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बुधवार, 7 जनवरी 2009

काश हमें भी छुट्टी मिलती...!

[आज की पोस्ट श्रीमती रचना त्रिपाठी की ओर से जिनके साहचर्य का सौभाग्य मुझे मिला है]

 indian-housewifeकाश हमें भी छुट्टी मिलती...!

छुट्टी किसे प्यारी नहीं होती है? बच्चे तो बच्चे, बड़े भी रविवार की खुशी शनिवार की शाम ढलने से पहले ही मनाने लगते हैं। सप्ताहान्त का मूड रोज से अलग होता है । बच्चे तो शनिवार को स्कूल से घर दौड़ते हुए आते हैं । उन्हें पता है कि आज मम्मी तुरन्त होमवर्क के लिए नहीं बैठाएगी। खेलने की पूरी छूट तो इसी दिन मिलने पाती है। नौकरी करने वालों के लिए शनिवार की शाम बड़े इत्मीनान की शाम होती है। पूरा रिलैक्स होने का मौका मिलता है। देर रात तक पार्टी-वार्टी, घूमना-फिरना, दोस्तों के बीच मौज करना या ‘ब्लॉगरी’ में छूटे कामों को रात के दो तीन बजे तक पूरा करने की छूट यहीं मिल पाती है।

...क्या फिक्र है? कल तो सण्डे है। ... थोड़ी देर तक सो सकते हैं, ...अलसाए पड़े रह सकते हैं, मन की मौज के लिए जो चाहें करे, जो न चाहें न करें...। लेकिन इस पंचदिवसीय या छःदिवसीय सप्ताह का फण्डा एक गृहिणी के लिए सात दिन से भी कुछ अधिक समय का लगने लगता है। जी हाँ, जब बच्चे छुट्टी में सुस्ता रहे होते हैं, या मिंयाजी ऑफिस से छुटकारा पाकर मस्ती में रीलैक्स कर रहे होते हैं तो हम घरवालियाँ ओवरटाइम की ड्यूटी बजा रही होती हैं।

हमारी आँखों में भी सपना पलता है कि एक दिन कुछ अलग सा मनोरंजन हो, कुछ बौद्धिक व्यायाम हो, लेखन हो, अध्ययन हो, चर्चा-परिचर्चा हो, या कुछ भी ‘करने को’ न हो, कम से कम रुटीन के काम से थोड़ा आराम मिले, छुट्टी कैसी होती है इसका अन्दाजा लग सके। लेकिन यह सपना हमारी आँखों में प्रति दिन क्या-क्या रूप धारण करता है, एक एक दिन कैसे बीत जाता है, इसका एक चित्र यहाँ प्रस्तुत है:

सोमवार- आज घर तरो-ताजा है। जैसे अभी-अभी लॉण्ड्री से धुलकर निकला हो। साप्ताहिक सफाई के विशेष कार्यक्रम के फलस्वरूप घर के पर्दे, चादरें, लिहाफ, पाँवदान, वाशबेसिन, सिंक, टॉयलेट, नाली, कूड़ेदान आदि सबके सब कुछ ज्यादा ही चमक रहे हैं। बच्चों को चमचमाते कपड़ों में स्कूल भेजने के बाद जो काम रविवार से छूटे रह गये थे उन्हें निपटाने की जिम्मेदारी इसी दिन पूरी होती है। आज घर की सफाई स्वच्छ चाँदनी की तरह सुकून देने वाली है मन इसी में रमा हुआ है। बाकी सपने कल सही...। [Monday= Moon-day]

मंगलवार-एक कार्यदिवस के स्थायी मीनू के सभी आइटम आज पूरे किए जाने हैं। साथ में इनका बजरंगबली का व्रत भी है। बच्चों को सुबह जल्दी उठाना, नहला-धुलाकर स्कूल के लिए तैयार करना, बैग चेक करना कि कोई कॉपी-किताब, स्टेशनरी या होमवर्क छूट न जाय, टिफिन तैयार करना, पतिदेव को अखबार और कम्प्यूटर से उठने, नाश्ता करने और समय से नहा-धोकर ऑफिस के लिए तैयार होने की याद दिलाना, दस बजे तक नाश्ता-भोजन (brunch) देकर बाहर ठेलना, फिर घर को अपनी जगह पर जमाना। दोपहर बीतते-बीतते बच्चों की वापसी, कपड़ा बदलना, भोजन कराकर जबरदस्ती सुलाना और पहरा देना, शाम को होमवर्क कराना, और उन्ही की नीद सोना-जागना...। और कहाँ है वो खूबसूरत सपना? वह तो बस हमें ही छेड़े जा रहा है...। [Tuesday= Tease-day]

