रेलगाड़ी के ठण्डे कूपे से निकलकर बैशाख की चिलचिलाती धूप में जब हम सेवाग्राम स्टेशन पर उतरे तो पल भर में माथे पर पसीना आ गया। पत्थरों और कंक्रीट की इमारतों के बीच हरियाली बहुत विरल थी। तराई क्षेत्र का रहने वाला हूँ इसलिए यह इलाका कुछ ज्यादा ही उजाड़ और वीरान लग रहा था। गर्मी के कारण लोग खुले स्थानों पर प्रायः नहीं थे। स्टेशन से बाहर आकर हमें प्रतीक्षा करती गाड़ी मिल गयी जो काफी देर से धूप में खड़ी रहने के कारण भट्ठी जैसी गरम हो चुकी थी। स्टार्ट होने के बाद इसका ए.सी. चालू हुआ तो एक-दो मिनट में राहत मिल गयी।
सेवाग्राम से वर्धा विश्वविद्यालय की दूरी करीब छः किलोमीटर है। रास्ते में इक्का-दुक्का लोग ही दिखे। हमारे इलाहाबाद की तरह सड़क किनारे लगे लाई-चना-चुरमुरा के खोमचे, खीरा-ककड़ी बेचती औरतें, कच्चे आम का पना बेंचते ठेलेवाले या तरबूज-खरबूज के ढेर लगाकर बैठे कुजड़े वहाँ नहीं दिखे। वर्धा शहर को बायपास करती सड़क से होकर जब हम प्रायः निर्जन इलाके की ओर बढ़ चले तो मेरे मन में उत्सुकता का स्थान व्याकुलता ने ले लिया। गर्म हवा की लपटें सड़क पर दूर चमकते तारकोल से यूँ उठती दिख रही थीं जैसे नीचे किसी हवन कुण्ड में आग जल रही हो। आखिरी मोड़ पर जब गाड़ी मुड़ी तो एक ऊँचे से टीले की ढलान पर सफेद पेण्ट से “महात्मा गांधी अन्तर राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय-वर्धा” बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ दिखायी पड़ा। अपनी मंजिल के प्रथम साक्षात्कार का यह दृश्य अद्भुत लगा।
लेकिन यह शुष्क टीला अपनी तरह का अकेला नहीं था। आस-पास चार-पाँच टीले ऐसे ही दिखायी पड़े जो कदाचित् प्रकृति के कृपापात्र नहीं हो पाये थे। प्रायः वनस्पति विहीन और पथरीले भूभाग पर उठे हुए ये नंगे-ठिगने पहाड़ प्रकृति पर मानव की सत्ता स्थापित होने की कहानी कह रहे थे। इनके शीर्षतल पर जाने के लिए चट्टानों को काटकर बनायी गयी सर्पिल सड़क के किनारे करीने से सजाये गये गमले, शिक्षा संकाय के लिए हाल ही में बने भव्य विद्यापीठ, पुस्तकालय व अन्य मानवनिर्मित भवनों को अन्तिम रूप देती मशीनें और मजदूर, बिजली के खम्भे और उनपर दौड़ती केबिल में प्रवाहित होती विद्युत धारा, निर्माणाधीन पानी की टंकी, पंक्तिबद्ध रोपे गये नये पौधे और उन्हें पानी देने के लिए मीलों दूर से लायी हुई पाइपलाइन यह बता रही थी कि इस निर्जन पहाड़ पर मानव ने मेधा को तराशने का कारखाना बनाने का मन बना लिया है।
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भव्य तोरणद्वार से प्रवेश कर हमारी गाड़ी फादर कामिल बुल्के अन्तरराष्ट्रीय छात्रावास की सीढ़ियों के पास जाकर रुकी तो बाहर निकलने पर गर्म पत्थर से आँच निकलती सी महसूस हुई। सीढ़ियाँ चढ़कर हम ऊँचे चबूतरे पर पहुँचे। आधुनिक वास्तुकला का सुन्दर नमूना पेश करता हुआ यह भवन भी हाल ही में तैयार हुआ जान पड़ा क्योंकि गूगल अर्थ पर मैने इस प्रांगण को देखने की जो कोशिश की थी उसमें इसका कोई अता-पता नहीं था। इस छात्रावास को फिलहाल गेस्ट हाउस के रूप में भी प्रयोग किया जा रहा है।
