“कृपया मेरे सच बोलने पर नाराज न होइए; कोई भी व्यक्ति जो इस नगर-राज्य में घट रही अनेक अन्यायपूर्ण व गैरकानूनी घटनाओं को रोकने की कोशिश करेगा; और आपका या किसी अन्य ‘भीड़’ का सच्चा विरोध करेगा वह बच नहीं पाएगा। कोई भी व्यक्ति जो न्याय के लिए वास्तविक संघर्ष करता है, उसे यदि जीने की थोड़ी भी इच्छा है तो उसे सार्वजनिक जीवन त्याग कर निजी ज़िन्दगी बितानी होगी।” (एपॉल्जी से)
यह उद्गार ग्रीक दार्शनिक प्लेटो के गुरू सुकरात ने ‘जूरी’ के सामने भरी अदालत में तब व्यक्त किए थे जब उनके विरुद्ध देशद्रोह का मुकदमा चलाया जा रहा था। कुछ ही समय में वह जूरी उन्हें मृत्युदण्ड सुनाने वाली थी। प्लेटो ने अपने गुरू की मौत का कारण जिस राज-व्यवस्था को ठहराया उसे ‘डेमोक्रेसी’ कहा जाता था, जिसमें भींड़ द्वारा नितान्त अविवेकपूर्ण निर्णय लिए जाते थे, और प्रायः अन्यायपूर्ण स्थिति उत्पन्न हो जाती थी। वही डेमोक्रेसी आज दुनिया की सबसे लोकप्रिय, सर्वमान्य और सर्वाधिक व्यहृत शासन व्यवस्था हो गयी है। यह बात अलग है कि राजनीति विज्ञान के जानकार प्राचीन ग्रीक कालीन डेमोक्रेसी और आधुनिक ‘लोकतंत्र’ में जमीन-आसमान का अन्तर बताएंगे।
प्लेटो ने जिस नगर-राज्य को देखा था उसकी जनसंख्या इतनी छोटी होती थी कि राज्य के सभी नागरिक एक स्थान पर एकत्र होकर बहुमत से अपना शासक चुन लेते थे। भीड़ का एक बड़ा हिस्सा जिसे पसन्द करता था वही राजा होता था और उसके फैसले सभी नागरिकों पर बाध्यकारी होते थे। सिद्धान्त रूप में आज भी लोकतंत्र का मतलब यही है- जनता की सरकार, जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों की बहुमत आधारित सरकार।
लेकिन प्लेटो ने इस बहुमत की व्यवस्था का जो विश्लेषण किया, वह इसकी खामियों को उजागर करने वाला है, और कदाचित् सच्चाई के करीब भी है। उन्होंने राज्य की तुलना एक व्यक्ति से की थी, और बताया था कि जिस प्रकार एक व्यक्ति के भीतर इन्द्रियबोध (sensation), चित्तवृत्ति (emotion), और बुद्धि (intelligence) के बीच उचित तालमेल से ही उसका सन्तुलित और स्वस्थ जीवन सम्भव है, उसी प्रकार राज्य के विभिन्न अवयवों के आपसी सामन्जस्य से ही न्यायपूर्ण राज-व्यवस्था स्थापित की जा सकती है। यदि बुद्धि-विवेक के ऊपर मन व शरीर में पलने वाले काम, क्रोध, मद व लोभ जैसे विकार हावी हो जाते हैं, तो व्यक्तित्व दोषयुक्त और अन्या्यपूर्ण हो जाता है। शरीर के ऊपर मन और मन के ऊपर मस्तिष्क का नियन्त्रण बहुत आवश्यक है। यदि नियन्त्रण की यह दिशा उलट-पु्लट जाय तो व्यक्ति नष्ट होने लगता है। पतन अवश्यम्भावी हो जाता है। यही स्थिति उस राज्य की भी होती है, जहाँ विवेक पर उन्माद हावी हो जाता है।
लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सभी व्यक्तियों को एक इकाई के रूप में बराबर माना जाता है। भले ही उनकी मानसिक और शारीरिक क्षमता तथा सामाजिक पृष्ठभूमि में भारी अन्तर हो। यह व्यवस्था इसी सिद्धान्त पर टिकी है कि राज्य/देश की सरकार चुनने में प्रत्येक व्यक्ति के मत का मान बराबर है। कोई किसी से कम या अधिक महत्व नहीं रखता। कुल मतदाताओं में से बहुमत जिसके पक्ष में हो, वही सरकार बनाता है। इस सरकार द्वारा जो भी निर्णय लिए जाते हैं वह उन अल्पमत वाले नागरिकों पर भी प्रभावी होता है जिनका मत इस सरकार के विरुद्ध रहा है।
सिद्धान्त रूप में इस व्यवस्था में कोई कमी नहीं नज़र आती; लेकिन व्यवहार में बहुत कुछ बदला हुआ नजर आता है। प्लेटो ने इन बदलावों पर कुछ प्रकाश डाला था। बहुमत की पसन्द कौन होता है? लोकप्रियता का पैमाना क्या है? व्यक्ति अपना नेता किसे चुनता है? जिसे देश की सम्पूर्ण जनता का ख़्याल रखना है; आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, सामरिक, राजनयिक, वाणिज्यिक आदि विषयों से सम्बन्धित लोकनीति बनानी है, उसका चुनाव करते समय जनता इन विषयों में उसकी प्रवीणता देखने के बजाय उसकी जाति, उसका धर्म व रंग देखती है; उसकी वक्तृता पर मोहित हो जाती है, किसी दूसरे क्षेत्र में उसके कौशल से प्रभावित हो लेती है; और अपना नेता चुन लेती है।
