हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

शनिवार, 31 अगस्त 2013

हिंदी की छवि बदलनी होगी

सोशल मीडिया और हिंदी ब्लॉगिंग के विषय पर राष्ट्रीय सेमिनार के लिए अच्छे पैनेल की तलाश करते हुए मैंने बहुत से लोगों तक इस सेमिनार की रूपरेखा पहुँचायी। ट्विट्टर और फेसबुक पर सक्रिय अनेक प्रोफाइलें देख डालीं। एक से बढ़कर एक व्यक्तित्व देखने को मिले। मैंने अपनी ओर से संदेश भेजे। बहुत से लोगों ने रुचि दिखायी। आने का वादा किया। कुछ लोग आना चाहते हुए भी निजी कारणों व अन्यत्र व्यस्तता से आने में असमर्थ थे। उन्होंने खेद के साथ सेमिनार के लिए शुभकामनाएँ व्यक्त कर दी। इसी सिलसिले में ट्विट्टर पर राजनैतिक रूप से सक्रिय दो महिला प्रवक्ताओं के बारे में एक मित्र के माध्यम से पता चला। आभासी पटल पर ही उनसे संपर्क हुआ। यद्यपि वे अंग्रेजी भाषा में लिखती हैं, दक्ष और सहज हैं फिर भी उनकी प्रोफाइल, लोकप्रियता, फॉलोवर्स की संख्या और राजनैतिक विषयों पर उनके ट्वीट्स देखकर मैं प्रभावित हुआ और इस सेमिनार में सोशल मीडिया और राजनीति विषयक सत्र के लिए उन्हें बुलाने का लोभ संवरण नहीं कर सका।

जब मेरे संदेश का जवाब दो दिनों तक नहीं आया तो मैंने फोन मिला दिया। औपचारिक अभिवादन के बाद उन्होंने कहा कि हम इसमें आना तो चाहते थे लेकिन एक झिझक की वजह से आने में संकोच कर रहे हैं। मैंने तफ़सील पूछी तो बोलीं- असल में हमारी हिंदी उतनी अच्छी नहीं है जितनी आप लोगों की है। आपका मेल देखने के बाद हमें लगा कि शायद उस मंच पर हिंदी के बड़े-बड़े साहित्यकार आयेंगे जिनके सामने हम लोग शुद्ध हिंदी में अपनी बात नहीं बोल पाएंगे। दूसरी नेत्री ने भी लगभग यही बात बतायी। कहने लगीं- मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि आप आयोजकों द्वारा हमारे चुनाव में जरूर कोई चूक हुई है। हम ऐसे तो हिंदी में बात-चीत कर लेते हैं लेकिन उतने बड़े मंच पर हिंदी के विद्वानों के बीच बोलना थोड़ा मुश्किल हो जाएगा।

उनकी बातों का जो संक्षिप्त जवाब मैंने दिया और जिससे संतुष्ट होकर उन्होंने अपनी झिझक तोड़ी और आने की संभावना टटोलने  और पूरा प्रयास करने का वादा किया वही सब मैं यहाँ थोड़ा विस्तार से बताना चाहता हूँ ताकि इस बहाने इस सेमिनार के एक बहुत ही महत्वपूर्ण उद्देश्य को समझा जा सके।

आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी देश में हिंदी भाषा के प्रति आम दृष्टिकोण बहुत उत्साह वर्द्धक नहीं कहा जा सकता है। उत्तर भारत के तथाकथित हिंदी प्रदेशों में भी इसका स्थान जो होना चाहिए वह नहीं है। दक्षिण के गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों का तो कहना ही क्या? आज भी हिंदी को साहित्य रचने और स्कूल कॉलेज में एक विषय के रूप में पढ़ने –पढ़ाने वाली भाषा तो माना जाता है लेकिन आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को पढ़ने-समझने और दूसरों को पढ़ाने-समझाने के लिए इस भाषा पर भरोसा करने वाले बहुत कम हैं।

कविता, कहानी, ग़जल और उपन्यास लिखकर पत्र-पत्रिकाओं में छपवाने या पुस्तक प्रकाशित कराने के लिए तो हिंदी का प्रयोग किया जा रहा है लेकिन जब कोई वैज्ञानिक शोध पत्र लिखने की बात होती है या कानूनी, वाणिज्यिक, या आर्थिक मुद्दों पर कोई संदर्भ लेख लिखना होता है तो देश के विद्वान उसे अंग्रेजी में तैयार करते हैं और फिर आवश्यक होने पर उसका अनुवाद हिंदी के किसी विद्वान से कराया जाता है। भाषा के ऐसे विद्वान जिसे  मूल विषय का शायद ही कोई ज्ञान होता है। ये अनुवादक कभी-कभी ऐसा अर्थ का अनर्थ कर देते हैं कि हँसी भी आती है और क्षोभ भी होता है। मैंने एक बार Pearl Harbor का अनुवाद ‘मोती पोताश्रय’ पढ़ा था तो बहुत देर तक इस पोंगा-पंडिताई पर कुढ़ता रहा।  पाश्चात्य लेखकों की लिखी किताबों से तैयार इग्नू (IGNOU) की अनूदित अध्ययन सामग्री कभी पढ़ने को मिले तो इस कष्ट को समझा जा सकता है जहाँ MORE OFTEN THAN NOT को ‘‘नहीं से अधिक बहुधा’’ अनूदित करते हैं।

