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मंगलवार, 21 जनवरी 2014

माइक, कैमरा, एक्शन और आम आदमी

20-arvind-kejriwal-dharna-600भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना हजारे के मंच से अरविंद केजरीवाल के भाषण देश के नौजवानों में जोश भरने वाले होते थे। रामलीला मैदान हो या जन्तर-मन्तर, केजरीवाल जब भी माइक सम्हालते देश की मीडिया जुट जाती उसके कवरेज के लिए। न्यूज चैनेलों के माध्यम से दूर-दूर तक केजरीवाल की आवाज पहुँचाती वीडियो कैमरे और ओ.वी.वैन की सुविधा इन्हें ऐसी रास आयी कि आगे के सभी कार्यक्रमों में इनका पुख्ता इन्तजाम किया जाने लगा। आन्दोलन जब अपने चरम पर पहुँचा तो सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की ओर से राजनीति में सीधे हाथ आजमाने की चुनौती और सलाह पेश कर दी गयी। मजबूत कलेजे वाले केजरीवाल ने अन्ना जी को पीछे छोड़कर आम आदमी पार्टी का गठन किया और पहली ही परीक्षा में पास होते हुए दिल्ली विधान सभा चुनाव में मिली अप्रत्याशित सफलता के बाद मुख्य मंत्री की कुर्सी पर काबिज हो गये।

भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक मजबूत (जन) लोकपाल बनाने की मांग से प्रारंभ हुआ धरना-प्रदर्शन विभिन्न मुद्दों, बहसों और रोज बदलती घटनाओं के बीच आगे बढ़ता हुआ आज चार पुलिस वालों को निलंबित किये जाने की मांग को लेकर बदस्तूर जारी है। केजरीवाल पहले सड़क पर नारे लगाते और भाषण देते एक आम आदमी से बदलकर दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गये; लेकिन यह अद्‌भुत बदलाव भी सड़क पर जारी आन्दोलन की निरन्तरता में बाधक नहीं बन पाया। भरपूर भीड़ के बीच मंच पर खड़ा होकर भाषण देने, नारे लगवाने और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को बाइट देने का जो नशा है वह उतरने का नाम ही नहीं ले रहा। मंत्रीमंडल का शपथ ग्रहण कार्यक्रम ही रामलीला मैदान में मंच सजाकर अपार भीड़ के बीच में किया गया। आम आदमी ने खूब जश्न मनाया था; लेकिन अब भी रोज़-ब-रोज़ दिल्ली के मंत्रीगण और मुख्यमंत्री जी बार-बार अपने दफ़्तर से बाहर निकलकर सड़क पर आने और माइक, कैमरा के सामने एक्शन दिखाने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे हैं।

मुझे लगता था कि राज्य सत्ता में बैठे हुए मंत्रियों और उनके अधीन कार्यरत नौकरशाही द्वारा आम जनता के अधिकारों और जरूरी नागरिक सुविधाएँ मुहैया कराने में जो भ्रष्टाचार व्याप्त है उसे दूर करने के उद्देश्य से केजरीवाल जी ने यह आन्दोलन खड़ा किया है और इसी साध्य को साधने में उनका सहयोग करने के लिए देश का आम जनमानस और मीडिया भी आगे आया है। धरना प्रदर्शन का साधन कारगर भी लगने लगा था क्योंकि जनता ने उससे प्रभावित होकर उन्हें वोट भी दे दिया था, मुख्य मंत्री की कुर्सी भी मिल गयी और संसद ने लोकपाल अधिनियम भी बना दिया। फिलहाल जो लक्ष्य लेकर केजरीवाल जी चुनाव लड़े थे वह पूरा होता दिखायी दिया। इसके बाद उम्मीद थी कि वे लोग जमकर सचिवालय में बैठकर काम करेंगे और अबतक हुए घपलों घोटालों की खबर लेंगे और जनता को तमाम सहूलियतें देने का रास्ता निकालेंगे। लेकिन देख रहा हूँ कि मुख्य मंत्री जी ने शपथ ग्रहण करने के बाद भी सड़क पर आकर माइक, कैमरा, एक्शन का लुत्फ़ लेना जारी रखा हुआ है।