बुधवार- सप्ताह का मध्य। लेकिन मंगल व्रत के उपवास के बाद कुछ स्पेशल जायकेदार अलग से बन जाय तो क्या कहने? बाकी कामों में कोई छूट नहीं। सपना अपनी जगह है...। आज कुछ हो सकता था लेकिन पड़ोस वाली बहन जी अपनी बेटियॊं के साथ मिलने आ गयीं। दो घण्टे की मुलाकात के बाद कुछ लिखने-पढ़ने की हिम्मत जवाब दे गयी और ये दिन भी ‘बेकार’ चला गया...। [Wednesday== Waste-day]

वृहस्पतिवार- सबकुछ वैसा ही। बस अन्तर ये कि इनके एक रिश्तेदार आ गये। “कुछ खास काम नहीं था। बस इधर निकले थे तो सोचा मिलते चलें।” “...बहुत अच्छा किया जी। ...मिलते जुलते रहने से प्रेम-व्यवहार बना रहता है।” मनुष्य सामाजिक प्राणी है। यही बात तो हमें दूसरों से अलग करती है। बहुत अच्छा लगा... पर वो सपना कब पूरा होगा। वह तो बस एक प्यास बनकर गले में अटकी है...। [Thrusday= Thirst-day]

शुक्रवार-यह दिन आते-आते घर की अस्त-व्यस्तता और तन-मन की थकान से हालत चाँदनी से बदलकर कृष्ण पक्ष की कालिमा जैसी हो जाती है। आत्मा जल-भुन जाती है कि यह सप्ताह भी समाप्ति पर है और अपना सपना साकार करने का रंच मात्र अवसर नहीं निकाल सकी। ‘भेजा फ्राई’ यहीं से निकला था क्या? [Friday= Fry-day]

शनिवार- ओह ये हफ़्ता भी गया...! वीक-एण्ड शुरू? उम्मीदें परवान चढ़ने से पहले ही औंधे मुँह गिर गयीं। मन की बात मन ही में रह गयी। आज तो कल की तैयारी और निपट लाचारी में बीत गया। [Saturday= Shattered-day]

रविवार- छुट्टी का दिन। शनिवार की शाम भी रविवार में शामिल हो लेती है। घर के सभी बच्चे-बड़े उत्साहित और प्रसन्न। सबकी अलग-अलग ख़्वाहिश, टिपिकल फरमाइश, बस गृहस्वामिनी के लिए आराम की कोई नहीं गुन्जाइश। सबकी उम्मीदों पर खरा उतरते हुए उनके मैले कपड़ों की साप्ताहिक धुलाई, घर-द्वार की विशेष सफाई, सबके मनोरंजन, खेलकूद, पार्टी, आवागमन, घुमने-फिरने, और मौज लेने को खुशगंवार बनाने के लिए रोज से अधिक श्रम और समर्पण।

अजी सुनती हो... आज कुछ स्पेशल बनाओ... आज तुम्हारे हाथ का बना वो ‘गोभी मुसल्लम’ खाने का मन है... वो कुक क्या खाक बनाती है...? देखो, थोड़ी कढ़ी भी बना लेना...। नहीं मम्मी... आज तो मटर वाली पूड़ी बनाओ...। नाश्ते में सैण्डविच तो मिलेगा न...?  अच्छा, ...आज शाम को कुछ दोस्तों को बुला रखा है। कुछ पकौड़ियों की तैयारी कर लेना...। अरे यार! मेरे बालों में आँवला और मेंहदी तो लगा दो। आज दोपहर को एक गेट-टुगेदर है... तुम तो चल नहीं पाओगी? मौका लगा तो अगले हफ़्ते बिग-बाजार चलेंगे...।

