बात उन दिनों की है जब कवि, लेखक और शायर अपनी रचनाओं के प्रकाशन के लिए संपादकों की कृपादृष्टि पर निर्भर हुआ करते थे। नये हस्ताक्षर यह कृपादृष्टि पाने के लिए संपादक जी की गणेश परिक्रमा किया ही करते थे। अच्छे और प्रतिष्ठित रचनाकार भी पीछे नहीं थे। उनकी रचनाएँ तो छप जाया करती थीं लेकिन उन्हें इसके बदले जो पारिश्रमिक मिलता था वह बहुत ही शर्मनाक हुआ करता था। अलबत्ता एक प्रतिष्ठित पत्र में छप जाना ही बहुत सम्मान की बात थी और एक अच्छे और सच्चे साहित्यकार के लिए यह सम्मान ही बहुत संतोष देता था। कदाचित् वे अपनी रचना को बेचने के लिए मोल-भाव करना एक निकृष्ट कर्म मानते थे। खरीददार मिलते भी कहाँ थे! मुखर होकर मेहनताने की बात करने में साहित्य कर्म की गरिमा भी घटती थी।
हिन्दी वालों की दशा शायद अभी भी बहुत नहीं सुधरी है। साहित्यकार विभूति नारायण राय जो भारतीय पुलिस सेवा में रहते हुए साहित्यकारों के साथ खूब बैठकी किया करते थे, निजी बातचीत में बताते थे कि कैसे इलाहाबाद में अनेक मूर्धन्य साहित्यकार आर्थिक तंगी का जीवन जीते रहे। जो लोग किसी सरकारी नौकरी में रहे वे तो अपने भौतिक जीवन का अच्छा निर्वाह कर ले गये लेकिन फ्री-लान्सर्स को बहुत कठिनाई होती थी। उन्होंने वर्धा के हिंदी विश्वविद्यालय का कुलपति रहते हुए राइटर-इन-रेजीडेन्स के रूप में अनेक ऐसे अच्छे साहित्यकारों को आर्थिक आत्मनिर्भरता देने का प्रयास किया है। फिलहाल बात पुराने जमाने की करते हैं।
पुराने जमाने में आजकल जैसी सोशल-मीडिया तो थी नहीं कि बड़ी संख्या में लोग अपनी अभिव्यक्ति वहाँ सटाकर अपनी छपास मिटा लेते। ऐसे में संपादक जी के अलावा कोई विकल्प नहीं था। उनको किसी भी प्रकार से नाराज नहीं किया जा सकता था।
यह वाक्या है धर्मयुग के महान संपादक धर्मवीर भारती जी और अपने समय के विलक्षण रचनाकार दुष्यंत कुमार जी के बीच का। सन् 1975 के होली विशेषांक के लिए अपनी रचना भेजते हुए स्व. दुष्यंत कुमार जी ने सोचा होगा कि मौका अच्छा है, मजाक-मजाक में अपना असंतोष व्यक्त कर लिया जाय। लेकिन भारती जी निकले खुर्राट संपादक - रचनाकार महोदय को उन्हीं की भाषा में समझा दिया, वह भी उसी जगह जहाँ उलाहना वाली रचना (ग़जल) छपी थी। जब मैंने अमर-उजाला (24 मार्च) में इसे देखा तो मुझे यह नोंक-झोंक बहुत मीठी लगी; और फौरन आपके लिए कबाड़ लाया। लीजिए आनंद उठाइए :
स्रोत - अमर उजाला (आभार सहित)
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
क्या बात है ;-) अब आप होली की मुबारकबाद कबूलिये हुजूर !
जवाब देंहटाएंकुछ नहीं बदला, तनिक नहीं पिघला,
जवाब देंहटाएंजिये थे, जिये हैं, जियेंगे हुज़ूर ।
तुर्की-ब-तुर्की :)
जवाब देंहटाएंदहले पे दहला :)
जवाब देंहटाएंऐसे खेलते थे होली............
जवाब देंहटाएंहोली की हार्दिक शुभकामनायें!!!
हटाएंहोली की हार्दिक शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंवर्तमान में ऐसी नोक-झोंक तो ब्लाग पर ही हो सकती हैं अच्छा संस्मरण।
जवाब देंहटाएंमजेदार नोकझोंक शायर और सम्पादक। हालांकि संपादक की दलील लचर है!
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा!
जवाब देंहटाएं:-)
जवाब देंहटाएंअनु
अच्छा किया प्रयोग तुमने ब्लॉग का हुज़ूर ।
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