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मंगलवार, 24 मई 2016

सी.एम.के साथ साइकिल यात्रा

#साइकिल_से_सैर, लखनऊ में


पिछले शनिवार को बुद्ध पूर्णिमा और अगले दिन रविवार की छुट्टी तो थी ही, शुक्रवार को एनपीएस पर परिचर्चा के लिए मुख्यालय से सभी कोषाधिकारियों को बुलावा आ गया तो मुझे लगातार चार रातें और तीन दिन लखनऊ में गुजारने का मौका मिल गया। वृहस्पतिवार की शाम ऑफिस से लौटकर लखनऊ के लिए चलने को हुआ तो मेरी पार्टनर भी साथ चलने को मचल उठी। इतने दिनों रायबरेली में अकेले गुजारना इसे गँवारा नहीं था। मैंने भी इसके साथ लंबे ब्रेक को टालने के लिए इसे साथ ले चलना ही ठीक समझा। इस तरह मेरी सरकारी गाड़ी पर सवार होकर मेरी हमसफ़र साइकिल नवाबों की नगरी में नमूदार हो गयी।
लखनऊ में अगली सुबह स्पेशल हो गयी। मेरी बेटी वागीशा साइकिल चलाने के लिए बहुत उत्साहित थी। दरअसल मुख्यमंत्री अखिलेश यादव जी ने उस दिन पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त रखने में साइकिल के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए स्कूली बच्चों के साथ साइकिल चलाने का कार्यक्रम बनाया था। टाइम्स ऑफ़ इण्डिया के Go Green Campaign का हिस्सा बने इस कार्यक्रम में शहर के प्रत्येक स्कूल से एक बच्चा बुलाया गया था। वागीशा को उसके स्कूल से इसके लिए चुना गया था। बच्चे के साथ अभिभावक भी 'सादर' आमंत्रित थे। फिर क्या था। मैंने अपनी साइकिल से ही मुंशी पुलिया से मुख्य मंत्री आवास की दूरी तय करने की ठानी। अलबत्ता बेटी को उसकी साइकिल सहित गाड़ी पर बिठाकर 5-कालिदास मार्ग के लिए रवाना कर दिया।

मेरी साइकिल का उत्साह देखते ही बनता था। हम मुंशी पुलिया से पॉलिटेक्निक चौराहा तक सर्विस लेन पकड़कर कतारबद्ध हरे-भरे पेड़ों से बात करते हुए पहुँचे। गोमतीनगर के विभूतिखंड में 'वेव मॉल' को पार करके फ्लाईओवर की चढ़ाई चढ़ने में अच्छी कसरत हो गयी लेकिन उसकी ढलान पर बिना पैडल चलाये तेजी से उतरते हुए ठंडी हवा खाकर थकान छू-मंतर भी हो गयी। लोहिया पार्क चौराहे को पार करते ही मैं सड़क के बायीं ओर थोड़ा ऊँचा बनाये गये पैदल पथ पर चढ़ गया। 

लाल टाइल्स लगे इस चिकने ट्रैक पर साइकिल चलाने में थोड़ी सावधानी तो जरुरी थी लेकिन मुख्य सड़क पर फर्राटा भरती गाड़ियों से सुरक्षित दूरी और बायीं ओर घने पेड़ों से घिरे लोहिया पार्क से निकटता के कारण मन प्रफुल्लित हुआ। इस पैदल पथ पर साइकिल चलाने का आनंद जल्दी ही जाता रहा क्यों कि आगे इसके निर्माण का कार्य 'प्रगति पर' हो गया था। मिट्टी के ढूहे में घुसकर बिला गयी थी यह पगडंडी। यहाँ साइकिल खड़ी कर एक दो तस्वीरें लेने के बाद मैं मुख्य सड़क पर आ गया और फन रिपब्लिक मॉल को पार करते हुए उस ओर बढ़ गया जिसे लखनऊ की शान समझा जाता है।

संगमरमर से बनी हाथियों के अलावा अनेक (दलित) महापुरुषों की विशालकाय प्रतिमाओं से सजे सामाजिक परिवर्तन स्थल की शोभा देखते ही बनती है। बाबासाहब की महिमा इस स्थान पर खूब मुखरित हुई है। इस समय यहाँ धूप निकल आयी थी लेकिन इससे बेखबर एक आदमी यहीं पैदल पथ पर गहरी नींद में सो रहा था। जैसे पूरी रात गर्मी में जागकर ठंडी सुबह की प्रतीक्षा में गुजारी हो। यह बात दीगर है कि अच्छे दिनों की आस पर महंगाई की मार की तरह इसकी शीतल कामना पर भी सूरजदेव अग्नि के कोड़े बरसाने की तैयारी करने लगे थे।


इस मंजर को पीछे छोड़ मैं गोमती नदी के पुल पर पहुँच गया। नदी के किनारों को पक्का करके उसे आकर्षक रूप देने का काम प्रगति पर है। मिट्टी के पहाड़ काटे जा रहे हैं, कंक्रीट की मोटी दीवारें खड़ी की जा रही हैं जिनपर पत्थर की सीढ़िया जमायी जा रही हैं। सुन्दर नारियल के पेड़ सीधी कतार में लगाये जा रहे हैं। सुना है कि शहर में गुजरती गोमती को लन्दन की टेम्स नदी का रूप दिया जाने वाला है।
पहली बार मैंने रुककर देखा तो नदी का पानी काफी साफ-सुथरा और हरा-भरा दिखा। मुझे तो वहीं ठहर जाने का मन हो रहा था, लेकिन सात बजने में कुछ ही मिनट बाकी थे और मुख्यमंत्री का कार्यक्रम शुरू होने वाला था। मैंने पैडल पर दबाव तेज़ किया और पूरी शक्ति लगाकर तेजी से कालिदास मार्ग चौराहे पर पहुँच गया जहाँ वागीशा अपनी साइकिल के साथ मुख्यमंत्री आवास तक चलने के लिए मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। सुरक्षा कर्मियों ने हमारा हुलिया देखकर सहर्ष गेट के अंदर जाने दिया। मैंने अपनी साइकिल अगले सुरक्षा बूथ के किनारे खड़ी कर लॉक किया और मुख्यमंत्री आवास के सामने उस स्थान पर चला गया जहाँ से कार्यक्रम की शुरुआत होनी थी।


रंगी-पुती चौड़ी सड़क की बायीं पटरी पर लोहे की रेलिंग से घेरकर साइकिल ट्रैक बनाया गया था जिसके ऊपर आकर्षक साइनबोर्ड लगाकर पर्यावरण की रक्षा और साइक्लिंग के महत्व को दर्शाते नारे लिखे गये थे। वहाँ एक-एक कर इकट्ठा होते बच्चों और उनकी साइकिलों को पंक्तिबद्ध खड़ा कराने के लिए सुरक्षा कर्मी और कुछ वरिष्ठ अधिकारी मुस्तैद थे। एक सिपाही खोजी कुत्ते की बागडोर थामें चारो ओर घुमा रहा था। कुत्ते ने जब इंच-इंच को सूंघकर सिक्यूरिटी क्लीयरेंस दे दिया तब एक सुरक्षा अधिकारी ने वॉकी-टॉकी पर खबर भेजी। एक सफारी वाला लम्बा-तगड़ा आदमी सिपाहियों को समझा रहा था कि गार्जियन्स‍ को सी.एम. से कितनी दूरी पर रोकना है।
लाइन लगाकर खड़े बच्चों की तस्वीरें खींची जा रही थीं। मीडिया वालों का एंगल अलग था और अभिभावकों का अलग। वे अपने बच्चे को फोकस कर रहे थे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का जमावड़ा बढ़ता गया और उनके रिपोर्टर अपनी स्टोरी तैयार करने लगे। बच्चों को अब अपनी-अपनी साइकिल के साथ ट्रैक में खड़ा कर दिया गया ताकि फ़ोटो अच्छी आ सके। अंग्रेजी अखबारों की रिपोर्टर प्रायः नयी उम्र की लड़कियाँ थी जो एक-एक बच्चे से सवाल पूछकर नोट बना रही थीं और अपने मोबाइल कैमरे से जरूरी फोटोग्राफ लेती जा रही थीं।