Kejriwal-dharna_जनता की अर्जी लेने के नाम पर ‘जनता दरबार’ (एक सामन्ती संज्ञा) लगा तो सड़क पर लगा, माइक-कैमरा-एक्शन के साथ। मुख्यमंत्री जी भीड़ के बीच कैमरे से ओझल होने लगे तो भागकर चारदीवारी पर चढ़ लिए। आम आदमी ने वहाँ भी नहीं छोड़ा तो छत पर पहुँचकर माइक सम्हाल लिया लेकिन कैमरा नीचे से मुस्तैद रहा। मंत्रीगण अपने सरकारी काम के लिए बाहर निकलते हैं तो माइक और कैमरा का इन्तजाम पहले से कर लेते हैं। यहाँ तक कि आधी रात को गश्त पर भी बिना माइक-कैमरा लिए नहीं जा पाते। पुलिस वालों से तू-तू मैं-मैं भी हुई तो माइक-कैमरा-एक्शन के साथ ताकि चैनेल वाले बुरा न मान जाँए।

लगता है जैसे यह ‘माइक-कैमरा-एक्शन’ कोई साधन नहीं है बल्कि अपने आप में एक साध्य हो गया है। इस साध्य को सिद्ध कर लेने के बाद अब आगे कुछ बचता ही नहीं। वो अठ्ठारह मुद्दे जो माइक-कैमरा-एक्शन के साथ मीडिया में गिनाये गये थे उनका कोई पुरसा हाल नहीं है। जिन मुद्दों पर काम करके वे आम दिल्लीवासियों को तत्काल राहत पहुँचा सकते थे वे पीछे हो गये। इनकी फाइलों पर कोई निर्णय लिये जाने हेतु धरना-रत मंत्रियों के सचिवालय में लौटने तक प्रतीक्षा करनी होगी।

अब मुद्दा वह चुना गया है जो राज्य सरकार के पास है ही नहीं। मुद्दा यही है कि क्यों नहीं है राज्य सरकार के पास - पुलिस पर नियन्त्रण? आजादी के इतने साल बाद भी दिल्ली पुलिस को राज्य सरकार के हाथ में नहीं दिया गया। केंन्द्र और दिल्ली में परस्पर विरोधी सरकारें भी रहीं फिर भी यह मुद्दा कभी इतना भारी नहीं हुआ। राष्ट्रीय राजधानी होने के कारण दिल्ली की पुलिस निगरानी बहुत आसान है भी नहीं। हो सकता है कि पहले की राज्य सरकारें इस झंझट से जानबूझकर दूरी बनाये रखना चाहती हों।

पुलिस का काम अपराध को रोकना और अपराध करने वाले को दंडित कराना है। इसके लिए पुलिस को पर्याप्त अधिकार दिये गये हैं और जिम्मेदारी भी। पुलिस यदि इन अधिकारों का ठीक-ठीक प्रयोग करे तो भी अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह नहीं निभा सकती; कुछ न कुछ अपराध होते ही रहेंगे। लेकिन यदि पुलिस वाले अपराधियों के साथ नरमी बरतने और पैसे के बदले आँख मूंद लेने के लिए सहज ही तैयार हो जाँय तब तो स्थिति भयावह हो जाएगी। एक दक्ष और समर्पित पुलिस समाज में छोटे-मोटे अपराध होने से तो रोक ही सकती है; लेकिन ये छोटे-मोटे अपराध ही पुलिसवालों की कमाई का साधन बन जाँय तो क्या कीजिएगा? केजरीवाल ने पुलिस के मगरूर रवैये के खिलाफ खड़ा होकर कुछ गलत नहीं किया है; लेकिन उन्होंने जो तरीका चुना है वह उन्हें अपने दायित्वों से विचलित करने वाला है।