हमने आज भी हिंदी को एक पवित्रता का चोला पहनाकर उसे दीवार पर टंगी देवी-देवताओं की तस्वीर बना दी है जिसे केवल अगरबत्ती दिखायी जाती है और दूर से सिर झुकाकर अपनी श्रद्धा व्यक्त कर दी जाती है। गनीमत है कि अभी इस तस्वीर पर चन्दन की माला नहीं टांग दी गयी है।

मुझे लगता है कि हिंदी को इस गोबर-गणेश की छवि से बाहर निकालकर एक आधुनिक चिन्तन-मनन और ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाने, जीवनोपयोगी बातों को कहने समझने का माध्यम बनाने और सबसे बढ़कर रोजगार की भाषा बनाने का समय आ गया है। इसके लिए हिंदी के दरवाजे चारो ओर से खोलने होंगे। इसे प्रवचन की व्यास गद्दी  और कवि-सम्मेलन  के मंच से उतारकर भारतवर्ष और अखिल विश्व के आम जनमानस पर जमाना होगा। इसे बाजार में काम करने वालों से लेकर उसे नियंत्रित करने वालों तक सबकी जुबान पर चढ़ाना होगा। पांडित्य प्रदर्शन के बजाय सभी प्रकार के विचारों, तथ्यों, सिद्धान्तों, प्रयोगों, व्यापारों, नौकरियों, साक्षात्कारों, और आचार-व्यवहार में इसके प्रयोग को सहज और सरल बनाने के यत्न करने होंगे। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा की स्थापना अन्य के साथ-साथ कदाचित इस उद्देश्य से भी की गयी थी।

अधकचरी अंग्रेजी में गिट-पिट करने वालों को भी हम आधुनिक और पढ़ा-लिखा मान लेते हैं लेकिन हिंदी बोलने वाले से उम्मीद करते हैं कि वह आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की परम्परा का पोषक हो। रूढ़िवादी हम हिंदी भाषा के व्याकरण और वर्तनी को लेकर इतने आग्रही हो जाते हैं कि इधर कदम बढ़ाने वाला अपना रास्ता मोड़ लेने को बाध्य हो जाय। जब कोई भारी-भारी शब्दों से लदी हुई अबूझ बात कहे, रस छंद अलंकार की कसौटी पर कसी हुई शुद्ध हिंदी का प्रयोग करे तभी उसे विद्वान कहा जाय और उसे सम्मान की माला पहनायी जाय;  और फिर…?  फिर एक ऊँचे मंच पर स्थापित करके अक्षत-फूल से पूज दिया जाय। बस, काम खत्म।

…ऐसी सोच वालों की जकड़बन्दी से हिंदी को छुड़ाये बगैर इसका भला नहीं होने वाला।

मुझे अच्छा लगता है जब फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग स्पेस में बिना कोई साहित्यिक दावा किये तमाम लोग अपने मन की बात हिंदी में कहते हैं। बहुत प्रभावशाली ढंग से कहते हैं। उसपर त्वरित प्रतिक्रियाएँ होती हैं और विचारों का बिन्दास आदान-प्रदान होता रहता है। यहाँ थोड़ी सी तकनीक अपनाकर अभिव्यक्ति का बड़ा सा माध्यम हमारे हाथ आ जाता है। लेकिन जब देखता हूँ कि देश के तमाम युवा अपनी हिंदी बात कहने के लिए रोमन लिपि का प्रयोग करते हैं और इस मजबूरी में अपनी बात असंख्य संक्षेपाक्षरों में और बहुत खंडित तरीके से करते हैं तो दुख होता है। मन में एक कसक उठती है कि काश इन्हें यूनीकोड के बारे में पता होता, लिप्यान्तरण के औंजारों का पता होता तो वे अपनी बात अधिक सहज और सरल तरीके से कह पाते। रोमन में लिखी हुई हिंदी को  प्रवाह के साथ पढ़ना कितना कठिन है…! उस बात का पूरा आनंद भी नहीं मिल पाता।

…तो क्या हमें इस विकलांगता से उबरने के बारे में नहीं सोचना चाहिए?

इंटरनेट  अब कोई दूर-देश की चिड़िया नहीं है। यह अब हमारे घर-आंगन में चहकने वाली जीवन्त गौरैया है। ट्विटर का नाम शायद यही सोचकर पड़ा होगा। हिंदी ब्लॉग्स की संख्या पिछले दशक में जिस तेजी से बढ़ी उसपर फेसबुक और ट्विटर की तेजी ने थोड़ा ब्रेक लगा दिया। इसका कारण मूलतः तकनीकी है। इनके फॉर्मैट को देखिए। हम पलक झपकते ट्वीट कर लेते हैं और राह चलते फेसबुक पर स्टेटस लिखकर डाल देते हैं। लेकिन ब्लॉग पोस्ट लिखने के लिए थोड़ा समय तो देना ही पड़ता है। यहाँ हिंदी में पोस्ट लिखने के लिए यूनीकोड-देवनागरी जरूरी हो जाती है जबकि वे दोनो ‘छुटके’ (micro-blogging) रोमन में ही निपटाये चले जा रहे हैं। शार्टकट का जो सुभीता इन ‘छुटकों’ के यहाँ है वह ब्लॉग में नहीं। लेकिन कुछ स्थायी किस्म का सहेजकर रखने लायक उपयोगी और जानकारी पूर्ण आलेख लिखना हो तो फेसबुक/ ट्विटर का मंच टें बोल जाता है। यहाँ तो चाय-बैठकी वाली बतकही ही चल पाती है। फास्ट-फूड टाइप है जी यह; निस्संदेह इसका अलग मजा है। यह तकनीक और प्रारूप का अंतर है कि एक है जो एक दिन में कई बार हुआ जाता है तो दूसरा है जो कई दिन में एक बार हो पाता है।

