ब्लॉगर बंधुओं, आखिर वो घड़ी आ ही गई जब मुझे पन्द्रह दिन के अर्जित अवकाश पर अपने पैतृक गाँव जाना पड़ रहा है। मेरे दादा जी ने इमरजेन्सी काल पर परिवार के सभी सदस्यों को तुरंत बुला लिया है। लगता है जीवन के ध्रुव सत्य से साक्षात्कार कराने की मंशा है।
वहाँ गाँव में इण्टरनेट और कम्प्यूटर तो दूर की बात बिजली भी कभी-कभी ही आती है। ऐसे में ब्लॉग की दुनिया कुछ समय के लिए दूर हो जाएगी। लेखन कठिन हो जाएगा। इसका दुःख कम है लेकिन निरन्तर बह रही विचारों की अजस्र धारा में डुबकी लगाने का सुख कुछ दिनों के लिए रुक जाएगा इससे थोड़ा उदास हूँ। मेरे लिए तो यह कल्पना करना कठिन हो रहा है कि संचार के इस साधन के बिना दिन कैसे गुजरेंगे। जबकि मात्र दो महीने पहले इस दुनिया से मैं लगभग अन्जान था। बस अखबारी ज्ञान से इसका नाम सुन रख था।
देखते-देखते आपलोगों से इतना जुड़ाव हो गया है कि पंद्रह दिन का विछोह भारी लग रहा है। लेकिन कर ही क्या सकते हैं। जीवन के अन्य पहलू भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसलिए मिलते हैं एक ‘छोटे से’ ब्रेक के बाद… नमस्कार।
सिद्धार्थ
बुधवार, 14 मई 2008
मोहन तिवारी हाज़िर हों...
आज एक बार फिर हम बर्बर ख़ूनी खेल का शोक मना रहे हैं। ऐसे में मुझे छात्र जीवन में संग्रहित की गयी कविता बरबस याद आ गयी है। इसके रचयिता मोहन तिवारी के बारे में नाम के अतिरिक्त मेरे पास कोई सूचना नहीं है। सुधी पाठक या स्वयं रचनाकार यदि इसे देखकर कुछ प्रकाश डाल सकें तो मुझे खुशी होगी।
ठीक ही किया

ईसा तुमने ठीक ही किया
मृत्यु के लिए
सलीब़ को चुन लिया
आज तुम होते!
किसी उग्रवादी की
गोली से
या, पुलिस की
खौफ़नाक ठिठोली से
कैंसर से भी अधिक
असाध्य महंगाई से
या किसी महंगी
मिलावटी दवाई से
किसी
आकस्मिक रेल दुर्घटना में
या फिर किसी
जुलूस की अगुआई करते हुए
कानपुर या पटना में
मृत्यु से
तुम्हारा साक्षात्कार होता
इस सदी में
ऐसे ही तुम्हारा उद्धार होता
और,
तुम्हारी मृत्यु की खबर
दुनिया में नहीं
देश में नहीं
यहाँ तक कि
मुहल्ले में भी
कोई नहीं जान पाता
फिर तुम्हे
कोई कैसे पहचान पाता?
ईसा!
तुम प्रारब्ध के बहुत खरे थे
सिर्फ़
एक बार मरे थे
वर्ना, मेरे मुहल्ले का हर आदमी
हर रोज़ सुबह
अपने मरने की खबर
खुद अखबार में पढ़ता है
देश कोई हो,
मजहब कोई हो,
नाम कोई हो,
मरना तो उसे ही पड़ता है
वो भी इस तरह…
उसे महसूस तक नहीं होता
कि वो मर गया है
अभी थोड़ी ही देर पहले
अपनी ही लाश के
ऊपर से गुजर गया है
वो लाश…
जिसे जीवित रखने के लिए
कितना
चीखा-चिल्लाया था
कभी आतंकवादियों के सामने
कभी तानाशाहों के पैरों पर
रोया गिड़गिड़ाया था
वो
उस लाश को बचा नहीं सका
एक इंसान बनकर
इंसानियत का गीत
गा न सका
प्रस्तुति- सिद्धार्थ
ठीक ही किया
ईसा तुमने ठीक ही किया
मृत्यु के लिए
सलीब़ को चुन लिया
आज तुम होते!
