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शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

रागिनी जी की एक और कहानी... कर्ज़

 

पिछले दिनों आपने इन पन्नों पर श्रीमती रागिनी शुक्ला की लिखी सत्यकथा दुलारी पढ़ा और सराहा था। आज प्रस्तुत है उनकी एक और कहानी- कर्ज। पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार के गरीब मजदूर वर्ग की त्रासदी का बयान करती यह कहानी परिवार और समाज के भीतर सूक्ष्म मानवीय रिश्तों का मार्मिक चित्रण करती है:

कर्ज

रात ढल रही थी चाँद भी अपना सफर पूर्ण कर आराम की तैयारी में लगा था, आकाश में तारे एक-एक कर अपनें घर जाने लगे थे, उस रात कि ख़ामोशी में थोड़ी सी खनक आती जब चन्दन अपनी टूटी चारपाई पर करवट बदलता। पूरा वातावरण ऐसा लग रहा था, जैसे सबको अपनी-अपनी मंजिल की राह मिल गयी हो।

पेड़ पर चिड़ियों की चहचहाने की आवाज आने लगी, जैसे सभी से कह रही हों, “उठो, सुबह हो गयी अब अपने-अपने काम पर चलो।” …आकाश में हल्की लालिमा दिखाई दी।

प्रत्यक्ष देवता ‘दिवाकर जी’ भी अपनी सुबह की यात्रा शुरू करने वाले थे। चन्दर अपने दरवाजे पर लगे पीपल के पेड़ के नीचे लेटा हुआ यह सब नजारा देख रहा था। धीरे-धीरे डालों की सारी चिड़ियाँ इधर-उधर जाने लगीं। चन्दर ने अब सोच लिया था कि हमें भी कुछ करना चाहिए। वह अपनी बूढ़ी माँ को बगैर बताये मुनीम जी के घर चला गया।

ploughअपनी जो थोड़ी सी जमीन थी उसके ऊपर कर्ज लेकर चन्दर ने एक जोड़ी बैल खरीदा। अपने हाथ से खेती करने लगा। कन्धे पर हल रखकर खेत जोतने जाता। दिन भर पसीना बहाता। जब चन्दर अपने बैलों के साथ घर वापस आता उसकी माँ बड़े प्यार से खेत का उगाया प्याज और गरम-गरम रोटियाँ खिलाती। वह इतने प्रेम से खाता जैसे इससे स्वादिष्ट कोई भोजन हो ही नहीं सकता।

चन्दर अपने बैलों को बहुत प्यार करता था। बार-बार अपने बैलों को सहलाता, बैलों के लिये हरे चारे की व्यवस्था करता। उनकी सेवा करते-करते वह उनसे से बातें भी करता, “…मोती-ज्योती! जल्दी-जल्दी खा लो, कल भला सुबह ही जुताई करने जाना है।”

माँ बोली, “बेटा इस बार धान रोप दो, क्योंकि अबकी समय से  खेतों में पानी मिल जायेगा तो शायद भगवान की कृपा हम लोगों पर भी हो जाय। चन्दर अपने बैलों के साथ सुबह खेत की जुताई करने चला गया।

धीरे-धीरे समय निकलता जा रहा था। माँ को बैलों का कर्ज़ परेशान कर रहा था। …अगर फ़सल अच्छी नहीं हुई तो कर्ज़ कैसे चुकाया जाएग। मुझे झाड़ू- बर्तन करने से इतने पैसे तो नहीं मिलते जिससे पेट पलने के बाद कुछ बचा भी सकूँ…। बेचारी दिनभर पैसों के जोड़-तोड़ मे लगी रहती थी। चन्दर भी कड़ी मेहनत कर के अपने खेत को सँवारने में लगा रहता। माँ को दूसरों के घरों और खेतों में काम करके कुछ न कुछ मिल जाता, जिससे माँ-बेटे कभी भूखे नहीं रहते।