सोशल मीडिया और हिंदी ब्लॉगिंग पर राष्ट्रीय सेमिनार कराने का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य यही है कि हिंदी के प्रयोग को अधिक से अधिक बढ़ावा मिले। देवनागरी में लिखने की तकनीक सहज, सरल और सर्वसुलभ हो। इन माध्यमों का प्रयोग जो लोग धड़ल्ले से कर रहे हैं वे इसे हिंदी में आसानी से कर सकें। साथ ही इन माध्यमों ने हमारे  सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में कैसा हस्तक्षेप किया है और पारंपरिक साहित्यिक  मानकों की कसौटी पर हम कहाँ ठहरते हैं; इन प्रश्नों पर विचार करने  और बड़ी बहस कराने की तैयारी की गयी है।

आज भी भारत में जिस एक भाषा को बोलना और पढ़ना-लिखना सबसे बड़ी संख्या में लोग जानते हैं वह हिंदी ही है। फिर भी हमें इंटरनेट पर अंग्रेजी और रोमन लिपि अधिक दिख रही है तो इसका एक कारण हमारा तकनीकी रूप से पिछड़ा होना है और दूसरा कारण हिंदी भाषा के प्रति हमारा रुढ़्वादी दृष्टिकोण है। इन दोनो कारणों को इतिहास की वस्तु बनाने में इस सेमिनार ने यदि थोड़ा भी योगदान किया तो यह हमारी सफलता होगी। इसीलिए हम आह्वान करते हैं उन सबका जिन्हें हिन्दी से प्यार है, हिन्दुस्तान से प्यार है और जो इन दोनो को गौरवशाली बनाने के लिए कुछ करना चाहते हैं। इंटरनेट पर हिंदी से जुड़िये और हिंदी का प्रयोग कीजिए। एक बार हिंदी से जुड़ जाने के बाद उसे अनगढ़ से सुगढ़ बनते देर नहीं लगेगी, ऐसा हमारा विश्वास है।

आपका क्या ख्याल है? हमें जरूर बताइएगा।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)     

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

अब कौन पढ़ाए…?

कोषागार में एक महत्वपूर्ण काम होता है सरकारी सेवा से रिटायर होने वाले कर्मचारियों, अधिकारियों और शिक्षकों इत्यादि को पेंशन का भुगतान करना। जब पहली बार पेंशन की शुरुआत होती है तो इसके लिए संबंधित पेंशनर को स्वयं कोषाधिकारी के समक्ष उपस्थित होना पड़ता है। कोषाधिकारी को पेंशन संबंधी अभिलेखों में दी गयी सूचना और फोटो इत्यादि का सत्यापन उस व्यक्ति से पूछताछ करके करना होता है जो उसकी पहचान से संतुष्ट होने के बाद पेंशन भुगतान करने के आदेश पर हस्ताक्षर करता है। इसके बाद प्रत्येक माह की पहली तारीख को उसकी पेंशन उसके बैंक खाते में ई-पेमेंट की प्रक्रिया से भेज दी जाती है। साल में केवल एक बार नवंबर-दिसंबर में उसे अपने ‘जीवित होने का प्रमाणपत्र’ देने के लिए कोषागार या बैंक में उपस्थित होना पड़ता है। जिस पेंशनर की मृत्यु हो जाती है उसकी सूचना लेकर उसकी पत्‍नी या पति (यदि जीवित हैं) को उपस्थित होना होता है जिनकी पहचान से संतुष्ट होने के बाद उन्हें पारिवारिक पेंशन का भुगतान प्रारंभ हो जाता है।

लगातार एक ही काम करते हुए यह सब इतना यंत्रवत होता रहता है कि मुझे इस काम में बोर हो जाना चाहिए। लेकिन मैं इसमें कभी बोर नहीं होता। कारण यह है कि इस काम को मैं एक विशिष्ट अवसर के रूप में प्रयोग करता हूँ। साठ साल की उम्र में जो लोग मेरे पास आते हैं उनके पास सरकारी काम करने का एक लंबा अनुभव होता है और उनके पास इस जीवन के बारे में अपने-अपने निष्कर्ष होते हैं। पारिवारिक पेंशन के लिए जो वयोवृद्ध महिलाएँ आती हैं उन सबकी आँखों में एक अलग कहानी झाँकती रहती है। कुछेक पुरुष जो अपनी नौकरीशुदा पत्‍नी की मृत्यु के बाद पारिवारिक पेंशन लेने आते हैं उनकी कहानी तो और भी उत्सुकता जगाती है। समय की उपलब्धता और उनकी प्राइवेसी की मर्यादा की रक्षा करते हुए मुझे उनसे बात-चीत करके जो कुछ जानने-समझने का अवसर मिलता है उसे मैं इस नौकरी की बहुत विशिष्ट उपलब्धि मानता हूँ। इन बुजुर्गों से दोस्ती करके एक अलग आनन्द आता है।

