आजकल मुझे डाँटने वालों की फ़ेहरिश्त लम्बी होती जा रही है। प्रदेश सरकार की नौकरी से छुट्टी लेकर घर से हजार किलोमीटर दूर आ गया और केंद्रीय विश्वविद्यालय में काम शुरू किया तो माता-पिता ही नाराज हो गये। भाई-बंधु, दोस्त-मित्र और रिश्तेदार भी फोन पर ताने मारने लगे कि क्या मिलेगा यहाँ जो वहाँ नहीं था। ऊल-जलूल मुद्दों को लेकर सुर्खियों में छाये रहने वाले एक विश्वविद्यालय से जुड़कर ऐसा क्या ‘व्यक्तित्व विकास’ कर लोगे?
बच्चे और पत्नी तो जैसे एक बियाबान जंगल में फँस जाने का कष्ट महसूस करने लगे हैं। …ना कोई पड़ोस, ना कोई रिश्तेदार और ना कोई घूमने –फिरने लायक सहज सुलभ स्थान। …कहीं जाना हो तो दूरी इतनी अधिक की कार से नहीं जा सकते। रेलगाड़ी में टिकट डेढ़-दो महीना पहले बुक कराने पर भी कन्फ़र्म नहीं मिलता। शादी-ब्याह के निमंत्रण धरे रह जाते हैं और सफाई देने को शब्द नहीं मिलते। किसने कहा था आपसे यह वनवास मोल लेने को..?
लेकिन मैं खुद को समझाता रहता हूँ। प्रदेश सरकार की नौकरी में ही क्या क्वालिटी ऑफ़ लाइफ़ थी। दिनभर बैल की तरह जुते रहो। चोरी, बेईमानी, मक्कारी, धुर्तता धूर्तता, शोषण, अनाचार, अक्षमता, लापरवाही, संत्राष संत्रास, दुख, विपत्ति, कलुष, अत्याचार, बेचारगी, असहायता इत्यादि के असंख्य उदाहरण आँखों के सामने गुजरते रहते और हम असहाय से उन्हें देखते रहते। सिस्टम का अंग होकर भी बहुत कुछ न कर पाने का मलाल सालता रहता और मन उद्विग्न हो उठता। बहुत हुआ तो सत्यार्थमित्र के इन पृष्ठों पर अपने मन की बात पोस्ट कर दी। लेकिन उसमें भी यह सावधानी बरतनी होती कि सिस्टम के आकाओं को कुछ बुरा न लग जाय; नहीं तो लेने के देने पड़ जाँय। कम से कम यहाँ वह सब आँखों से ओझल तो हो गया है। यहाँ आकर शांति से अपने मन का काम करने का अवसर तो है।
हिंदी साहित्य की विविध विधाओं में जो कुछ भी अच्छा लिखा गया है; अर्थात् क्लासिक साहित्य के स्थापित रचनाकारों की लेखनी से निसृत शब्दों का अनमोल खजाना, उसे हिंदीसमय[डॉट]कॉम पर अपलोड करने का जो सुख मुझे यहाँ मिल रहा है वह पहले कहाँ सुलभ था। प्रिंट में उपलब्ध उत्कृष्ट सामग्री को यूनीकोड में बदलकर इंटरनेट पर पठनीय रूप रंग में परोसने की प्रक्रिया में उन्हें पढ़कर जो नैसर्गिक सुख अपने मन-मस्तिष्क को मिलता है वह पहले कहाँ था?