टाइम्स ऑफ़ इण्डिया की रिपोर्टर मेरे पास भी आयी और मुझसे वागीशा के बारे में पूछा। यह भी पूछा कि साइकिल से स्कूल क्यों नहीं जाती। लखनऊ की बेतरतीब ट्रैफिक में सुरक्षा की चिंता और स्कूल की दूरी, ये दो वजहें मैंने बतायी। उसने कहा कि आप बड़े उत्साह से बेटी की तस्वीरें ले रहे थे। प्लीज़ एक बार और ऐसा कीजिए ताकि मैं आपकी फोटो ले सकूँ। मैंने ख़ुशी-ख़ुशी आईपैड का कैमरा ऑन किया और बच्चों की ओर फोकस करने लगा। मोहतरमा ने मुझे थैंक्यू बोला तो लगा जैसे कल अख़बार में मुझे जरूर छापेंगी। 

लेकिन अगले दिन फ़ोटो खींचते हुए जिस अभिभावक की फ़ोटो छपी वो एक मॉम की थी जिन्होंने यहाँ आने से पहले जरूर किसी ब्यूटी पार्लर में अच्छा समय और पैसा खर्च किया होगा। खैर जो हुआ अच्छा हुआ। सम्पादक का सौंदर्यबोध उम्दा था। उसने मेरे बारे में लिखित रिपोर्ट जरूर छापी लेकिन वह थी विशुद्ध कल्पना पर आधारित; ऐसी बात जो मुझसे मेल नहीं खाती।


इतने में हूटर बजाती गाड़ियों का काफिला आ पहुँचा। मैं अचकचा कर सोचने लगा कि सामने के ही आवास से आने के लिए सी.एम. को इतनी गाड़ियों की जरूरत क्यों पड़ी। लेकिन कुछ समझ पाता इससे पहले ही श्री अखिलेश जी सामने आ चुके थे। साथ में उनकी बेटी भी थी। मीडिया वालों ने उन्हें ऐसे घेर लिया कि बच्चे उनसे ओझल हो गये। सुरक्षा कर्मियों ने रेलिंग से एक मोटा रस्सा बांधकर उसके भीतर कैमरामेन और रिपोर्टर्स को सीमित करने की कोशिश की लेकिन सब बेकार साबित हुआ। थोड़ी देर तक मीडिया वाले एक दूसरे पर चढ़ते हुए फ़ोटो और बाईट लेते रहे।


आखिर मुख्यमंत्री जी को ही बच्चों की सुध आयी। उन्होंने मीडिया वालों को परे धकेलते हुए बच्चों से परिचय लेना शुरू किया और धक्का-मुक्की के बीच अपनी स्पोर्ट्स साइकिल पर बैठकर ट्रैक में घुस गये। उनके ब्लैक कैट कमांडो भी सुरक्षा घेरा नहीं बना पा रहे थे। मीडिया वाले इस कदर हावी थे कि मुख्यमंत्री जी साइकिल के पैडल का प्रयोग अंत तक नहीं कर सके। पैरों से ठेलते हुए और पोज़ देते हुए करीब पचास मीटर की साइकिल यात्रा पूरी हुई। स्कूली बच्चों ने भी साइकिल घसीटते हुए उनका साथ दिया। 

आगे सुरक्षा बूथ पर रुककर उन्होंने बाकायदा प्रेस को संबोधित किया। इस बीच सभी गाड़ियाँ उनके प्रस्थान के लिए वहीं पर लगा दी गयीं। लेकिन उन्होंने अपनी बात खत्म करने के बाद सभी बच्चों को अपने निवास के प्रांगण में साथ चलने का इशारा किया और साइकिल से ही चल दिये। बाकी सबको वहीं रुकने का आदेश दिया।

जब बच्चों के साथ मुख्यमंत्री जी गेट के भीतर चले गये तब अभिभावक गण गेट पर इकठ्ठा हो गये। तभी भीतर से आदेश हुआ की पेरेंट्स को भी अंदर बुला लिया जाय। इस प्रकार मुख्यमंत्री आवास के विशाल और भव्य प्रांगण में जाने का सुअवसर हमें भी मिला। खूब घने और छायादार वृक्ष परिसर की शोभा बढ़ा रहे थे। फूलों की क्यारियाँ अलग छटा बिखेर रही थीं। वहाँ सबकुछ सलीके से हुआ। बच्चों और अभिभावकों के साथ विधिवत् फोटो सेशन भी हुआ और सबको मिठाई के साथ ठंडा पानी भी पिलाया गया।

बेहद प्रसन्न बेटी के साथ जब हम बाहर आये तो प्रायः सभी साइकिलें अलग-अलग चार-पहिया वाहनों पर लादी जा रही थीं जिनकी व्यवस्था अभिभावकों ने की थी। हमने भी वागीशा को साइकिल सहित गाड़ी में बिठाकर उसके स्कूल छोड़ने को भेज दिया और अपनी साइकिल पर सवार होकर मुंशी पुलिया इंदिरानगर चला आया।
नौ बज चुके थे और तैयार होकर राष्ट्रीय पेंशन प्रणाली (NPS) पर आयोजित परिचर्चा में भाग लेने वित्तीय प्रबंध प्रशिक्षण और शोध संस्थान (IFMTR) के सभागार में पहुँचना था। सरकारी नौकरी में समझौता भी बहुत करना पड़ता है। इसी वजह से यह वृतांत लिखने में इतना विलम्ब तो होना ही था।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी) www.satyarthmitra.com

सोमवार, 16 मई 2016

पेंशन तो देना बनता है...!

शत्रुघ्न सिंह चौहान गुजरात राज्य सरकार के सिंचाई विभाग में नौकरी करते थे। उनकी 1976 में छंटनी हो गयी। फिर किसी सरकारी निगम में पुनः सेवायोजित होकर 1991 में सेवानिवृत्त हुए। सरकार इन्हें पेंशन मंजूर करती इसके पहले ही 08 अगस्त 1992 को मृत्यु हो गयी। उनकी विधवा पत्नी अपने पुत्र के साथ गुजरात से अपने गाँव मूल निवास स्थान रायबरेली वापस आ गयी। विभाग ने पति की मृत्यु के बाद 1994 में पेंशन स्वीकृत भी की तो उसमें पत्नी के नाम पारिवारिक पेंशन नदारद थी। पति के जीवनकालीन पेंशन का भुगतान 1994 में ही पत्नी और पुत्र को बराबर-बराबर करने के बाद कोषागार ने पत्रावली बंद कर दाखिल दफ़्तर कर दी।
अब 22 साल बाद गुजरात सरकार ने पारिवारिक पेंशन स्वीकृत कर आदेश ए.जी. के माध्यम से कोषागार रायबरेली को भेज दिया है जिसमें पिछले आदेश का सन्दर्भ देते हुए उसके आगे का भुगतान एरियर सहित करने का प्राधिकार दिया गया है। इधर बाइस साल से बंद हुई फ़ाइल मिल नहीं रही है और न ही उसका किसी इंडेक्स रजिस्टर में कोई उल्लेख मिल रहा है। ऑफिस का लगभग पूरा स्टाफ इसकी तलाश के लिए एक-एक इंच खंगाल चुका है। उस समय जिस लेखाकार ने अंतिम भुगतान किया था वे सेवानिवृत्त होकर हाल ही में स्वर्गीय हो चुके हैं। उनका हस्ताक्षर पेंशनर द्वारा दिखाई जा रही उसके पास सुरक्षित पुरानी कॉपी में दिख रहा है।
अस्सी की उम्र पार कर चुकी अपनी माँ की पेंशन के लिए अहर्निष भाग-दौड़ कर रहे रामहर्ष जी ने बताया कि गुजरात के सैकड़ों चक्कर लगाने के बाद भी जब विभाग ने अम्मा की पेंशन नहीं दी तो मैं तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से उनके जनता दरबार में मिला। उन्होंने पूरी बात सुनने के बाद जाँच बैठा दी। जाँच में पता चला कि कर्मचारी द्वारा भरे गए पेंशन प्रपत्र में पत्नी का नाम मौजूद होने के बावजूद विभाग द्वारा उनके नाम से पारिवारिक पेंशन स्वीकृत नहीं की गयी थी। इस चूक के लिए जिम्मेदार कर्मचारी और उसका उच्चाधिकारी दोनो निलंबित कर दिये गये हैं। उनकी बहाली तबतक नहीं हो सकेगी जबतक वे यह प्रमाणपत्र न प्रस्तुत कर दें कि पीड़ित विधवा को समस्त बकाया पेंशन का भुगतान कर दिया गया है। रामहर्ष ने कहा कि मुझे अपनी माँ की पेंशन से ज्यादा उन दो परिवारों की फिक्र हो रही है जहाँ कई महीनों से वेतन नहीं जा रहा है।
अब मुझे कार्यालय के पुराने अभिलेख की अनुपलब्धता की स्थिति में भी यह भुगतान ताजे प्राधिकार पत्र के आधार पर करना है। मुझे इतने लंबे संघर्ष की कहानी झूठी नहीं लग रही है। भगवान का नाम लेकर विश्वास करने का जी चाहता है।
अस्तु, मैंने आज यह निर्णय सुनाया कि आप अपनी माँ को लेकर आइए, वैयक्तिक पहचान दो पक्के गवाहों (पेंशनर) के माध्यम से कराइए और यह पूरी कहानी एक शपथ-पत्र के माध्यम से प्रस्तुत कराइए। बैंक खाते का विवरण भी साथ लाइए ताकि भुगतान की कार्यवाही पूरी कर प्रमाणपत्र निर्गत किया जा सके।
अब आगे जो होगा देखा जाएगा।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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शनिवार, 14 मई 2016