दोपहर के दो बजे होंगे जब हम अपने लिए निर्धारित कमरे में पहुँचे। कूलर की ठण्डी हवा मिलते ही हम बिस्तर पर पसर तो गये, लेकिन लम्बी यात्रा के बाद स्नान किए बिना पड़े रहना रास नहीं आया। वहाँ का बाथरूम तो सुसज्जित था लेकिन छत पर रखी टंकी का पानी अपने क्वथनांक के करीब पहुँच चुका था। हमारे पास ‘स्टीम बाथ’ के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प भी नहीं था इसलिए हमने कम से कम पानी खर्च करने का पाठ तत्काल सीखते हुए उसपर अमल भी कर लिया और सज सवँरकर तैयार हो लिए। हमें बताया गया कि मनीषा जी एक-दो घण्टे के भीतर ही वापस आगरा के लिए निकलने वाली हैं। उनसे मिलना तो हमारे प्रमुख उद्देश्यों में से एक था।
हमने उनका फोन मिलाया तो पता चला कि इस इलाके में बी.एस.एन.एल. की सेवाएं बहुत अच्छी नहीं हैं। दूसरे सिरे पर स्थित व्यक्ति के अतिरिक्त दूसरी तमाम आवाजें आ रही थीं लेकिन मनीषा जी अन्त तक यह नहीं बता सकीं कि वे दस-पन्द्रह मिनट में गेस्ट हाउस पहुँचने वाली हैं। खैर, उनकी एक सहयोगी ने बताया कि वो बस आने ही वाली हैं।
मनीषा जी, यानि मनीषा कुलश्रेष्ठ। हिन्दीनेस्ट.कॉम की मालकिन और प्रतिष्ठित लेखिका, कवयित्री और सम्पादक। उनकी सहयोगी यानि वन्दना मिश्रा। लखनऊ में रहकर आपने तमाम पुस्तकों का प्रकाशन किया है। प्रसिद्ध लेखक और पत्रकार स्व. अखिलेश मिश्र जी की पुत्री वन्दना जी उस कोर ग्रुप की सदस्य हैं जो विश्वविद्यालय की साहित्यिक वेबसाइट हिन्दीसमय.कॉम की सामग्री के चयन और प्रकाशन के लिए उत्तरदायी है। इस कोर ग्रुप के तीसरे सदस्य अनहद नाद वाले अपने प्रिय ब्लॉगर आदरणीय प्रियंकर जी हैं जो उस समय कोलकाता से इस समिति की बैठक के लिए आये हुए थे। हिन्दी साहित्य के दस लाख पृष्ठ अन्तर्जाल में एक ही पते पर अपलोड करने की महत्वाकांक्षी योजना को कार्यरूप देने के लिए विश्वविद्यालय द्वारा इन विभूतियों को एक साथ सिर जोड़कर कार्य करने हेतु आमन्त्रित किया गया है। इतने कम समय में यह जालस्थल कितनी दूरी तय कर चुका है उसे आप वहाँ जाकर देख सकते हैं।
मनीषा जी अपनी सद्यःप्रकाशित पुस्तक शिग़ाफ लेकर आयी थीं। मैने उन्हें सत्यार्थमित्र की एक प्रति भेंट की। वन्दना जी का एक कविता संग्रह अनामिका प्रकाशन से छपकर शीघ्र ही आने वाला है। मेरे साथ अनामिका प्रकाशन के मालिक विनोद शुक्ला जी ही थे। उन्होंने वन्दना जी और मनीषा जी के साथ फटाफट मेरा फोटो सेशन करा दिया। पुस्तक प्रकाशन के बाजार से लेकर विश्वविद्यालय की अन्तर्जाल सम्बन्धी प्रकाशन योजना पर विस्तृत चर्चा हुई। कुछ देर में ट्रेन का समय नजदीक आया और हम मनीषा जी को विदा करके गेस्ट हाउस की कैण्टीन की ओर चाय लेने चल दिए।
शुद्ध दूध की गाढ़ी चाय बड़े से कप में लबालब भरी हुई आ गयी। वहाँ पहले से ही एक प्रोफ़ेसर साहब बैठकर चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे। मुझे उनका चेहरा परिचित सा जान पड़ा। मैने दरियाफ़्त की तो पता चला कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सेवा निवृत्त अंग्रेजी के प्रो.सचिन तिवारी जी हैं। हम करीब पन्द्रह साल पहले मिले थे जब वे कैम्पस थियेटर चलाते थे और मैं पत्रकारिता का विद्यार्थी हुआ करता था। इसी बीच एक छोटेकद के श्यामवर्ण वाले भयंकर बुद्धिजीवी टाइप दिखने वाले महाशय का पदार्पण हुआ। उन्होंने बैठने से पहले ही कैन्टीन के वेटर से कहा कि मुझे बिना चीनी की चाय देना और दूनी मात्रा में देना। यानि कप के बजाय बड़ी गिलास में भरकर। मुझे मन ही मन उनकी काया के रंग का रहस्य सूझ पड़ा और सहज ही उभर आयी मेरे चेहरे की मुस्कान पर उनकी नजर भी पड़ गयी। मैने झेंप मिटाते हुए उनका परिचय पूछ लिया।
वे तपाक से बोले- “मुझे राजकिशोर कहते हैं… दिल्ली से आया हूँ। आप कहाँ से…?”
