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शनिवार, 14 नवंबर 2009

बाल दिवस पर चच्चा, दादा और परदादा से भेंट

 

आज सुबह-सुबह बच्चों को ‘हैप्पी चिल्ड्रेन्स डे’ बोलकर ऑफिस गया तो इस वादे के साथ कि शाम को कहीं घुमाने ले जाएंगे। आज ‘सेकेण्ड सैटर्डे’ के कारण ट्रेजरी में काम कम होने की उम्मीद थी। मन में खुशी थी... जल्दी लौट आऊंगा और बच्चों की ख़्वाहिश पूरी करने और अपने गुरुदेव व गिरिजेश भैया के चच्चा जी से मिलकर उन्हें जन्मदिन की बधाई देने उनके गंगातट विहार के समय ही शिवकुटी की ओर जाऊंगा।

लेकिन ऑफिस में जाते ही दिमाग में बसे बच्चे आँखों के सामने आने वाले बुजुर्गों के साथ घुलमिलकर अलग अनुभूति देने लगे।

कुंजबिहारी चटर्जी (१९१४)

सबसे पहले २१ सितम्बर १९१४ में जन्में कुंजबिहारी चटर्जी  मुस्कराते हुए आये तो उनके साथ जैसे पूरा कमरा ही मुस्कान से भर गया। पिछले साल पहली बार भेंट होने के बा्द से ही उनकी आँखें जैसे मुझे हमेशा तृप्ति का संदेश देती हैं। आज भी उन्हें देख कर मुग्ध हो गया।

रामधारी पाण्डेय जी से पहली मुलाकात हुई थी लेकिन लगा जैसे कितना पुराना साथ रहा हो। कोषागार में आते हुए उन्हें ६३ साल हो चुके हैं। रामधारी पाण्डेय (१९०६) दोनो विश्वयुद्ध, सविनय अवज्ञा (१९३०) और भारत छोड़ो आन्दोलन (१९४२) का प्रत्यक्ष अनुभव समेटे हुए उनका मस्तिष्क अभी भी जाग्रत है। कमर जरूर झुक गयी है। उनकी वंशावली की पाँचवीं पीढ़ी का जवान लड़का उन्हें लेकर आया है जो बताता है कि इनका जन्म अगस्त-१९०३ का है। फोटो खिंचाने के लिए सहर्ष तैयार हो जाते हैं और जाते समय हाथ उठाकर आशीर्वाद देना नहीं भूलते।

अमीर अहमद (१९१८) अमीर अहमद (नब्बे साल) का चेहरा तो अभी भी बुलन्द है लेकिन पैर में पक्षाघात हो जाने से खड़े नहीं हो सकते। दो-दो जवान नाती उन्हें टाँग कर लाए हैं। आवाज की बुलन्दी बरबस ध्यान आकृष्ट करती है।

राम सुन्दर दूबे भी बहुत प्रसन्न हैं। उम्र पूछने पर पहले सकुचाते हैं, फिर मुस्काते हैं और फिर बताते हैं कि ८८ वर्ष का हो गया हूँ। खुद अपनी साइकिल चलाकर आए हैं।  १९४२ में सिविल पुलिस में भर्ती हुए थे। इलाहाबाद की पुलिस लाइन्स को तबसे देख रहे हैं।

“अच्छा, तब तो आपने भारत छोड़ो आन्दोलन में अंग्रेजी फोर्स की ओर से स्वतंत्रता सेनानियों पर खूब लाठियाँ भाँजी होंगी?”रामसुन्दर दुबे (१९२१)

सामने बैठा प्रशिक्षु कोषाधिकारी को यह प्रश्न उनके साथ कुछ ज्यादती सा लगता है। “नहीं सर, ये लोग आन्दोलन का समर्थन करते थे। विपिन चन्द्रा की किताब में लिखा है... इसी लिए तो आन्दोलन सफल हो गया। अंग्रेजों ने तभी तो भारत से चले जाने का मन बना लिया...”