अच्छी भाषण कला में माहिर एक नेता किसी स्वास्थ्य सम्बन्धी मुद्दे पर आम जनता का मत एक डॉक्टर की अपेक्षा अधिक आसानी से बदल सकता है। वह कमजोर और निरीह नागरिकों को भी शत्रु देश पर हमले के लिए तैयार कर सकता है, जो एक आर्मी-जनरल नहीं कर सकता। जनप्रतिनिधियों द्वारा प्रभावशाली भाषण के माध्यम से बड़े-बड़े जनसमूहों को सम्मोहित कर बेवक़ूफ बनाने और उनके अन्ध-समर्थन से अत्यन्त शक्तिशाली बन जाने के उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है।
फ्रेडरिक नीत्शे कहते थे कि उन्माद, पागलपन, मूर्खता या विक्षिप्तता के लक्षण किसी व्यक्ति के भीतर किंचित् ही पाये जाते हैं; लेकिन एक समूह, दल, राष्ट्र या किसी ऐतिहासिक कालखण्ड में ये लक्षण एक अनिवार्य नियम जैसे मिलते हैं। एक भीड़ या समूह का हिस्सा बन जाने पर व्यक्ति के सोचने समझने का ढंग पूरी तरह बदल जाता है। भीड़ में उसकी मानसिकता भेंड़ जैसी हो जाती है। विवेक भ्रष्ट हो जाता है। इसी भीड़ द्वारा चुने गये प्रतिनिधि जब सरकार चलाते हैं तो सुकरात को जहर का प्याला पीना पड़ता है।
भारतवर्ष में लोकतंत्र का जो मॉडल चलाया जा रहा है, उसमें भी इस उत्कृष्ट सिद्धान्त का व्यावहारिक रूप किसी धोखे से कम नहीं है। यहाँ का समाज भी जाति, धर्म, कुल, गोत्र, क्षेत्र, रंग, रूप, अमीर, गरीब, अगड़े, पिछड़े, दलित, सवर्ण, निर्बल, सबल, शिक्षित, अशिक्षित, शहरी, ग्रामीण, उच्च, मध्यम, निम्न, काले, गोरे, स्त्री, पुरुष, आदि के पैमानों पर इतना खण्ड-खण्ड विभाजित है; और ये पैमाने हमारी लोक संस्कृति में इतनी गहरी पैठ बना चुके हैं, कि किसी भी मुद्दे पर आम सहमति या सर्वसहमति नहीं बनायी जा सकती। राष्ट्र-राज्य की परिकल्पना से हम कोसों दूर हैं। ऐसे में बहुमत का अर्थ मात्र दस-पन्द्रह प्रतिशत मतों तक सिमट जाता है। शेष मत विखण्डित होकर इस आँकड़े से पीछे छूट जाते हैं।
कोई भी राजनेता यदि इस गणित को ठीक से समझ लेता है तो वह उन्हीं दस-पन्द्रह प्रतिशत मतों को अपने पक्ष में सुनिश्चित हुआ जानकर सन्तुष्ट हो लेता है, और यह सन्देश भी देता है कि उनके हितों की रक्षा के लिए वह कुछ भी कर सकता है। सारे नियम-कायदे ताख़ अपर रख सकता है; दूसरे समूहों को सार्वजनिक रूप से गाली दे सकता है; साम्प्रदायिक हिंसा करा सकता है; मार-पीट, झगड़ा-लड़ाई, अभद्रता और गुण्डागर्दी से यदि उनका स्वार्थ सधता है तो उसका सहारा लेने में तनिक भी संकोच नहीं करता है। विरोधी मतवाले वर्ग के विरुद्ध खुलेआम अत्याचार और दुर्व्यवहार करने से यदि उसके पीछे खड़ी उन्मादी भीड़ तालिया पीटती है तो इस तथाकथित जनप्रतिनिधि को वह सब करने में कोई गुरेज़ नहीं है।
ऐसी हालत में लोकतन्त्र के चार उपहार- स्वतंत्रता, समानता, भ्रातृत्व व न्याय एक बड़े वर्ग के हाथ से छीन लिए जा रहे हैं, और इन्हें लोकतन्त्र के भस्मासुर अपनी चेरी बनाकर रखने में सफल हो रहे हैं। आजकल अखबारों की सुर्खिया ऐसे समाचारों से भरी पड़ी हैं जहाँ नेता जी अपनी बात मनवाने के लिए प्रशासन के अधिकारियों को मारने-पीटने से लेकर उनकी हत्या कर देने से भी गु़रेज नहीं करते। राजनैतिक पार्टियों द्वारा आपसी रंजिश में एक दूसरे पर राजनैतिक हमले करना तो अब पुरानी बात हो गयी है। अब तो सीधे आमने-सामने दो-दो हाथ कर लेने और विरोधी के जान-माल को क्षति पहुँचाने का काम भी धड़ल्ले से किया जा रहा है।
क्या हम प्लेटो के मूल्यांकन को आधुनिक सन्दर्भ में भी सही होता नहीं पा रहे हैं?
