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बुधवार, 16 अक्तूबर 2013

दशहरे के दिशाशूल

जब नवरात्रि के अंतिम चरण में माँ दुर्गा के बड़े-बड़े भक्तों द्वारा भगवती जागरण और जगराता के बड़े-बड़े पांडाल सजाये जा रहे थे, जब भारत के क्रिकेट प्रेमी भारत-ऑस्ट्रेलिया के पहले एकदिवसीय मैच में ट्वेन्टी-ट्वेन्टी की तरह जोरदार जीत की उम्मीद से टीवी के आगे जम जाने और बाद में बुरी तरह पिट जाने की तैयारी में लहालोट थे; और जब देश के पूर्वी भाग के लोग मौसम-विज्ञानियों द्वारा फेलीनी के आतंक से भयभीत किये जाने के बाद अपने यात्रा कार्यक्रम बदल रहे थे उस समय मैं अपने बॉस से यह जिरह कर रहा था कि सरकारी छुट्टी के दिन मुझे जिले से बाहर जाने की अनुमति दी जाय ताकि मैं अपने गाँव जाकर दशहरे के त्यौहार पर अपने माता-पिता सहित गाँव भर के बड़े-बुजुर्गों से मिलकर उनका आशीर्वाद ग्रहण कर सकूँ और वहाँ के अन्य सभी लड़के-लड़कियों, महिलाओं-पुरुषों का हाल-चाल जानने की वार्षिक परंपरा का निर्वाह कर सकूँ। बड़ी मशक्कत के बाद मुझे अनुमति तो मिल गयी लेकिन प्रकृति ने कुछ ऐसा संयोग बनाया कि इस बार की मेरी यात्रा मेरे उत्साह और धैर्य की लगातार परीक्षा लेती रही। अहर्निश संघर्ष करता हुआ मैं जब आज रायबरेली लौटा हूँ और कल बकरीद की छुट्टी पर लखनऊ जाने की अनुज्ञा बॉस ने खुद ही बुलाकर दे दी है तब भी मैंने रायबरेली में रुककर आराम करने का मन बनाया है। लगातार की दौड़-धूप से तन ही नहीं मन में भी थकान घुस गयी है। अपनी एक पुरानी कविता याद आ रही है:

कुंजीपट खूँटी पर टांग
धत्‌ कुर्सी कर्मठता का स्वांग
दफ़्तर में अनसुनी है छुट्टी की मांग

कूड़े का ढेर
फाइल में फैला अंधेर
चिट्ठों में आँख मीच रहे उटकेर

आफ़त में जान
भला है बन बैठो अन्जान
देह नहीं मन में घुस पैठी थकान

इस थकान और निराशा के मुख्य कारण जो रहे उनका बिन्दुवार ब्यौरा यहाँ प्रस्तुत है:

