हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

रविवार, 1 जनवरी 2012

जाओ जी, अच्छा है…

 

happy_new_year_2012_by_abu_hany-d4ksy1k_largeअच्छा जी, जाओ !

बड़ी राहत मिलेगी शायद
तुमने एक साल तक हमें परेशान रखा
कितने करोड़
नहीं, कितने अरब
या उससे भी कहीं ज्यादा
चोर उड़ा ले गये

चोर नहीं, डकैत कहना चाहिए
सबकी आँखों के सामने ही तो लूट होती रही
मीडिया जानती थी
टीवी पर रोज डिबेट होती थी
पत्रकार रपट देते थे
सी.ए.जी. की ऑडिट बताती थी
बाबा भी चिल्‍लाते रहे
अन्ना भी अनशन करते रहे
लेकिन तुमने सब हो जाने दिया
नामाकूल !

संसद की दीवारों के भीतर 
लोकतंत्र को कैद करने की कोशिश
फिलहाल सफल हो जाने दी तुमने
रामलीला मैदान और जंतर मंतर  की हुंकार
बन गयी
नक्कारखाने में तूती की आवाज
भ्रष्टतंत्र को तुमने जीत जाने दिया 
तुमने थका दिया इतना कि
लोकतंत्र को बुखार आ गया
थोड़ी सहानुभूति के शब्द सुनाकर तुम भी चलते बने
कुछ लोगों के साथ

मामूल के मुताबिक
तुम्हारी विदाई पर जश्न का माहौल है
लेकिन किसी खुशफहमी में मत रहना
दर‍असल यह तुम्हारे उत्तराधिकारी के आगमन का जश्न है
तुम्हारे जाने से हम भावुक होकर दुखी हो जाएंगे
ऐसा नहीं है
तुम्हारा तो जल्दी से जल्दी चला जाना ही अच्छा है
बुरा मत मानना
लेकिन यह बता देना जरूरी है
तुमने बहुत दुखी किया

बस एक खुशी मिली थी
जब अठ्ठाइस साल बाद एक वर्डकप दिलाया था तुमने
लेकिन इस खेल की एक किंवदन्ती को नहीं दिला सके
एक अदद शतक जो हो सकता था महाशतक
पाजी कहीं के !

तुमसे निजात पाकर
हम नये सिरे से आशा कर सकते हैं
शायद इस बार बिल पास हो जाय
उस कानून का जन्म हो जाय
जिसके लिए एक फकीर ने देश को जगाने का प्रयास किया
शायद उसे इस बार सफलता मिल जाय

लेकिन डर भी है
कौन जाने
तुम्हारे पीछे तुमसे भी ज्यादा
धुर्त और पाज़ी आ रहा हो

इसी लिए हम प्रार्थना कर रहे हैं
अब जो आये वह अच्छा ही आये
नया साल शुभ हो

!!! हार्दिक शुभकामनाएँ !!!

(चित्रांकन : http://weheartit.com/entry/20302771 से साभार)

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

ठंड में यूँ याद आया बचपन…

 

camp-fireलखनऊ की ठंड भी कंपाने वाली है। ऑफिस से लौटने के बाद आग तापने से अच्छा कुछ भी नहीं लगता। अपार्टमेंट फ़्लैट की लाइफ में आंगन में अलाव जलाकर तापने का सुख तो नहीं मिल पाता लेकिन हमने उसकी भरपाई कुछ ऐसे कर ली। अंगारे बड़े प्यारेलोहे का पोर्टेबल ‘हवनकुंड’ लकड़ी और कोयले की आग जलाकर तापने के काम आ रहा है। पड़ोसियों से मेल मुलाकात का बहाना भी।

 

 

 