मेरे यह बताने पर कि मैं इलाहाबाद से आया हूँ और वहाँ कोषाधिकारी हूँ, उन्होंने सीधा सवाल दाग दिया- “अच्छा, ये बताइए कि ट्रेजरी में भ्रष्टाचार की स्थिति अब कैसी है?”
यदि मैं शुद्ध सरकारी अधिकारी होता तो शायद इसका जवाब देना थोड़ा कठिन होता लेकिन समाज के दूसरे पढ़े-लिखे वर्ग से भी सम्पर्क में होने के कारण मैने इसका कुछ दार्शनिक सा उत्तर दे दिया। मैने यह भी बताया कि कम्प्यूटर और सूचना प्रौद्यौगिकी के प्रयोग से अब मनुष्य के हाथ का बहुत सा काम मशीनों को दे दिया गया है इसलिए भ्रष्टाचार करने के अवसर ट्रेजरी में कम होते गये हैं। फिर भी जहाँ अवसर उपलब्ध है वहाँ प्रयास जारी है। लेकिन इस मानवसुलभ प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के प्रयास भी साथ-साथ जारी हैं।
राजकिशोर जी ने इस चर्चा का उपसंहार यह कहते हुए कर दिया कि अब इस मुद्दे को छोड़िए, इसमें कोई दम नहीं बचा है, महंगाई बहुत बढ़ गयी है। मुझे तबतक यह पता चल चुका था कि आज शाम छः बजे गांधी हिल्स पर राजकिशोर जी ‘सभ्यता के भविष्य’ पर अपने विचार व्यक्त करने वाले हैं। यह सुखद संयोग ही था कि जिनके लेख हम चोखेर बाली और हिन्दी भारत जैसे जालस्थलों पर तथा अनेक पत्र पत्रिकाओं में पढ़ते आ रहे थे उन्हें सजीव सुनने का अवसर मिलने जा रहा था। वार्ता का समय होने तक हम कैण्टीन में ही बात करते रहे और फिर गाड़ी हमें टीले की चोटी पर ले जाने के लिए आ गयी।
मुख्य टीले पर जाने के लिए जो घुमावदार सड़क बनी हुई है उससे ऊपर पहुँचने पर सड़क की बायीं ओर विकसित किये जा रहे उद्यान में एक बकरी की सुन्दर अनुकृति स्थापित की गयी है। कदाचित् वहाँ गांधी जी के प्रिय पात्रों और उनके उपयोग की वस्तुओं को जुटाने का प्रयास किया गया है। वहीं थोड़ा आगे बढ़ने पर गांधी जी की आदमकद प्रतिमा उनके तीन प्रिय बन्दरों के साथ स्थापित है। हमारे पास उन सबको देखने का समय उस समय नहीं था। हमने सभास्थल पर पहुँचकर विश्वविद्यालय के कुलपति जी से मुलाकात की। कुशल-क्षेम के बाद हम राजकिशोरजी की वार्ता सुनने के लिए गोलाकार सीढ़ीनुमा चबुतरे पर बैठ गये। अर्द्धवृत्ताकार दर्शकदीर्घा के ठीक सामने खड़े लैम्प-पोस्ट के नीचे वार्ताकार का चबूतरा बना था। खुले आकाश के नीचे टीले की चोटी पर बना यह मुक्त गोष्ठी स्थल महानगरीय सभ्यता की शोरगुल भरी भागमभाग जिन्दगी से बिल्कुल अलग एक सुरम्य वातावरण सृजित कर रहा था। इस स्थान पर बैठकर ‘सभ्यता के भविष्य’ के बारे में चिन्तन करते लोग मुझे बहुत भले लगे।
