इस बार की गर्मी बहुत अच्छे से गुजर गयी।
- विदर्भ क्षेत्र की गर्मी भयाक्रांत करने वाली होती है। इस साल भी वर्धा में पारा 49.5 डि.से. तक पहुँच गया था। हम जैसे तराई क्षेत्र वाले के लिए यह लगभग असह्य होता। इसलिए गर्मी तेज होने से पहले ही बच्चों को मार्च की परीक्षा के तत्काल बाद लखनऊ पहुँचा आया था। पंद्रह मई के बाद अर्जित अवकाश लेकर खुद भी वर्धा से निकल गया।
- लखनऊ के सुहाने मौसम और प्रायः निर्बाध विद्युत आपूर्ति के बीच ऊमस और गर्मी का प्रकोप अधिक नहीं झेलना पड़ा। बस घर के भीतर सत्यार्थ (४) और वागीशा (१०) यही वादा कराते रहे कि मैं अब उन्हें छोड़कर वर्धा नौकरी करने नहीं जाऊंगा। पत्नी का मन रखने के लिए शासन में जाकर अपने आला हाकिम से मिल आया और अर्जी डाल दी। इसी दौरान कुछ अधिकारी मित्रों से टुकड़े-टुकड़े चर्चा हुई और मोहन बाबू की कहानी की रचना हो गयी।
- चचेरी बहन की शादी थी। २१ मई को। हम लड़की वाले बाराती बनकर लड़के वालों के शहर बनारस गये। उनलोगों ने ही सारा इन्तजाम कर रखा था। सभी मेहमानों की आव-भगत वर पक्ष ने की। हम लड़की वाले थे लेकिन चिंतामुक्त थे। वे लड़के वाले थे बस इस बात से खुश कि बारात सजाकर गोरखपुर जाने और आने का उनका समय बच गया। काम-धंधे में रुकावट कम होगी। अस्तु सज्जनतावश लड़की के बाप की तरह हाथ जोड़े सबकी कुशल क्षेम लेते रहे। हमने जमकर शादी का लुत्फ़ उठाया और अगले दिन घरवालों के साथ गोरखपुर लौट गये। डॉ.अरविंद मिश्र जी ने पहले ही बता दिया था कि उस दिन वे अन्यत्र किसी दूसरी शादी में व्यस्त रहेंगे इसलिए उनसे मुलाकात न हो सकी।
- अगले सप्ताह २८ मई को ससुराल में साली की शादी थी। लद-फदकर सपरिवार पहुँचे। वरपक्ष भी हमारे पुराने रिश्ते में था। दोनो तरफ़ से आव-भगत हुई। सास, ससुर, साला, साली, सलहज, साढ़ू, सरपुत, मामा, मामी, मौसी, मौसा, फूआ, फूफा, चाचा, चाची, भैया, भाभी, भतीजा, भतीजी, भान्जा, भान्जी, बहन, बहनोई आदि ढेर सारे रिश्तेदारों व यार-दोस्तों से मिलना हुआ। ये शादी-ब्याह न पड़े तो इन सबसे मुलाकात कहाँ हो पाए...!
- दोनो शादियों के बीच गाँव जाना हुआ। कई दिनों से बिजली नहीं आ रही थी। पिताजी के सान्निध्य में पाकड़ के पेड़ के नीचे खटिया डाले निखहरे लेटे रहे। अचानक भंडार कोने (नैऋत्य कोण) से काले भूरे बादल उठे और अंधेरा सा छा गया। धूल भरी आँधी देख चप्पल निकालकर नंगे बदन बाग की ओर दौड़े। आम भदभदाकर गिर रहे थे। दौड़-दौड़कर बीनते रहे। देखते-देखते बोरा भर गया। फिर जोर की बारिश शुरू हुई। झूम-झूमकर भींगते रहे। मानो बचपन लौट आया। इतना भींगे कि ठंड से दाँत बजने लगे। घर लौटे तो अम्मा तौलिया और सूखे कपड़े लेकर खड़ी थीं।
- एक दिन बाराबंकी जिले की रामनगर तहसील जाना हुआ। nice-फेम ‘सुमन जी’ ने बुला लिया था। डॉ.सुभाष राय और रवीन्द्र प्रभात जी का साथ मिला था। वहाँ तहसील परिसर के सभागार में सुमन जी ने महफिल जमा रखी थी। स्थानीय कविगण काव्यपाठ कर रहे थे। तहसील के तमाम वकील और मुवक्किल व दूसरे बुद्धिजीवी जमा थे। लोक संघर्ष पत्रिका के ताजे अंक का लोकार्पण होना था और रवीन्द्र प्रभात जी का सम्मान। सुभाष जी का भाषण कार्यक्रम की उपलब्धि रही। सुमन जी अपनी पत्रिका के सभी अंको का लोकार्पण हरबार इसी प्रकार किसी बड़े बुद्धिजीवी के हाथों कराते हैं। हमें भी फूलमाला और स्मृति चिह्न से नवाजा गया। nice.