“उन्हें कु्छ बताने दो यार... किताब तो हमने भी पढ़ी है।”’ मैं फुसफुसाता हूँ...

“अरे साहब, क्या करें... नौकरी करना मजबूरी थी...। लेकिन हमने उनलोगों पर कभी हाथ नहीं उठाया। उनके बीच से बचते-बचाते निकल जाते थे। वर्दी अंग्रेजों ने दी थी लेकिन हमारा दिल तो देश के साथ था। कभी हमने उन्हें रोका तक नहीं... सब जानते थे कि ये सिपाही हमारे साथ हैं”चम्पाकली(९०) बेटी (६८) के साथ

चम्पाकली(९०) अपनी बेटी (६८) के साथ आयी हैं। दोनो पेंशनर हैं। ऊँचा सुनती हैं लेकिन इशारे से सभी जरुरी बातें बता देती हैं। कमला(७०) और मैना(९०) भी माँ-बेटी हैं, दोनो पेंशन पाती हैं और आज संगम-स्नान करके ट्रेजरी आयी हैं।

कमला (७०),मैना (९०) माँ-बेटी

दिनभर ऐसे बुजुर्गों का आना जाना लगा रहता है। सबसे दुआ-सलाम, हाल-चाल...

शाम चार बजे घर से याद दिलाया जाता है कि बच्चे गंगा किनारे शिवकुटी की सैर को जाने के लिए तैयार हो रहे हैं। आज समय से घर आ जाइए। ठीक पाँच बजे ऑफिस छोड़ देता हूँ। घर आकर देखता हूँ कि कोई अभी तैयार नहीं है। इसलिए कि किसी को विश्वास नहीं था कि मैं इतना समय से आ जाऊंगा। झटपट तैयारी शुरू हो लेती है। मैं ब्लॉग वाणी खोलता हूँ। हलचल पर जाकर पता चलता है कि  “बड्डेब्वाय”(!) की तबीयत ठीक नहीं है। शुभकामनाएं अब मिलकर देना ठीक नहीं है। बच्चा पार्टी ऊधम मचाने के मूड में है। अभी कल ही तो एक स्टार पार्टी से लौटे हैं। अभी हैंगओवर बना हुआ है।

पार्टी टाइम गुब्बारे लगते प्यारे चटपटा है जी...

गाड़ी की दिशा उत्तर के बजाय दक्षिण की ओर मोड़ देता हूँ। सिविल लाइन्स का सुभाष चौक... जिसके आग्नेय कोण पर सॉफ़्टी कॉर्नर है। फ्रीजर से आइसक्रीम की भाप उड़ रही है। बदली के मौसम में भीड़ कुछ कम है। रेलिंग से लगे चबूतरों पर काठ के पीढ़े बिछे हैं। विद्यार्थी जीवन के जमाने से इन पीढ़ों पर बैठकर हॉट या कोल्ड कॉफी, सॉफ़्ट ड्रिंक, आइसक्रीम इत्यादि का मजा लेने का आनन्द बार-बार दुहराने का मन करता है। आज बच्चों को वही ले गया।

“बेटी, क्या खाएगी? आइस क्रीम...? ”

“कौन सी?

“चॉकलेट फ्लेवर! ” समवेत स्वर...

ओके...!

“छोटू...! चार चॉकलेट आइसक्रीम... तीन कोन और एक कप... जल्दी”

“ईश्वर कोन में नहीं खा पाएगा। उसे कप में चम्मच के साथ दिलाइए... ” मायके से लाये लड़के के लिए पत्नी की सलाह पर अमल करना ही था।

“तुम्हें क्या ले दूँ? ” 

“कुछ नहीं... आज मेरा प्रदोष है”

“मुझे फिर कभी अकेले लाइएगा... आप कुछ ले लीजिए...”

“क्यों नहीं,  जरूर लूंगा, चच्चा का बड्डे है जी...”