किसी उग्रवादी की
गोली से
या, पुलिस की
खौफ़नाक ठिठोली से
कैंसर से भी अधिक
असाध्य महंगाई से
या किसी महंगी
मिलावटी दवाई से
किसी
आकस्मिक रेल दुर्घटना में
या फिर किसी
जुलूस की अगुआई करते हुए
कानपुर या पटना में
मृत्यु से
तुम्हारा साक्षात्कार होता
इस सदी में
ऐसे ही तुम्हारा उद्धार होता
और,
तुम्हारी मृत्यु की खबर
दुनिया में नहीं
देश में नहीं
यहाँ तक कि
मुहल्ले में भी
कोई नहीं जान पाता
फिर तुम्हे
कोई कैसे पहचान पाता?
ईसा!
तुम प्रारब्ध के बहुत खरे थे
सिर्फ़
एक बार मरे थे
वर्ना, मेरे मुहल्ले का हर आदमी
हर रोज़ सुबह
अपने मरने की खबर
खुद अखबार में पढ़ता है
देश कोई हो,
मजहब कोई हो,
नाम कोई हो,
मरना तो उसे ही पड़ता है
वो भी इस तरह…
उसे महसूस तक नहीं होता
कि वो मर गया है
अभी थोड़ी ही देर पहले
अपनी ही लाश के
ऊपर से गुजर गया है
वो लाश…
जिसे जीवित रखने के लिए
कितना
चीखा-चिल्लाया था
कभी आतंकवादियों के सामने
कभी तानाशाहों के पैरों पर
रोया गिड़गिड़ाया था
वो
उस लाश को बचा नहीं सका
एक इंसान बनकर
इंसानियत का गीत
गा न सका
प्रस्तुति- सिद्धार्थ
सोमवार, 12 मई 2008
परिवर्तन

गंगा, यमुना व अदृश्य सरस्वती;
इनकी त्रिवेणी पर फिर पहुँच गया हूँ।
वही घाट है, नावें हैं,
और वही नाविक हैं;
लेकिन उनकी आँखों में
कौतूहल भरी मुस्कान को छिपाकर
‘हमें’ बैठा लेने का
वह आग्रह नहीं है,
जो तब हुआ करता था।

घाट पर वही चौकियाँ हैं,
उनपर छोटी-छोटी कंघियाँ व शीशे हैं,
वही अक्षत् और चंदन है,
उनपर धूप में तने हुए छाते हैं;
और जिनके नीचे वही तिलक वाले पण्डे हैं;
जिन्हे हमसे कोई उम्मीद नहीं हुआ करती थी।
आज उनकी आँखों में
हमे देखकर चमक सी आ गयी है;
क्योंकि आज हम, सपरिवार
गंगा नहाने आये हैं।
और तब,
हम उन्हे गंगा दिखाने आते थे।

वहीं एक ‘बड़े हनुमान जी’ है।
जो तब भी लेटे हुए थे,
और अब भी
वैसे ही प्रसाद दे रहे हैं।
-सिद्धार्थ
इनकी त्रिवेणी पर फिर पहुँच गया हूँ।
वही घाट है, नावें हैं,
और वही नाविक हैं;
लेकिन उनकी आँखों में
कौतूहल भरी मुस्कान को छिपाकर
‘हमें’ बैठा लेने का
वह आग्रह नहीं है,
जो तब हुआ करता था।
घाट पर वही चौकियाँ हैं,
उनपर छोटी-छोटी कंघियाँ व शीशे हैं,
वही अक्षत् और चंदन है,
उनपर धूप में तने हुए छाते हैं;
और जिनके नीचे वही तिलक वाले पण्डे हैं;
जिन्हे हमसे कोई उम्मीद नहीं हुआ करती थी।
आज उनकी आँखों में
हमे देखकर चमक सी आ गयी है;
क्योंकि आज हम, सपरिवार
गंगा नहाने आये हैं।
और तब,
हम उन्हे गंगा दिखाने आते थे।

वहीं एक ‘बड़े हनुमान जी’ है।
जो तब भी लेटे हुए थे,
और अब भी
वैसे ही प्रसाद दे रहे हैं।
-सिद्धार्थ
शनिवार, 10 मई 2008
निकानोर पार्रा के नाम