kejriwal on streetपुलिस व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए जो विरोध और आन्दोलन करना है उसे वे अपने कार्यकर्ताओं के जिम्मे कर सकते थे; लेकिन मुख्यमंत्री होने के नाते उनके पास दूसरे सांस्थानिक तरीके भी उपलब्ध थे। विधानसभा की विशेष बैठक बुलाकर बहस कराने, राज्य सरकार की ओर से औपचारिक विरोध दर्ज कराते हुए केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजने का विकल्प चुनना चाहिए था। पहले वे शांति पूर्वक गृहमंत्री, प्रधानमंत्री और आवश्यक होने पर राष्ट्रपति से समय लेकर मुलाकात करते और अपनी भावनाओं से अवगत कराते हुए ठोस मांग रखते। पूरे देश में तब भी चर्चा होती और शायद कोई रास्ता भी निकलता। लेकिन बात-बात पर सड़क पे आ जाना, अनशन करना और धरना देना काम के प्रति एक स्टेट्समैन की गंभीरता को नहीं दिखाता।

जिस सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उन्हें आँखों पर बिठाया वही उनका उपहास करने लगी है। मुद्दा विचारणीय होने के बावजूद आज चर्चा मुद्दे पर कम हो रही है और उनके छूठे दंभ, अनावश्यक आक्रामकता, और पदीय दायित्वों से भटक जाने की अधिक हो रही है। जिन लोगों की छाती पर मूंग दलते हुए उनका काफिला सत्ता के गलियारों तक पहुँचकर कुर्सी पर कब्जा जमा बैठा वे ही इस तमाशे को देखकर जैसे दुबारा जिन्दा हो गये हैं। डॉ. हर्षवर्धन की दमित इच्छा भी मानो अब कुलाँचे मारने लगी है। आम आदमी पार्टी की विरुदावली गाने वाले अब इसका उपसंहार लिखने बैठ गये हैं। यह उन करोड़ों लोगों के लिए निराशा का क्षण है जिन्होंने इस बदलाव की बयार से बहुत उम्मीदें लगा ली थीं। कदाचित्‌ मैं भी उनमें सम्मिलित हूँ।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
www.satyarthmitra.com

14 टिप्‍पणियां:

  1. जवाब मांगने वाली भीड़ के बजाय वे अब जवाब देने वाली कुर्सी पर बैठे है .... सम्भवतः समय लगेगा इसे स्वीकार करने , सधा हुआ विवेचन

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  2. आप ने उपाय तो अच्छे सुझाए हैं, लेकिन इन सभी उपायों से इसका आधा प्रचार भी नहीं मिलता. क्योंकि इनमें से कोई भी लीक से हटकर नहीं है. वैसे भी, यह कोशिश कोई सूरत बदलने की तो है नहीं.

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  3. ईमानदारी या स्‍वच्‍छ प्रशासन का निर्णय तभी सम्‍भव है जब आप कम से कम दस वर्ष तक सत्ता में रहें। लेकिन यहां तो महिना भर ही नहीं हुआ कि आपने सारे ही रंग दिखा दिये। यह अराजकता है, इससे देश को उबरना चाहिए, ऐसा ना हो कि कहीं बहुत देर हो जाए और देश के अराजक तत्‍व एकत्र होकर देश के लिए घातक बन जाएं।
    2-3 फरवरी को लखनऊ में हूं, क्‍या आपसे मिलना हो सकेगा?

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    1. हद है पूरा जीवन बीत जाने के बाद भी जहाँ सार्थकता/उपलब्धि के नाम पर लोग ठनठन गोपाल ही रहते हैं वहाँ यह कहना कि एक माह में सब कुछ दिख गया -हजम नहीं हुआ!

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    2. डॉ साहेब, हमारे मन की बात आप कह गए :)
      औरों के लिए १० साल के एक्सपीरिएन्स के बाद स्वच्छता हासिल की दलील देना और इनके एक महीने के एक्पीरियंस से ही अराजकता का तमगा पहना देना :):)
      बात कुछ अजीब नहीं है :)

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  4. उपहास के लायक ही काम कर रहे अब ..........