अभियानों से बेखबर गाँव और सूखती नदी

सूखती नदी पर पसरी हरियाली
14 मई 2016
इब्राहिमपुर, रायबरेली
‪#‎साइकिल_से_सैर‬
आज साइकिल लेकर सीधे स्टेडियम पहुँचा जहाँ का तरणताल हाल ही में तैराकी के शौक़ीन शहरियों के लिए फिर से खोल दिया गया है। साइक्लिंग के साथ-साथ स्विमिंग का आनंद लेते हुए मुझे तीन दिन ही हुए थे, लेकिन आज चौथे दिन बाधा आ गयी। बंद चैनेल गेट पर सूचना चस्पा थी कि पानी बदलने और सफाई के लिए पूल दो दिन बंद रहेगा।
उल्टे पाँव वापस लौटने के बजाय मैंने सोचा कि आज फिर से कानपुर रोड से दरीबा तिराहा मोड़ होते हुए उस गाँव तक हो आऊँ जहाँ वह छोटा सा कटहल से लदा हुआ पेड़ मिला था। मैंने उधर साइकिल मोड़ भी ली थी लेकिन पुलिस लाइन्स मोड़ आते ही विचार बदल गया। एक तो भारी भरकम ट्रकों की आवाजाही का विकर्षण और दूसरे किसी नयी राह को जानने का आकर्षण - मेरी साइकिल ने पश्चिम के बजाय दक्षिण की राह पकड़ ली। मुझे बस यह पता था कि पुलिस का परेड ग्राउंड इसी ओर है।
सूचना पट्ट से सूचना नदारद
पुलिस परिसर से पहले ही एक सड़क बायीं और निकलती दिखी जिसके किनारे की दुकानों के बोर्ड बता रहे थे की यह मटिहा रोड है। मैं दक्षिणाभिमुख होकर इसी रोड पर चल पड़ा। मन में एक अनुमान था कि शहर के पश्चिम से बहती हुई सई नदी दक्षिण की ओर होकर ही पूरब चली जाती है तो आगे यह सड़क सई से जरूर मिलती होगी। मुझे देखना यह था कि यह मिलाप कितनी दूरी पर था और कैसा था।
पुलिस लाइन्स परिसर की चारदीवारी से सटी हुई यह सड़क जल्दी ही शहर से बाहर आ गयी। बाहर आते ही सबसे पहले दिखा कि इसके दोनो ओर के खेतों को छोटे छोटे टुकड़ों में घेरकर आवासीय प्लॉट बना दिये गए हैं। कुछ बिक चुके प्लॉटों में बाउंड्री बनाकर गेट में ताले भी लगे दिखे। मतलब यह कि शहर अपने पाँव इस ओर भी पसार रहा है।
आगे बढ़ा तो ग्राम पंचायत अकबरपुर कछवाह की 'सार्वजनिक वितरण प्रणाली उचित मूल्य की दुकान' का सूचना पट दिखायी दिया जिसपर सभी जरुरी सूचनाएँ नदारद थीं। इससे आगे बढ़ा तो एक खूब रंगा-पुता सरकारी पूर्व माध्यमिक विद्यालय 'गोंड़ियन के पुरवा' में मिला जो अभी खुला नहीं था क्यों कि साढ़े छः ही बज रहे थे। शहर से सटा लबे-सड़क होने के कारण इस स्कूल की व्यवस्था जरूर चाक-चौबंद होगी यह सोचता हुआ मैं आगे बढ़ गया। सड़क आगे ही बढ़ती जा रही थी और सई नदी का कोई सुराग नहीं था।
अब भी खरे हैं तालाब
जिलाधिकारी के अभियान से लबालब भरा तालाब
मैंने अगले गाँव में प्रवेश किया तो नुक्कड़ पर एक छोटा सा तालाब मिला जिसके किनारे आम के पेड़ पर टिकोरे चमक रहे थे। तालाब का पानी हाल ही में भरा गया था जो जिलाधिकारी के हालिया अभियान की कहानी कह रहा था। डीएम साहब ने जिले के प्रायः सभी अधिकारियों को देहात में दौड़ा रखा है जिन्हें यह सुनिश्चित करने को कहा गया है कि गर्मी के आतप से बचाव के लिए जिले के सभी जलाशय पानी से भरे रहें। मुझे आगे भी एक तालाब दिखा जो आश्चर्य जनक रूप से लबालब भरा हुआ था। एक लड़का उनींदी आँखों से घर के बाहर निकल कर हाथ में लोटा लटकाये सड़क पर आता दिखायी दिया। पूछने पर उसने बताया कि तीन दिन पहले किसी ट्यूबवैल का पानी इसमें डाला गया था। आगे एक बड़ा सा स्कूल परिसर दिखा जिसमें प्राथमिक शिक्षा विभाग के कई भवन बने हुए थे। एक ही परिसर में प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालय तथा इसके अनेक अतिरिक्त कक्षा-कक्ष रहे होंगे। परिसर में आम और नीम के विशाल पेड़ बता रहे थे कि विद्यालय बहुत पुराना है। यहाँ भी अभी सन्नाटा पसरा हुआ था।
पठन-पाठन की प्रतीक्षा में खड़ा स्कूल परिसर
इधर सड़क किनारे एक बड़ा सा कब्रिस्तान भी दिखा। इसका अगला गाँव था कोलवा और उसके आगे मिला इब्राहिमपुर। दोनों पुरवे लगभग सटे हुए हैं। बबूल का जंगल इन्हें घेरे हुए है जिनसे निकली हुई पगडंडियाँ गाँव वालों को सड़क की दूसरी ओर खेतों में ले जाती हैं। गेहूं की फसल कट जाने के बाद ये खेत प्रायः खाली थे। इन्हीं खेतों में बकरियों का एक झुंड दिखा जिसके पीछे आठ दस-साल की एक लड़की थी और उससे छोटा एक लड़का था। दोनों 'स्कूल चलो' की पुकार से बेखबर चरवाही कर रहे थे। इन्हें सर्व शिक्षा अभियान ने बरी कर रखा है शायद।
भेड़-बकरी के संग जीवन
स्कूल से कोसों दूर