मेरे ऑर्डर की प्रतीक्षा कर रहा लड़का ‘मिक्स्ड फ्लेवर’ का आदेश पूरा करने चल पड़ता है। थोड़ी ही देर में सतरंगी मीनार कोन पर सजाए हाजिर... जितने फ्लेवर उतने रंग... एक दूसरे पर चढ़े हुए... बच्चे अपनी चॉकलेट फ्लेवर के चुनाव पर पछताने लगे... कई स्वाद एक साथ...

“ओ डैडी, हमें अब कुछ और भी खिलाना पड़ेगा...।” क्षतिपूर्ति की सिफारिश बेटी ने की।

बगल में ही चाटवाले के गरम तवे से भाप उड़ती हुई दिख गयी। बर्गर, टिकिया, पानी-बताशा, चाऊमिन, और गुलाबजामुन भी...। सड़क पर खड़े-खड़े इसका भी आनन्द चटकारे लेकर...

इसी बीच एक और बचपन दिखा... देखने की इच्छा नहीं हुई लेकिन बच कैसे पाते? चमचमाती कारों के आगे-पीछे फैलते हाथ, आइसक्रीम खाते बच्चों के पीछे खड़े होकर उन्हें अपलक निहारती आँखे, चाट की दुकानों पर खाली होते पत्तलों पर टपकती लार, और याचना को अनसुना करके आगे बढ़ जाने वालों के पीछे-पीछे दौड़ने वाले पैर जिन बच्चों के थे उनके चेहरे पर १४ नवम्बर कहीं नहीं लिखा पाया। मोबाइल कैमरे से तस्वीर खींचते हुए भी एक स्वार्थभाव का अपराध बोध ही पीछा करता रहा।

अन्ततः तय हुआ कि अपने बच्चों की आज की तस्वीरें नहीं लगायी जाएंगी। बस उस एक लड़की को देखिए जिसने कैमरा देखते ही मुस्कराने की असफल कोशिश की थी।

एक बचपन जो पीछे रह गया है..मैं  समझ नहीं पाया कि उसकी मुस्कान फोटू खिंचाने पर थी या उन चन्द सिक्कों पर जो उसे अभी-अभी मिले थे। यह भी कि इनकी गरीबी और बदहाली का ब्लॉगपोस्ट बनाना कितना उचित है...?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

 

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18 टिप्‍पणियां:

  1. बूढे तो अतीत है उनका कोई दिवस नहीं होता... होता है तो पितृपक्ष... वो भी जब ये धरती छोड़ कर चले जाएं, तब तक तो ज़माने की मार झेलना ही है॥

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  2. मन बड़ा अजीब होता है,

    जब बुजुर्ग साथ रहते थे तब कुछ समझ नहीं थी,

    अब वे दिन बड़े याद आते हैं जब बुजुर्गों के साथ रहा करते थे,

    रात में कभी भी पुकार लें, " अम्मा !"

    " हाँ "

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  3. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी आप की पोस्ट पढ कर दिल कहता है कि अभी भी भावुक इंसान भारत मै बचे है वरना जो कुछ मैने देखा उस से तो मेरे दिल मै उन नोजवानो के प्रति नफ़रत ही भर गई जो बुढे मां बाप को तब तक ही मां बाप समझते है जब तक उन्हे उन की ज्यादाद ओर पेंशन मिलती रहे, बाद मै तो यही बुजुर्ग उन पर बोझ बन जाते है, समस्या बन जाते है.
    आप ने इस बच्ची की फ़ोटो दिखाई बहुत कुछ सोचने पर मजबुर हो गया....
    धन्यवाद

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  4. सिद्धार्थ भाई, इसीलिए आपके ब्लाग पर आता हूं।
    ये अनुभूतियां...जो शायद सार्वलौकिक हैं, पर इन्हें आपके जरिये अनुभूत कर पाता हूं।

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  5. वाह सिद्धार्थ जी क्‍या पोस्‍ट थी अद्भुत !!!