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child-hood days 001आज पुराने कागज टटोलते हुए एक मुड़ा-तुड़ा पन्ना हाथ लगा तो मन खुश हो गया। बात उन दिनों की है जब कम्प्यूटर से भेंट नहीं थी लेकिन कुछ तुकबन्दी जोड़ लेने का शगल फिर भी आता-जाता रहता था। ऐसे में कागज पर लिखा हुआ आइटम जेब में कुछ दिनों साथ घूमता, फिर जब आसपास के सबलोग पढ़-सुन लेते तो बासी अखबार की तरह कहीं कोने में पड़ रहता। बचपन की देहरी लाँघते हुए जब तरुणाई की ओर कदम बढ़ रहे थे उन्ही दिनो ननिहाल में ये भाव उपजे थे। एक मौसी का जन्मदिन था। माँ की फुफेरी बहन थीं और हमउम्र थी इसलिए ‘नीलूमोछी’ कहा करते थे। “हैप्पी बर्डे” कहने का शऊर सीखा नहीं था इसलिए ‘सुखी और चिरायु होने की शुभकामनाएँ’ देने के लिए यह कविता रच डाली थी। इसमें शुभकामना कहाँ छिपी है यह आप खोजिए, मैं तो कविता ठेलता हूँ।

मेरे मन कर वन्दन प्रभु से अब सबकुछ मंगलकारी हो।

रीते दिन बीतें अब अपनी एक हरी भरी फुलवारी हो॥

नील गगन में पंछी सा उड़ने को मन ललचाता है।

लूटे थे जो सुख बचपन में उन सबकी याद दिलाता है॥

मोहक नानी के घर की सारी बातें प्यार लड़ाई की।

छीना-झपटी का खेल और चुपके से मिली मिठाई की॥

सब धमा-चौकड़ी लुका-छिपी फिर भोली-भाली किलकारी।

दैनिक जीवन निश्चिन्त अहा, अल्हणता कैसी थी प्यारी॥

वह खेल-कबड्डी, गुल्ली-डंडा, भाग-दौड़ वह अठखेली।

सुबके रोये भी वहाँ और मुस्कान खिली भी अलबेली॥

खींच चुकी है मन में गहरी अमिट रेख उन यादों की।

हों विस्मृत कैसे वे पल-छिन वे घड़ियाँ मीठे वादों की॥

चिरकाल हमारे जीवन में सब रचा-बसा रह जाएगा।

राहें जीवन की जहाँ मिलें सबकुछ पहचाना जाएगा॥

युग बचपन का बीता, आयी तरुणाई तो अपनाएंगे।

होंठों पर हो मुस्कान अमिट ईश्वर से यही मनाएंगे॥

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

-सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी         

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

सेमिनार रिपोर्ट... डेटलाइन लखनऊ (कल्याण से लौटकर) भाग-II

प्रपत्र वाचन का क्रम थम गया तो मुझे बोलने के लिए बुलाया गया। इतनी अधिक बातें कही जा चुकी थीं कि कुछ कहने को बचा नहीं था। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी। इतना बताता चलूँ कि मैंने वर्ष २००८ में ब्लॉगिंग शुरू करने के बाद इस आभासी दुनिया के चेहरों को वास्तविक रूप में श्रोताओं के आमने-सामने लाने के तीन बड़े कार्यक्रमों– (i) ब्लॉगिंग की पाठशाला, (ii)चिठ्ठाकारी की दुनिया, (iii) चिठ्ठाकारी की आचारसंहिता के आयोजन और ऐसे अनेक छोटे-बड़े अवसरों में उपस्थित रहने का सौभाग्य पाया है लेकिन विषय विशेषज्ञ के रूप में अपनी बात कहने का मौका शायद पहली ही बार मिला था। अस्तु, मैं बड़े उहापोह में था कि कहाँ से बात शुरू करूँ और क्या-क्या बता दूँ। समय की कमी की ओर बार-बार इशारे हो रहे थे लेकिन जब मैंने माइक सम्भाला तो कई बातें कर डाली:

मैने इस सेमिनार के आयोजकों को साधुवाद दिया और बोला कि अबतक ब्लॉगिंग के ‘स्वरूप, व्याप्ति और संभावनाओं’ के बारे में बहुत सी चर्चा हो चुकी है; इसका परिचय देने के लिए कुछ बाकी नहीं है; इसकी क्या-क्या उपयोगिता हो सकती है इसपर भी अनेक सुझाव आये हैं; मैं आगे चलकर उनमें कुछ जोड़ना चाहूँगा; लेकिन यहाँ इस माध्यम के बारे में जो शंकाएँ उठायी गयी हैं उनके बारे में स्थिति स्पष्ट करना जरूरी समझता हूँ इसलिए मैं सबसे पहले यह माध्यम जिस पृष्ठभूमि में अवतरित हुआ है उसओर आपका ध्यान दिलाना चाहूँगा।