आप जानते ही होंगे कि शिक्षकों की सेवानिवृत्ति एक खास नियम के कारण प्रायः जून महीने की समाप्ति पर होती है। शिक्षा सत्र के बीच में चाहे जब भी उनकी सेवानिवृत्ति की आयु पूरी हो जाय उन्हें सत्र के अंत तक अपने विद्यार्थियों को पूरा कोर्स पढ़ाने के बाद सेवा से निवृत्त किया जाता है। इसे “सत्रान्त लाभ” कहते हैं। तो आजकल कोषागार में गुरूजी लोगों की आमद ज्यादा हो गयी है। जून में सेवानिवृत्त होने के बाद उनकी पेंशन का प्राधिकार पत्र सक्षम स्वीकर्ता अधिकारियों द्वारा कोषागार में भेजा जा रहा है और वे अपनी पहचान/ सत्यापन की औपचारिकता पूरी कराने कोषागार में आ रहे हैं।

पहचान के सत्यापन सम्बंधी कुछ वैधानिक प्रश्न पूछने के बाद मैं कुछ अनौपचारिक चर्चा उनके विद्यालय की दशा और दिशा के बारे में भी कर लेता हूँ। education crisisजैसे- आपके विद्यालय में किन-किन विषयों की पढ़ाई होती है। उन विषयों के अध्यापक उपलब्ध हैं कि नहीं? जो लोग रिटायर हो जा रहे हैं उनके स्थान पर नयी भर्तियाँ हो रही हैं कि नहीं? क्या बच्चे रेग्युलर कक्षाओं में पढ़ाई करने आते हैं? परीक्षाओं में नकल पर रोक लग पाती है कि नहीं? कितने प्रतिशत बच्चों में विषय का ज्ञान अर्जित करने की ललक होती है? ऐसे बच्चों को गुरुजन कितना संतुष्ट कर पाते हैं। पहले से अब की शिक्षा व्यवस्था में क्या परिवर्तन आये हैं? बच्चों को अपने स्कूल की कक्षा की पढ़ाई से काम चल जाता है या उन्हें प्राइवेट ट्यूशन करना पड़ता है? आदि-आदि।

इन प्रश्नों का जो उत्तर टुकड़ों-टुकड़ों में मिलता है उसे अपने अनुभवों की गोंद से जोड़ता हूँ तो एक ऐसी तस्वीर उभरती है जिसे देखकर कलेजा बैठ जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों व छोटे-छोटे कस्बों में पसरे इन विद्यालयों में कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाय तो पठन पाठन की दुरवस्था देखकर मन में घोर निराशा पाँव पसारने लगती है। जिनके ऊपर इस दिशा में कुछ कदम उठाने की जिम्मेदारी है उनकी चाल-ढाल देखकर मन में एक डर सा बैठ जाता है – इस समाज की नयी पीढ़ी का भविष्य कैसा होगा?