    ऐसी पोस्‍टे न सिर्फ टिप्‍पणी बल्कि पढ़ने को भी मजबूर करती है। आपकी इस पोस्‍ट में आशा-निराशा-खुशी सभी प्रकार के रसो का मिश्रण मिल रहा होता है। जिन भी बुर्जुगो के दर्शन आपके माध्‍यम से हुये उनके चेहने और बयां बतो से बहुत कुछ सीखने को मिला।

    आपके ब्‍लाग पर आ कर पता चला कि ज्ञान जी का जन्‍मदिन था, अभी बधाई देते है धन्‍यवाद।

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  6. बाल दिवस पर एक साथ बच्चों की धींगामस्ती , वृद्धों का सम्मान और ज्ञानदत्तजी को जन्मदिन की शुभकामनायें ...सब एक साथ ...
    आपकी संवेदना ने मन को छू लिया ...
    आभार ...!!

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  7. सुखी हुआ (प्रसन्न नहीं लिख रहा)
    कि अपनी मनमर्जी न मिल पाने पर भी
    संवेदनाओं को ऐसे जीवित रखे हो और जी रहे हो।
    सुबह सुबह नरक की यात्रा में खुशनुमा झोंका सी लगी यह पोस्ट !
    लेकिन अंत !
    और वह फोटो !!
    ..नरक के रस्ते चालू आहे।
    कभी मिलेंगे तो खूब बतियाएँगे इस पर।
    जाने क्यों आज मैं बहुत बोलना चाहता हूँ।
    ...

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  8. अंत वाली फोटो न होती तो कुछ टिपण्णी करता. लेकिन अब क्या कहें !

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  9. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  10. 'आग्नेय कोण पर सॉफ़्टी कॉर्नर'- अच्छा oxymoron है.

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  11. सिद्धार्थ, पता नहीं मैंने यह बात तुम्हें पहले कही है अथवा नहीं (कही भी हो तो बार बार कहने की है यह) कि तुम्हें मार्मिक प्रसंगों की खूब समझ है, पकड़ है| तुम अच्छे कथाकार बनने के लिए तैयार हो|

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  12. तुम्हें मार्मिक प्रसंगों की खूब समझ है, पकड़ है| तुम अच्छे कथाकार बनने के लिए तैयार हो|
    .
    Try keejiye, Mujhe bhi apse badi umeed hai. Kahin yeh Great Girijesh ki sohabat ka Asar to nahi.

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  13. इसे कहते है भरपूर जीवन जीना ..। यह अनुभूति आपके ब्लॉग पर आकर सम्भव होती है ।

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  14. बाल दिवस के बहाने इस सुंदर पोस्ट के लिए आभार। अच्छी लगी आपकी बेबाक शैली।
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  15. very good post.......i heared u published a book on ur blogwriting, if it is so plz send a copy to me.HGow is ur family and administrative life r u still in Allahabad

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  16. Post padhni shuru ki to kai baten dimaag me aane lagi aur socha tippani me ispar likhungi...lekin jaise jaise aage badhti gayi shabd peechhe chhotte gaye aur ant me aakar ab sabhi shabd saath chhodkar pata nahi kahan jaa chuke hain,shayad 14 navambar ka arth dhoondh rahe hain...

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  17. बुजुर्गों की तस्बीर ,उनके वाबत जानकारी पढ कर अच्छा लगा साथ ही ""इसी बीच एक और बचपन " से दिल दुखी हुआ_ क्या कर सकते है एक ठंडी सांस ली और कमेन्ट लिखने लगा

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  18. in chehron me bhi bachhon se kam masumiyat nahi hai. childrens day ke is post me budhe bacho ne jan dal di hai. jaha tak niche wale photograph ki bat hai, aise drishya mere dilo dimag me aksar dhamachaukdi machate rahte hain. dhamachaukdi word is liye use kiya ki ye bas dhmachukri ban kar hi rah jate hain mai inke liye kuchh kar nahi pata.

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