  • कॉन्वेन्ट स्कूल की रीति-नीति ने बच्चों को इतना “प्रोफ़ेशनल और बिजी” बना दिया है कि उन्हें एक-दो दिन की छुट्टी में गाँव जाने की बात बिल्कुल कबूल नहीं होती। साथ में महानगरों में त्यौहारों की रौनक जो होती है उसकी तुलना में गाँव की अंधेरी रातें किसे सुहाएंगी भला। इसके फलस्वरूप मेरे परिवार के सभी सदस्यों ने मुझे गाँव जाने के लिए अकेला छोड़ दिया। बच्चों ने साफ-साफ “डू नॉट डिस्टर्ब” का बोर्ड लगाकर स्टडी-रूम भीतर से बन्द कर लिया और उनकी मम्मी पहरेदार बन बैठीं।
  • अकेले यात्रा करने के लिए ट्रेन से जाना उपयुक्त मानकर लखनऊ से गोरखपुर जाने और वापस आने के लिए आरक्षण करा रखा था। अलस्सुबह जागकर तैयार हुआ और निकलने से पहले जब नेट खोलकर गाड़ी की स्थिति जाननी चाही तब शहीद एक्सप्रेस का नाम सूची से नदारद दिखा। हक्का-बक्का होकर जब मैंने ध्यान से अपने मोबाइल में टिकट कन्फर्मेशन का मेसेज देखा तो यात्रातिथि (DoJ) में 13.10.2013 के स्थान पर 13.11.21013 लिखा था। यानि हड़बड़ी में मैंने आरक्षण कराते समय अक्तूबर के बजाय नवंबर के कैलेंडर से तेरह तारीख चुन ली थी।
  • अब तैयार हो चुका था तो जाना था ही। मोबाइल में वापसी यात्रा का मेसेज देखा तो बिल्कुल दुरुस्त निकला-14.10.2013 अवध एक्सप्रेस। पिठ्ठू बैग कंधों में फँसाकर निकल पड़ा। लखनऊ से गोरखपुर के लिए जाने वाली परिवहन निगम की बसें मेरे घर के निकट ही पॉलिटेक्‍निक चौराहे से गुजरती हैं, सो मैं पाँच रूपये ऑटो पर खर्च करके वहीं पहुँच गया। पाँच मिनट में एक बस आयी जो आजमगढ़ जा रही थी- फैजाबाद होते हुए। मैंने सोचा अगली बस पता नहीं कबतक आये इसलिए आधे रास्ते तक की यात्रा इसी से कर लेते हैं। फैजाबाद पहुँचकर गोरखपुर की दूसरी बस ले ली जाएगी। इस कैलकुलेशन में निकट के बादशाहनगर स्टेशन से सात बजे गुजरने वाली बाघ एक्सप्रेस छोड़ दिया जो साढ़े बारह बजे तक गोरखपुर पहुँचा देती। इधर साढ़े छः बजे मेरी बस चल पड़ी थी।
  • चूँकि मूल रूप से मुझे ट्रेन के ए.सी. कोच में यात्रा करनी थी इसलिए मैंने रात में ज्यादा सोने के बजाय बच्चों से बात करने, अपनी सलहज को उसके पति (यानि मेरे साले Smile) के साथ स्टेशन छोड़ने और नेटसर्फ़िंग में ज्यादा समय बिताया था ताकि सुबह गाड़ी में घुसते ही लंबी तानकर सो सकूँ। लेकिन किस्मत में बस की हरहराती-चिघ्घाड़ती सेवा लिखी थी जिसकी आगे की सीट पर दबकर बैठा हुआ मैं इंजन की घरघराती आवाज पर भी भारी पड़ती टेप के गानों की चिल्लाहट सुनने को मजबूर था। आँखें बन्द करके उंघने के मेरे सारे प्रयास निष्फल हो गये।
  • करीब साढ़े सात बजे एक ढाबे पर बस रुक गयी। ड्राइवर और कंडक्टर इत्मीनान से उतरे और तख्त के किनारे लगी कुर्सियों पर बैठ गये। ढाबे वाले ने इनकी आव-भगत शुरू की क्योंकि इन्होंने इस वीराने में अचानक पचासो ग्राहक लाकर डाल दिया था। यात्रियों ने तो चाय, बिस्कुट, और टिकिया आदि खाकर दाम चुकाया लेकिन ये दोनो सरकारी कर्मचारी सुबह-सुबह तंदूरी रोटी के साथ दाल-मखानी और मटर–पनीर मुफ़्त में जीमते रहे। बाद में इन्होंने चाय पी और मुँह में पान दबाकर बस में लौटे। तबतक मैं कई बार घड़ी देख चुका था और नियमित टाइप यात्रियों से पूछ चुका था कि फैजाबाद कबतक पहुँचेंगे।
  • बीस मिनट के ब्रेक के बाद बस आगे बढ़ी तो एक अजीब हरकत शुरू हुई। ड्राइवर साहब को खैनी की तलब लग गयी। मैंने सोचा किसी चेले या कंडक्टर को कहेंगे; लेकिन वे तो खुद ही शुरू हो गये। बस को रोका नहीं, बल्कि नेशनल हाई-वे पर पूरी रफ़्तार से बस को दौड़ाते हुए ही दोनो हाथों से खैनी मलने लगे। मेरी नींद को तो पंख लग गये। चालक महोदय किसी मदारी की तरह अपनी कोहनी से स्टीयरिंग ह्वील को साधते हुए अपने दोनो हाथों से चैतन्य-चुर्ण बनाने लगे। मैंने सोचा-एक दो मिनट सावधान रहना होगा ताकि यदि बस इधर-उधर सरके तो अपना बचाव किया जा सके।
  • सुर्ती मलने का कार्यक्रम जब अपने पाँचवें मिनट में प्रवेश कर गया और इस बीच जब ट्रकों की तीन-चार कतारें ओवर-टेक कर ली गयीं तो मेरा मन घबराने लगा; लेकिन चालक संजय राय का कौशल देखने लायक था; और खैनी के प्रति उनका अनुराग अचंभित करने वाला। मुझे अपने गाँव के स्वर्गीय राम दुलारे जी याद आ गये जो कहा करते थे- तीन सौ चुटकी तेरह ताल, तब देखो सुर्ती का हाल।
  • मेरे मन का ब्लॉगर जाग उठा और इस खैनी-मर्दन की अनुपम छटा को कैमरे में कैद करने को मचल उठा। हाई-वे पर आती-जाती गाड़ियों से गति मिलाती हमारी बस तेजी से बढ़ती जा रही थी और ड्राइवर की एक हथेली पर रखी खैनी दूसरे हाथ के अंगूठे से रगड़ खाकर मोक्षदायी होती जा रही थी। मैंने एक स्टिंग ऑपरेशन कर डाला। यहाँ देखिए:


    तीन सौ चुटकी तेरह ताल, तब देखो सुर्ती का हाल
  • जब ड्राइवर साहब ने मतवाली खैनी को होठ में दबाया और दोनो हाथों से स्टियरिंग थामकर चलने लगे तो मन को सुकून हुआ और ध्यान आया कि फैजाबाद आते-आते नौ बज गये हैं। स्टेशन पर उतरे तो फैजाबाद से लखनऊ जाने वाली चार बसें तैयार खड़ी मिलीं, लेकिन गोरखपुर के लिए कोई सवारी नहीं थी।
  • तभी एक जीप फर्राटे भरती आयी और बस्ती की सवारी पुकारने लगी। मैंने बढ़कर गोरखपुर के लिए पूछा तो वह आगे बढ़ गया लेकिन थोड़ी देर में वापस आ गया। उसे काम भर की सवारियाँ नहीं मिलीं थीं तो मुझे पटाने लगा। बोला- मैं गोरखपुर तो नहीं जाऊँगा लेकिन आपको बस्ती रोडवेज पर छोड़ दूंगा जहाँ से आपको गोरखपुर की बस मिल जाएगी। मुझे पता था कि यह जब तक तीन की सीट पर चार आदमी नहीं ठूस लेगा तबतक नहीं चलेगा। फिर भी मैंने अपना बैग बीच वाली सीट पर रखा और इधर उधर बेहतर विकल्प तलाशते हुए भी अंदर घुसने का उपक्रम करने लगा। तभी पीछे एक बस से आवाज आयी- आइए गोरखपुर। मैं फौरन मुड़ा और बैग उठाकर उधर झपट पड़ा जहाँ ड्राइवर अपनी बस के आगे लगी लखनऊ और गोरखपुर की तख्तियाँ अदल-बदल रहा था।
  • बस में आगे की सीट पर हम ज्यों ही बैठे तभी दूसरे दर्जनों यात्री भी अंदर आ घुसे। लेकिन तभी ड्राइवर बस को एक किनारे ले जाकर उसमें किसी व्यापारी का माल लादने लगा। इसे देखकर मुझे आगे की यात्रा बड़ी विकट जान पड़ी। काफी पुराने जमाने की खड़खड़िया बस थी यह। मैंने शीशा-विहीन खिड़की से झांककर देखा तो वह जीप भी जा चुकी थी। निराशा ने मन में पाँव पसारना शुरू ही किया था कि एक झोंके के समान लखनऊ की ओर से एक चमचमाती बस आ पहुँची जिसपर लिखा था- गोरखपुर मेल। मैं झट से उठा और उस मेल की ओर लपक लिया। देखते-देखते यह माल लादने वाली बस लगभग पूरी खाली हो गयी और गोरखपुर मेल पूरी सवारी भरकर चल पड़ी।
  • मैं सोच रहा था कि अब तो बात बन गयी। मौसम भी सुहाना हो गया था। तभी बस्ती पहुँचने से पहले ही हल्की बूँदा-बाँदी से मुलाकात हो गयी जो क्रमशः बढ़ती गयी। लोगों ने बस के शीशे खींच लिए और बारिश को देखने का आनंद लेने लगे। गोरखपुर पहुँचने से पहले मैंने अपने भतीजों को फोन करके शहर के प्रवेश द्वार पर ही मुझे रिसीव कर लेने को कहा ताकि शहर की भीड़-भाड़ पार करके बस स्टेशन तक जाने में लगने वाले अतिरिक्त एक घंटे की बचत हो सके। जब हम दो बजे गोरखपुर के आवास पर पहुँचे तो मूसलाधार बारिश शुरू हो चुकी थी। हमें यहाँ से साठ किलोमीटर दूर गाँव तक जाना अभी बाकी था। लेकिन मुझे जोर की भूख लगी थी सो दबाकर खाना खाया और भयंकर नींद सता रही थी सो वहीं पसर गये।
  • हम दो घंटे बाद सोकर उठे तो बड़े भैया और भतीजे के साथ घनघोर बारिश को चीरते हुए गाँव के लिए चल पड़े। बरसात के लिहाज से अच्छे रास्ते की तलाश में हमें बीस-पच्चीस किलोमीटर अतिरिक्त चलना पड़ा लेकिन अंधेरा होते-होते हम गाँव पहुँच गये। वहाँ जाने पर दो बातें पता चलीं जो मुझे फिरसे निराश करने वाली थीं।