मुनीम जी बीच-बीच में चन्दर को पैसों की याद दिलाना नहीं भूलते। चन्दर अपने बैलों को लेकर दूर-दूर तक जुताई करने चला जाता। लेकिन इतनी मेहनत के बाद भी जरूरत पूरी नहीं होती। कर्ज़ बढ़ता जा रहा था। इधर चन्दर ने अपने खेतों मे धान रोप दिया था। बारिश का मौसम आ जाने के बाद बैलों को कोई काम भी नहीं मिलता। कर्ज़ को चुकाना अब और बोझ बनता जा रहा था।

चन्दर सोचने लगा कि खेतों की बुआई तो हो ही गयी है… अभी फ़सल तैयार होने मे पाँच-छः महीने लग ही जाएंगे… घर बैठने से अच्छा है, इन पाँच महीनों मे मैं भी बाहर (पंजाब) जाकर कुछ कमा लाऊँ। गाँव के कुछ लड़के जा भी रहे हैं, इससे हमें कोई paddy sowingपरेशानी नही होगी। चन्दर ने अपने मन की बात माँ से बतायी तो वह दुःखी हो गयी। रोने लगी, “अरे! बाहर जाकर क्या करेगा…? यहीं मेहनत करके कुछ पैसा कमा सकता है। …मुनीम जी से कर्ज़ के लिये हाथ-पैर जोड़ कर कुछ और समय माँग लिया जायेगा…।”

लेकिन चन्दर को पंजाब जाकर ज्यादा पैसा कमाने का जुनून था। वह माँ को किसी तरह भविष्य के सपने दिखाकर मना ही लेता है।

लेकिन बूढ़ी माँ को रात भर नींद नहीं आयी, “…इस बुढ़ापे में अकेले कैसे रहूँगी।”

चन्दर का पंजाब जाने का समय आ गया। कल शाम को उसे शहर जाना था। चन्दर की माँ काम पर गयी तो मालकिन से थोड़ा तेल माँगकर लायी। चावल का ‘भूजा’ बनाया और तेल के पराठे बनाकर चन्दर के रास्ते के लिये गठिया दिया। चन्दर ने भी अपने कपड़ों को बहुत रगड़-रगड़कर धोने की कोशिश की। फ़िर भी चमक क्या आती…। चन्दर अपने बाहर जाने वाले कपड़े पहन दिन भर बहुत खुश होकर गाँव में घूमता रहा। सबसे अपनी माँ की देखभाल को कहता रहा।

बैलों से कमाया हुआ कुछ पैसा चन्दर किराये और राहखर्च के लिये रखता है। बाकी माँ को देता है। घर छोड़ने से पहले मोती-ज्योती को गले लगा कर प्यार करता है, “मोती-ज्योती! मै जल्दी ही कमाकर आऊंगा तो तुम लोगों के लिये ‘बरसीम’ लगाऊंगा। तब तक तुम लोगों को भी काम पर नहीं जाना पड़ेगा।”

शाम हुई तो चन्दर के जाने का समय आ गया। माँ कहती है, “बेटा, धान की कटाई के समय जरूर आ जाना… नहीं तो अकेले हमसे नहीं हो सकेगा।” चन्दर माँ से पूरी तरह से वादा करता है कि धान की कटाई के पहले ही आ जाएगा। चन्दर काम की तलाश में शहर की ओर चल दिया। माँ रात भर भगवान से यही प्रार्थना करती रही कि उसका बेटा सकुशल पहुँच जाय। अब तो बूढ़ी माँ के ऊपर बैलों की जिम्मेदारी भी आ गयी। अब वह सारे घरों का चौका-बर्तन भी नहीं कर पाती। केवल बड़का मालिक के घर में काम करके जो मिल जाता उसी से कुछ खा पी लेती। वह अब रोज बैलों का चारा लाने के लिये खेत में जाती और वहाँ अपनी फसल की देखभाल भी करती।

factory workers चन्दर लुधियाना में एक फ़ैक्ट्री में काम करने लगा। उसे हमेशा अपने बैलों के कर्ज़ चुकाने की चिन्ता बनी रहती। उसने दिन रात मेहनत करके पैसा इकट्ठा कर लिया। अपनी माँ के लिए कुछ साड़ियाँ और अपने लिये कई जोड़े कपड़े भी बनवाये। जाड़े के लिए कम्बल भी खरीदा और सारा सामान ले जाने के लिए टिन का एक बक्सा भी खरीदा और सारा सामान उसमें भर लिया। चन्दर जब गाँव आने के लिए तैयार हुआ तो साथ के सारे लड़कों ने उसे रोक लिया। समझाया कि आए हो तो कुछ और पैसा कमा लो… यहकि एक महीने बाद सभी साथ चलेंगे। …कुछ और पैसे। चन्दर रुक गया।