गेंहू से खाली खेतों के बीच-बीच में बाड़ लगे हुए सब्जी के खेत मिले और इक्का-दुक्का झुरमुट भी जिनकी आड़ में गाँव वाले प्रातःकाल के नित्य कर्म से निपटने का काम लेते होंगे। हाथ में पानी की बोतल, कोई डिब्बा या लोटा लिए मर्दों के अलावा मुझे गाँव से निकलती लड़कियाँ और औरतें भी दिखीं जो बता रही थीं कि ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम का सन्देश रायबरेली शहर से तीन-चार किलोमीटर दूर पक्की सड़क पर बसे इस गाँव तक अभी नहीं पहुँच सका है। लौटते समय एक लड़का बगल से गुजरा तो मैंने पूछ लिया। उसने बताया कि सरकारी पैसे से एक-दो घरों में शौचालय बने हैं लेकिन ज्यादा लोग अभी बाहर खुले में ही जाते हैं।
इब्राहिमपुर के बगल से गुजरती हुई सड़क क्रमशः ऊँची होती गयी तो मैं समझ गया कि आगे सई नदी है जिसपर पुल भी है। पुल पर पहुँचने के लिए मुझे अतिरिक्त दम लगाना पड़ा क्यों कि चढ़ाई कुछ ज्यादा तीव्र हो गयी थी। लोहे की रेलिंग वाला पुल सड़क की तुलना में खासा चौड़ा है। इसपर एक बाइक खड़ी थी और एक साइकिल वाला रेलिंग से सिर लटकाकर नीचे के पानी को गौर से देख रहा था।
सूखते पानी में तड़पती मछलियाँ
मैंने भी अपनी गाड़ी खड़ी की और उसके बगल में जाकर नीचे झांकने लगा। यहाँ पानी में कोई बहाव नहीं था, बल्कि जमे हुए पानी से एक पोखर की आकृति बन गयी थी जिसके चारो ओर शैवाल, जलकुम्भी और दूसरी वनस्पतियों का जाल बिछा हुआ था। नदी के दोनो किनारों की ढाल पर किसी ने नेनुआ, तरोई, लौकी आदि की लताएँ उगा रखी थीं जिनकी रखवाली के लिए वहीं एक मड़ई भी डाल ली थी। पुल के नीचे जमा पानी में कुछ मछलियों को उछलते देखकर मैंने उस आदमी के कौतूहल का रहस्य समझा। उसने बताया कि पानी रोज कम हो रहा है, बहाव खत्म हो गया है इसलिए ये मछलियाँ बेचैन हैं। मैं पूछ ही रहा था कि इन्हें कोई मछुआरा पकड़कर क्यों नहीं ले जाता तबतक दो मानव आकृतियां उस जलराशि के किनारे आकर उकड़ू बैठ गयीं। मैंने लजाकर नीचे झांकना बंद कर दिया ताकि वे निर्द्वन्द्व होकर शौच-प्रक्षालन कर सकें। मैंने दूसरी तरफ की रेलिंग पर जाकर लगभग सूख चुकी नदी के साथ सेल्फ़ी लिया और गर्मी से मुरझाई प्रकृति को देखता रहा।
तटबन्ध पर सब्जी की खेती
तभी वहाँ खड़ी मोटरसाइकिल के स्वामी आ गए और उनके स्टार्ट करते ही उसके पीछे बैठने वाले सज्जन भी पहुँच गए। अब समझ में आया कि ये वही दो लोग थे जो कहीं पास के गाँव से नदी पर निपटान करने आये थे। मैंने भी अपनी साइकिल स्टार्ट कर वापसी यात्रा प्रारम्भ कर दी।
वापस लौटते हुए रास्ते में पैदल, साईकिल और ऑटो रिक्शा से स्कूल जाते बच्चे दिखे। एक खड़खड़िया साइकिल हांकते अंशू कुमार मिले जो रायबरेली पब्लिक स्कूल में सातवीं के छात्र थे। अपने मामा के गाँव कोड़र से रोज शहर के स्कूल पढ़ने आते हैं जो छः किलोमीटर दूर है। एक साइकिल सवार नौवीं के बालक से भी बात हुई जो गोपाल सरस्वती में पढ़ता है। पहले स्कूल-बस से जाता था लेकिन भाड़ा पाँच सौ से ज्यादा हो गया तो पुरानी साइकिल खरीद ली।
गोड़ियन का पुरवा स्कूल पर लौटा तो करीब दर्जन भर बच्चों द्वारा प्रार्थना के बाद राष्ट्रगान गाया जा रहा था। गेट पर कुछ विद्यार्थी रुके हुए थे जो लेट हो गए थे। ये तब अंदर गए होंगे जब राष्ट्रगान के बाद 'भारतमाता की जय' का गगनभेदी नारा पूरा हो गया होगा। मैंने दूर निकल आने के बाद भी उस जयकारे की आवाज सुनी। रास्ते में शहर की ओर से देहात की ओर जाती नख-सिख ढंककर स्कूटी चलाती या बाइक के पीछे बैठी अध्यापिकाएँ दिखीं जो प्रायः वीरान पड़े सरकारी प्राथमिक स्कूलों में हाज़िरी बनाने जा रही थीं।
स्कूल चलें हम
इधर जेल रोड पर गाय-भैंस पालकर दूध का व्यवसाय करने वाली खोली से एक तेरह-चौदह साल की लड़की सिर पर गोबर से भरा तसला लेकर निकली और सड़क पार करने लगी। लंबी छरहरी काया और गोरा-चिट्टा रंग लिए वह धूल और पसीने से सराबोर थी जो दूसरी तरफ इकठ्ठा गोबर के ढेर तक जा रही थी। यह ढेर जो धीरे-धीरे खाद में बदल जाएगा और किसी फसल को पोषित भी करेगा; वह इस लड़की के बाप को कुछ पैसे भले ही दिला दे लेकिन इसके जीवन के अंधकार में शिक्षा का उजाला फैलने से रोकता रहेगा।
इसी चिंतन में मामा चौराहे की क्रासिंग पार हो गयी और चौराहे पर सवारी की प्रतीक्षा में अभी भी बदस्तूर खड़ी शिक्षिकाओं को देखते हुए घर आ गया। ये अपने स्कूल कब पहुंचेंगी भला। सात तो कबका बज चुका है...!
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी) www.satyarthmitra.com

शुक्रवार, 13 मई 2016

रायबरेली के लोक उद्यम भी बदहाल हैं...