  • पहली बात यह कि मेरे गाँव में उसदिन दशहरा मनाया ही नहीं जाने वाला था। स्थानीय पंडित जी ने ‘साइत’ (मुहूर्त) देखकर बताया था कि असली दशहरा 14 अक्तूबर को पड़ेगा। यानि गाँव के घर-घर जाकर मिलने-जुलने वाली शाम अगले दिन आयोजित होने वाली थी जब मैं अपनी वापसी यात्रा में ट्रेन में रहूँगा। रही-सही कसर लगातार हो रही बारिश ने पूरी कर दी जिससे गाँव के भीतर कींचड़ और जल-जमाव का कब्जा हो गया था; और चाहकर भी किसी के दरवाजे पर नहीं जाया जा सकता था। घुप अंधेरे का साम्राज्य तो था ही।
  • दूसरी निराशाजनक बात यह सामने आयी कि पड़ोस की मेरी सबसे उम्रदराज भौजाई (पचासी साल की) पिछले दिनों चल बसी थीं जिनकी तेरहवीं की रस्म अगले दिन थी। हमारे लिए साल में दो बार, होली और दशहरा पर उनसे मिलना विशेष उत्सुकता का विषय होता था। उम्र में भारी अन्तर होते हुए भी हम तीन भाइयों के साथ उनका देवर-भाभी के रिश्ते का निर्वाह अद्‌भुत था। अब इसपर सदा के लिए विराम लग चुका था। उन्हें हमारी श्रद्धांजलि।
  • अपने घर पर अम्मा-बाबूजी से मिलना और उनका आशीर्वाद पाना सुकून देने वाला था। परिवार के अन्य कई सदस्यों से लंबे समय बाद भेंट हुई थी इसलिए देर रात तक बातें होती रहीं। गाँव के एक बड़े आदमी ने कालीस्थान पर अखंड रामायण का पाठ आयोजित कर रखा था जहाँ जाकर रामचरितमानस की चौपाइयाँ बाँचने का लोभ हो रहा था; लेकिन बताया गया कि उन्होंने संपूर्ण पाठ को पूरा करने का ठेका किसी बाहरी मंडली दे रखा है और इसमें गाँव के लोगों का स्वतःस्फूर्त सहयोग अपेक्षित नहीं हैं। काले बादलों की गर्जन और घनघोर बारिश की तर्जन ने वहाँ तक जाने का विचार स्थगित करा दिया और हम मच्छरदानी लगाकर घर के बाहरी बरामदे में सो गये। [बाद में इसके लिए लखनऊ लौटकर डाँट भी खानी पड़ी। मैंने स्वास्थ्य और शरीर दोनो की सुरक्षा को खतरे में जो डाल दिया था। Sad smile]
  • अगले दिन हमें सुबह आठ बजे ही लौटना था। लेकिन स्वर्गीया भौजाई के नाम पर उनके घर अन्न ग्रहण करने का भावुक आमंत्रण पाकर हमें वहाँ जाना ही था; सो हम गये और दही-चिउड़ा-चीनी-चटनी की अत्यल्प मात्रा के साथ बुनिया (शीरे में भिगोयी हुई बूँदी) खाकर लौट आये।
  • एक दिन पहले से जो बारिश चल रही थी वह बदस्तूर जारी थी। लेकिन मुझे डेढ़ बजे अवध एक्सप्रेस पकड़नी थी और बड़े भैया को अपनी ससुराल में एक गोद-भराई की रस्म में फूफा की भूमिका का निर्वाह करना था। इसलिए हम फिरसे उसी राह वापस चल पड़े और राह में जगह-जगह हुए जल-जमाव को पार करने के अलावा बिना किसी अन्य व्यवधान के वापस गोरखपुर आ गये।
  • 2013-10-14 18.56.52अवध एक्सप्रेस की यात्रा बहुत अच्छी रही। मैंने जाते ही ऊपरी बर्थ पर अपने को कंबल में लपेट लिया था और सो गया था। लेकिन गहरी नींद को भी भगाने वाली नीचे से आ रही कोमल और कर्णप्रिय बातचीत ने हमें नीचे आकर बैठ जाने पर मजबूर कर दिया। एक युवा दंपति के साथ उनकी दो नन्ही-नहीं बेटियाँ हमारी सहयात्री थीं। उनकी बातें हमें रास्ते भर गुदगुदाती रहीं। उनके करतब से कंपार्टमेंट में कोई भी सो नहीं सका था; लेकिन किसी को इसका मलाल भी नहीं रहा। मुझे भी नहीं, जबकि मैं कई दिनों से अच्छी नींद की तलाश में था।
  • लखनऊ जब बच्चों के पास लौटा तो सबने मेरी खूब मौज ली। बच्चों ने भी। आखिर मैं उनकी पसन्द का ख्याल किये बिना अपने गाँव वालों से मिलने जो गया था।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)  