ब्लॉगवाणी में ‘ज्यादा पढ़े गये’ चिठ्ठों की सूची में कल ०९ मई,२००८ को शीर्ष पर क्लिक किया तो ‘कबाड़खाना’में पहुँच गये। वहाँ अशोक पांडे जी ने निकानोर पार्रा (जन्म: 5 सितम्बर1914) की एक पुरानी कविता पोस्ट कर रखी थी। मुमकिन नहीं अड़े रहना इस टेक पर कि सिर्फ एक ही रास्ता सही है
बकौल अशोक जी, पाब्लो नेरुदा के बाद चिले के सबसे महत्वपूर्ण कवि माने जाते हैं निकानोर पार्रा। (कॉलेज के दौर की एक डायरी में अचानक मिली इस कविता के अनुवादक का नाम लिखना भूल गया था... )
कविता सबकी तरह मुझे भी बहुत अच्छी लगी। आगे की बात जानने से पहले यह कविता पढ़ लीजिए :
युवा कवियों से
जैसा चाहे लिखो
पसन्द आये जो शैली तुम्हें,
अपना लो
पुल के नीचे से बह चुका है इतना खून
मुमकिन नहीं अड़े रहना इस टेक पर
कि सिर्फ एक ही रास्ता सही है
कविता में हर बात की इजाज़त है
बस, शर्त है सिर्फ यही
कि तुम्हें कोरे कागज़ को बेहतर बना देना है
इस कविता को दो-चार बार पढ़ने का असर ये हुआ कि मुझे भी कविता लिखने की ऊर्जा मिलती सी लगी। सोचते-सोचते मैने अपनी पिछ्ली कोशिशों को याद किया, और ‘पार्रा’ साहब की आश्वस्ति और प्रेरणा को सलाम करते हुए कुछ शब्द जोड़ डाले। शुरुआत उन्ही की अंतिम पंक्ति से हुई। लीजिए सुनाता हूँ...
यह शर्त छोटी नहीं
बस कोरे कागज को बेहतर बना देना है?
यह शर्त छोटी नहीं।
काफ़ी कुछ मांगती है कविता;
अपने जन्म से पहले
इसका अंकुर फूटता है
हृदय की तलहटी में,
जब अंदर की जोरदार हलचल
संवेगों का सहारा पाकर धर लेती है रूप
एक भूकंप का;
जो हिला देता है गहरी नींव को,
गिरा देता है दीवारें,
विदीर्ण कर देता है अन्तर्मन के स्रान्त कलश,
बिंध जाता है मर्मस्थल,
तन जाती हैं शिरायें,
फड़कती हैं धमनियाँ
जब कुछ आने को होता है।
यह सिर्फ़ बुद्धि-कौशल नहीं;
आत्मा को पिरोकर
मन के संवेगो से
इसे सिंचित करना पड़ता है।
देनी पड़ती है प्राणवायु
पूरी ईमानदारी से,
ख़ुदा को हाज़िर नाजिर जानकर,
अपने पर भरोसा कायम रखते हुए;
भोगे हुए संवेगों को
जब अंदर की ऊष्मा से तपाकर
बाहर मुखरित किया जाता है,
तो कविता जन्म लेती है।
माँ बच्चे को जन्म देकर,
जब अपनी आँखों से देख लेती है
उसका मासूम मुस्कराता चेहरा,
तो मिट जाती है उसकी सारी थकान,
पूरी हो जाती है उसकी तपस्या
खिल जाता है उसका मन।
लेकिन प्रसव-वेदना का अपना एक काल-खण्ड है
जो अपरिहार्य है।
कविता पूरी हो जाने के बाद, वह
मंत्रमुग्ध सा अपलक देखता रहता है
उस कोरे काग़ज को,
जिसे अभी-अभी बेहतर बना दिया है
उसके भीतर उठने वाले ज्वार ने;
जो छोड़ गया है
कुछ रत्न और मोती
इस काग़ज के तट पर।
या, उसने गहराई में डूबकर
निकाले हैं मोती।
किन्तु जो वेदना उसने सही है
उसका भी एक काल-खण्ड है।
फिर कैसे कहें,
कविता में हर बात की इज़ाजत है?