इस तस्वीर की कुछ बानगी देखिए-

  • स्कूलों में जितने बच्चों का नाम लिखा होता है उसके चौथाई बच्चे ही नियमित स्कूल आकर कक्षाओं में पढ़ने बैठते हैं। इन बच्चों को पढ़ाने के लिए आवश्यक जितने शिक्षकों का मानक निर्धारित है उनसे चौथाई संख्या में ही वास्तव में कक्षा में जाकर पढ़ाते है। इसका कारण लगातार बढ़ती रिक्तियों व शिक्षक समुदाय पर प्रशासनिक नियन्त्रण की कमी से लेकर शिक्षक संघ की राजनीति तक बहुत कुछ है। अब यह अनुमान लगाना कठिन है कि बच्चे कम आते हैं इसलिए शिक्षक कम पढ़ाते हैं या शिक्षक कम पढ़ाते हैं इसलिए बच्चे कम आते हैं।
  • सेवानिवृत्ति के फलस्वरूप जो पद  रिक्त हो जाते हैं उन पदों को समय से भरे जाने की कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं है। निजी प्रबंधतंत्र वाले विद्यालय शिक्षकों के वेतन के लिए  जब सरकारी अनुदान पाने लगते हैं तब स्टाफ की नियुक्ति का अधिकार सरकारी नियन्त्रण में चला जाता है। सरकार द्वारा शिक्षकों की भर्ती के लिए जो चयन-बोर्ड गठित किया गया वह पिछले दो-तीन सालों से कोई चयन की प्रक्रिया पूरी नहीं कर सका है। भ्रष्टाचार और अयोग्यता के दलदल में फँसकर यह प्रक्रिया लगभग दम तोड़ चुकी है। तीन साल पहले जब इस बोर्ड के माध्यम से शिक्षकों का चयन होता भी था तब कोई भी अभ्यर्थी अपनी योग्यता और मेरिट के भरोसे सफल होने की कल्पना नहीं कर पाता था। आवेदन डालने के साथ ही किसी जुगाड़ के फेर में पड़ जाता था। पक्षपात और धाँधली की शिकायतें बढ़ी और असफल अभ्यर्थी कोर्ट जाने लगे। कोर्ट-केस इतने बढ़ गये कि अब नयी भर्ती की प्रक्रिया लगभग बन्द ही हो गयी है।
  • जो अभ्यर्थी येन-केन प्रकार से सफल होकर इन विद्यालयों में पहुँचे उन्हें निजी प्रबन्ध तन्त्र ने अपनी शर्तों पर ज्वाइन कराया; या नहीं ज्वाइन करने दिया। एक शिक्षक ने तो बड़े गर्व से कहा कि मेरे विद्यालय में करीब आधा दर्जन लोग चयन बोर्ड से परवाना लेकर आये लेकिन मेरे मैनेजर साहब इतने मजबूत हैं कि किसी को ज्वाइन नहीं करने दिया। मैंने पूछा- तो फिर पढ़ाता कौन है वहाँ? वे बोले- सब व्यवस्था हो जाती है साहब। मैनेजर साहब ने बहुत लोगों को ‘ऐडहाक’ पर रख लिया है। आज नहीं तो कल वे रेगुलर हो ही जाएंगे। उनके विश्वास को देखकर मुझे वह बहस याद आ गयी जो मैंने अपनी  ट्रेनिंग के दौरान एक माननीय न्यायमूर्ति के साथ कर ली थी-
  • अज्ञानतावश तगड़े आत्मविश्वास का शिकार होकर मैंने हाईकोर्ट के पूर्व अधिवक्ता और तत्कालीन न्यायमूर्ति का लेक्चर सुनते हुए उनसे एक ऐसा तकलीफ़देह प्रश्न पूछ लिया था जिससे अवमानना का दोषी भी होने का खतरा उत्पन्न हो गया था। यह कि किसी निजी प्रबन्धतंत्र द्वारा भ्रष्टाचारी तरीका अपनाकर अनियमित रूप से किसी भाई-भतीजे को शिक्षक के रूप में नियुक्त कर लिया जाता है जिसका अनुमोदन सरकारी अधिकारी द्वारा नहीं किया जा सकता है। लेकिन वह जानबूझकर उसकी नियुक्ति रद्द करने का एक ऐसा आदेश पारित कर देता है  जिसमें पूरा प्रकरण युक्तियुक्त तरीके से उद्धरित नहीं होता है। उस आदेश को प्रबंधतंत्र कोर्ट में चुनौती देता है और माननीय न्यायमूर्तिगण आसानी से अन्तरिम स्थगनादेश (स्टे ऑर्डर) जारी कर देते हैं। कोर्ट का आदेश भले अस्थायी स्थगन का हो लेकिन उसका स्थायी लाभ उन गलत व्यक्तियों को मिल जाता है। मेरा प्रश्न था कि क्या कोर्ट के पास इस गलत कार्य में खुद एक सहयोगी पक्ष (पार्टी) बन जाने से बचने का कोई सूत्र नहीं है? मुझे कोई संतोषजनक उत्तर न तब मिला था न अबतक मिल पाया है। कोर्ट के स्टे के सहारे बहुत से लोग अपने गलत रास्ते पर आगे बढ़ने में सफल हो जाते हैं। अलबत्ता उनकी इस सफलता में कार्यपालिका के जिम्मेदार अधिकारी बड़े सहयोगी की भूमिका निभाते हैं।
  • यह स्थिति तो अशासकीय सहायता प्राप्त माध्यमिक विद्यालयों की थी। प्राथमिक शिक्षा विभाग में शिक्षकों की स्थिति और भयावह है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम आ जाने के बाद प्राथमिक शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया लेकिन वास्तविकता के धरातल पर उस अधिकार को जिस प्रकार उपलब्ध कराया जा रहा है वह किसी से छिपा नहीं है। शिक्षकों के जितने पद मानक के अनुसार जरूरी हैं उनमें आधे रिक्त हैं। इनकी भर्ती की प्रक्रिया तीन-चार साल से अटकी पड़ी है।  इसके पीछे भी प्रशासनिक अयोग्यता और भ्रष्टाचार का खेल काम कर रहा है। हम लाखों की संख्या में उपलब्ध योग्यताधारी अभ्यर्थियों में से जरूरी संख्या में प्राथमिक शिक्षकों का चयन कर पाने में असमर्थ हैं। आज स्थिति यह है कि प्रशासनिक अधिकारी नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू करने में घबरा रहे हैं। हाथ खड़े कर देते हैं। जैसे किसी आफ़त को दावत दे रहे हों। काम हो चाहे न हो लेकिन जिसने नियुक्ति का काम हाथ में लिया उसका फँसना तय है। आखिर हमने ऐसी भयावह स्थिति क्यों बन जाने दी है? कौन जिम्मेदार है इसके लिए?
  • राजकीय हाई-स्कूल व इंटर कॉलेजों में भी शिक्षक भर्ती की कमोबेश यही दशा है। राज्य लोक सेवा आयोग में जो उहापोह और अनिर्णय की स्थिति है वह हाल की घटनाओं के बाद सभी जान गये हैं। पूरा डेलिवरी सिस्टम चरमरा गया लगता है।
  • एक संस्कृत महाविद्यालय के सेवानिवृत्त शिक्षक ने तो ऐसी बात बतायी कि मैं सन्न रह गया। बता रहे थे कि वे अपने महाविद्यालय के अंतिम बचे हुए शिक्षक थे जो अब सेवानिवृत्त हो गये हैं। अब वहाँ एक भी शिक्षक नहीं है और प्रबंधतंत्र बहुत खुश है कि अब उसे संस्कृत महाविद्यालय बन्द करके उसके विशाल प्रांगण में निजी पब्लिक स्कूल चलाने की पूरी स्वतंत्रता मिल गयी है। यह व्यवसाय आजकल बहुत लाभकारी हो गया है क्योंकि कोई भी जागरूक गार्जियन अपने बच्चों को सरकारी प्राइमरी स्कूल में भरसक नहीं भेजना चाहता। संस्कृत पाठशालाओं व महाविद्यालयों को सरकारी अनुदान पर चलाने के लिए पिछले जमाने की सरकारों ने जब फैसला किया तब यह नहीं सोचा कि इन शिक्षकों की निरन्तरता कैसी बनायी जाएगी। जो पद खाली हो रहे हैं वे समाप्त होते जा रहे हैं और शनैः शनैः ये सभी विद्यालय भी काल के गाल में समा जाएंगे। जो विद्यालय चल भी रहे हैं उनके पठन-पाठन का स्तर देखकर लगता है कि वे यदि सुधर नहीं सकते तो उनका समाप्त हो जाना ही बेहतर है।
  • एक बार मुझे एक जिले में इन संस्कृत विद्यालयों के निरीक्षण का दायित्व मिला। इनकी दुर्दशा और गुरुजनों की अकर्मण्यता के बारे में जब मैंने खरी-खरी रिपोर्ट बनानी शुरू की तो मुझे समझाया गया कि आप लोग उर्दू मदरसों पर तो ऐसी कड़ाई नहीं करते। वहाँ भी तो किसी विषय की वस्तुनिष्ठ पढ़ाई नहीं होती। वहाँ भी तो नकल कराकर बच्चों को पास कराया जाता है। वहाँ भी तो मुफ़्त में सरकारी अनुदान की बन्दरबाँट होती है। वहाँ तो किसी की हिम्मत नहीं है जो जाँच कर ले। मैंने जब अपने काम से काम रखने पर बल दिया तो मेरे खिलाफ़ एक आन्दोलन सा खड़ा हो गया और उच्च अधिकारियों ने ‘समझदारी से’ बीच-बचाव करके मुझे उस काम से अलग कर दिया।