यद्यपि अपनी वार्ता में राजकिशोर जी ने जिस कम्यून पद्धति की ओर लौटने की बात की और वर्तमान उदारवादी लोककल्याणकारी जनतंत्रात्मक राज्य को पूँजीवादी सत्ता करार देते हुए पूरी तरह नकारने योग्य ठहराने का प्रयास किया उससे मैं सहमत नहीं हो सका लेकिन देश के कुछ बड़े बुद्धिजीवियों द्वारा विश्वविद्यालय के छात्रों के बीच बैठकर इस प्रकार की चर्चा करना बहुत सुखद और आशाजनक लगा। उस छोटी सी दर्शक दीर्घा में कुलपति विभूति नारायण राय के साथ दिल्ली से पधारे हिन्दी के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर प्रो. अब्दुल बिस्मिल्लाह, हैदराबाद के प्रो. सुवास कुमार, और विश्वविद्यालय संकाय के प्रो.सूरज पालीवाल व अन्य अनेक आचार्यगण मौजूद थे। राजकिशोर जी ने अपने विशद अध्ययन और दुनियाभर के अनुभवों को यहाँ बाँटते हुए बहुत सी बाते बतायीं जो जन संचार और पत्रकारिता के विद्यार्थियों का दृष्टिकोण प्रभावित करने वाली थी। एक छात्र द्वारा पूरी वार्ता की वीडियो रिकॉर्डिंग भी की गयी जो उनके लिए प्रायोगिक प्रशिक्षण के तौर पर अपेक्षित था।
शाम को कुलपति जी ने हमें डिनर साथ लेने के लिए आमन्त्रित किया। वहाँ पर एक बार फिर बौद्धिक चर्चा शुरू हो गयी। साहित्य, समाज, राजनीति, कला,और शेरो शायरी से भरी हुई वह चर्चा रिकॉर्ड करने लायक थी लेकिन मैं उसके लिए पहले से तैयारी नहीं कर सका था। इसी बीच मशहूर शायर और गीतकार शहरयार का फोन कई बार आता रहा और वहाँ उन्हें आज के जमाने का सबसे बड़ा शायर बताया जाता रहा। प्रो. अब्दुल बिस्मिल्लाह से प्रो. सचिन तिवारी ने सलमान रुश्दी की किताब शैतानी आयते (satanic verses) के बारे में कुछ सवाल किए। उनके जवाब पर काफ़ी देर तक बहस होती रही। पूरा ब्यौरा यहाँ देना सम्भव नहीं है, लेकिन उस परिचर्चा में शामिल होकर हमें बहुत आनन्द आया। अन्त में यह कड़ी समाप्त करने से पहले अब्दुल बिस्मिल्लाह जी द्वारा सुनाये और समझाए गये एक शेर की चर्चा करना चाहता हूँ।
बुझा जो रौजने जिन्ना तो हमने समझा है
कि तेरी मांग सितारों से भर गयी होगी।
चमक उठे जो सलासिल तो हमने जाना है
कि अब सहर तेरे रुख पर बिखर गयी होगी॥
हमारे अनेक सुधी पाठक इस शेर से परिचित होंगे। यदि कोई अपनी टिप्पणी के माध्यम से इसके शायर का नाम बताते हुए इसका सन्दर्भ-प्रसंग बताना चाहे तो मुझे बहुत खुशी होगी। अगली कड़ी में इसकी चर्चा के बाद मैं बताऊंगा कि अगले दिन अम्बेडकर जयन्ती के अवसर पर मुझे वहाँ क्या कुछ चमत्कृत करने वाले अनुभव हुए। अभी इतना ही… प्रतीक्षा कीजिए अगली कड़ी का।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
बीनो चदरिया झीनी झीनी , धीमे धीमे
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इत्ते महारथियों से मिले मिलाए, आनन्द ही आनन्द। इस तरह के शैक्षिक संस्थानों के कैम्पस तो सम्मोहक होते ही हैं । इस यात्रावृत्त को जरा और विधिवत लिख डालो। नेट पर अपनी तरह का पहला होगा। वहाँ की लाइब्रेरी में भी सहेजा जा सकता है।
बड़ा शानदार वृतांत रहा, मनीषा जी ने हमें भी खूब स्थान दिया शुरुआती दौर में हिन्दी नेस्ट पर.
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा पढ़ देख कर.