(मेरा प्रयास कितना सफ़ल हुआ यह बताने का जिम्मा आप मर्मज्ञ पाठकगण और श्रेष्ठ कबाड़ी भाइयों पर छोड़ता हूँ।)
शुक्रवार, 9 मई 2008
उफ्! ये मध्यम वर्ग।
अभी हाल ही में मुझे सपरिवार एक सम्पन्न रिश्तेदार के घर लखनऊ जाना हुआ। हमारे साथ मेरी बेटी की उम्र (७वर्ष) से थोड़ी बड़ी एक और लड़की भी रहती है जिसका बाप मेरे गाँव के घर पर नौकर है। मेरे बच्चों के साथ हिल-मिल कर रहते हुए वह इसी घर की हो गयी है और हमेशा परिवार में ही रहती है। लखनऊ से जब हम विदा होकर वापस लौटने लगे तो कार में बैठते ही मेरी बेटी ने मासूमियत से पूछा- “डैडी, लोग गरीबों को कम पैसा क्यों देते हैं? और अमीरों को ज्यादा? जबकि गरीबों को इसकी ज्यादा जरूरत है।”
मुझे उसका प्रश्न समझ में नहीं आया। बित्ते भर की बच्ची ऐसा सवाल क्यों पूछ रही है? मुझे थोड़ी हैरानी हुई। कुरेदने पर पता चला कि विदाई की परम्परा निभाते हुए मेरे सक्षम रिश्तेदार ने मेरी बेटी के हाथ पर पाँच सौ रुपये का नोट और इस लड़की के हाथ पर बीस रुपये रख दिये थे। यही ट्रीटमेन्ट उसे खल गया था। मेरी पत्नी ने झट उसे ‘बेवकूफ़’ कहकर चुप करा दिया। शायद इसलिए कि इस मध्यमवर्गीय मानसिकता की शिकार लड़की को कुछ बुरा न ‘फील’ हो। लेकिन इसके निहितार्थ पर मैं रास्ते भर सोचता रहा।
क्या मेरी बेटी ने वाकई बेवकूफ़ी भरा सवाल किया था? या हमारे अन्दर पैठ गयी ‘चालाकी’ अभी उसके अन्दर नहीं आयी है? शायद इसीलिए उसने अपनी नंगी आखों से वह देख लिया जो हम अपने स्थाई रंगीन चश्मे से नहीं देख पाते हैं। अमीर और गरीब के बीच का भेद कदम-कदम पर हमारे व्यवहार में बड़ी सहजता से जड़ा हुआ दिख जाता है।
हम बाजार में कपड़े खरीदने निकलते हैं तो बड़े शो-रूम के भीतर घुसते ही ब्रान्डेड कपड़ों की ऊँची से ऊँची कीमत देने से पहले सिर्फ़ बिल की धनराशि देखकर पर्स खोल देते हैं। लेकिन यदि सस्ते कपड़ों के फुटपाथ बाजार में कुछ लेना हुआ तो गरीब दुकानदार से ऐसे पेश आयेंगे जैसे वह ग्राहक को लूटने ही बैठा हो, जबर्दस्त मोलभाव किये बगैर माल खरीदना अर्थात् बेवकूफ़ी करना। मैकडॉवेल के रेस्तरॉ में पहले पैसा चुका कर सेल्फ़ सर्विस करके चाट खाना आज का ‘एटिकेट’ बन गया है, लेकिन ठेले वाले से मूंगफली खरीदते समय जब तक वह तौलकर पुड़िया बनाता है तब तक खरीदार उसके ढेर में से दो-चार मूंगफली ‘टेस्ट’ कर चुका होता है। गोलगप्पे वाला अगर एकाध पीस
एक्स्ट्रा न खिलाये तो मजा ही नहीं आता है। ये गरीब दुकानदार जिस मार्जिन पर बिजनेस करते हैं उतनी तो अमीर प्रतिष्ठानों में ‘टिप्स’ चलती है।
वैसे श्रम की कीमत सदैव बुद्धि की अपेक्षा कम लगायी जाती रही है लेकिन मामला यहीं तक सीमित नहीं रहता। इसका एक पूरा समाजशास्त्र विकसित हो चुका है। कम कीमत सिर्फ रूपये में नहीं आंकी जाती बल्कि जीवन के अन्य आयाम भी इसी मानक से निर्धारित होते हैं। नाता-रिश्ता, हँसी-मजाक, लेन-देन, व विचार-विमर्श के सामान्य व्यवहार भी अगले की माली हालत के हिसाब से अपना लेबल तलाश लेते हैं। सामाजिक संबंध आर्थिक संबंधों पर निर्भर होते हैं इसका विस्तृत विवेचन हमें मार्क्स के विचारों मे मिलता है। लेकिन हमारी प्राचीन संस्कृति मे इसके आगे की बात कही गयी है:-