- लखनऊ लौटकर बच्चों के साथ खूब मौज हुई। डाल के पके आमों की डाली सजाये साले साहब सपरिवार पधारे। घर में बच्चों की संख्या बढ़ गयी। सहारागंज, चिड़ियाघर, भूल-भुलैया, इमामबाड़ा और हजरत गंज की सैर में दिन तेजी से निकल गये। अचानक पता चला कि वर्धा की गाड़ी पकड़ने का दिन आ गया। वाटर-पार्क जाने का मौका ही नहीं मिला। तय हुआ कि उन्हें अगले दिन बच्चों के मामाजी ले जाएंगे।
- जब बादशाहनगर स्टेशन पर राप्तीसागर एक्सप्रेस में बैठकर वर्धा फोन लगाया तो फरमाइश हुई कि लखनऊ से आ रहे हैं तो आम जरुर लाइए। चारबाग स्टेशन पर गाड़ी से उतरकर मलीहाबादी दशहरी तलाशता रहा, बाहर सड़क तक गया लेकिन रेलवे परिसर के आस-पास से दुकानें नदारद थीं। दौड़ता-हाँफता खाली हाथ वापस अपने डिब्बे तक पहुँचा। गाड़ी चल पड़ी। आम मिले तो कैसे?
- चलती गाड़ी में अपनी कन्फ़र्म बर्थ पर बैठते ही सबसे पहले यह ध्यान में आया कि यदि मैं ब्लॉगर न होता तो यात्रियों की जबरदस्त आवाजाही के इस व्यस्त सीजन में शायद वह सीट भी नहीं मिली होती। इस बैठे-ठाले काम से जुड़कर हमें कितने भले लोगों से जुड़ने का मौका मिला यह बड़े सौभाग्य की बात है। हम अपने को गौरवान्वित महसूस कर ही रहे थे कि मन में आम न खरीद पाने की समस्या का समाधान भी कौंध गया। मैने झट फोन मिलाया और अगले स्टेशन पर पाँच किलो दशहरी के साथ एक मूर्धन्य ब्लॉगर मेरे डिब्बे के सामने अवतरित हो गये। उनका नाम गोपनीय इसलिए रखना चाहता हूँ कि आगे से उनका बोझ न बढ़ जाय। हमने दस मिनट के भीतर पूरी दुनिया की बातें की। कितनी ही त्वरित टिप्पणियाँ की गयीं और तमाम गुटों का हाल-चाल लिया-दिया गया। बातों की रौ में हमने आम का दाम भी पूछना मुनासिब न समझा। उनके स्नेह को मैं किसी प्रकार कम नहीं कर सकता था।
- अब वर्धा आ पहुँचा हूँ तो ध्यान आया कि यदि मैंने इस मौज मस्ती के बीच थोड़ा समय कम्प्यूटर पर दिया होता तो अनेक पोस्टें निकल आयी होतीं। लेकिन लम्बे प्रवास के बाद घर लौटने का सुख कुछ ऐसा डुबा देने वाला था कि इस ओर ध्यान ही नहीं गया। अब यह सब ब्लॉग पोस्ट की दृष्टि से कुछ पुराना हो गया है इसलिए उनका उल्लेख भर कर पा रहा हूँ।
- वर्धा में बारिश का सुहाना मौसम शुरू हो चुका है लेकिन विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस के कमरे में अकेले पड़े रहना रास नही आ रहा है। अभी जुलाई नहीं आयी है लेकिन बच्चों से जुदाई शुरू हो गयी है। सोचता हूँ यहाँ से भाग जाऊँ।
चलते-चलते लखनऊ के चिड़ियाघर से लिया गया यह चित्र लगाता हूँ जो मेरी अनुपस्थिति में रचना त्रिपाठी द्वारा लिया गया था। मैं वहाँ से अनुपस्थित इसलिए था कि वहाँ समीप ही जनसंदेश टाइम्स अखबार का दफ़्तर था ; उसके सम्पादक की कुर्सी पर डॉ. सुभाष राय बिराज रहे थे और वे स्वयं एक ब्लॉगर होने के नाते मुझे बतकही के लिए आमंत्रित कर चुके थे। जब दो ब्लॉगर मिल जाँय तो चिड़ियाघर की भला क्या बिसात...?