इधर चन्दर की माँ परेशान थी…। धान पक गये थे और मुनीम भी अपने पैसे माँग रहा था। वह अपने बेटे का इन्तजार करती हुई रोज शाम को रास्ते पर बैठी रहती। मुनीम को धान की फ़सल देखकर लालच लग रही थी… वह बार-बार कर्ज़ चुकाने के लिए कहता। आखिरकार… मुनीम नहीं माना और चन्दर के बैल खोल ले गया। माँ को धमकी भी देकर गया कि अगर इस महीने पैसे नहीं मिले तो धान भी कटवा लेगा।

बैल चले जाने के कारण वह रात भर रोती रही…। बेटे का इन्तजार करते-करते यह महीना भी बीत गया। सबके धान कट गये…। अन्ततः वही हुआ जिसका डर उसे खाये जा रहा था। मुनीम खेत से धान कटवा ले गया। बूढ़ी अकेली औरत के बार-बार हाथ जोड़ने पर भी उसे दया नहीं आयी।

बुढ़िया अब विक्षिप्त सी हो गयी। उसे दिन और रात का पता नहीं रहता। वह कभी खेत में जाकर रोती तो कभी बैलों के खूटें के पास। धीरे-धीरे ठंड बढ़ने लगी वह एक कपड़े में सिमटी ठिठुरती कहीं भी सो जाती। किसी को दया आ जाती तो कुछ खाने को दे देता। वह दिन भर पगली बनी इधर-उधर घूमती रहती। एक दिन वह चलते-चलते पास के शहर तक आ पहुँची।

शाम का वक्त था। सब लोग मोटर गाड़ियों, स्कूटर, मोटरसाइकिलों और दूसरे साधनों से अपने-अपने घर जा रहे थे। शाम का घना कुहरा और बढ़ता ही जा रहा था। शहर की स्ट्रीट-लाइट में भी कुछ स्पष्ट नही दिख रहा था। धीरे-धीरे सब दुकाने बन्द हो गयीं और सड़कें सूनी हो गयीं।

जब ठंड से बचने के लिए लोग गरम रजाइयों मे सो रहे होंगे उसी समय चन्दर की बूढ़ी माँ दिशाहीन निराश्रय भटक रही थी। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। क्या करे, कहाँ जाय? वह डरते-डरते एक दुकान के शटर के पास पड़ गयी। उसके तन पर केवल एक फ़टी सी साड़ी थी। वह रात भर पत्थर की बुत बनी एक ही करवट पड़ी रही।

धीरे-धीरे सुबह हुई। सड़क पर कुछ लोग दिखाई देने लगे। दुकान वाला अपना शटर खोलने आया तो चौक पड़ा। बार-बार बुढ़िया को आवाज देने पर भी कोई उत्तर नहीं मिला। फिर एक लकड़ी से वह उसे ढकेल कर जगाने लगा। थोड़ी सी सुगबुगाहट हुई…। उसने आँखें खोली तो वहाँ इकट्ठा भीड़ देखकर डर गयी। रात भर में ठण्ड से उसके हाथ-पैर अकड़ गये थे। बहुत कोशिश करने पर वह उठ पायी। दुकानदार ने उसे वहाँ से हटने को कहा। उसने देखा सामने आग जल रही थी। बड़ी मुश्किल से वह हिलती हुई उस चाय की दुकान तक पहुँची। चायवाले ने उसे चाय पीने को और कुछ खाने को दे दिया।karz