अयं निजः परोवेति गणना च लघुचेतसाम्।
उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥
जबतक अपने और पराये का भेद हमारे मानस में कुण्डली मारकर बैठा रहेगा तबतक जिसे जहाँ मौका मिलेगा अपनी व्यक्तिगत रोटी ही सेंकने का उपक्रम करता रहेगा। यह जो निम्नवर्ग, मध्य्मवर्ग, और उच्चवर्ग का बंटवारा किया गया है वह भी मूलतः आर्थिक स्थिति का ही बयान है; लेकिन उसके साथ एक पूरा ‘पैराडाइम’ विकसित हो चुका है। मध्यमवर्ग की हालत और दुर्निवार है। इसको तो चीर-फाड़कर निम्न-मध्यम, मध्यम और उच्च-मध्यम वर्ग की अतिरंजित कोठरियों में भी कैद करने की कोशिश हम स्वयं अपने लिये कर रहे हैं।
हम अपने दूरदर्शी ऋषियों के आप्तवचन भूलकर अमेरिकी ‘पिग-फिलॉसफ़ी’ पर लट्टू हुए जा रहे हैं। उपभोक्तावादी अर्थव्यवस्था के चंगुल में फँसकर भी हम आत्म-मुग्ध से अपनी निजी इकॉनामिक सेक्यूरिटी को अपना ध्येय बनाकर उसी सफलता की कामना से आगे बढ़ रहे हैं जो किसी मृगतृष्णा से कम नहीं है। यह वो तृष्णा है जो बिल गेट्स को भी चैन से सोने नहीं देती हैं जो दुनिया के सबसे बड़े कुबेर हुआ करते हैं।
फिर थोड़े में ही खुश रह लेने में हर्ज़ क्या है?
मुझे उसका प्रश्न समझ में नहीं आया। बित्ते भर की बच्ची ऐसा सवाल क्यों पूछ रही है? मुझे थोड़ी हैरानी हुई। कुरेदने पर पता चला कि विदाई की परम्परा निभाते हुए मेरे सक्षम रिश्तेदार ने मेरी बेटी के हाथ पर पाँच सौ रुपये का नोट और इस लड़की के हाथ पर बीस रुपये रख दिये थे। यही ट्रीटमेन्ट उसे खल गया था। मेरी पत्नी ने झट उसे ‘बेवकूफ़’ कहकर चुप करा दिया। शायद इसलिए कि इस मध्यमवर्गीय मानसिकता की शिकार लड़की को कुछ बुरा न ‘फील’ हो। लेकिन इसके निहितार्थ पर मैं रास्ते भर सोचता रहा।
क्या मेरी बेटी ने वाकई बेवकूफ़ी भरा सवाल किया था? या हमारे अन्दर पैठ गयी ‘चालाकी’ अभी उसके अन्दर नहीं आयी है? शायद इसीलिए उसने अपनी नंगी आखों से वह देख लिया जो हम अपने स्थाई रंगीन चश्मे से नहीं देख पाते हैं। अमीर और गरीब के बीच का भेद कदम-कदम पर हमारे व्यवहार में बड़ी सहजता से जड़ा हुआ दिख जाता है।
हम बाजार में कपड़े खरीदने निकलते हैं तो बड़े शो-रूम के भीतर घुसते ही ब्रान्डेड कपड़ों की ऊँची से ऊँची कीमत देने से पहले सिर्फ़ बिल की धनराशि देखकर पर्स खोल देते हैं। लेकिन यदि सस्ते कपड़ों के फुटपाथ बाजार में कुछ लेना हुआ तो गरीब दुकानदार से ऐसे पेश आयेंगे जैसे वह ग्राहक को लूटने ही बैठा हो, जबर्दस्त मोलभाव किये बगैर माल खरीदना अर्थात् बेवकूफ़ी करना। मैकडॉवेल के रेस्तरॉ में पहले पैसा चुका कर सेल्फ़ सर्विस करके चाट खाना आज का ‘एटिकेट’ बन गया है, लेकिन ठेले वाले से मूंगफली खरीदते समय जब तक वह तौलकर पुड़िया बनाता है तब तक खरीदार उसके ढेर में से दो-चार मूंगफली ‘टेस्ट’ कर चुका होता है। गोलगप्पे वाला अगर एकाध पीस