इन सारी दुर्व्यवस्थाओं के बीच एक आशा की किरण दिखती है तो वह सरकारी तंत्र से अलग निजी क्षेत्र में काम कर रहे कुछेक ऐसे शिक्षण संस्थानों में दिखती है जिन्होंने गुणवत्ता बनाये रखने के तमाम जतन कर रखे हैं। लेकिन उनके ऊँचे तोरण द्वारों के भीतर जाने का सुभीता कितने बच्चों के पास है?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)     

बुधवार, 14 अगस्त 2013

सेमिनार फ़िजूल है: विनीत कुमार

ब्‍लॉगरों को सेमिनार करने की जरूरत क्या है?

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा ने जब पहली बार हिंदी ब्लॉगिंग को लेकर एक राष्ट्रीय सेमिनार “चिठ्ठाकारी की दुनिया” इलाहाबाद में कराया तो इसे अपनी तरह का पहला कार्यक्रम माना गया। इसे एक मील का पत्थर मानने वालों में दिल्ली के विनीत कुमार भी थे जिन्होंने न सिर्फ़ इसमें प्रतिभाग करते हुए खुलकर अपनी बात रखी थी बल्कि अपनी रिपोर्टों द्वारा इसे इंटरनेट पर खूब प्रचारित भी किया था। मीडिया विषयों पर विशद लेखन करने वाले विनीत आजकल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी पैनेलिस्ट के रूप में दिख जाते हैं। उनकी हुंकार तो आप ब्लॉगरी करते हुए पढ़ते ही होंगे।

अनूप शुक्ल ने इलाहाबाद से लौटकर जो पोस्ट लिखी थी उसमें विनीत की चर्चा इस प्रकार थी-

इस संगोष्ठी में विनीत कुमार से मिलने का मौका मिला। विनीत का काम के प्रति अद्भुत समर्पण देखकर मन खुश हो गया। विनीत ने अपने ब्लाग पर अपनी झांसे वाली फोटो लगा रखी है। सामने से देखने में वो कहीं बेहतर दिखते हैं। ब्लाग वाली उड़ी-उड़ी फ़ोटो बनवाने के लिये बहुत मेहनत करनी पड़ी होगी उनको। अगर किसी को इलाहाबाद में क्या हुआ वह बिना नमक मिर्च के जानना हो तो विनीत की ये और ये वाली पोस्ट देखे।

विनीत कुमारमैंने आगामी सेमिनार के लिए जब उनसे चर्चा की तो पहले उन्होंने व्यस्तता के बहाने टालना चाहा; लेकिन जब मैंने सप्ताहान्त में एक-दो दिन का समय निकालने की संभावना की ओर इशारा किया तो वे असलियत पर आ गये। बोले- सर, सही बात यह है कि मैं इस प्रकार के ब्लॉगर सम्मेलन के सख़्त खिलाफ हूँ। यह पैसे की फ़िजूलखर्ची तो है ही इससे कोई लाभ भी नहीं होता। मैं समझता हूँ कि वर्चुअल दुनिया में लिखने-पढ़ने वाले भौतिक रूप से एक-दूसरे को न मिलें तो ही अच्छा है।