मनन और अध्ययन के बाद लिखा हुआ लेख। देरी से झुँझलाहट हो रही थी लेकिन पढ़ने के बाद लगा कि प्रतीक्षा का फल मीठा होता है।
जवाब देंहटाएंअपने यहाँ लोकतंत्र असफल हो चुका है। कम से कम मुझे कोई शंका नहीं। लेकिन कोई बेहतर विकल्प भी नहीं। हाँ, लोकतंत्र के कई प्रचलित मॉडल संशोधन के बाद अपनाए जा सकते हैं और नए भी बनाए जा सकते हैं।
निर्वाचन की प्रक्रिया भी दोषपूर्ण है। इस लेख में इस बारे में लिखे गए मेरे पुराने लेखों का सन्दर्भ दे देते तो बहस और अच्छी हो जाती।
धन्यवाद।
दो बातें हैं
जवाब देंहटाएं१.सौ चूहों की अपेक्षा एक सिंह का शासन उत्तम है.
२. Power tends to corrupt, and absolute power corrupts absolutely :-)
व्यवस्था में सुधार की बहुत गुंजाइश है इसमें कोई संदेह नहीं !
जवाब देंहटाएंभारत का लोकतन्त्र वास्तव में चिन्ता का विषय है, लेकिन किसी भी तानाशाही से लोकतंत्र श्रेष्ठ ही होता है। यदि हमारा मीडिया जाति, सम्प्रदाय की अलगाव वादी भाषा का प्रयोग नहीं करे तब शायद हम इन सबसे बच सकते हैं। अब तो हमें राजनेताओं के पीछे पड़ने से अधिक मीडिया को सुधारना होगा। जनता जब तक ऐसी भाषा सुनती रहेगी वो भी इसी भाषा को मान्यता देती रहेगी। मीडिया ही स्पष्ट आंकडे देता है जाति, धर्म के। आपने बहुत ही श्रेष्ठ लेख लिखा है मेरी बधाई स्वीकार करे।
जवाब देंहटाएंसारगर्भित लेख।
जवाब देंहटाएंआज भारत सब से बड़ा लोकतंत्र है और स्त्री सशक्तिकरण का अलम्बरदार...तो क्या ऐसी कोई स्त्री भारत में नहीं है जो सुकरात की तरह....:)
लोकतंत्र में लोग ज़िम्मेदार होते हैं ...गर जनता चाहे तो बदलाव ला सकती है ...उसके लिए ,व्याक्ग्तिगत भेद भाव भुलाके एक जूट होना पड़ता है ...जहाँ कहीं vested interests होंगे , बात नही बनेगी ...लोकतंत्र है ,इसलिए हम खुले आम जो चाहे कह सकते हैं ..वरना पाकिस्तान को मद्देनज़र रखें और सोंचे ...क्या हमें हमारा वो हश्र करना है ?
जवाब देंहटाएंभारतवर्ष में लोकतंत्र का जो मॉडल चलाया जा रहा है, उसमें भी इस उत्कृष्ट सिद्धान्त का व्यावहारिक रूप किसी धोखे से कम नहीं है।
जवाब देंहटाएं-पूर्णतः सहमत आपसे. बेहतरीन विचारणीय आलेख.