यदि आप मानव सभ्यता के विकास की कहानी पर ध्यान देंगे तो पाएंगे कि समुद्र से जंगल और जंगल से बाहर निकलकर सभ्य समाज की स्थापना की लम्बी यात्रा में मनुष्य के रहन सहन के तरीके में जो बड़े बदलाव आये हैं वे किसी न किसी बड़ी वैज्ञानिक खोज या तकनीकी अविष्कार के कारण ही आये हैं। जब हमने पहली बार आग की खोज की तो खाने का स्वाद बदल गया, पहिया या चक्का बनाना आया तो हमारी गति बदल गयी, धातु की खोज हुई और हथियार बनाना सीख लिया तो बेहतर शिकारी और पशुपालक बन गये। अन्न उगाना सीख लिया तो घुमक्कड़ी छोड़ स्थायी नगर और गाँव बसाने लगे। नदी-घाटी सभ्यताएँ विकसित हो गयीं। कपड़े बनाना सीख लिया तो कायदे से तन ढकने लगे, अधिक सभ्य हो गये। भोजपत्र पर अक्षर उकेरने लगे तो पठन-पाठन का विकास हुआ। कागज बना और छापाखाना ईजाद हुआ तो लोगों को किताबे मिलने लगी। ज्ञान विज्ञान का प्रसार हुआ। लोग अँधेरे से निकलकर उजाले की ओर आने लगे। नवजागरण हुआ। बड़े पैमाने पर उत्पादन की तकनीकें विकसित हुईं तो बड़े कल कारखाने स्थापित हुए और उनके इर्द-गिर्द बस्तियाँ बसने लगी। कामगारों का विस्थापन हुआ। समुद्री नौकाएँ बनी तो नये महाद्वीप खोजे गये। अंतरराष्ट्रीय व्यापार होने लगा। औद्यौगिक क्रान्ति हुई।

इस प्रकार हम देखते हैं कि जब भी कोई बड़ी तकनीकी खोज आयी उसने हमारे रहन-सहन के तरीके में युगान्तकारी परिवर्तन कर दिया। इतना बड़ा परिवर्तन कि यह कल्पना करना कठिन हो जाय कि पहले के लोग इसके बिना रहते कैसे होंगे। रेलगाड़ी के बिना लम्बी यात्राएँ कैसे होती होंगी कंप्यूटर के बिना आम जनजीवन कैसे चलता होगा, यह सोच पाना कठिन है। मोबाइल का उदाहरण तो बिल्कुल हमारे सामने पैदा हुआ है। अबसे दस पन्द्रह साल पहले जब मोबाइल प्रचलन में नहीं था तब लोग कैसे काम चलाते थे?  आज हमें यदि वैसी स्थिति में वापस जाना पड़े तो कितनी कठिनाई आ जाएगी?

इस परिप्रेक्ष्य में यदि हम ब्लॉग के आविर्भाव को देखें तो पाएंगे कि सूचना क्रांति के इस युग में विचार अभिव्यक्ति का यह ऐसा माध्यम हमारे हाथ लगा है जो एक नये युग का प्रवर्तन करने वाला है। एक लोकतांत्रिक समाज में रहते हुए हमें जो मौलिक अधिकार मिले हुए थे उनका सर्वोत्तम उपयोग कर पाने का अवसर हममें से कितनों के पास था? हम कितने लोगों से अपनी बात कह पाते थे और कितने लोगों की प्रतिक्रिया हम जान पाते थे? इस माध्यम ने हमें अनन्त अवसर दे दिये हैं जिनका सदुपयोग करने की जिम्मेदारी हमारी है।