इधर चन्दर को पैसा कमाने की धुन और लालच इतनी बढ़ गयी थी कि उसे पाँच महीने कब बीत गये इसका पता ही नहीं चला। एक दिन गाँव से आने वाले कुछ लड़के उसे वहाँ मिले तो माँ का हाल सुना। घर उजड़ जाने, दरवाजे से बैलों के चले जाने, फसल गँवा देने और माँ की दिमागी हालत बिगड़ जाने की खबर से वह दहल उठा। अब उसे सारे पैसे बेकार लगने लगे और घर वापस आने के लिए निकल पड़ा। उसका एक-एक पल बहुत बेचैनी में बीत रहा था। घर के रास्ते में उसने देखा कि सब के खेतों में धान कट चुके हैं। वह अपनी माँ की बात को याद कर रहा था… “बाबू! धान कटे से पहिले जरूर चलि ‌अइहऽ…।” चन्दर अपनी गलती पर बहुत पछता रहा था। ट्रेन धीरे-धीरे घर की मंजिल तक पहुँच रही थी…। उसे लगता जैसे समय लम्बा खिंचता जा रहा है।

इधर चन्दर की माँ चाय पीकर थोड़ी गर्माहट पाने के बाद फ़िर अन्जाने रास्ते पर चलने लगी। चलते-चलते वह स्टेशन की तरफ़ मुड़ गयी। ट्रेन अब आने ही वाली थी। वह स्टेशन से बहुत दूर बैठी आने-जाने वालों को देखती रहती। ‘जननायक एक्सप्रेस’ ट्रेन आकर रुकी… चन्दर ने जल्दी से अपना सामान उतारा और चलने लगा। माँ की आँखों ने अपने बच्चे को पहचानने में गलती नहीं की…

माँ को इस हालत में अचानक यहाँ देखकर चन्दर हतप्रभ रह गया। उसे जैसे काठ मार गया था। माँ से लिपट गया…। आँखों में अपराध भाव लिए आँसू उमड़ पड़े। वह फूट-फूटकर रो पड़ा। अपने को धिक्कारने लगा। भगवान को कोसने लगा…।

माँ ने उसके मुँह पर हाथ रखकर चुप कराया। कलेजे से चिपका लिया…। उसकी सूनी आँखों में चेतना लौट आयी थी, “चुप कर बेटा! तेरी माँ अब बिल्कुल ठीक हो गयी है…। अब तू आ गया है न… अब सारा कर्ज मिट जाएगा।

-रागिनी शुक्ला

नोट: ऊपर लगाए गए चित्र अन्तर्जाल से लिए गये हैं जिनका पता उनमें अन्तर्निहित है। यदि चित्रस्वामी द्वारा किसी कॉपीराइट के उल्लंघन की सूचना दी जाती है तो इन्हें सहर्ष हटा लिया जाएगा।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

8 टिप्‍पणियां:

  1. bahut hi achhi kahani thi,padhte waqt har lamha sajeev ho raha tha ankhonke samne,bahut badhai

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  2. बहुत ही भावूक कहानी, हम लोग भी किसी ना किसी रुप मे चन्दर ही तो है.
    धन्यवाद

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  3. भावुक कर देने वाली प्रवाहपूर्ण कथा. आभार इसे प्रस्तुत करने का.

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  4. कहानी बहुत भाव प्रवण है -सुखान्त भी ! और बहुत अच्छी लिखी गयी है मगर पुराने ढर्रे की है! लेखिका की किस्सागोई चूंकि आश्वस्त करती है इसलिए उससे नए दूसरे समांतर बिम्बों - घटनाक्रमों को लेकर लिखी गयी कहानियों की अपेक्षा रहेगी !

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  5. कहानी में कहने, सुनने और समझने के लिये शायद नयापन कुछ भी नही है फिर भी बहुत कुछ है एहसास करने के लिये। अपने-आप से हम 'कुछ' की चाहत में कितनी दूर निकल आते हैं, शायद समझ नहीं पाते हैं और जबतक समझते हैं तब तक बहुत देर हो जाती है। वह 'कुछ' कहने को तो कुछ भी नहीं है लेकिन उसके आदि और अंत को जानना इंसान के वश में नहीं.....

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  6. बहुत सुंदर रचना .
    बधाई
    इस ब्लॉग पर एक नजर डालें "दादी माँ की कहानियाँ "
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  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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