReplyDeleteaapne to maun ko bhi mukhar bana diya, aise hi jamaye rahiye
ReplyDeleteये शायद ‘दरबारी जी’ होंगे जिन्हें सचिव जी ने अभी-अभी ‘हर्षबर्द्धन’ के साथ बुलाया था।
ReplyDeleteअरे वाह किताबों की खुसर-फुसर में मैं भी हूं। क्या बात है
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteश्री कृष्ण जन्माष्टमी की बहुत बहुत शुभकामनाएं !
ReplyDeleteखुसर-फुसर? अरे पुस्तकें चीख चीख कर बोलती हैं। पर लोग बहरे हो गये हैं न!
ReplyDeleteकिताबों की खुसर-फुसर
ReplyDeleteShayad Mera Intezar kar rahi hain kitaabein.
साहित्यिक समाचार
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राष्ट्रीय ख्याति के अम्बिका प्रसाद दिव्य पुरस्कारों हेतु पुस्तकें आमंत्रित
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साहित्य सदन , भोपाल द्वारा राष्ट्रीय ख्याति के उन्नीसवे अम्बिका प्रसाद दिव्य स्मृति प्रतिष्ठा पुरस्कारों हेतु साहित्य की अनेक विधाओं में पुस्तकें आमंत्रित की गई हैं । उपन्यास, कहानी, कविता, व्यंग, निबन्ध एवं बाल साहित्य विधाओं पर , प्रत्येक के लिये इक्कीस सौ रुपये राशि के पुरस्कार प्रदान किये जायेंगे । दिव्य पुरस्कारों हेतु पुस्तकों की दो प्रतियाँ , लेखक के दो छाया चित्र एवं प्रत्येक विधा की प्रविष्टि के साथ दो सौ रुपये प्रवेश शुल्क भेजना होगा । हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकों की मुद्रण अवधि 1जनवरी 2014 से लेकर 31 दिसम्बर 2015 के मध्य होना चाहिये । राष्ट्रीय ख्याति के इन प्रतिष्ठा पूर्ण चर्चित दिव्य पुरस्कारों हेतु प्राप्त पुस्तकों पर गुणवत्ता के क्रम में दूसरे स्थान पर आने वाली पुस्तकों को दिव्य प्रशस्ति -पत्रों से सम्मानित किया जायेगा । श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों को भी दिव्य प्रशस्ति - पत्र प्रदान किये जायेंगे ।अन्य जानकारी हेतु मोबाइल नं. 09977782777, दूरभाष - 0755-2494777एवं ईमेल - jagdishlinjalk@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है । पुस्तकें भेजने का पता है - श्रीमती राजो किंजल्क , साहित्य सदन , 145-ए, सांईनाथ नगर , सी - सेक्टर , कोलार रोड, भोपाल- 462042 । पुस्तकें प्राप्त होने की अंतिम तिथि है 30 दिसम्बर 2016 । कृपया प्रेषित पुस्तकों पर पेन से कोई भी शब्द न लिखें ।
( जगदीश किंजल्क )
संपादक : दिव्यालोक
साहित्य सदन 145-ए, सांईनाथ नगर , सी- सेक्टर
कोलार रोड , भोपाल ( मध्य प्रदेश ) -462042
मोबा : 09977782777
ईमेल: jagdishkinjalk@gmail.com
pata nahi hame apne aas paas hone wali aisi ghatnao ke kitni bhashayen janani pade. parantu in bhashaon ko janane aur khusar phusar samjhane ke baad humame se jyadatar log aage kyon nahi badhte? kabhi iska post mortem karen to ek aur ayam bane.kya vikas ne jo nayi vidhayen di hai unko tyag de ;ya unko thoda kam karen purane ko usame adjust karne ke liye aadi.........
ReplyDeleteaapka yah prayas bahut hi achcha laga. shayad yeh pryas jitna apke manasik kide ki akulahat aur kulbulahat ko aram de raha ho usase kahi jyada pathko ko chirag tale roshni dikha raha hai.