साइकिल_से_सैर
आज तीन दिन के ब्रेक के बाद जब साइकिल से सैर की बारी आयी तो बाहर निकलने पर ध्यान आया कि आज मंगलवार है, बजरंग बली का दिन जिनके नाम भक्तगण मंगल व्रत रखते हैं और आज मंदिरों में विशेष पूजा और दर्शन की भीड़ रहती है। मैंने भी छात्र-जीवन में पूरी पाबन्दी से हनुमान जी का व्रत किया है। अभी भी नित्य पूजा की शुरुआत हनुमत वंदन से ही करता हूँ। अस्तु मैंने साइकिल का रुख उस और मोड़ दिया जिधर रायबरेली का सबसे प्रसिद्ध हनुमान मंदिर है।
गोरा बाजार चौराहे से फिरोज गांधी नगर की सड़क पर आगे बढ़ा तो मेरे बगल से एक स्कूल-बस धूल उड़ाते हुए गुजरी। नाक में धूल न घुसे इसलिए मैंने थोड़ी देर साँस खींचना स्थगित कर दिया। लेकिन कितनी देर? धूल का गुबार बैठने से पहले ही साँस लेनी पड़ी। बस आगे जाकर रुकी और बच्चों को बैठाने लगी। मैंने सोचा इसके आगे निकल जाऊँ तभी धूल की नई किश्त थमाते हुई बस फिर चल पड़ी। तीन बार रुक-रुककर इसने बच्चे बैठाये और मुझे धूल से नहलाती रही। चौथी बार रुकी तो मैंने अपनी गति बढ़ाकर इसे पार कर लेने में सफलता पा ली। तबतक सड़क परिवर्तित होकर गली बन चुकी थी यानि बस की धूल से छुटकारा मिल चुका था। लेकिन तभी एक घर का दरवाजा खुला और अंदर से झाड़ू लगाते आते लड़के ने घर का सारा बहारन सींक वाली झाड़ू के जोर से सड़क की ओर उछाल दिया। गनीमत है कि मैं उस कूड़े की बौछार का सीधा निशाना नहीं बना। सिर्फ कुछ धूल ही मेरे हिस्से में आयी। इसके आगे कई दरवाजों से झाड़ू लगाते धूल उड़ाते पुरुष या स्त्रियां दिखीं जिन्हें पीछे छोड़ मैं सुल्तानपुर जाने वाले हाइवे पर निकल आया।
रेलवे क्रासिंग पर पहुँचते-पहुँचते मुझे चार-पाँच भारी भरकम ट्रकों ने पार किया। मैं सोच ही रहा था कि हनुमान जी के कारण मुझे आज धूल-प्रधान सैर करनी पड़ रही है तभी क्रासिंग का बैरियर गिर गया और सभी ट्रकें खड़ी हो गयीं। मैंने साइकिल झुकाकर बैरियर पार किया और दोनों ओर खड़ी बड़ी गाड़ियों को टाटा बॉय बॉय करते हुए साइकिल भवानी पेपर मिल की ओर जाने वाली सड़क पर मोड़ ली जिसके प्रांगण में काले संगमरमर वाले हनुमान जी का मंदिर है।
इस सड़क की एक ओर डेढ़-दो साल से बंद पड़ी पेपर मिल है तो दूसरी ओर दसियों साल पहले बंद हो चुकी आईटीआई का विशाल प्रांगण है। टेलीफोन बनाने वाली यह पब्लिक सेक्टर कंपनी जिस रूप में यहाँ पड़ी हुई है वह सरकारी नौकरशाही के हाथों में उद्योग-धंधों का क्या हश्र होता है इसका जीता-जागता नमूना है। यहाँ करदाता के पैसे से जुटायी गयी भारी पूंजी का निवेश करने के बाद उत्पादन को बाजार की मांग के अनुसार बनाये रखने तथा कंपनी को लाभ दिलाने का लक्ष्य प्रायः किसी के मन को प्रेरित नहीं करता। संचार क्रांति के इस युग में इसी सेक्टर से जुड़ी इतनी बड़ी कंपनी पर यूँ ताला लग जाना यह बताता है कि सरकारी क्षेत्र में भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता किस स्तर तक व्याप्त है और उत्तरदायित्व की भावना किस हद तक नदारद है। अलबत्ता यहाँ मजदूर संघ का ऑफिस (INTUC) अभी भी विद्यमान है जो कर्मचारियों के वेतन भत्तों के लिए धरना आदि देता रहता है, लेकिन कम्पनी को दुबारा चलाने की दिशा में कोई ठोस प्रयास किसी भी स्तर पर नहीं दिखायी देता।
आईटीआई का विस्तृत प्रांगण खूब हरा-भरा है जिसमें नीम, पीपल, जामुन, आम आदि के विशाल पेड़ हैं। ऊँची चारदीवारी से घिरे कारखाने के आसपास कर्मचारियों की आवासीय कॉलोनी भी है जिसे दूरभाष नगर कहा जाता है। मैं पेपर मिल के गेट से आगे बढ़कर अगले मोड़ तक पहुंचा तो दायें बायें कुछ गरीब परिवारों के कच्चे मकान दिखे जिनके बाहर स्त्रियां सरकारी नल पर कपड़ा धुल रही थीं और प्लास्टिक के डिब्बों में पानी भर रही थीं। बगल में ही एक बच्चा शौचकर्म में लिप्त था जो दूसरे बच्चों को साइकिल के पुराने टायर से खेलते हुए देख रहा था। नुक्कड़ के दूसरी ओर चाय की दुकान पर दूध उबल रहा था। मुझे एकबारगी मक्खियों से बात करने वाली विद्या बालन जी की याद आ गयी और भारत सरकार की ओडीएफ गाँव (Open Defecation Free Village) की महत्वाकांक्षी परिकल्पना पर तरस भी आने लगी। मैं वहीं से लौट आया।
वापसी करते हुए मैंने साइकिल रोककर मंदिर के सामने जाकर हनुमान जी को प्रणाम निवेदित किया। बिना स्नान किये अंदर जाकर दर्शन करना ठीक नहीं था। इसके बाद मैंने बंद पड़ी पेपर मिल के अलावा भारत सरकार के दो अन्य संस्थानों की भी तस्वीरें लीं जो आईटीआई के अनुपयोगी भवनों को किराये पर लेकर चलाये जा रहे हैं। इनमें एक है राष्ट्रीय औषधि अनुसंधान व शिक्षण संस्थान (National Institute of Pharmaceutical Education and Research) और दूसरा है राष्ट्रीय दुर्घटना अनुसन्धान व विश्लेषण संस्थान (National Centre for Vehicle Research and Safety-Accident Data Analysis Centre.)
रायबरेली में इतने महत्वपूर्ण संस्थानों की उपस्थिति के बारे में मुझे आज से पहले पता ही नहीं था। यहीं एक चौकीदार ने बताया कि राजीव गांधी पेट्रोलियम रिसर्च इंस्टिट्यूट भी आईटीआई के भवन में ही किराया देकर चल रहा है। लगता है इन सब के बारे में विस्तार से जानने के लिए मुझे कई बार इधर आना चाहिए। लेकिन भारी वाहनों से उड़ती-पड़ती रास्ते की धूल का क्या करूँ? लौटते हुए चेहरे पर रूमाल बांधकर आ तो गया लेकिन साइकिल से सैर का असली उद्देश्य तो साफ-सुथरी ऑक्सीजन वाली हवा में साँस लेते हुए शारीरिक व्यायाम करना है न!
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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गुरुवार, 12 मई 2016

सोच की बदलती दुनिया (कहानी)