मैंने टोका- विनीत जी, आपकी बात अपनी जगह सही हो सकती है। लेकिन आपको यह कैसे लगा कि वर्धा में जो होना प्रस्तावित है वह ब्लॉगर “सम्मेलन” है? मेरे ख़्याल से “सम्मेलन” और “सेमिनार (विचारगोष्ठी)” में अन्तर है। यहाँ तो हिंदी ब्लॉगिंग और सोशल मीडिया से जुड़े कुछ मुद्दों पर विचार-मंथन होना है। यह कोई चाय-पार्टी या प्रीतिभोज नहीं है जिसमें ब्लॉग लिखने वाले सभी ऐरे-गैरे को बुलाकर इन्ज्वॉय कराना है। अलबत्ता जिस विषय को केन्द्र में रखा गया है उसके बारे में अच्छी जानकारी रखने वाले लोग अन्य तमाम पेशों से जुड़े होने के साथ-साथ ब्लॉगर भी हैं इसलिए ऐसा महसूस हो सकता है कि यह केवल ब्लॉगरों का जुटान है।

-नहीं सर, मैं तो यह कह रहा हूँ कि जो भी बहस की जानी है वह वर्चुअल स्पेस में ही आसानी से हो सकती है और होती ही रहती है। इसके लिए अलग से सेमिनार कराने की क्या जरूरत है। मेरा विरोध तो इस बात से है।

-जरूरत उनके लिए हैं जो इस वर्चुअल स्पेस (आभासी दुनिया) का प्रयोग करने में आपकी तरह सिद्धहस्त नहीं हैं। बहुत से पढ़े-लिखे लोग इसमें अच्छा कर सकते हैं लेकिन उन्हें कोई सूत्र नहीं मिल रहा है। आपने जब ब्लॉगरी शुरू की होगी (2007) उस समय बहुत कम लोग हिंदी में ब्लॉग लिख रहे थे। लगभग सभी एक दूसरे को जान जाते थे और एक दूसरे के ब्लॉग का लिंक अपने ब्लॉग पर रखते थे। नये लोगों को ब्लॉगवाणी और चिठ्ठाजगत जैसे ब्लॉग एग्रीगेटर्स के सहारे दूसरे ब्लॉगर्स तक पहुँचने का रास्ता मिल जाता था। इनके बन्द हो जाने के बाद अब सबकुछ इतना आसान नहीं रहा। संभव है आज बहुत से नये ब्लॉगर्स हमसे-आपसे बहुत अच्छा लिख रहे हों या लिख सकते हों; लेकिन उनके बारे में हम जान ही नहीं पाते हैं। दूसरी ओर फेसबुक और ट्विटर की तेज रफ़्तार दुनिया में मची भागमभाग ने भी हिंदी ब्लॉगिंग को पीछे कर दिया है। हमें तो यह सोचना है कि इस तेजधारा के बीच खड़ी हिंदी ब्लॉगिंग जमी रह सकने की स्थिति में है या इस बाढ़ में बह जाएगी।

-सर, तो इसे आप कैसे रोक पाएंगे? फेसबुक पर जो सुविधाएँ है या ट्विटर में जो आकर्षण है वह ब्लॉग में कैसे पैदा कर पाएंगे? इसे तो इनके हाल पर ही छोड़ देना होगा। कोई यह सोच भी कैसे सकता है कि इंटरनेट प्रयोग करने वालों की पसन्द बदली जा सकती है? या उनके ऊपर कोई अनुशासन थोपा जा सकता है?

-नहीं-नहीं, मैं या कोई भी ऐसा नहीं सोच सकता। मैं तो यह कहना चाह रहा हूँ कि ब्लॉग, फेसबुक और ट्विटर का डोमेन बिल्कुल अलग-अलग है। आप बताइए, किसी फेसबुक स्टेटस की सक्रिय आयु कितनी होती है या एक ट्वीट कितने मिनट तक ताजा रहता है? दो-चार मिनट से लेकर अधिकतम चौबीस घंटे तक ही न! आप कितनी बार अपने पुराने स्टेटस या ट्वीट को देखना चाहते हैं? दूसरे लोग कितनी रुचि रखते हैं इसमें? इसमें कितना कुछ सहेज कर रखने लायक होता है? एक अखबार की तरह यह एक बार पढ़ लिये जाने के बाद रद्दी नहीं बन जाता? लेकिन ब्लॉग का स्वरूप तो इससे अलग है। इसका आर्काइव कभी भी निराश नहीं करता। इसमें वह बदहवास भागमभाग नहीं है। फास्ट-फूड कल्चर का जो प्रभाव फेसबुक और ट्विटर में दिखता है वह ब्लॉग पर नहीं है। ये तीनो एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी नहीं हैं बल्कि इस आभासी दुनिया में इन तीनों के एक दूसरे के समानान्तर चलने भर का स्पेस मौजूद है।

