कल सुहागिन स्त्रियों ने कजरी तीज का व्रत रखा। कुछ ने तो फलाहार लिया होगा, मेंहदी रचायी होगी, खूब खुशियाँ मनायी होंगी लेकिन बहुतों ने निराहार, निर्जला व्रत किया होगा। अपने प्राण संकट में डाले होंगे, शारीरिक कष्ट में रात गुजारी होगी अपने पति के सुदीर्घ जीवन की कामना से। इस व्रत में कर्मकांडी पंडितों द्वारा जिस भय तत्व का समावेश किया गया है उसपर मैंने एक पोस्ट लिखी थी। आज छः साल बाद फिर से मन उद्विग्न है। इसबार तीज व्रत से नहीं बल्कि मेरे गाँव पर एक और वृहद अनुष्ठान हो रहा है उसको लेकर।
मेरी माता जी की आयु करीब 68 वर्ष हो चुकी है जो पिछले तीन चार महीने से बीमार चल रही हैं। मधुमेह और गठिया से ग्रस्त होने के कारण उन्हें लगातार दवाइयाँ लेनी पड़ती हैं और खान-पान में भी परहेज रखना होता है। नियमित दवाएँ लेने और यथासंभव परहेज के बावजूद पिछले दिनों उन्हें कुछ ऐसी तकलीफ़ हुई जो डॉक्टर समझ नहीं पा रहे थे। उन्हें भूख लगनी बन्द हो गयी और यदि कुछ खाने की कोशिश करती तो तत्काल उल्टी हो जाती। नियमित घरेलू डॉक्टर की दवा से कोई असर नहीं हुआ तो दूसरे विशेषज्ञों को भी दिखाया गया। सभी प्रकार की जाँच करायी गयी। सबकुछ ठीक-ठाक मिला। अल्ट्रा-साउंड, सीटी-स्कैन, ब्लड इत्यादि की जाँच में कोई ऐसी बात नहीं मिली जिसके आधार पर कोई चिकित्सा करायी जा सके। नियमित डॉक्टर ने बुखार चेक किया और एक-दो दवायें देकर भगवान का नाम लेने को कहा। लेकिन भोजन से अरुचि और उल्टी की स्थिति कमोबेश बनी रही। माताजी का वजन तेजी से गिरा है और बेहद कमजोर हो गयी हैं।
मेरे पिताजी जो सत्तर की उम्र पार कर चुके हैं अपेक्षाकृत स्वस्थ, निरोग और सक्रिय दिनचर्या वाले हैं। गाँव के लोग घरेलू उपयोग के लिए शाक-भाजी उगाने में किये गये उनके परिश्रम और सक्रियता के कायल हैं। वे अपने स्वास्थ्य के प्रति बहुत सचेत रहते हैं लेकिन माताजी की हालत से बेहद चिन्तित होकर उन्होंने एक ज्योतिषी से मुलाकात की। मिलकर आने के बाद उन्होंने मुझसे फोनपर बताया कि शास्त्री जी ने क्या कहा -
“आप दोनो लोगों के ऊपर बुरे ग्रहों का दुष्प्रभाव हो गया है। शनिदेव बेहद वक्र दृष्टि से देख रहे हैं। आपने यदि समय रहते इसका उपचार नहीं किया तो कुछ भी बुरा से बुरा हो सकता है। अमंगल अवश्यंभावी है।” पिता जी की वाणी में भयतत्व साफ सुनायी दे रहा था।
मैंने धैर्यपूर्वक पूछा, “शास्त्री जी ने उपचार क्या बताया?”