16 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा लगा पढकर. ऐसा लगा जैसे मैं खुद ही अपने गाँव की यात्रा पर हूँ. 'बुनिया' शब्द से पोस्ट का मीठापन और बढ़ गया मेरे लिए.

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  2. अंत भला तो सब भला। घर वालों ने खिंचाई की तो समझ लीजिये यात्रा सफ़ल !

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  3. ज़िंदगी भर न भूलेगी टाईप की यात्रा कर डाली आपने ....यह आख्यान कईयों से तादात्म्य स्थापित करेगा तो मुझसे ही विगत एक सप्ताह की निरंतर यात्राओं ने शरीर को श्लथ कर दिया है और मन कटुआ सा गया है ......मगर अभी तो आपके बहार के दिन हैं ! अभी कहाँ आराम ?
    by arvind mishra.

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    1. “मन कटुआ सा गया है”...
      आज राजपत्रित अवकाश है, लखनऊ आ गया हूँ। :)

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  4. जीवंत यात्रा वर्णन पढ़कर लगा हम ही यात्रा कर रहे हों!

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  5. बढ़िया पोस्ट खासतौर पर स्टिंग ओपरेशन पसंद आया आपका ..
    :)

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  6. बहुत ही सुन्दर. खैनी मर्दन बड़ा रोमांचक रहा

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  7. एक बार बस घर से बाहर निकलने की देर है, घटनायें मानों थोक में राह देखती हैं। रोचक संस्मरण।

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  8. Yatra vritaant rochak tha, bhavishya mein din dekh kar aur avashyak hua to 'prashthan' ki kriya kar hi yatra karna :-)

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    1. कहते हैं कि दशहरे के दिन किसी मुहूर्त की जरूरत नहीं होती। इस दिन कोई भी शुभकार्य किया जा सकता है। माँ-बाप से मिलने जाने के लिए क्या दिन देखना? वैसे भी सरकारी नौकर के लिए सबसे अच्छा और शुभ मूहूर्त का दिन रविवार ही होता है। :)

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  9. ऐसा अहसास हो रहा है,मानो बड़े परदे पर रोमांचक फिल्‍म देखकर पसीना पसीना हो गया हूं।

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  10. रोमांचक सफ़र की रोचक दास्तान … गाँव से शहर में बस गए लोग गाँव जाना नहीं चाहते , जिन शहरियों ने कभी गाँव नहीं देखा , गाँव देखना चाहते हैं क्योंकि उन्होंने कभी देखा नहीं :)

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  11. ऐसी कठिन यात्रा और आने-जाने में ही दो दिन बीत गए ... बच्चे कैसे हामी भरते इस यात्रा की ! अच्छा ही हुआ कि आप अकेले थे। ड्राईवर का खैनी बनाते पूरा वीडियो देखा और वीडियो तक देखने में भी मेरी साँस अटक-अटक गई... ऐसे लापरवाह ड्राईवर के साथ यात्रा करना.... बाप रे बाप! यों ही दुर्घटनाएँ नहीं होती हैं ।

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    1. अगर बच्चे हामी भरते तो मैं अपनी कार से सेल्फ़ ड्राइविंग का आनंद लेते हुए बारिश की फुहारों के बीच बगल में रचना को और पीछे वागीशा और सत्यार्थ को बैठाकर मजे से शानदार हाई-वे पर अपनी रफ़्तार से जाता। तब न इतना समय लगता और न ही बोरियत होती। :)

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  12. इससे बढिया दशहरा मैने आज तक नहीं मनाया । अब दीवाली पर नज़र रहेगी ।

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