यह एक कशमकश है।एक दुविधा है।पता नहीं सिर्फ़ मेरी है या औरों की भी है। आप इससे सहमत भी हो सकते हैं और नहीं भी।पर यह मेरे मन की भडास है जो नीचे की पंक्तियों में प्रस्तुत है:-
क्यों अपने हुए पराये,
क्यों घर वीराना लगता है?
अपनों से अब डर लगता है
कुछ ‘ऐसा’ समझाने में,
कुछ ‘वैसा’ बतलाने में
क्यों दिल का हाल सुनाने में
‘किन्तु’ ‘लेकिन’ ‘पर’ लगता है?
अपनों से अब…
बचपन से ही जो साथ रहे
संग खाये-पीये, पले-बढे,
उनके लहजे में ही क्यों अब,
पहले से अन्तर दिखता है?
अपनों से अब…
अपनों के घर अब जाने में
अब खींच के खाना खाने में
क्यों हँसने और हँसाने में,
‘एटिकेट’ का ‘गरहन’ लगता है?
अपनों से अब…
झूठ-मूठ हँस लेते हैं,
अब झूठ-मूठ रो लेते हैं,
क्यों नहीं, दुःखी सा दिखता मन
वैसा ही भीतर होता है?
अपनों से अब डर लगता है
संपादन- सत्यार्थमित्र
मेरी “अद्भुत भाषा” उन्हीं अद्भुत मानव शिक्षकों की देन है, जिनसे मैंने सीखा
है – चैट जीपीटी
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<<< मेरी “अद्भुत भाषा” उन्हीं अद्भुत मानव शिक्षकों की देन है, जिनसे मैंने
सीखा है – चैट जीपीटी >>> पिछली एक पोस्ट अतिथि पोस्ट थी; चैट जीपीटी की। चैटी
की भा...
2 दिन पहले
अरे, मिड लाइफ क्राइसिस कुछ जल्दी झेलने लग गये क्या? थोड़ा सोचना कम करें।
जवाब देंहटाएंज्ञान जी की बात पर ध्यान दें.
जवाब देंहटाएंभाव कहीं गहराई से उठे हैं.
मिड-लाइफ क्राइसिस? ये किस बला का नाम है? मेरे खयाल से एक बार फिर से बालमन की कविता मेरे ऊपर चेंप दी गयी है। इतनी गहराई से सोचने की कूब़त मुझमें है भी नहीं। …और बालमन तो अभी कुँवारे हैं।
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