स्टेशन पहुँचने पर उसे पता चला कि आज राजधानी एक्सप्रेस दो घंटे विलम्ब से चलेगी। इसके रूट पर कोई मालगाड़ी डिरेल हो गयी थी। दिल्ली में एक ऑफ़िस से दूसरे ऑफ़िस का चक्कर लगाते हुए कब सुबह से शाम हो गयी इसका पता ही नहीं चला। दिन भर चिलचिलाती धूप और गर्मी में भटकना था इसलिए उसने वापसी के लिए एसी बर्थ रिज़र्व कराया था ताकि थकान मिट सके। अब उसे दो घंटे प्लैटफ़ॉर्म पर बिताने थे।
उसने अपना बैग उठाया और एसी वेटिंग हॉल की ओर चल पड़ा। हॉल के बाहर एक वेंडर से उसने चाकलेटी क्रीम बिस्कुट का पैकेट ख़रीदकर बैग में डाल लिया और हाल के गेट पर रखे रजिस्टर में अपना विवरण दर्ज करके भीतर आ गया। हॉल अपेक्षाकृत ठंडा था, लेकिन सभी सोफ़े और कुर्सियाँ भरी हुई थीं। उसने चारो ओर बारीकी से नज़र दौड़ाई तो एक टू-सीटर सोफ़े पर एक बुजुर्ग़ अकेले ही बैठे हुए दिखायी दिए जिन्होंने अपना बैग बग़ल में रखा हुआ था। वह तेज़ क़दम बढ़ाकर उस सोफ़े तक पहुँचा और इशारे में बुजुर्ग से इजाज़त लेकर उनका बैग नीचे रखकर सोफ़े पर बैठ गया। सामने दीवार पर टंगी टीवी पर आईपीएल का मैच चल रहा था।
थोड़ी देर बाद उसे भूख महसूस हुई। दिन-भर की भागदौड़ में उसे इतना भी ख़याल न रहा कि कुछ खा-पी ले। उसने नीचे रखे बैग से बिस्कुट का पैकेट निकाला और खोलकर खाने लगा। बग़ल में बैठे बुजुर्ग ने उसे बड़े ग़ौर से देखा और अपनी निगाहें बिस्कुट पर टिका दीं। जब उसने एक बिस्कुट निकालकर मुँह में डाला तो बुजुर्ग की अपलक दृष्टि उसके हाथ का अनुसरण करते हुए नीचे बिस्कुट के पैकेट से उठकर उसके मुँह तक गयी। बुजुर्ग ने सहसा अपना हाथ बढ़ाया और एक बिस्कुट निकालकर मुँह में डाल लिया। उसने हैरत से बुजुर्ग की ओर देखा तो उसने मुस्करा भर दिया। संकोचवश वह कोई और प्रतिक्रिया न कर सका।
उसके बाद हुआ ये कि उस बुजुर्ग ने बड़े आराम से उसकी गति से गति मिलाते हुए एक-एक बिस्कुट निकाल कर खाने शुरू कर दिए। जब वह एक बिस्कुट निकालता तो बुजुर्ग भी एक निकाल लेता। बारी-बारी से दोनों एक-एक बिस्कुट निकालते और खाते रहे। उसका मन यह सोच कर परेशान तो हो रहा था कि यह कैसा निर्लज्ज आदमी है, बिना पूछे हाथ बढ़ाकर भकोसे जा रहा है। लालची भुक्खड़ कहीं का। लगता है दिमाग़ से थोड़ा खिसका हुआ है; लेकिन प्रकट रूप में वह कुछ नहीं कह सका। यह सोचकर कि शायद इसे ज़्यादा भूख लगी हो... लेकिन कम से कम एक बार याचना तो करनी चाहिए थी... मैं मना तो कर नहीं देता।
हद तो तब हो गयी जब आख़िरी बिस्कुट बच रहा। वह थोड़ी देर के लिए असमंजस में पड़ गया, लेकिन उस विचित्र आदमी ने बिना अवसर गँवाए इत्मिनान से आख़िरी बिस्कुट भी उठा लिया; लेकिन मुँह में डालने से पहले रुका, उसके दो बराबर टुकड़े किए और एक टुकड़ा इसे थमा दिया। पैकेट ख़त्म हो जाने के बाद वह बुजुर्ग उठ खड़ा हुआ और बिना कोई शब्द बोले चला गया। सोफ़े पर अकेला बैठा हुआ यह युवक सोचने लगा कि दिल्ली में ऐसे बेग़ैरत इंसान भी होते हैं। मान न मान मैं तेरा मेहमान...! चल के घर वालों को बताऊँगा। ऑफ़िस में भी चर्चा करूँगा। अपने लखनऊ वाले तो सुनकर सिर पीट लेंगे।
उसकी भूख अभी मिटी नहीं थी। हाल के गेट से बाहर वह वेंडर दिख रहा था। उसने अपना बैग सोफ़े पर रखा और दौड़कर गेट तक गया और बिस्कुट का दूसरा पैकेट ले आया। वापस आकर उसने दो-चार बिस्कुट खाए और पानी की बोतल निकालने के लिए बैग की जिप खोली। बैग में हाथ डालते ही उसका माथा ठनका। उसके हाथ में बिस्कुट का पहला पैकेट टकराया जो उसने बैग में रख छोड़ा था। ओ माय गॉड... इसका मतलब जो पैकेट हम दोनों ने ख़त्म किया वह उस बुजुर्ग का ही था... उफ़्फ़, लगता है ग़लती से मैंने उसके बैग में हाथ डालकर वैसा ही पैकेट निकाल लिया था। क्या-क्या सोच लिया मैंने उस सज्जन के बारे में...! लेकिन क्या शानदार आदमी था वो...! कितना दरियादिल, सहिष्णु, धैर्यवान और शांतचित्त...
अब सिर पीट लेने की बारी उसकी थी। ग़लतफ़हमी का ख़ुलासा होने पर उसकी सोच की दुनिया ही बदल चुकी थी।
(व्हाट्सएप्प पर प्राप्त एक अंग्रेज़ी आलेख से प्रेरित)

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
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रविवार, 8 मई 2016

साइकिल से सैर में साप्ताहिक विराम


साइकिल से सैर में साप्ताहिक विराम
धन्नो आज अकेली होगी रायबरेली में
आ पहुँचा हूँ आज लखनऊ वाली खोली में
आज साइकिल मेरी सैर नहीं कर पायेगी
खड़ी रहेगी पड़ी रहेगी वहीं हवेली में
आलस का आनंद मुफ़्त में आज उठाता हूँ
कोई वैद्य नहीं दे सकता इसको गोली में
बच्चों की मम्मी ने उठकर टिफिन बनाया है
पानी की बोतल रखती इस्कूली झोली में
बिटिया देर रात तक पढ़के भोर में सोयी थी
जगा रही मम्मी अब उसको मीठी बोली में
झटपट हो तैयार पी रहे दूध चॉकलेटी
आपस में गिटपिट करते हैं किसी पहेली में
जूता मोजा टाई बिल्ला बस्ता बांध लिया
बस की खातिर खड़े हुए नुक्कड़ पे टोली में
बस में हुए सवार सभी बच्चे मुस्काते हैं
महक रहे हैं चहक रहे हैं हंसी ठिठोली में
अल्हड़ सी मुस्कान लिए बच्चे सब जाते हैं
कार, स्कूटी, बस, रिक्शा, पैदल या ठेली में
7 मई, 2016 : लखनऊ
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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शुक्रवार, 6 मई 2016

विस्मृति का शिकार मुंशीगंज शहीद स्मारक


6 मई, 2016
शहीद स्मारक स्थल मुंशीगंज,रायबरेली
‪#‎साइकिल_से_सैर‬
आज की सुबह का मौसम क्या मस्त था। आसमान में छुट्टा बादलों की आवाजाही और पुरवाई के वेग को रोकती-टोकती पछुवा हवा बारिश की संभावना बताती हुई भी सैर पर निकलने वालों को डरा नहीं रही थी। घर से बाहर निकलते ही महसूस हुआ कि वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा रोज से ज्यादा है। साइकिल पर बैठते ही ठंडी हवा का ताजा झोंका चेहरे पर पड़ा जो किसी भी ए.सी. की बयार को लज्जित करने वाला था। अभी चार दिन पहले तक प्रचंड गर्मी थी, यही प्रकृति झुलसाए डाल रही थी और आज है कि सबकुछ सुहाना लगने लगा है। बुन्देलखण्ड से आ रही खबरों की सोचें तो हम खुद को कितना भाग्यशाली पाते हैं।

आज हम जेलरोड से क्षेत्रीय ग्राम्य विकास संस्थान वाले रास्ते पर मुड़कर सई नदी की ओर चले गए। यहाँ नदी पर एक बहुत पुराने ध्वस्त हो चुके पुल के पायों के ऊपर लोहे का पैदल पुल बनाया गया है। इस पगडंडी-नुमा पुल पर लोगों की अच्छी आवाजाही दिख रही थी। मैंने भी साइकिल खड़ी करके ताला लगा दिया और लोहे की सीढ़िया उतरकर नदी के ठीक ऊपर आ गया। वैसे आजकल सई का जो हाल है इसे नदी नहीं कहा जा सकता। जलकुम्भी, खर-पतवार, शहर के मंदिरों का कूड़ा और भारी गर्मी से सूखती जलधारा के कारण यह एक गंदे नाले का रूप ले चुकी है। इसके बावजूद पुल के नीचे जमा पानी में दर्जनों धोबी कपड़ा धुलते दिखायी दिए। अनेक खाली पाट अपने धोबी का इंतजार कर रहे थे। इस गन्दे पानी से कपड़े साफ कैसे हो जाते हैं यह मेरे लिए एक पहेली ही है। हालांकि मैंने यह कहावत जरूर सुनी है कि कीचड़ से कीचड़ धुलता है।