सबके पीछे भागते हुए हुए शाम ढल जाती है। रात को थककर चूर...। बिस्तर पर लेटे-लेटे शिवानी की ‘कृष्णकली’ उठाती है जिसका तेरहवा पृष्ठ दो हफ्ते से मुड़ा पड़ा है...। आगे पढ़ने का मौका ही नहीं मिला। आँखें उनींदी देखकर पतिदेव हाथ से किताब लेकर रख देते हैं... थक गयी लगती हो, सो जाओ, सुबह जल्दी उठकर बच्चों को तैयार करना है।

काश... ये छुट्टी का दिन नहीं होता। क्या कोई रास्ता है कि इस दिन से छुटकारा मिल जाय? क्या Sunday हो सकता है shun-day?

(रचना त्रिपाठी)

14 टिप्‍पणियां:

  1. अरे वाह रचना, सही पथ पकड़ा है।
    यह भी स्त्रीजीवन का धुरी होना रेखांकित करता है कि कैसे वह दूसरों का जीवन बनाने में अपना जीवन दे देती है।मेरी तरह औरों को भी अपना जीवन याद आना स्वाभविक है।

    जो स्त्रियाँ केवल घरेलूजीवन व्चुनती हैं या कहीं कोई अपने लिए समय देने जैसा कार्य परिवार को बनाने के कारण नहीं कर पातीं.उन्हें व उनके परिवार को चाहिए कि जब सबसे छोटा बच्चा ६-७ वर्ष का हो जाए तो महिलाओं को पुन: उनकी रुचि व क्षमता के कार्यों को अपनाने में योगदान दें, प्रोत्साहन दें, ताकि बच्चों के १८-१९ वर्ष का होने की आयु तक स्त्री भी किसी क्षेत्र में अपना आकाश (स्पेस) तलाश कर सके,बना सके, पा सके। ताकि बच्चों के अपने जीवन में व्यस्त हो जाने के बाद उसे अकेलापन या वंचित रह जाने का कष्ट न साले।

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  2. सही चित्रण -यह घर घर की कहानी न भी हो तो मेरे घर की कहानी तो बिल्कुल यही है -यही धमा चौकडी मची रहती है हर रोज -जैसे कोई जेहाद सा हो ! अब लगा की वह कहावत सचमुच सोलहो आने सच है कि किसी महान व्यक्ति के पीछे एक नारी होती है !

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  3. घुघूतीबासूती व अरविन्द जी!! से सहमत !!

    सही है!!

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  4. कहानी घर घर की...अच्छा चित्रण. हालांकि बहुत कुछ परिवर्तन स्थितियों में आया है फिर भी..

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  5. एकल परिवरो में ये दृश्य प्राय देखने को मिलते है.. हमारे घर में तीन भाभीया है.. जिन्होने काम बाँट रखा है.. सबको आराम का मौका मिलता है.. और सब काम भी करती है.. फिर मेरी एक भाभी को खाना बनाने का शौक है.. तो वो खुद ही कह देती है.. कि आज मैं स्पेशल बनाकर खिलौँगा.. यदि हम अपने कार्यो में रचनात्मकता धहोन्द ले तो फिर निरस्ता कि जगह नही रहती..

    पहले जब भाभीया नही थी.. तब हर सनडे को पापा खाना बनाते थे.. और रोज़ हमे नहला कर स्कूल के लिए तैयार करवाने का काम भी पापा का था.. इस काम में उन्हे भी मज़ा आता था और हमे भी..

    फिर भी आपने जो कहा वो भी आम दृश्य है जो कही भी देखने को मिल जाता है.. घर के सदस्यो के बीच सही अंडरस्टॅंडिंग हो तो इस तरह कि समस्या से छुटकारा मिल सकता है..

    वैसे देखिए आपने तो ब्लॉगिंग के लिए समय भी निकल लिया.. और कई महिलाए भी निकाल लेती है.. इसका मतलब अपनी खुशी के लिए वो समय तो निकलती ही है..

    आपकी पोस्ट बढ़िया रही..

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  6. सही बात.है.....विवरण भीसही...

