इस साल बहुत दिनों के बाद मोहर्रम के मौके पर गाँव जाने का अवसर मिला। मन में यह जानने की उत्सुकता थी कि बचपन में हमें जिस ‘ताजिया मेला’ का इन्तजार सालोसाल रहता था, उसका अब क्या रूप हो गया होगा।
हमें याद है जब बगल के गाँव में लगने वाले ताजिया के मेले के दिन [मोहर्रम की दसवीं तारीख (योमे आशुरा) ] हम दोपहर से ही तैयार होकर घर के बड़े-बुजुर्गों से ‘मेला करने’ के लिए चन्दा इकठ्ठा करते थे। गाँव के बीच से गुजरने वाली सड़क से होकर मेले की ओर जाने वाली ताजियों की कतार व उन्हें ढोने वालों व साथ चलने वालों के कंठ से हासन-हुसैन की जै-जयकार के नारों के बीच ढोल नगाड़े की कर्णभेदी ध्वनियों के साथ उड़ती हुई धूल को दरकिनार कर उनके बीच में तमाशाई बन पहुँच जाते थे। मेले में पहुँचकर चारो ओर से आने वाली ताजियों की प्रदर्शनी देखते, मुस्लिम नौजवानों की तलवार बाजी व अन्य हथियारों का प्रदर्शन व विविध शारीरिक कौशल के करतब देखकर रोमांचित हो जाते।
आसपास के २०-२५ गाँवों के हिन्दू-मुस्लिम जुटते थे मेले में। दूर-दूर से लड़कियाँ, औरतें और बच्चे बैलगाड़ी में लद-फदकर आ जाते। अपने-अपने अभिभावक के साथ ‘मेला करते’ लाल-पीले-हरे परिधानों में लिपटे हुए। तेल-इत्र-फुलेल का प्रयोग पूरी उदारता से किया जाता था।
मेले में बिकने वाली कड़क लाल रंग की जलेबी, इसकी रंगीली रसीली बहन इमरती, गट्टा-बताशा, लइया, मूँगफली, चिनियाबादाम, फोंफी, इत्यादि बच्चों को ललचाती थी तो घर-गृहस्थी के उपयोग की तमाम सामग्रियों से सजी दुकानें बड़ी उम्र के पुरुषों व महिलाओं को आकर्षित करती थीं। मेले में पुराने परिचितों और रिश्तेदारों से मुलाकात भी हो जाया करती थी। काफी समाचारों और हाल-चाल का आदान-प्रदान भी हो जाता था। कुछ जोड़ों की शादियाँ भी तय हो जाने की भूमिका बन जाया करती थी।
तब हमें यह कदाचित् पता नहीं था कि मोहर्रम का पर्व पैगम्बर साहब के नवासे हजरत इमाम हुसैन की शहादत की याद में मनाया जाता है जहाँ मूलतः शोक का भाव प्रधान होता है। हम बच्चों के लिए तो यह स्कूल से छुट्टी और मेले की मौज-मस्ती का दिन होता था।
पिछले बीस-पच्चीस सालों में ग्रामीण समाज में भी काफी बदलाव आ गये हैं। शहरों की ओर आवागमन बढ़ने से बाजार की संस्कृति का प्रसार तेजी से हुआ है। आर्थिक संसाधन बढ़े हैं, उपभोक्ता वस्तुओं का विपणन बढ़ा है और दूरस्थ क्षेत्रों तक इनकी पहुँच भी बढ़ गयी है। अब मेले का रूप वह नही रहा। बाहरी चमक-दमक तो बढ़ गयी है लेकिन ग्रामीण लोगों की सामाजिकता संकुचित सी हो गयी है।
अब विशाल, ऊँचे और दामी ताजिये बनाने की होड़ लग रही है। इतने बड़े कि उन्हें कन्धों पर लादकर ढोते हुए मेले में ले जाना सम्भव ही नहीं रहा। अब तो जिस गाँव में ये बनाये जाते हैं, वहीं पर मेला लग जाता है। परिणाम यह है कि हर दूसरे गाँव में एक बड़े ताजिए के इर्द-गिर्द छोटा सा मेला लगा हुआ है। कई-कई लाख रूपयों की लागत लगाकर ताजिए बनाए जा रहे हैं। रचनात्मकता औए उत्कृष्ट हस्तकला का नित नया और सुन्दर नमूना पेश करने वाले कारीगर इन दिनों बहुत व्यस्त हो जाते हैं।