वैसे श्रम की कीमत सदैव बुद्धि की अपेक्षा कम लगायी जाती रही है लेकिन मामला यहीं तक सीमित नहीं रहता। इसका एक पूरा समाजशास्त्र विकसित हो चुका है। कम कीमत सिर्फ रूपये में नहीं आंकी जाती बल्कि जीवन के अन्य आयाम भी इसी मानक से निर्धारित होते हैं। नाता-रिश्ता, हँसी-मजाक, लेन-देन, व विचार-विमर्श के सामान्य व्यवहार भी अगले की माली हालत के हिसाब से अपना लेबल तलाश लेते हैं। सामाजिक संबंध आर्थिक संबंधों पर निर्भर होते हैं इसका विस्तृत विवेचन हमें मार्क्स के विचारों मे मिलता है। लेकिन हमारी प्राचीन संस्कृति मे इसके आगे की बात कही गयी है:-
अयं निजः परोवेति गणना च लघुचेतसाम्।
उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥
जबतक अपने और पराये का भेद हमारे मानस में कुण्डली मारकर बैठा रहेगा तबतक जिसे जहाँ मौका मिलेगा अपनी व्यक्तिगत रोटी ही सेंकने का उपक्रम करता रहेगा। यह जो निम्नवर्ग, मध्य्मवर्ग, और उच्चवर्ग का बंटवारा किया गया है वह भी मूलतः आर्थिक स्थिति का ही बयान है; लेकिन उसके साथ एक पूरा ‘पैराडाइम’ विकसित हो चुका है। मध्यमवर्ग की हालत और दुर्निवार है। इसको तो चीर-फाड़कर निम्न-मध्यम, मध्यम और उच्च-मध्यम वर्ग की अतिरंजित कोठरियों में भी कैद करने की कोशिश हम स्वयं अपने लिये कर रहे हैं।
हम अपने दूरदर्शी ऋषियों के आप्तवचन भूलकर अमेरिकी ‘पिग-फिलॉसफ़ी’ पर लट्टू हुए जा रहे हैं। उपभोक्तावादी अर्थव्यवस्था के चंगुल में फँसकर भी हम आत्म-मुग्ध से अपनी निजी इकॉनामिक सेक्यूरिटी को अपना ध्येय बनाकर उसी सफलता की कामना से आगे बढ़ रहे हैं जो किसी मृगतृष्णा से कम नहीं है। यह वो तृष्णा है जो बिल गेट्स को भी चैन से सोने नहीं देती हैं जो दुनिया के सबसे बड़े कुबेर हुआ करते हैं।
फिर थोड़े में ही खुश रह लेने में हर्ज़ क्या है?
सोमवार, 5 मई 2008
ठाकुर बाबा
हमारे गाँव में एक बुजुर्ग हुआ करते थे- ठाकुर बाबा। उन्होने अच्छी खासी सम्पत्ति अपने पुरुषार्थ और दूसरों की मजबूरी के संदोहन से अर्जित कर ली थी।
अंग्रेजी जमाने में साहूकारी का धंधा खूब चल निकला था। इसके माध्यम से गरीब कर्ज़दारों की जमीन व गहने इत्यादि एक-एक कर उनकी तिजोरी की भेंट चढ़ते गये। प्रेमचंद की कहानियाँ पढ़ते समय ऐसे पात्रों की छवि बरबस मुझे इनकी याद दिला देती है।
इनके घर में खाने-पीने की ‘जबर्दस्त’ व्यवस्था थी। देहात में चाहे जिसका भी खेत हो, उसमें उगने वाली फ़सल का पहला स्वाद यही श्रीमन् चखते थे। आम, अमरुद, केला, कटहल या हरी-मटर हो अथवा कोई भी ताजा हरी सब्जी, चँवर में रात भर जाग कर शिकार की गयी दुर्लभ मछली हो या गरीब परिवार के बच्चों द्वारा बड़े जतन से पाले गये बकरी के बच्चे हों। अगर ठाकुर बाबा की निगाह इसपर पड़ गयी तो इसे उनका निवाला बनना ही पड़ेगा। किसकी मजाल है जो रोकने की हिमाक़त करे। जिसने गलती की उसकी शामत आयी। अंग्रेज़ सरकार बकायेदारों को कुर्की-जब्ती की नोटिस थमाने में तनिक देर नहीं करती थी। फिर तो बड़ा संकट आ जाता।