इस पैदल पुल का दूसरा सिरा प्रसिद्ध 'मुंशीगंज शहीद स्मारक' के प्रांगण में खुलता है। वहाँ पहुँचा तो बहुत से नर-नारी इस विशाल परिसर में अपनी सेहत की देखभाल करते दिखे। यहाँ दूसरे लड़के-लड़कियाँ भी थे जो अपने तरीके से बढ़िया मौसम का लुत्फ़ उठा रहे थे। एक छोटा बच्चा एक पोटली में कच्चे आम (टिकोरा) लिए जा रहा था जिसे तीन-चार लड़के घेरकर अमिया के लिए फँसाने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन वह भी एक चंट था। पोटली पर अपनी पकड़ ढीली न होने दी।

स्वतंत्रता संग्राम में रायबरेली जिले के अमर शहीदों के सम्मान में यह स्मारक बनाया गया था। यहाँ हर साल 7 जनवरी को एक बड़ा कार्यक्रम भी होता है। यहाँ स्मारक स्तम्भ के अलावा भारत माता मंदिर भी है जिसके चौड़े बरामदे में व्यायाम करते युवक इसकी अलग उपादेयता बता रहे थे। स्मारक स्तम्भ पर लगे संगमरमर पर खुदाई करके यहाँ का इतिहास बताया गया है, कुछ शहीदों के नाम लिखे गए हैं और प्रमुख घटनास्थलों को मानचित्र बनाकर दिखाया गया है।

इस परिसर को सुरम्य बनाने के लिए कभी उद्यान विकसित करने की कोशिश की गयी लगती है; लेकिन वर्तमान में सैकड़ो पौधे पानी के अभाव में सूख गए हैं। पगडंडियों को पक्का कर दिया गया है लेकिन सफाई और देखभाल करने की जिम्मेदारी शायद आम जनता के भरोसे ही है। तभी तो 'स्वागत कक्ष' और 'शहीद कला वीथिका' को कबाड़ घर बन जाना पड़ा है, स्वागत द्वार पर खड़े दोनो सफ़ेद घोड़ों की एक-एक टांग काट ली गयी है और दूसरी मूर्तियों पर से सजावटी पत्थरों को उखाड़ लिया गया है। 
शहीद स्तम्भ पर उकेरी गयी सूचनाओं के बीच अनेक उत्साही प्रेमियों ने अपने सन्देश खोद डाले हैं। मैं समझ नहीं पाता कि दिल के आरपार एक नुकीला-कटीला तीर घुस जाने के बावजूद वह धड़कता कैसे है; इजहारे-मोहब्बत करने लायक बचा कैसे रहता है।

यह सब देखकर मन का आनंद थोड़ा कम होने लगा तो मैंने वापस पुल की ओर लौटना मुनासिब समझा। इसी पुल पर 7 जनवरी 1921 को अंग्रेजी शासन के विरुद्ध किसानों ने मोर्चा लिया था जिनपर अंधाधुंध गोलियां बरसायी गयीं थी। सैकड़ों जाने गयीं जिनके खून से सई नदी का पानी लाल हो गया था। अंग्रेज़ो ने स्वातंत्र्य वीरों को रोकने के लिए शायद तभी इस पुल को तोप से उड़ा दिया होगा।
खैर, वापस साइकिल पर चढ़कर हम शहर की ओर लौट आये। हर तरफ टहल कर वापस लौटने वालों के अलावा स्कूल जाते बच्चे, उन्हें पहुँचाने जाते माता-पिता, भाई-बहन, बुआ-चाचा-चाची, ताऊ-ताई, दादा-दादी, रिक्शे वाले आदि और उन्हें पढ़ाने जाते अध्यापक-अध्यापिकाएँ दिखायी दे रहे थे। हम जेल रोड से फिरोज गांधी चौराहा होते हुए कलेक्ट्रेट के बगल से बरगद चौराहा क्रासिंग तक गए लेकिन हाइवे से बचने के लिए वापस नेहरू नगर और इंदिरानगर के बीच वाली सड़क से जेलरोड पर वापस आ गए।

घर पहुंचने के लिए मामा चौराहे की ओर जाते हुए एक साइनबोर्ड देखकर मैं रुक गया। लिखा था- "वातानुकूलित, मॉडल शॉप, बैठकर पीने की उचित व्यवस्था"। वाह, क्या बात है। इससे पहले कि आप कुछ ऐसा-वैसा सोचें, मैं यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि मैं रुका था सिर्फ फ़ोटो लेने के लिए। पडोसी राज्य बिहार को देखकर यूपी वाले श्रेष्ठता बोध की खुशफहमी पाले रहते थे, लेकिन अब तो यह मंजर है कि आइना भी चिढ़ा रहा है।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी) 

गुरुवार, 5 मई 2016

अल्पवयस्क कटहल और चहकते टमाटर के पेड़


5 मई 2016
सीताराम पुर, रायबरेली
‪#‎साईकिल_से_सैर‬
आज सैर पर निकलने को हुए तो साइकिल ने टोका - रोज एक ही रस्ते जाने पर बोर नहीं होते? मैंने तड़ से उसका मूड ताड़ लिया और कानपुर जाने वाले हाइवे की ओर चल दिया। मेरे घर के पास रायबरेली से इलाहाबाद जाने वाली सड़क पर है 'मामा चौराहा' जहाँ से कानपुर के लिए बाईपास रोड निकलती है। इसी बाईपास पर जिला-जेल है और स्टेडियम भी। एक स्पोर्ट्स हॉस्टल भी है SAI का जिसके लॉन में कुछ बुजुर्ग गोल घेरा बनाकर बैठे दिखे। वे योगासन- प्राणायाम आदि करने के बाद ताली बजा बजाकर जोर जोर से हँसने का व्यायाम कर रहे थे। शहर के असंख्य बूढ़े और जवान इस सड़क पर स्टेडियम के लिए आते-जाते दिखे। कुछ सपत्नीक तो कुछ अकेले ही। सुबह की ताजी हवा फेफड़ों में भर लेने की होड़ लगी हो जैसे। मैंने ललचायी नजरों से गेट के भीतर झाँका जहाँ मेरे साथी बैडमिंटन खेल रहे होंगे। लेकिन यह सोचकर कि वे चारो ओर से हवा को बंद करके खेल रहे होंगे मैंने तुरन्त अपने रास्ते पर आगे बढ़ लेना मुनासिब समझा।

बसावट के आखिरी छोर पर बने आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वार को पार करके राजघाट नामक संकरे पुल तक पहुँच गया जिसके नीचे से सई नदी गंदे नाले की तरह बहती दिखी। इसके बगल में नया पुल बनाने की चर्चा तीन साल से सुन रहा हूँ लेकिन अभी मिट्टी के ऊपर पिलर के लिए गाड़ी गयी जंग लगी सरिया ही दिख रही है। पुल के दूसरी बगल में धोबी घाट पर जरूर रौनक दिखी। इस पुल से आगे बढ़ा तो आगे-पीछे से ट्रकों और दूसरी भारी गाड़ियों की पों-पों से मेरा उत्साह ठंडा पड़ने लगा। आँखो में किरकिरी घुसी तो किनारे रुककर उसकी सफाई करनी पड़ी। फिर भी हिम्मत करके आगे बढ़ने लगा तभी दरीबा तिराहे से एक पतली सड़क डलमऊ के लिए निकलती दिखी। मैंने चट से उसे पकड़ लिया। इसके बाद तो मेरे आनंद की सीमा न रही।
इस ग्रामीण सड़क पर मेरी मुलाकात नीम, आम, पीपल, आदि के पुराने वृक्षों से हुई जिनकी घनी डालियाँ सड़क को ढके जा रही थीं। दोनो और के खेतों में सब्जियों की हरी-भरी फसल लगी हुई थी। पिपरमिंट के खेत भी थे और उड़द व टमाटर के भी। कुछ खेत खाली थे जिनसे हल ही में गेहूं काटा गया था। आम का बाग़ भी दिखा जिसमे टिकोरे दूर से चमक रहे थे और उनकी रखवाली के लिए मड़ई डाली जा चुकी थी। एक खेत में टमाटर के पौधों को सहारा देने के लिए बाँस की ऐसी बाड़ लगायी गयी थी कि मैं बरबस उसके नजदीक जा पहुंचा। हर पौधे को जूट की सुतली से लपेटकर ऊपर बॉस की बनी क्षैतिज लड़ी से जोड़ दिया गया था। पौधे यूँ सीधे होकर चहक रहे थे जैसे कोई छोटा बच्चा अपने पिता की अंगुली पकड़कर उछल रहा हो। मन हुआ कि इसकी वीडियो बनाऊँ लेकिन एक फोटो लेकर ही आगे बढ़ गया।

