विज्ञान संचार के लिए ब्लॉग का प्रयोग कितना कारगर हो सकता है यह किशोर-वय के छात्र-छात्राओं के एक समूह को बताने के लिए एक पाँच दिवसीय कार्यशाला रायबरेली में चल रही है। इसका उद्घाटन वृहस्पतिवार २७ जून, २०१३ को राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद, नई दिल्ली के निदेशक डा मनोज पटैरिया ने किया। इस अवसर पर डॉ.पटैरिया ने अपने संक्षिप्त किन्तु प्रभावशाली सम्बोधन में बच्चों को वैज्ञानिक सोच की महत्ता के बारे में बताया। अपने आस-पास के वातावरण में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सोचने की आवश्यकता पर बल देते हुए उन्होंने इसे बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार की ओर से क्या-क्या कदम उठाये जा रहे हैं, कितने प्रकार के प्रशिक्षण पाठ्यक्रम, डिप्लोमा, कार्यशालाओं व पुरस्कारो इत्यादि के इन्तजाम हैं यह सब बताया। भारत सरकार विज्ञान और वैज्ञानिक सोच के विकास के लिए कितनी गम्भीर है यह जानकर अच्छा लगा।
ब्लॉग के माध्यम से विज्ञान संचार को बढ़ावा देने के उद्देश्य से देश भर में ऐसी सैकड़ो कार्यशालाएं हो रही हैं। लखनऊ में हुई ऐसी ही एक कार्यशाला में मैने पहले भी प्रतिभाग किया था। कार्यशाला के संयोजक डॉ. जाकिर अली रजनीश ने रायबरेली में भी मुझे आमन्त्रित किया। ब्लॉग बनाने से लेकर इसको चलाने के बारे में बहुत सी बातें बतायी जानी थीं। तकनीकी सत्र आने वाले थे। ऑफ़िस से समय निकालकर बस उद्घाटन सत्र में ही सम्मिलित हो पाया।
इस अवसर पर मुझे एन.बी.टी. द्वारा प्रकाशित डॉ.अरविन्द मिश्र जी की पुस्तक “कुम्भ के मेले में मंगलवासी” के लोकार्पण में सम्मिलित होने का सौभाग्य मिला। डायस पर बैठे हुए ही मैंने इस संग्रह की एक कहानी ’अन्तिम संस्कार’ पढ़ डाली। मुझे विश्वास है कि इसकी ही तरह सभी कहानियाँ बहुत रोचक होंगी। इसपर अपनी राय पूरी पुस्तक पढ़ने के बाद साझा करूंगा। एन.बी.टी. के सम्पादक पंकज चतुर्वेदी जी ने पुस्तक की चर्चा के दौरान यह बहुत अच्छी बात बतायी कि उनका प्रकाशन कभी भी पुस्तके मुफ़्त नहीं बाँटता। सस्ती और गुणवत्तायुक्त पुस्तकें प्रकाशित करने के बाद यह अपेक्षा की जाती है कि लोग उन्हें खरीद कर पढ़ें। डॉ. अरविन्द मिश्र ने साइंस फिक्शन के बारे में समझाया कि यह भविष्य की कहानियाँ होती हैं। वैज्ञानिक विकास के जिस चरण में हम आज से सौ साल बाद होंगे उसकी कल्पना करते हुए उस भविष्य के समाज के बारे में जो भी कहानी बनायी जाएगी उसे आज साइंस फिक्शन या विज्ञान गल्प कहा जाएगा।
बोलने का मौका मिलने पर मैंने उपस्थित बच्चों को बस यह बताया कि सभ्यता के विकास में जब भी कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं तो उसके पीछे निश्चित रूप से किसी तकनीकी और वैज्ञानिक खोज का हाथ रहा है। पाषाण काल से लेकर आधुनिक काल तक मनुष्य ने क्रमिक रूप से जब आग, धातु, कृषि, पहिया, वस्त्र, बर्तन, कागज, छापाखाना, बिजली इत्यादि की खोज या आविष्कार किया तब उसकी जीवन शैली में, उसके रहन-सहन में और उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए।
आधुनिक युग में इंटरनेट का आविर्भाव भी इसी प्रकार का क्रान्तिकारी परिवर्तन लेकर आया और ज्ञान-विज्ञान के इस अगाध महासागर में गोते लगाते हुए हम अपना छोटा सा योगदान एक ब्लॉग बनाकर सार्थक रूप से दे सकते हैं। अपनी अभिव्यक्ति के लिए इस माध्यम को चुनकर हम सहज ही तमाम सुविधाओं से लैस हो जाते हैं जो अन्यत्र नहीं मिल सकती हैं।
इन बातों पर विस्तार से चर्चा और प्रायोगिक प्रशिक्षण जाकिर जी करा रहे होंगे। कल समापन से पूर्व एक बार और वहाँ जाने का प्रयास करूंगा।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
ब्लॉग एक माध्यम के रूप में विकसित हो चुका है, विज्ञान को उससे लाभ लेना ही चाहिये।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंब्लॉगिंग का बढ़िया प्रयोग।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंआपकी अल्पकालिक उपस्थिति ही मंच को गरिमा प्रदान कर गयी! आपका संबोधन पूरे उद्घाटन सत्र का जैसे विषय प्रवेश रहा हो !
जवाब देंहटाएंआपने मुझे उद्धृत कर विज्ञान कथा का जो परिचय दिया वह सटीक है मगर आश्चर्य है इत्ती सी बात हिन्दी के पुरोधा साहित्यकार नहीं समझते ! इस पोस्ट के लिए आभार !
त्रिपाठी जी आपसे छोटी सी मुलाक़ात ने दिल में भरोसा जगा दिया कि लिखने पढ़ने वाले लोग प्रशासनिक कार्यों के आधिक्य के बीच भी समय निकल लेते हे
जवाब देंहटाएंत्रिपाठी जी आपसे छोटी सी मुलाक़ात ने दिल में भरोसा जगा दिया कि लिखने पढ़ने वाले लोग प्रशासनिक कार्यों के आधिक्य के बीच भी समय निकल लेते हे
जवाब देंहटाएंपाखंड और मूढाग्रहों में घिरी मनुष्यता को वैज्ञानिक चेतना की बड़ी ज़रूरत है. ब्लॉग का इसके लिए कारगर इस्तेमाल किया जा सकता है - सभी भाषाओं में.
जवाब देंहटाएंवैज्ञानिक चेतना के प्रचार-प्रसार के साथ वैज्ञानिकतावाद और वैज्ञानिक दुराग्रहों से भी बचनें का समय आ गया है। विज्ञान की जहाँ आवश्यकता है वहीं विज्ञान की विध्वंशक गतिविधियों पर नियंत्रण की भी।
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