इस बार मुझे बगल का पारम्परिक मेला बेजान लगा तो दूसरे गाँव में बनी एक नामी ताजिया को देखने चल पड़ा। वहाँ की कुछ तस्वीरें मोबाइल के कैमरे मे कैद कर लाया हूँ:
पूर्वी उत्तरप्रदेश के कुशीनगर जिले के ‘बन्धवा’ गाँव में खड़ी की गयी इस ताजिया के निर्माता कलाकारों ने बताया कि उन्होंने दिल्ली की मशहूर जामा मस्जिद का प्रतिरूप बनाने की कोशिश की है। लकड़ी, बाँस और रंगीन कागजों से तैयार इस ताजिए की इस ऊपर वाली तस्वीर में इसका पिछला भाग दिखाया गया है जबकि नीचे वाली तस्वीर में सामने की ओर बने प्रवेश द्वार से अन्दर जा रहे लोगों की अपार भीड़ दिखायी दे रही है।
सुदूर ग्रामीण अञ्चल की दृष्टि से एक अद्भुत दृश्य उत्पन्न करने वाले इस मॉडल के सामने के मुख्य द्वार पर जियारत करने वालों की भीड़ लगी रही जिसमें मची ठेलमठेल के कारण मैं भीतर जाने से वञ्चित रह गया।
मेले में जो लोग आये थे उनका उद्देश्य इस ताजिए को देखना ही था। वहाँ की दुकानों में सजी सामग्री कुछ खास नहीं थी। पान, तम्बाकू, गुटखा, चाय, पकौड़ी, जलेबी, सूजी का हलवा, उनपर भिनभिनाती मक्खियाँ, सस्ती-रंगीन टॉफी, बच्चों के हल्के कपड़े जैसी साधारण चीजें ही थीं। अलबत्ता देहात की औरतों और लड़कियों के साज-श्रृंगार के सामान, चूड़ियों और अधोवस्त्रों का फूहड़ प्रदर्शन करती दुकानें जरूर लगी हुई थीं। उनपर खरीदारों की भीड़ भी जमी हुई थी।
चुप रह बेटा! चूड़ियाँ पसन्द तो कर लूँ...
मेले में कुछ ऐसे दृश्य भी थे जिनकी तस्वीर लेना मेरे लिए बहुत मुश्किल था। सरेआम भीड़ के बीच में ही खुले में बकरे-बकरियों को हलाल करके उनका चमड़ा छीलना, एक लठ्ठे से लटकाकर मांस की बोटियाँ काट-काटकर बेंचना, मुर्गे-मुर्गियों के पैर रस्सी में बाँधकर रखना और खरीदार की पसन्द के मुताबिक छाँटकर उसे उसके सामने ही जिबह करना, केंव-केंव के करुण क्रन्दन की क्रमशः कम होती ध्वनि से निस्पृह धारदार हथियार के यन्त्रवत प्रयोग से उनकी एक के बाद एक घटती संख्या छोटे-छोटे बच्चों के मानस-पटल पर क्या प्रभाव छोड़ेगी, यह सोचकर मन दुःखी हो गया।
निष्प्रयोज्य मांस के टुकड़ों व रक्त के लिए झगड़ते कुतों की टोली और उनपर भिनभिनाती मक्खियाँ पूरे मेला क्षेत्र में घूमते हुए अन्य खाद्य पदार्थों को दूषित कर रही थीं।
सुर्ख लाल कलगी वाला
एक सफेद मुर्गा
दुकान पर बँधा
कोंय-कोंय करता हुआ
तेजी से मिट्टी खोद रहा है
अपने लिए अनाज के दाने
या कीड़े-मकोड़े खोज रहा है
ताकि वो उसे अपना आहार बना सके।
इस बात से बेखबर
बेपरवाह
कि वह किसी भी क्षण
आदमी का आहार बनने के लिए
काट दिया जाएगा
क्योंकि
उसका रेट लग चुका है
(सिद्धार्थ)
बहुत सुंदर विवरण। तस्वीरों ने तो जैसे और भी ज्यादा लाईव कवरेज दे दी है। वैसे एक बात है, जब कभी इस तरह के मेलों की बात आती है तो मुझे प्रेमचंद के हामिद और उसके चिमटे की कहानी जरूर याद आ जाती है। मेरा ख्याल है सभी को उसके चिमटे की याद आती होगी।
जवाब देंहटाएंसच्ची बात जी !! अच्छा विवरण !!