मैं इस संगोष्ठी में उठायी गयी कुछ आशंकाओं की चर्चा करना चाहूँगा। कल शशि मिश्रा जी ने बहुत ही भावुक कर देने वाला आलेख पढ़ा। खासकर महिला ब्लॉगर्स द्वारा लिखे गये ब्लॉगों से सुन्दर उद्धरण प्रस्तुत किये। लेकिन उन्हें इस बात का अफसोस था कि अब अपने इष्ट मित्रों, स्नेही स्वजनों को लिखकर भेजे जाने वाला पोस्टकार्ड विलुप्त हो गया है। चिठ्ठी लिखना, लिफाफे में भरकर डाक के हवाले करना और हफ्तो महीनों उसके जवाब का इन्तजार करना एक अलग तरह का सुख देता था। अब यह सब इतिहास हो जाएगा। मैं पूछता हूँ - क्या बिहारीलाल की बिरहिणी नायिका का दुःख सिर्फ़ इसलिए बनाये रखा जाना चाहिए कि उसके वर्णन में एक साहित्यिक रस मिलता है? क्या आज संचार के आधुनिक साधनों ने हमें अपने स्वजनों की कुशलक्षेम की चिन्ता से मुक्त नहीं कर दिया है? हमें अपनों के बारे में पल-पल की जानकारी मिलती रहे तो मन में बेचैनी नहीं रहती। यह स्थिति प्रसन्न रहने की है या अफ़सोस करने की?

अभी एक सज्जन ने कहा कि कम्प्यूटर के माध्यम से हम दुनिया से तो जुट जाते हैं लेकिन पड़ोस में क्या हो रहा है इसका पता नहीं चलता। मेरी समझ से ऐसी स्थिति उनके साथ होती होगी जो कम्प्यूटर और इन्टरनेट का प्रयोग गेम खेलने और पोर्नसाइट्स देखने के लिए करते होंगे। मैं बताना चाहता हूँ कि जिसे ब्लॉगिंग के बारे में कुछ भी पता है वह ठीक इसका उल्टा सोचता होगा। एक ब्लॉगर के रूप में आप कम्प्यूटर और इंटरनेट से जुड़कर क्या करते हैं? आपका कंटेंट क्या होता है? जबतक आप अपने आस-पास के वातावरण के प्रति संवेदनशील नहीं होंगे, अपने घर-द्वार, कार्यालय और नजदीकी समाज के बारे में कुछ चिंतन नहीं करेंगे तबतक आप क्या इनपुट देंगे? किस बात के बारे में पोस्ट लिखेंगे? मैं तो समझता हूँ कि एक सामान्य व्यक्ति के मुकाबले एक ब्लॉगर अपने आँख कान ज्यादा खुले रखता है। एक पोस्ट के जुगाड़ में वह सदैव खोज करता रहता है। मूर्धन्य ब्लॉगर ज्ञानदत्त पांडेय जी की पोस्टें देखिए उनके घर के पास बहने वाली गंगा जी के तट पर रहने वाले तमाम जीव-जन्तु और मनुष्य उनकी पोस्टों के नियमित पात्र हैं। उनके पड़ोस के बारे में उनके साथ-साथ हम भी बहुत कुछ जान गये हैं और वैसी ही ही दृष्टि विकसित करना चाहते हैं। यहाँ तक कि सोशल नेटवर्किंगसाइट्स से जुड़े लोग भी अपने आसपास पर निकट दृष्टि रखते हैं, ब्लॉगर्स के तो कहने ही क्या?