“कह रहे थे कि आप दोनो लोग तुलादान कराइये, छायादान कराइये, गऊदान कराइये, कुश के रस से रुद्राभिषेक कराइये, सात दिनों तक सात ब्राह्मणों से सवालाख महामृत्युञ्य मंत्रों का जप कराकर हवन कराइए…। गऊदान भी केवल प्रकल्पित (notional) नहीं बल्कि वास्तविक रूप से हाल ही की ब्यायी हुई गाय जिसके नीचे बछिया हो खरीदकर लाइये, उसके खुर और सींग पर सोना मढ़वाइये तब उसका संकल्प करके दान दीजिए…”
इतना सुनने के बाद मेरा धैर्य जवाब दे गया। उस शास्त्री पर क्रोध आया तो स्वर ऊँचा हो गया। पिताजी से मैंने रोष में आकर अपनी असहमति व्यक्त की। यह उन्हें अच्छा नहीं लगा। अपनी उम्र और आस्था की दुहाई देने लगे। यह मुझे भावनात्मक दबाव डालने जैसा लगा जिसे मैंने ‘इमोशनल ब्लैकमेलिंग’ की संज्ञा दे दी। यह शब्द सुनने के बाद उन्होंने आगे बात करना जरूरी नहीं समझा और फोन काट दिया। अचानक फोन कट जाना मुझे खटकता रहा, लेकिन कुछ दूसरी व्यस्तताओं में इतना उलझा रहा कि उस दिन दुबारा बात नहीं हो पायी।
अगले दिन गाँव से फोन आया कि पिताजी की तबीयत रात में बहुत ज्यादा बिगड़ गयी थी। रक्तचाप बेहद नीचे गिर गया था, आवाज बन्द हो गयी थी, अंग शिथिल पड़ गये थे और वे बेहद कमजोर होकर बिस्तर पर निढाल पड़ गये थे। उसके बाद घर वालों ने नीबू-नमक का घोल पिलाया तो हालत में सुधार हुआ। सबेरे अस्पताल गये तबतक सामान्य हो चुके थे। पता चलने पर मैंने डॉक्टर साहब से बात की तो बोले- कुछ खास नहीं था। थोड़ी देर के लिए बीपी नीचे चला गया होगा। मैंने तो पूरी जाँच की, सबकुछ नॉर्मल था।
घर फोन करने पर पता चला कि पिछले दिन मुझसे बात करने के बाद पिताजी बेहद आहत महसूस कर रहे थे और प्रायः अवसाद (depression) में चले गये थे। उन्होंने उसके बाद परिवार के दूसरे सदस्यों से भी कोई बात नहीं की और रात होने के बात हालत बिगड़ती चली गयी। ऐसे में उन्होंने घरवालों को मुझे सूचित करने से भी मना कर दिया। यह सब सुनने के बाद मुझे काटो तो खून नहीं। विज्ञान पर मेरा विश्वास कर्मकांडों पर अंधविश्वास के आगे अपराधी बन गया।
घर के दूसरे सदस्यों ने तो जुबान दबाये रखी लेकिन श्रीमती जी ने मुझे खुलकर कोसना शुरू किया। घर के बुजुर्ग से ऐसे ही बात करते हैं? …अभी कुछ हो-हवा जाय तो जिंदगी भर पछताना पड़ेगा। …अब वे जैसा चाह रहे हैं वैसा ही करिए। …अपना ज्ञान अपने पास रखिए। …पूजा-पाठ कोई बुरी चीज नहीं है। …भगवान के आगे किसी की नहीं चलती। जैसे इतना हो रहा है वैसे यह भी सही…।