कबीर ग्रंथावली के समस्त दोहे और पद अपलोड हुए तो इनके भक्तिरस और दर्शन में डूबने के साथ-साथ इसके संपादक डॉ. श्याम सुंदर दास की लिखी प्रस्तावना से भक्तिकाल के संबंध में बहुत कुछ जानने को मिला-
“…कबीर के जन्म के समय हिंदू जाति की यही दशा हो रही थी। वह समय और परिस्थिति अनीश्वरवाद के लिए बहुत ही अनुकूल थी, यदि उसकी लहर चल पड़ती तो उसे रोकना बहुत ही कठिन हो जाता। परंतु कबीर ने बड़े ही कौशल से इस अवसर से लाभ उठाकर जनता को भक्तिमार्ग की ओर प्रवृत्त किया और भक्तिभाव का प्रचार किया। प्रत्येक प्रकार की भक्ति के लिए जनता इस समय तैयार नहीं थी।
मूर्तियों की अशक्तता वि.सं. 1081 में बड़ी स्पष्टता से प्रगट हो चुकी थी जब कि मुहम्मद गजनवी ने आत्मरक्षा से विरत, हाथ पर हाथ रखकर बैठे हुए श्रद्धालुओं को देखते-देखते सोमनाथ का मंदिर नष्ट करके उनमें से हजारों को तलवार के घाट उतारा था। गजेंद्र की एक ही टेर सुनकर दौड़ आने वाले और ग्राह से उसकी रक्षा करने वाले सगुण भगवान जनता के घोर संकटकाल में भी उसकी रक्षा के लिए आते हुए न दिखाई दिए। अतएव उनकी ओर जनता को सहसा प्रवृत्त कर सकना असंभव था। पंढरपुर के भक्तशिरोमणि नामदेव की सगुण भक्ति जनता को आकृष्ट न कर सकी, लोगों ने उनका वैसा अनुकरण न किया जैसा आगे चलकर कबीर का किया; और अंत में उन्हें भी ज्ञानाश्रित निर्गुण भक्ति की ओर झुकना पड़ा।…”
मोहन राकेश का लिखा पहले बहुत कम पढ़ पाया था लेकिन जब उनकी रचनाओं का संचयन (कहानी, डायरी, यात्रा-वृत्त, उपन्यास, निबंध आदि) अपलोड करना हुआ तो बीच-बीच में काम रोककर उनकी शब्दों की सहज जादूगरी में डूबता चला जाता था। एक बानगी देखिए-
“पत्रिका के कार्यालय में हम चार सहायक सम्पादक थे। एक ही बड़े से कमरे में पार्टीशन के एक तरफ़ प्रधान सम्पादक बाल भास्कर बैठता था और दूसरी तरफ़ हम चार सहायक सम्पादक बैठते थे। हम चारों में भी एक प्रधान था जिसे वहाँ काम करते चार साल हो चुके थे। एक ही लम्बी डेस्क के साथ चार कुरसियों पर हम लोग बैठते थे। छोटे प्रधान की कुरसी डेस्क के सिरे पर खिडक़ी के पास थी और हम तीनों की कुरसियाँ उसके बाद वेतन के क्रम से लगी थीं। छोटे प्रधान उर्फ बड़े सहायक सुरेश का वेतन दो सौ रुपये था। उसके बाद लक्ष्मीनारायण था जिसे पौने दो सौ मिलते थे। तीसरे नम्बर पर मेरी एक सौ साठ वाली कुरसी थी और चौथे नम्बर पर डेढ़ सौ वाली कुरसी पर मनोहर बत्रा बैठता था। छोटा प्रधान सबसे ज़्यादा काम करता था, क्योंकि प्रूफ़ देखने के अलावा उसे हम सब पर नज़र भी रखनी होती थी और जब सम्पादक के कमरे में घंटी बजती, तो उठकर आदेश लेने के लिए भी उसी को जाना होता था। वह दुबला-पतला हड्डियों के ढाँचे जैसा आदमी था, जिसे देखकर यह अन्देशा होता था कि बार-बार उठने-बैठने में उसकी टाँगें न चटक जाएँ। सम्पादक को हममें से किसी से भी बात करनी होती, तो पहले उसी की बुलाहट होती थी और वह वापस आकर कारखाने के फ़ोरमैन की तरह हमें आदेश देता था, “नम्बर तीन, उधर जाओ। साहब याद कर रहे हैं।” एक बार बत्रा ने उससे कह दिया कि वह साहब के लिए चपरासी का काम क्यों करता है, तो वह सप्ताह-भर बत्रा से अपने प्रूफ़ दिखाता रहा था।”