तेज धूप में बरगद की छाँव तले आराम करते मृगशावक और बारहसिंगे
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
वाह झलकियाँ वाह ..मैं कहाँ व्यस्त था इसका विवरण मिथिलेश की शादी के संदर्भ में मेरे ब्लॉग पर है ...देर रात लौटा था ..मगर आपको फोन करना चाहिए था ...दूसरी सुबह मिल सकते थे..आपको मिथिलेश की शादी मंडप तक ले जाते ..,..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर संस्मरण | धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंस्पीड न्यूज़ स्टाइल की यह प्रस्तुति बहुत रोचक रही।
जवाब देंहटाएंजिस व्याख्यान को रुचि लेकर धीरे धीरे सुनाना था, आपने धारा प्रवाह सुना दिया। हम बंगलोर में आकर भूल गये हैं कि 50 डिग्री तापमान होता क्या है?
जवाब देंहटाएंअच्छे से सहेजे हैं आपने
जवाब देंहटाएंभाग दौड़ के बीच
खुशियों के पल
हम
मृग शावक या बाहरसिंगे न हुये
जो ठहर जाते
घने वृक्षों की छांव।
आप सब उत्तर प्रदेश वालों ने आमों की बहार ला रखी है। हम लोग तो बाजार से खरीदकर ही खा पाते हैं, मन कर रहा है कि किसी के बाग में जाया जाए। आपने अंत में यह नहीं लिखा कि स्थानान्तरण कहाँ हुआ? बहुत बढिया संस्मरण रहा। रचना जी को हमारा नमस्मार कहें।
जवाब देंहटाएंVery Nice!
जवाब देंहटाएंपिछ्ले दिनों के व्यस्त दिनचर्या से निजात पा आज महीनों बाद ब्लॉग जगत में उपस्थित हुआ. अच्छा हुआ जो आप विदर्भ क्षेत्र की गर्मी से निजत पा गये. मै भी कानपुर की गर्मी से दूर बैंगलोर के अच्छे मौसम का आनंद ले रहा हूँ. पोस्ट में लगी फोटोग्राफ बहुत अच्छी लगी.....
जवाब देंहटाएंअभी हाल ही में वर्धा होकर लौटा हूं,सच कहा विदर्भ की गर्मी असहनीय होती है,मैं बचपन से उस गर्मी से वाकिफ़ हूं।आपके रेस्ट हाऊस के सामने से ही गुज़रता हूं।सावन में फ़िर गुज़रूंगा तब मुलाक़ात होगी।वैसे नई स्टाईल की पोस्ट है,मज़ा आ गया।
जवाब देंहटाएंजब दो ब्लॉगर मिल जाँय तो चिड़ियाघर की भला क्या बिसात...?
जवाब देंहटाएंहा हा हा ...मजेदार और रोचक रहा ये बुलेटिन.
आपकी गर्मी तो सच में बड़ी अच्छी बीती. nice.
जवाब देंहटाएंत्रिपाठी जी, गेस्ट हाउज़ में है तो कोई गेस्ट ले आओ ना :)
जवाब देंहटाएंप्रविष्टि बिन्दु और पोस्ट दोनों पसन्द आये। पोस्ट में एक जगह आम वाले ब्लॉगर का नाम शायद गलती से रह गया है, पहचानकर हमने भी उन्हें सूची भेज दी है।
जवाब देंहटाएंभूलसुधार = बिन्दु और चित्र
जवाब देंहटाएंआम के चक्कर में एक छोटी सी टिप्पणी में भी ग़लती हो गयी।
गम न कीजिये की पोस्टें नहीं लिख पाए...
जवाब देंहटाएंइस एक पोस्ट में आपने कई पोस्टें समाहित कर दी हैं...
कई पोस्टों का आनंद हमने इकट्ठे पा लिया...
अब बारिश हो रही है तो ’लाखों का सावन जाये’ वाले गाने का श्रवण-दर्शन करें, भागने को प्रोत्साहन मिलेगा।
जवाब देंहटाएंआम-ओ-खास के जिक्र हों तो पोस्ट मजेदार क्यूँ न लगेगी?
अच्चा विवरण दिया है आपने. लखनऊ से काफी लगाव है हमें.
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा लखनऊ के बारे मे जानकर.सूर्यप्रकाश दीक्षित लिखा था,मुस्कराईये कि आप लखनऊ मे है .200वर्ष पूरे होने पर सरकार एवम नागरिक प्रयासो से लखनऊ की सुंदरता अनुपम हो गयी है.आपने आनंद लिया और प्रशंसा भी की है इससे जहा खुश हुआ वही मोहन बाबू की कहनी ने विचलित कर दिया
जवाब देंहटाएंरोचक प्रस्तुति. आम और ब्लागरी, सोने पर सुहागा.
जवाब देंहटाएंबरस बीत गए हैं ऐसी छुट्टियाँ मनाए हुए।
जवाब देंहटाएंगुड है जी! :)
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