“अरे भाई, मैं भी कोई नास्तिक व्यक्ति थोड़े न हूँ। रोज स्नान के बाद पूजा भी करता हूँ। ऊपर वाले से डरता भी हूँ…। कोशिश करता हूँ कोई पाप न हो। किसी को कष्ट न पहुँचाऊँ, यथा संभव जरूरतमंदों की मदद करूँ… करता भी हूँ; लेकिन ये लालची… कर्मकांडी पंडित मुझे एक नंबर के धूर्त लगते हैं। उनके चक्कर में पड़कर लाखो खर्च करना राख में घी डालने जैसा है। मैं इन शास्त्री जी को तो एक धेला नहीं देने वाला…” कहते-कहते मैं ताव में आ गया।
श्रीमती जी हँस पड़ीं- अच्छा ठीक है। किसी दूसरे पंडित से दिखवा लेते हैं। “जो मन में आये, तुम लोग कर लो” यह कहते हुए मैंने बात खत्म की।
अब परिणामी स्थिति यह है कि पिताश्री ने किसी ‘संतोष पंडित’ के पौरोहित्य में तुलादान, छायादान, प्रकल्पित गऊदान आदि का कार्यक्रम संपन्न करा लिया है। ह्वाट्सएप्प पर आयी तस्वीरें बता रही हैं कि दोनो बुजुर्ग प्रसन्नचित्त और प्रायः स्वस्थ हैं। माता जी की उल्टियाँ कम हो गयीं हैं। दवा से फायदा होना शुरू हो गया है। पिता जी ने खुद ही बाजार जाकर अनुष्ठान, दान और ब्राह्मणों की सेवा के लिए विस्तृत खरीदारी की है। सात ब्राह्मणों ने घरपर डेरा जमा लिया है जो सात दिनों तक चलने वाले अनुष्ठान में महामृत्युंजय जपयज्ञ को कार्यरूप दे रहे हैं। सातो दिन रुद्राभिषेक किया जाना है। इसकी पूर्णाहुति रविवार को होगी जिसमें सपरिवार उपस्थित होने का आदेश प्राप्त हो गया है। ब्राह्मणों के अलावा उस दिन पूरे गाँव के लोगों को भोज दिया जाएगा।
बच्चे अपनी स्कूली परीक्षा के दृष्टिगत गाँव जाने को कत्तई तैयार नहीं हैं। उनके बिना उनकी मम्मी भी नहीं जा सकती। लेकिन मैं ठहरा सरकारी लोकसेवक। आकस्मिक अवकाश की सुविधा मिली हुई है। इसलिए मैंने विधिवत् छुट्टी लेकर रेलगाड़ी में रिजर्वेशन करा लिया है जो अभी वेटिंग बता रहा है। एक पक्का जुगाड़ लग गया है तो बर्थ कन्फ़र्म हो ही जाए्गी। विश्वास है कि यज्ञ का प्रसाद लेने समय से पहुँच ही जाऊंगा। जय हो।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
पढकर मन बोझिल हो गया. अब उनके विचार परिवर्तन की गुंजाइश नहीं. हमारे समाज में आज भी तार्किकता का घोर अभाव है. और इसका फायदा उठाने के लिये निहित स्वार्थ सिद्धि वाले टकटकी लगाये रहते हैं. बहरहाल फेथ हीलिंग का भी एक पहलू है. आप पिता जी जो चाहें करने दें.
जवाब देंहटाएंआपकी वैज्ञानिक मनोवृत्ति की मैं प्रशंसा करता हूं किन्तु पिता जी की सुख शांति की कीमत पर नहीं.
पढकर मन बोझिल हो गया. अब उनके विचार परिवर्तन की गुंजाइश नहीं. हमारे समाज में आज भी तार्किकता का घोर अभाव है. और इसका फायदा उठाने के लिये निहित स्वार्थ सिद्धि वाले टकटकी लगाये रहते हैं. बहरहाल फेथ हीलिंग का भी एक पहलू है. आप पिता जी जो चाहें करने दें.
जवाब देंहटाएंआपकी वैज्ञानिक मनोवृत्ति की मैं प्रशंसा करता हूं किन्तु पिता जी की सुख शांति की कीमत पर नहीं.