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हुए देश के विभाजन के ऊपर लगभग सभी भारतीय भाषाओं में बहुत सी मार्मिक कहानियाँ लिखी गयी हैं। इनका हिंदी में अनूदित संचयन भी हिंदी-समय पर उपलब्ध है। इन कहानियों को पढ़कर हम सहसा उस दौर में पहुँच जाते हैं जिसने आज की अनेक राष्ट्रीय समस्याओं को जन्म दिया है। किसी भी साहित्य प्रेमी या समाज के अध्येता के लिए इन ८६ कहानियों से दो-चार होना उपयोगी ही नहीं अपितु अनिवार्य हैं।
अज्ञेय जी का एक लेख ‘सन्नाटा’ नाम से इंटर के कोर्स में पढ़ रखा था। ‘शेखर एक जीवनी’ और ‘नदी के द्वीप’ जैसे उपन्यास यूनिवर्सिटी के समय में पढ़ रखे थे लेकिन अभी जब उनके विशाल रचना संसार से परिचित हुआ और विविध विधाओं में उनके लेखन को अपलोड करते हुए दुरूह विषयों पर उनकी गहरी समझ और सटीक भाषा से प्रभावित हुआ तो लगा कि सब काम छोड़कर उन्हें ही समग्रता से पढ़ लिया जाय तो जीवन सफल हो जाय। मेरी बात मानने के लिए उनका संक्षिप्त जीवन वृत्त ही पढ़ लेना पर्याप्त होगा। दो-चार दिनों के भीतर सम्पूर्ण सामग्री हिंदी-समय पर होगी।
और हाँ, अमीर खुसरों की मुकरियाँ पढ़कर और सुनाकर जो मुस्कान फैलती है उसका लोभसंवरण किया ही नहीं जा सकता। अब कहाँ तक गिनाऊँ। बहुत बड़ा भंडार है जी…।
इन सब सामग्रियों के बीच डूबकर मुझे इस बात का ध्यान ही नहीं रहा कि सत्यार्थमित्र पर अंतिम पोस्ट डाले हुए तीन सप्ताह निकल चुके हैं और हिंदी ब्लॉग जगत में विचरण का मेरा प्रिय कार्य प्रायः बंद हो चला है। मेरी तंद्रा आज तब टूटी जब घर में ही डाँट-सी सुननी पड़ी।
“आप को क्या हो गया है जी…? देख रही हूँ कि आपने आजकल पोस्ट लिखना बंद ही कर दिया है। जिस ब्लॉगरी के कारण आप सबकुछ छोड़कर यहाँ आये वही भूल गये हैं। यह दिनभर दूसरों के पुराने लिखे में आँख फोड़ने से कोई मेडल नहीं मिलने वाला है। आपकी पहचान हिंदी ब्लॉगजगत से है। उसे छोड़कर आप ‘फ्रंटपेज’ खोले बैठे हैं। कौन जानता है कि आप यह सब कर रहे हैं? कोई क्रेडिट नहीं मिलने वाली।… यही चलता रहा तो …न घर के रहेंगे न घाट के”
मैंने यह समझाने की कोशिश की मैं इस घिसे-पिटे मुहावरे का ‘पात्र’ नहीं हूँ। अब तो कोई धोबी भी इसे नहीं पालता। बल्कि विद्यार्थी जीवन में पहले जो कुछ नहीं पढ़ पाया था उसे पढ़ रहा हूँ और दूसरों को पढ़वाने का उपक्रम भी कर रहा हूँ। इसी काम के लिए मुझे तनख्वाह मिलती है। वैसे भी नेट पर अपना लिखा कूड़ा पढ़वाने से बेहतर है कि दूसरे उत्कृष्ट जनों का लिखा श्रेष्ठ साहित्य नेट पर उपलब्ध कराऊँ।