यहाँ कुछ वक्ताओं द्वारा पुस्तकों के घटते महत्व और हमारी संस्कृति से जुड़ी तमाम बातों के लुप्त होने पर चिन्ता व्यक्त की गयी। मैं यहाँ यह कहना चाहूँगा कि ब्लॉग लेखन इस समस्या का कारण नहीं है बल्कि यह इसका समाधान है। हमारे कितने ब्लॉगर बन्धु अच्छी-अच्छी किताबें पढ़ते हैं और उसकी समीक्षा लिखते हैं। दूसरों को पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। बहुत सा उम्दा साहित्य ब्लॉग और साइट्स के माध्यम से इंटरनेट पर अपलोड किया जा रहा है। अनूप शुक्ल जी ने अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर ‘राग दरबारी’ जैसे कालजयी उपन्यास को एक ब्लॉग बनाकर उसपर पोस्ट कर दिया है। वर्धा विश्वविद्यालय की साइट हिंदी-विश्व पर उत्कृष्ट हिंदी साहित्य के दस लाख पृष्ठ अपलोड करने की योजना चल रही है। रवि रतलामी ने ‘रचनाकर’ पर तमाम साहित्य चढ़ा रखा है। आज यदि आप यह सोच रहे हैं कि बच्चे कम्प्यूटर शट-डाउन करके लाइब्रेरी जाएँ और साहित्यिक किताबें इश्यू कराकर पढ़ें तो आपको निराशा होगी। करना यह होगा कि लाइब्रेरी के साहित्य को ही यहाँ उठाकर लाना होगा। ब्लॉग इस काम के लिए सबसे अच्छा और सहज माध्यम है।

हमारी सांस्कृतिक विरासत को सहेजने में भी ब्लॉग बहुत हद तक समर्थ है। मैंने अपनी एक ब्लॉग पोस्ट का उदाहरण दिया जिसमें गाँवों में पहले कूटने-पीसने के लिए प्रयुक्त ढेंका और जाँता के बारे में बताया था। उन यन्त्रों के बारे में आगे की पीढ़ियाँ कुछ भी नहीं जान पाएंगी यदि हमने उनके बारे में जानकारी यहाँ सहेजकर नहीं रख दी। उनसे उपजे मुहाबरे और लोकोक्तियों का अर्थ रटना पड़ेगा क्योंकि उन्हें समझना मुश्किल हो जाएगा। देश दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में मनाये जाने वाले पर्व त्यौहार कैसे होते हैं, क्या रीति-रिवाज व्यवहृत हैं इनके बारे में प्रथम स्तर की सीधी जानकारी ब्लॉग नहीं देगा तो कौन देगा?

पिछले सत्र में किसी ने बहुत ही सही बात कही कि एक तेज चाकू की धार से कुशल सर्जन द्वारा शल्यक्रिया करके किसी की जान बचायी जाती है और वही चाकू जब कोई विवेकभ्रष्ट अपराधी थाम लेता है तो किसी की हत्या तक कर देता है। इसलिए किसी भी साधन के प्रयोग में विवेक का सही प्रयोग तो महत्वपूर्ण शर्त होगी ही। इससे हम कत्तई इन्कार नहीं कर सकते कि ब्लॉग के माध्यम का प्रयोग भी पूरी जिम्मेदारी से सकारात्मक उद्देश्य के लिए किया जाना चाहिए। हम अपने आप को गौरवान्वित महसूस करें कि हम सभ्यता के विकास के ऐसे सोपान पर खड़े हैं जो एक और युगान्तकारी परिवर्तन का साक्षी है। अभिव्यक्ति की जो नयी आजादी मिली है वह गलत हाथों में पड़कर जाया न हो जाय इसलिए हमें पूरी दृढ़ता से अपने विवेक का प्रयोग करते हुए इसके सदुपयोग को सुनिश्चित करना चाहिए जिससे मानवता की बेहतर सेवा  हो सके।

मेरे बाद शैलेश भारतवासी को आमंत्रित किया गया जिन्होंने संक्षिप्त किंतु बहुत उपयोगी बातें रखीं। मैं अपनी बात कहने के बाद इस स्थिति में नहीं था कि आगे की बातें नोट कर सकूँ। आशा है कि वे अपनी बातें समय निकालकर अपनी साइट पर आप सब से साझा करेंगे। हाँ इतना और बताता चलूँ कि मैंने सत्राध्यक्ष डॉ. शीतला प्रसाद पांडे जी की अनुमति से अपना रचा हुआ एक गीत भी लैपटॉप खोलकर मंच से सुना दिया। आपने यदि नहीं पढ़ा हो तो यहाँ पढ़ लीजिए। जुलाई २००८ में रचित यह गीत आज भी प्रासंगिक जान पड़ता है।

यदि समय ने साथ दिया तो आयोजन की कुछ झलकियाँ चित्रों के माध्यम से प्रस्तुत करूंगा। धन्यवाद।


(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)