जवाब देंहटाएंसुंदर |
जवाब देंहटाएंACHCHA HAI. Your poem's philosophy, however, is opposite to your feelings expressed in the description of the slaughter & selling of the meat. The description expresses the arousal of repulsion/ unsavory feelings in you, while the poem expresses the that mature philosophy where the mind comprehends the truth of life - that each life depends on another- and is free of any rancour against it all.
जवाब देंहटाएंThe tile of a picture ' kya lun? kaise lun" is apt- particulraly 'kaise lun'part.
Ek baat par aur prashansa karana bhul gaya tha apne comment mein-- kuch tasviren khichne mein to tumne kafi khatra bhi utahaya, aisa in tasviron ko dekh kar lagata hai.
जवाब देंहटाएंसिद्धार्थ जी
जवाब देंहटाएंदो संस्कृतियों का अन्तर आपने बाखूबी दर्शाया है। कल तक सभी मेले हमारे सांझे थे लेकिन आज हम स्वयं को ही अपने आप में बांधते जा रहे हैं। मेले का उद्देश्य मेल मिलाप नहीं रह गया है अपितु प्रदर्शन हो गया है। हम सब इसी प्रदर्शन के शिकार हैं।
अजित गुप्ता
सही कहा आपने. शहरों से प्रतिस्पर्धा में गाँव भी अपनी पारम्परिकता खोते जा रहे हैं. ग्रामीण मेले आदि शहरों की दोयम दर्जे की नक़ल बन अपनी अहमियत खो रहे हैं.
जवाब देंहटाएं(gandhivichar.blogspot.com)
बहुत सुंदर आप ने पुराने मेलो की याद दिला दी हम ने भी देखे है वेसे मेले, जो हम सब के होते थे, ओर त्योहार भी सब के सांझा होते थे, अब ना वो मेले रहे ना वो त्योहार.
जवाब देंहटाएंसुंदर सुंदर चित्र ने फ़िर से उन्ही मेलो की याद दिला दी.
धन्यवाद
गांव के भूले मेले की याद आ गई इसको पढ़ कर उस पर चित्र लाजवाब हैं ..बहुत बेहतरीन पोस्ट लगी यह ..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर वर्णन गांव के मेले का। रागदरबारी के मेले की याद आ गई। बह जोगनथवा, रुप्पन और रंगनाथ जैसे पात्र नहीं हैं।
जवाब देंहटाएंपतानहीं, मुहर्रम के मेले में जोगनथवा छाप पात्र लड़कियां छेड़ने का दुस्साहस करते हैं या नहीं।
पर बहुत मन से और मेहनत से बनाई गई पोस्ट और उत्कृष्टता चमकती है इस में।
वाह ! सजीव चित्रण. हमने अभी तक ताजिया मेला सुना ही है. देखा नहीं कभी.
जवाब देंहटाएंBAHUT NIMAN BAT LIKHALE BAD SAHEB!!!
जवाब देंहटाएंbahut achha wardan . ye photographs kaha kaha se sahej late hain? enki wajah se posto me sajiwata aa jati hai.
जवाब देंहटाएंइस तरह का ताजिया तो मैंने भी पहली बार देखा है.
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