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  7. बहुत सही लिखा है आपने रचना .अपने लिए वक्त चुराना पड़ता है ..और कोशिश करने पर वह मिल ही जाता है

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  8. आम बात हो या ख़ास ! हम तो कहेंगे की आप खूब लिखिए. कम से कम सप्ताह में एक बार. अरे इतना कुछ करती हैं तो इसके लिए भी वक्त निकल ही आएगा. हमें अपने घर की और याद आती रहेगी...

    हां हमारा वीकएंड २ दिन का होता है :-) लेकिन बहुत कम लगता है ! क्या करें ये वीकएंड चीज ही ऐसी है.

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  9. ब्लॉगिंग में स्वागत जी! और मुझे लगता है कि आप सिद्धार्थ जी को पीछे न छोड़ दें लेखन में।
    बहुत सुन्दर। यह फोटो भी बहुत जम रही है!

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  10. रचना त्रिपाठी जी , मुझे लगता है यह कहानी हर घर की है, हमारे घर की तो पक्की,बहुत सुंदर लेख लिखा आप ने, लेकिन ना्रिया अपने काम हमे भी तो नही करने देती, एक बार हम ने चाय बनाई किसी ने नही पी, एक बार चावल बनाये, जो हमारे कुत्ते ने भी नही खाये,लेकिन हमे फ़िक्र तो होता है, इस लिये छुट्टी वाले दिन सब मिल कर सब कुछ बनाते है.
    धन्यवाद

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  11. घर-बाहर संभालती पत्नी खद से कितनी दूर हो जाती है..रचना जी..आपने ठीक ही लिखा। वो पत्नी होती है, मां होती है,बहू और बहन भी ...लेकिन वो 'मैं'नहीं हो पाती..पूरी ज़िंदगी। लेकिन रचना जी कल ही टीवी पर देखा...अपने चैनल पर भी चलवाया....कल ही सचिन तेंदुलकर ने मुंबई में कुछ कहा था...उनका मुंबई में भव्य स्वागत किया गया था...उनके सम्मान में जाने माने क्रिकेट कमेंटेटर हर्ष भोगले ने उन्हीं से कुछ सवाल पूछे-मंच पर ही। पूछा - क्या आप भी सपने देखते हैं...विनीत मास्टर ब्लास्टर ने कहा-हां सपने देखना ज़रूरी है...मैं भी औरों की तरह देखता हूं-लेकिन मैं उनका पीछा करता हूं।
    तो रचना जी....हमें भी पीछा करना होगा। मुझे याद है-मेरे पूर्व बॉस रजत शर्मा जी कहा करते थे-राकेश, टाइम मैनेजमेंट जिस दिन सीख लोगे...कुछ बन जाओगे। मैनेज किया तो अच्छे नतीजे भी जल्दी ही दिखे। लेकिन जैसे ही ढील दी-वैसे ही .... जैसे रेत की तरह मुट्ठी से बहुत कुछ निकल गया। मेरा खयाल है कि हमें वक्त निकालना होगा। घंटे तो वही 24 ही होते हैं। ये मत सोचिएगा कि उपदेश दे रहा हूं....नौकर चाकर हों तो ज़िम्मेदारियां बांटिए...और खुद के लिए वक्त निकालिए कुछ इसी ब्लॉग पर लिखेंगी तो पाठकों को भी सुकून मिलेगा।

    शुभकामनाएं

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  12. AAP NE ACCHA LIKHA HAI LEKIN THORA SPACE LOVE KE LIYE BHI DIYA HOTA TO STORY STORY MAI TWIST AA JATA.
    MAI RAKESH TRIPATHI JI KE COMENT SE PURI TARAH SAHAMAT HOO HUME APANE KHAWABO KE INSABKE SATH HI PURA KARANA HOGA LOG KARATE BHI HAI AAP AOUR HUM BHI PURA KARENGE...BE CONFIDENT...
    AAP KI DOST KO LAGATA HAI KI DUKHATI RUG PAR HATH RAKH DIYA HAI..
    AAP KI DOST HAI NA ?

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  13. Kaash bloggeraadhish Rachana SinghJI ka is par koi comment aataa.

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