बडी धर्म संकट की स्थिति बन जाती है। परिवार में मुझे नास्तिक समझा जाता है जबकि ऐसा नहीं है।
जवाब देंहटाएंवही तो। धार्मिक आस्था के नाम पर जब कर्म कांड और आडम्बर की मिलावट सामने आती है और वह भी किसी की लालची दृष्टि के कारण तो कोफ़्त बहुत होने लगती है। पारिवारिक संस्कार हमें खुलकर विरोध भी नहीं करने देते। नहीं तो जो आपके साथ है वैसी स्थिति बन जाती है।
हटाएंसिद्धार्थ जी, स्थितियां बदलने में अभी बहुत वक्त लगने वाला है। सोचिये जब हम अपने ही माता पिता को एक सही बात समझाने में सफल नहीं हो सके तो औरों को क्या समझायेंगे? यहाँ मसला सोच का है। धार्मिक व्यक्ति जब कर्मकांडी हो जाता है तब ऐसे धूर्त पंडितों की चांदी हो जाती है। और अफ़सोस तो ये है कि ऐसे कर्मकांडी अंधविश्वास से हमारा न केवल बुज़ुर्ग समाज बल्कि युवा समाज भी घिरा हुआ है। बहुत समय लगेगा इसे ख़त्म होने में। एक बात और, बीमारी से घिरा व्यक्ति ज्योतिषी, पंडित और बाबाओं की शरण में खुद को बहुत सुरक्षित पाता है सो आपके पिताजी भी अंततः वहां पहुंचे और देखिये न मनोवैज्ञानिक असर कि माताजी अब ठीक हो रही हैं...😞 आपकी लाचारी समझ पा रही हूँ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (19-09-2015) को " माँ बाप बुढापे में बोझ क्यों?" (चर्चा अंक-2103) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत हद तक मानसिक अवस्था भी शारीरिक स्वास्थ्य को नियन्त्रित करती है.
जवाब देंहटाएंइसलिये इस उम्र में दूसरों को नुकसान पहुँचाये बिना जो करना चाहते है, वही करने देना बेहतर है !!
कुछ कार्य विश्वास ना होते हुये भी अपनों के लिये करने पडते हैं। बुजुर्गों को समझाना हमेशा से ही मुश्किल कार्य रहा है, उनके साथ आप तर्क करेंगे तो उन्हें ठेस महसूस होती है। खैर इसे भी चिकित्सा का एक साधन मानने में हर्ज नहीं, आखिर मनोवैज्ञानिक कारण से स्वास्थय लाभ तो हो रहा है ना माता जी को
जवाब देंहटाएंरही बात पंडित पुरोहितों द्वारा भय दिखाकर लूटे जाने की तो आजकल डॉक्टर्स भी यही सब कर रहे हैं........भय दिखा कर पैसा वसूलना इस पेशे में भी कम नहीं है। सबसे बडी बात उन्हें हम मुंहमांगी फीस भी देते हैं। खैर.......... और टिकट कन्फर्म ना हो तो ग्यारह रुपये का प्रसाद चढाने की आप भी मन्नत मांग लीजिये......जैसे हमारे कर्मकांडी धार्मिक बुजुर्ग करते हैं :-)
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, आयकर और एनआरआई ... ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंकई बार ऐसी धर्मसंकट की स्थिति में खूब पढ़े-लिखे अच्छे अच्छों का ज्ञान अपने बड़े बुजुर्गों के आगे धरा का धरा रह जाता है। । खैर यही कहना होगा की अपनों के मन की संतुष्टि से बढ़कर कुछ नहीं।
जवाब देंहटाएंयदि ईश्वर पर विश्वास करते हैं तो वो कहते हैं ना जो भी होता है ठीक ही होता है। रही बात कर्मकांड का विरोध करने की तो इसके हर पहलू पर विचार करके ही किसी निर्णय पर पहुंचना उचित होगा। वैसे भी इतने लोगों का धार्मिक विश्वास अंधविश्वास कैसे हो सकता है। रही बात लालची पण्डा-पुरोहितों की तो वो एक सामाजिक विसंगति है, उसका फल उन्हें भुगतना होगा। पर वे उस मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य लाभ के निमित्त तो बनते ही हैं, जो आपके अभिभावकों को प्राप्त हुआ। जरा कल्पना करिए कि यदि आपका अपने पिता के साथ यूं ही मनमुटाव चलता रहता और घर में धार्मिक अनुष्ठान नहीं हुआ होता तो किसी चमत्कारिक डॉक्टर को आपके पिताजी की चिकित्सा करने का स्वप्न नहीं आता कि वो गांव जाकर उनकी चिकित्सा कर देता। आधुनिक चिकित्सा तभी सफल हो सकती है जब व्यक्ति उसके प्रति अास्था रखे। जिस आदमी का विश्वास खंडित हो जाता है उसे एलौपैथ चिकित्सा उस रूप में कभी खड़ा नहीं कर सकती, जिस रूप में उसे जीवन के लिए खड़ा होना चाहिए।
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