तो, इसी जबर्दस्त इन्तजाम के लालच में इनके दरबार में चाटुकारों, व बेरोजगार पट्टीदारों की मंडली इन्हे घेरे रहती थी और इनके पुरुषार्थ की प्रसंशा करने में एक-दूसरे से होड़ करती थी। नंगे राजा की कहानी शायद यहीं से निकली होगी।
ये सारी बातें मैने अपने पिताजी व दादाजी से सुन रखी थी। उनके साक्षात् दर्शन की मेरी प्रारंभिक स्मृति यह है कि काफी बूढ़ा और कमजोर हो जाने के कारण आसन्न मृत्यु को देखते हुए उनकी इच्छानुसार उन्हे कई बार बनारस ले जाया गया था। इस विश्वास के साथ कि स्वर्ग की सीढ़ी पर बाबाजी वहीं से कब्जा जमा लेंगे। लेकिन हर बार एक-दो माह बिताकर वे वापस आ जाते थे। तब गाँव में चर्चा सुनता था कि भगवान के यहाँ जबर्दस्ती नहीं चलती।
आखिरकार वे दिवंगत हुए। बनारस के रास्ते में। अपने पीछे भरा-पूरा परिवार छोड़ गये। बड़ी धूम-धाम से अन्तिम संस्कार हुआ। बनारस में। तेरहवीं में पूरा इलाका उमड़ पड़ा था। उसी दिन उनके पुत्रों ने उनकी अंतिम इच्छा के सम्मान में एक गाय के बछड़े गर्म लोहे से चक्र व त्रिशूल की आकृति में दाग कर छुट्टा छोड़ दिया। हम बच्चों के लिये यह बछड़ा कौतूहल का विषय था। यह पूरे गाँव-जवार में निरंकुश घूमने के लिये स्वतंत्र था। पारंपरिक मान्यता के अनुसार उसे किसी प्रकार से बांधना, रोकना या वर्जित करना निषिद्ध था।
अब ‘ठाकुर बाबा’ नया रूप धरकर सबको सता रहे थे। वह बछड़ा गाँव के भीतर जिस ओर चौकड़ी भरता हुआ पहुँच जाता उस ओर के बच्चे खेलना छोड़कर घर में घुस कर जान बचाते। गाँव के बाहर खेतों की ओर जाता तो किसान परिवार हाय-हाय करने लगता।


स्वतंत्र और निर्द्वन्द्व रूप से चरने और खाने का परिणाम यह हुआ कि वह एक रौबदार भारी भरकम साँड़ बन गया जिसकी ख्याति ठाकुर बाबा की ही तरह दूर-दूर तक फैल गयी। लोग चर्चा करते कि इसके कुछ मौलिक गुण ठाकुरबाबा से काफी हद तक मेल खाते थे।
उन दिनों मैं आठवीं में पढ़ रहा था। मेरे संस्कृत के अध्यापक ने एक दिन कक्षा में संस्कृत की कुछ पहेलियाँ बताईं। उनमें से एक कुछ इस प्रकार थी:
चक्रीत्रिशूली नशिवो नविष्णू
महाबलिष्ठो नचभीमसेनः
स्वच्छंदचारी, नृपतिर्नयोगी
सीतावियोगी नच रामचन्द्रः
मास्टर साहब ने जब इसका अर्थ समझाया तो मेरे मुंह से अकस्मात् इसका उत्तर निकल पड़ा – साँड़। सोचता हूँ कि सही उत्तर के लिए मुझे जो शाबासी मिली उसका धन्यवाद इस ब्लॉग के माध्यम से ठाकुर बाबा को प्रेषित कर दूँ।
(सुना है अनिल रघुराज व शिवकुमार मिश्र जैसे मूर्धन्य अपना ब्लॉग उस लोक तक ठेलने की योजना बना रहे हैं। शायद वे मेरी मदद कर दें।)
गुरुवार, 1 मई 2008
क्या ये विद्यार्थी हैं ?
काकचेष्टा,वकोध्यानं ,श्वाननिद्रा,तथैव च।
अल्पाहारी,गृहत्यागी विद्यार्थी पंच सुलक्षणं॥
बचपन में पंडित जी से विद्यार्थी के इन पाँच लक्षणों के बारे में सुना था,फ़िर विद्यार्थियों के (भी)कुम्भ इस महानगर इलाहाबाद में आया तो यही लक्षण मैने कहीं और भी पाये।आप भी देखें कि क्या वे विद्यार्थी है?