“तो आपको यह नौकरी करने से कौन मना कर रहा है। इस ‘पुनीत कार्य’ को अपने ऑफिस तक ही रखिए। छुट्टी के दिन घर पर भी वही जोतते रहेंगे तो कुछ दिन में पागल हो जाएंगे। …और आपके दिमाग में जो कूड़ा ही भरा है तो उसे बाहर निकाल देना ही श्रेयस्कर है। उसी ने आपको यहाँ ला पटका है। आप अपनी पहचान खो देने के रास्ते पर क्यों बढ़ रहे हैं।”
मैने सोचा पूछ लूँ कि अपने ब्लॉग पर क्यों कई महीने बाद कल एक पोस्ट डाल पायी हो लेकिन चुप लगा गया। कारण यह था कि उनकी बातें कहीं न कहीं मुझे अंदर से सही लग रही थीं। अपनी आशंका दूर करने के लिए मैंने कुछ ब्लॉगर मित्रों से बात की तो सबने यही कहा कि कुछ न कुछ लिखते रहना तो अनिवार्य ही है। इसी से मन को शांति मिल सकती है।
अब मेरी दुविधा कुछ मिट चली है। अब काम का बँटवारा करूंगा। घर पर ब्लॉगरी और ऑफिस में हिंदी-समय पर अपलोडिंग। काम के घंटे निर्धारित करने होंगे। हिंदी साहित्य का क्षेत्र इतना विस्तृत तो है ही कि इसे कुछ दिनों के ताबड़तोड़ प्रयास से पार नहीं किया जा सकता। स्थिर गति से लम्बे समय तक लगना होगा इसलिए इस काम में रोचकता बनाये रखना जरूरी है। सिर पर लगातार लादे रखने से कहीं यह बोझ न बन जाय। अब होगा पढ़ना-पढ़वाना और लिखना साथ-साथ।
लीजिए इस राम कहानी में एक पोस्ट निकल आयी। अब ठेल ही देता हूँ…!!!
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
वैसे तो सच्चाई है
ReplyDeleteनीरवता ही वहां पाई है
कहें तो कैसे कहें
लेखन में तरुणाई है
सारे लिंक तो पढ़ नहीं सकते
पोस्ट के साथ
फिर पढ़ेंगे यह सोचकर
अभी तो टिप्पणी लगाई है
अविनाश मूर्ख है
साहित्य सागर में गोते लगाते रहिये और जीवन धन्य करते रहिये ....बड़े जतन मानुष तन पावा ....
ReplyDeleteहम सब तो इसी कुम्भीपाक में जीवन को निःशेष कर लेगें ....
धुर्तता=धूर्तता ,संत्राष=संत्रास
सारे हिन्दी जगत को लाभान्वित करने के साथ साथ हम जैसे प्रशंसकों की खुराक मत बन्द कीजिये।
ReplyDeleteसिद्धार्थ जी, आप सही कह रहे हैं। पुराने जितने भी लेखक हैं, उनकी कोई सी भी किताब हाथ से छूटती नहीं है। लेकिन नवीन लेखकों की किताब हाथ से छूट छूट जाती हैं। अभी कुछ समय पहले यही सोच रही थी कि नौकरी क्यों छोड़ी थी? लेकिन जब पढने और लिखने के मध्य भी व्यवधान उपस्थित हो जाए तो कुछ भी अच्छा नहीं लगता। मुझे तो बस यही आनन्दित करता है। लेकिन अपना अच्छा पढा हुआ ब्लाग पर भी सांझा करते रहिए।
ReplyDeleteअच्छा तो आप यहाँ व्यस्त है.. उलाहना देने की गुस्ताखी तो मैं खुद इसलिए नहीं कर सकता क्योंकि पिछले छ महीने से मैं खुद इर्रेगुलर हूँ.. पर हाँ आपने हिंदी समय के बारे में बताकर ज़रूर हमारी चांदी करवादी है.. इस पुनीत कार्य के लिए पत्नी जी की डांट भी मिल जाए तो गम नहीं.. वैसे इसी पोस्ट से ये भी पता चला कि पिछले महीने यूनिकोड की तीव्र तलब क्यों हो रही थी आपको..