सिद्धार्थ साहब मेरे ब्लॉग पर टिप्पणी देकर मेरा होसला अफजाई करने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया
जवाब देंहटाएंजुडाव बनायें रखें
सिद्धार्थ साहब मेरे ब्लॉग पर टिप्पणी देकर मेरा होसला अफजाई करने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया
जवाब देंहटाएंजुडाव बनायें रखें
Bottom line:
जवाब देंहटाएंकोई भी व्यक्ति जो न्याय के लिए वास्तविक संघर्ष करता है, उसे यदि जीने की थोड़ी भी इच्छा है तो उसे सार्वजनिक जीवन त्याग कर निजी ज़िन्दगी बितानी होगी।”
लोकतंत्र को वास्तविक बनाने की आवश्यकता है।
जवाब देंहटाएंइकाई, दहाई, सैकडा, हज़ार.......सत्यानाश.
जवाब देंहटाएंमैं तो विश्वास करता हूं कि प्रजातंत्र की बजाय विद्वतपरिषद का शासन होना चाहिये।
जवाब देंहटाएंप्रजातंत्र में बन्दे तोले नहीं जाते, गिने जाते हैं! :)
लोकतंत्र के नाम पर जो हो रहा सब के सामने है आपसे सहमत।एक बढिया आलेख पढ़वाने के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंविश्लेषण बहुत बढिया लगा
जवाब देंहटाएंऔर सुकरात के बारे में इस जानकारी के लिए शुक्रिया।
उत्तम और मनन परक आलेख.
जवाब देंहटाएंसुन्दर पोस्ट!
जवाब देंहटाएंहो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
जवाब देंहटाएंइस हिमालय से कोई गंगा निकालनी चाहिए............
भारत को बदलाव की बहुत जरूरत है मगर बदलाव लाना इतना आसान भी नहीं है
इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ की राज्य के विषय में जो प्लूटो ने कहा था वो न तब सत्य था न आज उनकी बात तब भी अपूर्ण थी और आज भी
तब राजा ही न्यायपालिका कार्यपालिका और व्यवस्थापिका का सर्वोच्च था और आज भी मगर कई मूलभूत अंतर है जिन्होंने राज्य को प्रभावित किया है
और राष्ट्र को राज्य बनाना भारत में तो अब असंभव है
विचार परक और मेहनत से तैयार किया गया लेख,पसंद आया
वीनस केसरी
lok-tantra....me se lok hi rah gaye.. tantra bikhra pada hai..
जवाब देंहटाएंvery good informative stuff
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http://som-ras.blogspot.com
गहरा अध्यन करने के बाद लिखा है आपने ये लेख पर बहुत ही अच्छे तरीके से अपनी बात सब तक रक्खी है........... राजनीति में कौन से सिद्धांत को बिलकुल सही माना जाए ये एक बहस का मुद्दा हो सकता है क्योकि अपने अपने नफे और फायदे सब व्यवस्थाओं में हैं............ पर इस बात से मैं भी सहमत हूँ की भारतवर्ष में लोकतंत्र का जो मॉडल चलाया जा रहा है, वो किसी धोखे से कम नहीं है............
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंलोकतंत्र से बेहतर शासन व्यवस्था है और न होगी। लेकिन, मुश्किल ये है कि लोकतंत्र से वो सारे लोग सबसे ज्यादा अपने को अलग किए रहते हैं जिनके लिए लोकतंत्र की असली जरूरत है।
जवाब देंहटाएंdemocracy is not the absolute solution.
जवाब देंहटाएंआज मात्र 1 से 5 प्रतिशत वोटों की हेर फेर से उम्मीदवार चुनाव जीत जाता है और सौ प्रतिशत जनता का प्रतिनिधित्व करता है ।
जात पात धर्म सम्प्रदाय की राजनीति तो खैर है ही ।
इन सबको देखते हुये मीडिया का रोल काफी दुःखद है क्योंकि आज चैथा खंभा सिर्फ टी आर पी देख रहा है और पार्टियों का मुंह ताकता है । भारत में प्रजातंत्र फेल हो गया है । इसमें कोई शक नहीं है ।
अत्यंत गंभीर पोस्ट । बधाई ।
बहुत सार गर्भित पोस्ट...धन्यवाद इतने विस्तार से प्रकाश डालने पर...
जवाब देंहटाएंनीरज
चिंतनीय.
जवाब देंहटाएं{ Treasurer-T & S }
यह बात अलग है कि राजनीति विज्ञान के जानकार प्राचीन ग्रीक कालीन डेमोक्रेसी और आधुनिक ‘लोकतंत्र’ में जमीन-आसमान का अन्तर बताएंगे।
जवाब देंहटाएंलेकिन वास्तव में कोई फ़र्क़ है नहीं, यह हम-आप आज अपने अनुभव से जानते हैं.
भीड़ का एक बड़ा हिस्सा हमेशा ग़लत होता है और जो गिनती मैं कम हुआ करते हैं, हमेशा सही, क्यूँ की नेक इंसान दुनिया मैं कम हैं और बुरे अधिक.
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