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  5. जब हम उमीदें लगाते हैं तो इतनी ऊंची की किसी को भगवान का दर्जा देने लगते हैं ... जब की इन्सान मानवीय दुर्बलताओं के साथ ही रहता है ... फिर ऐसी दुर्बलताएँ जब सामने आती हैं तो हमारा मोहभंग होने लगता है ... हम नेता नहीं भगवान ढूंढते हैं ... जिसके सहारे सब समस्याएं एक ही दिन में आसानी से निपट जाएंगी ... आजादी के बाद भी ऐसा ही हुआ ... जागृत नहीं रहते हम और छले जाने की शिकायत करते हैं ...

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  6. सब अपने अपने आकाश सँवारें, अपेक्षायें यथानुरूप रखें।

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  7. विगत ६५-६७ वर्षों से सत्ता में होकर भी कांग्रेस ईमानदार नहीं हो पायी, और कई वर्षों से बीजेपी विपक्ष में होकर भी कांग्रेस को सबक नहीं सिखा पाई, जब आजादी के इतने वर्षों बाद और इतने चुनावों के बाद भी हम ये तय नहीं कर पाये कि हमारे लिए कौन सही है, तो ये नए लोग जुम्मा-जुमा आठ दिन में क्या करेंगे, वो भी तब जब इनको काम नहीं करने देने की साज़िश की हवा पुरज़ोर है.…

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    1. अगर केजरीवाल का प्रयोग असफल हो गया तो यह देश की युवा पीढ़ी के लिए एक बड़ा आघात होगा। लंबी अवधि की सड़ांध भरी राजनीति के बन्द नाले की सफाई का एक अवसर दिख रहा था जिसके लिए बहुत सतर्क और कुशल कार्य संचालन की आवश्यकता थी, सटीक हथियार और मशीनरी के प्रयोग की आवश्यकता थी, लेकिन केजरीवाल साहब इसके बजाय दूसरे दलों को राजनीति सिखाने के चक्कर में पड़ गये और फिलहाल इन धूर्त दलों की राजनीति का खुद ही शिकार हो गये लगते हैं।

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    2. चलिए कम से कम आपने ये तो माना कि दूसरे दल धूर्त हैं :)
      २८ दिसंबर को केजरीवाल ने कुर्सी सम्हाली है, एक महीने से भी कम समय में फिछले ६५ साल की गन्दगी साफ़ करना आप ही बताईये, क्या आसान है ??
      एक शर्ट भी आप ड्राई क्लीनिंग के लिए देते हैं तो ड्राई क्लीनिंग वाला आपसे एक हफ्ता ले लेता है और आप उससे सवाल भी नहीं करते । केजरीवाल को भी समय दीजिये ।
      जिस भारत की रग-रग में पिछले कई दशकों से भ्रष्टाचार ने अपनी जड़ें फ़ैलाई हुई है, पूरे देश की आर्थिक और नैतिक व्यवस्था चरमरा चुकी है, फिर भी युवा वर्ग आशान्वित हैं.। और आप कहते हैं उनका सम्बल महीने भर में टूट सकता है ??? आप इतने मायूस न हों, न हमारे युवा इतने कमज़ोर हैं न ही 'आप'। रास्ता कठिन है लेकिन यही क्या कम है कि रास्ता भी है और हमराह भी .……

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    3. “ दूसरे दल धूर्त हैं ” कोई शक...?
      लेकिन यह भी सच है कि पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं। :)

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  8. "जिस सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उन्हें आँखों पर बिठाया वही उनका उपहास करने लगी है।"
    लोकसभा चुनाव नजदीक है -मीडिया बिक गयी है ! चैनेलों पर हास्यास्पद और फूहड़ता की हद तक जाकर केजरीवाल का प्रायोजित विरोध मुखर हो रहा है -
    मुझे लग रहा है आप केजरीवाल की बुद्धि और क्षमताओं को हलके में ले रहे हैं -
    आगे आगे देखिये होता है क्या ? कांग्रेस को उसी के जाल में उलझा कर निष्प्राण करने की रणनीति लगती है मुझे!

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