बहुत सी बातें पचा गए आप। इसकी कुछ किस्तें और लिखिए। मन नहीं भरा।
जवाब देंहटाएंभीषण गर्मी और बंजर धरती में हुए इस बौद्धिक मंथन का सुंदर वर्णन किया है आपने।
जवाब देंहटाएंसुन्दर यात्रा वृत्तान्त । और अधिक के लिये प्रतीक्षारत ।
जवाब देंहटाएंआपने तो मन में कुलबुलाहट पैदा कर दी.. हम भी सोचते है.. हो आये एक बार..
जवाब देंहटाएंसंस्मरणात्मक रूप से बहुत अच्छा लगा यह वृत्तांत.....
जवाब देंहटाएंसंस्मरणात्मक रूप से बहुत अच्छा लगा यह वृत्तांत.....
जवाब देंहटाएंआपके संस्मरण ने तो गर्मी में शीतलता का अहसास करा दिया... इस पोस्ट की बहुत सी पंक्तियाँ गुदगुदा रही है.
जवाब देंहटाएंआपने अचानक से क्रमश: लगा दिया... आगे इंतज़ार है
अगले अद्भुत का इंतज़ार है
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर पोस्ट है मित्र महत्वपूर्ण लोगों के बारे में।
जवाब देंहटाएंहमें यह बकरी ज्यादा पसन्द आई!
सत्यार्थ मित्र का अर्थ होता है सच्चे अर्थ में मित्र
जवाब देंहटाएंजैसे सत्यार्थ प्रकाश ये सच्चे अर्थ में मित्र कौन है
क्या आप जानते है..सदा साथ निभाने वाला
मित्र और वो हरेक का है
वर्धा का चित्र आपने एक कुशल मंजे हुए चित्रकार की तरह खींचा है। आपकी नजरों से बहुत लोग गांधी जी के सपनों को साकार होते देखेंगे। इस रेखाचित्र में एक उपन्यास एक का मजा है। भाषा में प्रवाह और किस्सागोई आपको बडा उपन्यासकार बना सकती है।
जवाब देंहटाएंशानदार वृतांत ....
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा पढ़ कर ..
जवाब देंहटाएंफिलहाल बुझौहल में हिस्सा लेकर हट लूंगा ..
फैज़ अहमद फैज़ हैं इन खूबसूरत पंक्तियों की रचना करने वाले ..
प्रसंग के रूप में जेल के कैदी का स्मरण कीजिये जिसके रात
और दिन अंधेरी कोठरी में कट रहे हैं .. जब छोटे रोशनदान में
आता हुआ प्रकाश बंद होने लगा तो इससे लगता है कि तेरी मांग यानी
वतन की मांग पर सितारे भर गए होंगे .. अर्थात रात का बिम्ब जिसमें आकाश में
तारे खिल गए हों .. रात हो गयी होगी ..
वहीं दूसरी ओर जब बेडियों और सीकचों पर सूर्य की सुबह की अम्लान किरण
पड़ रही है तो पता चल रहा है की तेरे रुख पर यानी वतन के रुख पर सुबह बिखर
गयी होगी .. सुबह हो गयी होगी ..
कमाल का 'काव्य-विवेक' है फैज़ साहब का ! आपको आभार ! कभी पढ़ी पंक्तियों की
आज फिर याद दिला दी आपने !
बंधुवर बहुत बढ़िया !
जवाब देंहटाएं.............और अमरेन्द्र जी की ' बुझव्वल ' फैज़ के अंदाज़ और सोच का विस्तार समझा गयी
सुन्दर यात्रा वृतांत. घर बैठे वर्धा जैसी जगह और वर्धा विश्वविद्यालय के बारे में जानकर बहुत अच्छा लग रहा है. अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा...........
जवाब देंहटाएंआपकी वर्धा यात्रा काफी जोरदार लग रही है ।
जवाब देंहटाएंये राजकिशोर जी वही तो नहीं जो आजकल "जनसत्ता" में लिखा करते हैं ओर बहुत पहले "अमर उजाला" में लिखा करते थे । अगर ये वही हैं तो इन्हीं की वजह से मैंने अमर उजाला खरीदना बंद कर दिया था । उनके लेख पढ़ कर सवेरे सवेरे मेरा सौ ग्राम खून भाप बन कर उड़ जाता था ।
कुछ चमत्कृत करने वाले अनुभवों का बेसब्री से इंजतार है ।
खूब मौज किये भैये उधर वर्धा में जय हो!
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