ReplyDeleteहिंदी समय पर अब समय दिया जाता रहेगा..
और हाँ आपको बोल ही देना चाहिए था कि खुद के ब्लॉग पर इतने दिनों बाद क्यों पोस्ट लगायी.
जो आप कर रहे हैं हम जैसों के लिए तो वरदान है.
ReplyDelete`“आप को क्या हो गया है जी'
ReplyDeleteसाथ में सुनना-सुनाना क्यों नही? :)
मैं भी यही सोच रहा था कि आप कर क्या रहे हैं आज जाना कि साहित्य के समुंदर में डुबकी लगा रहे हैं।
ReplyDeleteयह एक महान प्रकल्प है और उससे जुड़ कर आप को गौरवान्वित होना चाहिए।
ReplyDeleteबहुत उपयोगी लिंक हैं।
अच्छी रचना है - अनुभूत को उठा कर सहज ही संवाद स्थापित कर लेना सबको नहीं आता।
बहुत अच्छा लिखा। जय हो।
ReplyDeleteयहां का समय जब बीत जायेगा तब यहां की यादें परेशान करेंगी।
अपने मनमाफ़िक काम करने लायक काम मिल पाना सौभाग्य की बात होती है। लगे रहिये, लिखते रहिये।
कमाल का लिंक दिया आपने. मनमुताबिक काम मिलना सही में कठिन है. आपको मिला और क्या चाहिए.
ReplyDeleteसाहितय सागर मे आपकी डुबकी से कुछ मोती तो हमारे हाथ भी लगेंगे। ब्लाग लेखन जरूर जारी रखिये। शुभकामनायें।
ReplyDeleteइसी बहाने आपके हाथों एक अच्छा कार्य हो रहा है, जिसके लिए आपको बधाई तो दी ही जा सकती है। और हॉं, जिंदगी तो ऐसे ही चलती है।
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दिल्ली के दिलवाले ब्लॉगर।
मैं तो यही कहूँगी कि ब्लोगरी से बहुत बहुत बड़ा और उपयोगी कल्याणकारी कार्य आप कर रहे हैं..यह सही है कि समय का नियोजन कर ब्लोगिंग को भी समय दिया जा सकता है और काम तथा परिवार के दायित्व को भी भली प्रकार निभाया जा सकता है..लेकिन बात यह है कि जो काम आप कर रहे हैं,देखिये न हिन्दी ब्लागरों में कितने लोग कर रहे हैं???? इसलिए कोई मलाल न पालें.....
ReplyDeleteआपके दिए लिंकों पर फुर्सत में जाती हूँ..आभार अभी से दिए देती हूँ...
लेख बहुत ही प्रेरणा दायक है. आप की बातों से सहमत हूँ.
ReplyDeleteoh..to itne badal umar-ghumar rahe
ReplyDeletethe....ye apne achha kiya.........
pranam.
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सर जी,
हिन्दी साहित्य सेवा तो आप कर ही रहे हैं, उसके लिये साधुवाद...एक जिज्ञासा है,क्या यह अपलोडिंग इ-रीडर फार्मेंट में हो रही है... एक सुझाव यह भी है कि वर्तमान में सक्रिय कवियों की कवितायें उनकी ही आवाज में अपलोड करियेगा...
पर यह भी अवश्य कहूँगा कि हमारा-आपका परिचय तो ब्लॉगिंग के कारण ही है...अगर आप ब्लॉग को बिल्कुल ही भुला देंगे तो निश्चित तौर पर हमें मुश्किल होगी... :)
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