अल्पाहारी,गृहत्यागी विद्यार्थी पंच सुलक्षणं॥
बचपन में पंडित जी से विद्यार्थी के इन पाँच लक्षणों के बारे में सुना था,फ़िर विद्यार्थियों के (भी)कुम्भ इस महानगर इलाहाबाद में आया तो यही लक्षण मैने कहीं और भी पाये।आप भी देखें कि क्या वे विद्यार्थी है?
(१)वे ‘अल्पाहारी’ हैं,
दोनों जून मिला कर भी
नहीं पाते एक वक्त का भोजन।
(२) ‘गॄह्त्याग’ से ही तो चलता है,
उनका जीवन,
उनका जीवन,
घर से बहुत दूर तक चले जाते हैं वे,
अपने लक्ष्य के लिये।
(३) ध्यान तो उनका बगुलों से भी तेज,
सामने पड़ी हर वस्तु की उपयोगिता,
बस,एक ही नजर,में परख लेते हैं।
(४) काकचेष्टा ही तो आधार है,
उनकी सफ़लता का,
जिसमे जितनी काकचेस्टा,
सफ़लता उतनी अधिक।
(५) निद्रा तो उनकी श्वान की है ही,
शायद नींद उन्हें आती ही नही,
जब पुकारो जागते मिलेंगे,
आहट हुई नहीं की उठ बैठे।
विद्यार्थी के पाचों लक्षण तो मौजूद हैं उनमें,
‘अल्पाहारी’,‘गृहत्यागी’,‘वकोध्यानं’,‘काकचेष्टा ’ ,‘श्वाननिद्रा’,
सब तो है,
तो क्या वे विद्यार्थी है?
पीठ पर बस्ते की तरह टँगा है बोरा,
ड्रेस भी तो है उनकी,
एक पैण्ट जिसकी जेबें फ़टी है,
चेन टूटी है,शर्ट पर लगी है,कालिख की ढेर
और पैर में टूटा हुआ प्लास्टिक का चप्पल,
साथ में ही घूमते हैं,ठीक विद्यार्थियों की तरह बतियाते हुए
पर अपने लक्ष्य के प्रति सचेष्ट।
तो क्या वे विद्यार्थी हैं?
नहीं, वे कूड़ा बीनने वालें हैं
अल्पाहारी शौकिया नहीं मजबूरी में
गृहत्यागी शिक्षा के लिये नहीं, प्लास्टिक के लिये
ध्यान बगुलें का है सीखने के लिये नहीं,अपितु,
बीनने के लिये,
काकचेस्टा दूसरे से आगे होने के लिये,
और,
(३) ध्यान तो उनका बगुलों से भी तेज,
सामने पड़ी हर वस्तु की उपयोगिता,
बस,एक ही नजर,में परख लेते हैं।
(४) काकचेष्टा ही तो आधार है,
उनकी सफ़लता का,
जिसमे जितनी काकचेस्टा,
सफ़लता उतनी अधिक।
(५) निद्रा तो उनकी श्वान की है ही,
शायद नींद उन्हें आती ही नही,
जब पुकारो जागते मिलेंगे,
आहट हुई नहीं की उठ बैठे।
विद्यार्थी के पाचों लक्षण तो मौजूद हैं उनमें,
‘अल्पाहारी’,‘गृहत्यागी’,‘वकोध्यानं’,‘काकचेष्टा ’ ,‘श्वाननिद्रा’,
सब तो है,
तो क्या वे विद्यार्थी है?
पीठ पर बस्ते की तरह टँगा है बोरा,
ड्रेस भी तो है उनकी,
एक पैण्ट जिसकी जेबें फ़टी है,
चेन टूटी है,शर्ट पर लगी है,कालिख की ढेर
और पैर में टूटा हुआ प्लास्टिक का चप्पल,
साथ में ही घूमते हैं,ठीक विद्यार्थियों की तरह बतियाते हुए
पर अपने लक्ष्य के प्रति सचेष्ट।
तो क्या वे विद्यार्थी हैं?
नहीं, वे कूड़ा बीनने वालें हैं
अल्पाहारी शौकिया नहीं मजबूरी में
गृहत्यागी शिक्षा के लिये नहीं, प्लास्टिक के लिये
ध्यान बगुलें का है सीखने के लिये नहीं,अपितु,
बीनने के लिये,
काकचेस्टा दूसरे से आगे होने के लिये,
और,
श्वाननिद्रा तो इसलिये कि,
भूखे पेट,नंगे शरीर,
खुले छ्त के नीचे,नींद आती ही नहीं।
खुले छ्त के नीचे,नींद आती ही नहीं।