मन के भीतर उमड़-घुमड़
कुछ बादल सघन
ललक बरसन
पर पछुआ की धार से छितर-बितर
कुछ टुकड़ा इधर
कुछ खाँड़ उधर
घर के भीतर की खनखन
कलरव बच्चों का
कि अनबन
घरनी के मन में कुछ तड़पन
फिर ठनगन
उठता नहीं स्वर गगन
बस होती भनभन
मन ही मन
घरवाला अपने में मगन
देख ना सके है अगन
जाने किस बुरी घड़ी
लग गयी थी लगन
मन चाहे अब तोड़कर दीवारें
सरपट भगन
निकल नही पाती
मन से सब बात
लिखने को पाती
अब उठते नहीं हाथ
होकर अनाथ
साथ छोड़ रहा साहस
बिलाता एहसास अपनेपन का
दिखता नहीं कुछ भी
मन का
तन का
अब क्या करना
बस पेट भरना
तन कर
अब क्या रहना
बरबस अब है कहना
थाती मिटाती
ये आँधी
युगों ने थी बाँधी
जिस डोर से
चटक रही कैसे
किस ओर से
कैसे बतलाए
मन तो सकुचाए
अबतक तो रहे थे अघाए
नहीं....
खेले-खाए-अघाए
जितना भी पाए
उलीच दिया गागर
पर जो थी खाली
सारे मत अभिमत
सिद्ध हुए जाली
रखवाली का भ्रम था
जो करते नहीं थे
बस हो जाती थी
एक चिन्गारी लगी
ज्वाला फूटी
निकल पड़ी लेकर लकूटी
टूटी-फूटी…
ना ना
यह थी छिद्रहीन साबुत
जिन्दगी से भरी
भरी सी गगरी
न थी पत्थर की बुत
थोड़ी अलसाई
फिर लेती अंगड़ाई
छलक उठी गागर
समोए है सागर
कल-कल झरने की अठकेली
कई नदियों की धारा
लो इनको भी आँचल में लेली
अब खुलती हथेली
बन्द हुई मोटी किताबें
दूर धरी थियरी
सीधी सी बतियाँ बस
लाइव कमेन्टरी
घटित हो रहा मन में
जो घर में आँगन में
हस्तामलकवत्
चेतन मन कानन में
बात बेबात पे लड़ना
घड़ी-घड़ी झगड़ना
क्या दे देगा
किसी और का मुँह ताकते
एक ही लउर से हाँकते
भीतर बाहर झाँकते
आते-जाते को आँकते
हाँफ़ते फाँकते
सब ले लेगा
फिर
चाहिए ही क्या?
जो टाले न टले
हटाये न हटे
उसे यूँ साध लेना
मासूम बच्चा सा
मोहपाश सच्चा सा
डालकर यूँ बाँध लेना
सीखो तो सही
यह प्रेम की भाषा
दूर करेगी सारी निराशा
बोलो तो सही
बसता है ईश्वर
सबके भीतर बनकर
चेतना, दया और करुणा
जगाओ तो सही
फिर तो मनुष्य
बुरा कैसे रह जाएगा
सारा मालिन्य
इस अनुपम उजियारे में
झट से बह जाएगा
यह वाद वह आन्दोलन
यह भाषण वह सम्मेलन
अपने पूर्वाग्रह गठरी में बाँधकर
धर दो आले पर
मन की गाँठ खोलकर
चोट करो ताले पर
पहले घर से शुरू करो
कर डालो रिहर्सल
रियाज में ही राह दिखेगी
जिन्दा बनो हर पल
अन्धेरे को चीरकर
बन्द दिमागों से टकराएगी
आशा की उजली किरण
चहुँ ओर छा जाएगी।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
वाह ,यह गिरिजेश शैली ही लगी ...कविता निकली तो आवेग से है मगर फिर भवंर में पड़ती गयी या यूं कहें की कविता में भवरें पड़ती रहीं -कुछ खुल कर जो आना था ,सहज प्रवाह से जो बह जाना था ,रुक रुक सा गया !
जवाब देंहटाएंमगर हाँ भावों और अभिव्यक्ति की आपमें है जो असीम क्षमता -वह हो सर्वजन हिताय तो फिर बने बात !
गृही की लिखी गृहिणी की कविता पढना बहुत सुखद रहा ...!!
जवाब देंहटाएंबन्द दिमागों से टकराएगी
जवाब देंहटाएंआशा की उजली किरण
चहुँ ओर छा जाएगी।
अत्यंत सुन्दर रचना. बेहतरीन
... बहुत खूबसूरत रचना, प्रसंशनीय !!!!
जवाब देंहटाएंउम्दा व भावपूर्ण रचना । बधाई
जवाब देंहटाएंकाव्यमय टिप्पणियों से अन्दाज लगा रहे थे कि मर्ज बढ़ रहा है। अब बिमारी सामने है तो डाक्साब कह रहे हैं क्या खूब बिमारी है!
जवाब देंहटाएंनुस्खा-ए-इलाज(उर्दू दाँ क्षमा करें):
हर सप्ताह एक बार ऐसी ही लयमय, परतदार और प्रवाही कविता रची जाय। मर्ज महीने दो महीने में सुर्खुरू (उर्दूदाँ क्षमा करें) हो जाएगा।
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भाष्य के लिए हिमांशु मास्साब से अनुरोध है। आते होंगे।
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गृहिणी के लेख पर गृही की टिप्पणी अपेक्षित है। जेठ जी कब तक अकेले 'आग लगाते' रहेंगे? वहाँ के विमर्श को हिन्दी ब्लॉगरी के प्रकाश पर्व का प्रारम्भ होना चाहिए - आग की भी जरूरत है, दीपक की भी, बाती की भी, तेल की भी, दिया बाती करने वालों की भी।
जेठ जी की तरफ से आप प्रकाश पर्व में सादर आमंत्रित हैं।
'सुर्खुरू' की जगह 'मुकम्मल' ठीक होगा क्या? बताओ न !
जवाब देंहटाएंप्रवाहमान...एवं अद्भुत लय से बँधी कविता।
जवाब देंहटाएंगृहिणी की कविता..? गृही की नहीं?
या फिर गृहणा की???
:)
कितना कुछ लिखा जा सकता है गृहिणी पर, आपकी लम्बी कविता साबित कर रही है, कि जी अभी भरा नहीं..और भी लिखा जा सकता था है न?
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लगी आप की यह छोटी सी कविता
जवाब देंहटाएंमैं कहने ही वाला था 'गिरिजेश शैली कविता' ऊपर बड़े भाई कह गए !
जवाब देंहटाएं"बसता है ईश्वर
जवाब देंहटाएंसबके भीतर बनकर
चेतना, दया और करुणा
जगाओ तो सही"
काश! इतनी सी बात लोग समझ पाते तो खून की नदियां क्यों बहतीं :(
अच्छी कविता
जवाब देंहटाएंसच्ची कविता
बयार सी बहती कविता
पकड़ हमारे
न आती कविता!
(पत्नी जी से मसले एक्रॉस द टेबल सलटाते हैं। कविता की जरूरत न पड़ी जी।)
मन की गाँठ खोलकर
जवाब देंहटाएंचोट करो ताले पर
(गये सौ-पचास)