आगे एक ट्यूब वेल से मोटी धार में पानी निकल रहा था जो किसी सब्जी की सिंचाई कर रहा था। मन हुआ पानी की धार को अंजुरी में भर-भरकर चेहरे पर छपकार लूँ लेकिन फिर टाल गया। वहीं से दस कदम पर एक चाय की दुकान मिली। मैंने अपनी टू-ह्वीलर गाड़ी खड़ी की और अदरक वाली चाय का आर्डर देकर बेंच पर बैठ गया। भठ्ठी पर एक बड़ी सी कड़ाही चढ़ी हुई थी और समोसे में भरने के लिए आलू को मसाले के साथ भुना जा रहा था।
दुकान की गुमटी के ऊपर नज़र गयी तो मोबाइल कैमरा अपने आप हरकत में आ गया। एक छोटे से पेड़ में इतने अधिक कटहल लटक रहे थे कि मुझे पेड़ की उम्र पूछनी पड़ी। ट्यूबवेल के पानी से बाल्टी भर-भरकर पेड़ की जड़ में उड़ेल रहे आदमी ने बताया कि यह अभी 6-7 साल का ही हुआ है। मेरे सामने यकबयक अल्पवयस्क लड़कियों की शादी हो जाने और जल्दी ही माँ बन जाने की तस्वीर घूम गयी। ग्रामीण जन इन पेड़-पौधों से यूँ भी प्रेरित हो सकते हैं क्या? लेकिन मैंने इस विचार को तुरंत मटिया दिया और आपको यह सब हाल बताने के लिए नोटपैड खोलकर रूरल स्थान पर डिजिटल हो लिया।

इस बीच प्लास्टिक की पंचामृत बांटने वाली गिलास में अदरक वाली चाय आ गयी। मैंने उससे शीशे का गिलास पूछा तो बोला कि यहाँ यही चलता है। मैंने बताना चाहा कि यह सेहत को नुकसान पहुँचाता है तो उसका चेहरा यह भाव बनाकर चला गया कि बड़े आये ज्ञान बांटने; पांच रुपल्ली में बड़की गिलास भर चाय, वह भी अदरक वाली चाहिए! मैंने उसी प्लास्टिक की चुस्की ली तो चाय और अदरक का स्वाद प्रधान था।
मैंने चाय पीकर नोटपैड बंद किया और वापसी यात्रा प्रारम्भ हुई। राजघाट पुल पार करते ही घोड़े से जुते हुए एक ठेले में पूरा भरकर हरा कटहल जाता मिला और बच्चों को भरकर ले जाते स्कूली रिक्शे तो एक के बाद एक मिलते गए।

इस समय सड़क पर बड़ी संख्या में कामकाजी महिलाएं दिखीं जिनमें अधिकांश सरकारी प्राइमरी स्कूलों की शिक्षिकाएँ थी। इस सकारात्मक आविर्भाव के बारे में कभी विस्तार से लिखूंगा। अभी के लिए बस इतना ही। धन्यवाद।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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बुधवार, 4 मई 2016

साइकिल से सैर की सरपट रपट

वैसे तो मुझे साइकिल खरीदे महीना भर से ऊपर हो गया; और खरीदा भी था सुबह की सैर के लिए ही, लेकिन कोषागार के काम में अत्यन्त व्यस्त होने का भाव और शादी-विवाह के मौसम में इधर-उधर की यात्राओं का प्रभाव ऐसा हुआ कि इस अद्‍भुत आनंद में लगातार व्यवधान आता रहा। लेकिन अब मैंने तय कर लिया है कि कोई बहाना नहीं करूंगा। आलस्य त्याग कर सुबह अंधेरा छँटते ही अपनी सवारी लेकर निकल जाया करूंगा। अस्तु, बहुत दिनों से रुकी हुई गाड़ी चल पड़ी है। इसका एक लाभ यह है कि इन पन्नों पर जमी धूल भी साफ़ करने का अवसर मिल गया है। तो पेश है साइकिल से सैर की कहानी की प्रारंभिक कड़ी :
4 मई, 2016
भूएमऊ, रायबरेली

आज सुबह साढ़े पाँच बजे साइकिल लेकर सैर को निकले। साइकिल चलाने के लिए मेरी पसंदीदा सड़क रायबरेली से परसदेपुर की ओर जाती है। यह हाइवे नहीं है फिर भी चौड़ी है, गढ्ढामुक्त है और इसपर भारी वाहन भी कम चलते हैं। इसपर पीएसी कैम्पस के बाद ही देहात का हरा-भरा इलाका शुरू हो जाता है। शायद इसीलिए स्थानीय सांसद सोनिया जी ने इसी सड़क पर भूएमउ गाँव में एक भव्य गेस्टहाउस बनवाया है। कई एकड़ क्षेत्र में बना यह प्रांगण उनके प्रवास के समय भारी गहमागहमी का केंद्र होता है।
खैर, आज जब निकला तो सड़क किनारे की धूल पर आसमानी बूँदों के निशान बता रहे थे कि शायद रात में बरखा रानी ने गरम हवा से मुठभेड़ का मन बनाया होगा लेकिन ऐन वक्त पर पुरजोर हमला करने से संकोच कर गयी होंगी। शायद उनके पीछे बादल सैनिकों की भरपूर संख्या न जुट पायी हो। इसके बावजूद उनके एक झलक दिखा जाने भर से सुबह की हवा सुहानी हो गयी थी।

पूरे आनंद से साइकिल हाँकते हुए मैंने ऊँचे-ऊँचे दो पुलों की चढ़ाई पार कर उनकी ढलान का मजा उठाया और देखते-देखते पाँच किमी दूर भूएमउ गेस्टहाउस के उस पार पहुँच गया। उस प्रांगण के भीतर झाँकने का तो कोई झरोखा नहीं था लेकिन दीवारों के ऊपर से दिख रहे हजारों पेड़ पौधों के बीच बनी इमारत की छटा देखकर सहज ही अनुमान हुआ कि भीतर किसी साम्राज्ञी की रिहाइश का सारा इंतजाम होगा।

वापसी यात्रा में पुल की चढ़ाई दुबारा पार करने के बाद सामने से आते काले बादलों ने रोक लिया। तभी उनके बीच बिजली चमकी और जोर की गड़गड़ाहट से मन कांप गया। बादलों ने एक के बाद एक कई गर्जनाएं कर डाली। जैसे मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही एक के बाद एक कई घोषणाएं कर डाली थीं
मैंने एक चाय की दुकान की बरसाती में शरण ली। मूसलाधार बारिश शुरू हुई तो मन ख़ुशी से भर गया, लेकिन जल्दी ही बरसाती टपकने लगी। थोड़ी देर बाद बरसाती के अनगिनत छेदों से झरने गिरने लगे। इस बरसाती में शरण लेने वालों के लिए जगह कम पड़ने लगी तो मैंने बारिश में भीगने का मन बना लिया। चाय वाले ने चूल्हा बुझाकर हमारा आर्डर पहले ही मटिया दिया था। अब मैंने उससे एक पॉलीथिन मांगकर अपना बटुआ और मोबाइल लपेटा और साइकिल पर बैठ फुहारों की बहार लूटते हुए घर लौटे। हालाँकि घर पहुंचने से पहले ही बारिश उसी प्रकार सिमट कर बन्द हो गयी जिस प्रकार उन घोषणाओं का हश्र हो गया है।

वाह, मजा आ गया। साइकिल की सवारी का आनंद वाकई अद्भुत है अनूप जी। आइडिया देने का शुक्रिया।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)