-यह बात तो ठीक है। सहमत हूँ इससे। आपको मैं कुछ साल पहले ज्ञानोदय में छपा अपना एक लंबा आलेख भेजूंगा जिसमें मैंने हिंदी ब्लॉगिंग के प्रति लोगों के बदलते नज़रिए के बारे में लिखा था। पारंपरिक रूप से हिंदी भाषा और साहित्य को अपनी मिल्कियत समझने वाले तथाकथित कालजयी साहित्यकार और समालोचक जब इस नये माध्यम को मार्गदर्शन देने की मुद्रा बनाते हैं तो मुझे बहुत खराब लगता है। कल तक जो इसे कूड़ा-कचरा कहते रहते थे वे आज खुद ही यहाँ आने और चर्चित होने की जुगत भिड़ा रहे हैं। सबने अपने पेज बना लिए हैं और यहाँ सक्रियता दिखा रहे हैं। मैं इस लिए किसी साहित्यिक संस्था द्वारा इस माध्यम को हाईजैक करने का विरोधी हूँ।

-तो भाई मेरे, जब आप जैसे लोग अपनी बात रखने के बजाय ऐसे मौकों से किनारा करते रहेंगे तो उस जगह को भरने के लिए कोई तो आएगा। मैं तो चाहता हूँ कि आप अपने रैडिकल विचार यहाँ रखें और एक गंभीर बहस की शुरुआत हो। एक दूसरा पहलू यह भी है कि हिंदी भाषा-भाषी बहुत से लोग जो कंप्यूटर और इंटरनेट के संपर्क में हैं और फेसबुक/ ट्विटर पर बाइट बढ़ा रहे हैं वे रोमन में ही हिन्दी बातें ठेले जा रहे हैं। देवनागरी लिपि का प्रयोग करने के लिए यूनीकोड की जानकारी नहीं है। लिप्यान्तरण के औंजार प्रयोग करना नहीं जानते। इसलिए फेसबुक की कामचलाऊ स्टेटस तो लिख लेते हैं लेकिन ब्लॉग शुरू ही नहीं कर पाते। क्या आपको नहीं लगता कि इन्टरनेट पर देवनागरी का प्रयोग सहज और सरल रूप में प्रचलित करने के लिए हमें प्रयास करना चाहिए। क्या इसके लिए वर्कशॉप करना फिजूल है?

-नहीं सर, यह तो जरूरी ही है। लेकिन…

-लेकिन क्या? हिन्दी में ब्लॉग लिखने और बड़े पाठक वर्ग तक पहुँचने में कठिनाई सिर्फ़ फेसबुक और ट्विटर के कारण तो आयी नहीं है! यूनीकोड के मसले के अलावा इसे सर्च इंजन के अनुकूल बनाने, अपनी सामग्री को सही तरीके से टैग करने तथा अपने ब्लॉग की विषय वस्तु को सुव्यवस्थित तरीके से वर्गीकृत करने का शऊर कितने लोगों को आता है?  इसके लिए एक अदद सक्षम एग्रीगेटर यदि नहीं है तो उसे खोजने की कोशिश तो करनी पड़ेगी न! यह हिन्दी ब्लॉग का दुर्भाग्य है कि इसे कोई जुकरबर्ग नहीं मिला। जिन लोगों ने निजी जुनून से कुछ प्रयास किया उनको अंततः आर्थिक मोर्चे पर निराशा मिली और गाड़ी पटरी से उतरती दिखती है। आज यदि कोई संस्था इस कमी को पूरा करने की संभावना दिखाती है तो उसे क्यों मिस किया जाय। क्या हिंदी ब्लॉगरी का इतिहास लिख कर इसे मटिया दिया जाय? अथवा इसके जो लाभ हैं और जिसके बारे में आपने भी बहुत कुछ लिखा है उसे और अधिक विस्तार देने के बारे में सोचा जाय?

हाँ-हाँ, यह तो बहुत अच्छा है। यदि वर्धा वाले एक एग्रीगेटर की कमी पूरी कर दें तो बहुत अच्छा होगा। लेकिन सर मैं आपके इस स्नेह के लिए और आपने जो मान मुझे दिया उसके लिए धन्यवाद देते हुए भी इतना कहना चाहूंगा कि मेरी पूरी सक्रियता इस माध्यम के लिए रहेगी लेकिन मैं अपने को वर्चुअल स्पेस तक ही सीमित रखना चाहता हूँ। मैं किसी भी प्रकार से ऐसे आयोजन में पहुँचकर प्रतिभाग नहीं कर सकता। बाकी जो भी विषय सामग्री आपको चाहिए मैं आपको मेल कर दूंगा। आप उसे सेमिनार में जैसे चाहें प्रयोग करें।

विनीत ने वादे के मुताबिक जो आलेख (ब्लॉगिंग जो हिन्दी विभाग की पैदाईश नहीं है) भेजा उसकी शुरुआती पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

“ब्लॉग के बहाने पहले तो वर्चुअल स्पेस में और अब प्रिंट माध्यमों में एक ऐसी हिंदी तेजी से पैर पसार रही है जो कि देश के किसी भी हिंदी विभाग की कोख की पैदाइश नहीं है। पैदाइशी तौर पर हिंदी विभाग से अलग इस हिंदी में एक खास किस्म का बेहयापन है, जो पाठकों के बीच आने से पहले न तो नामवर आलोचकों से वैरीफिकेशन की परवाह करती है और न ही वाक्य विन्यास में सिद्धस्थ शब्दों की कीमियागिरी करनेवाले लोगों से अपनी तारीफ में कुछ लिखवाना चाहती है। पूरी की पूरी एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो रही है जो निर्देशों और नसीहतों से मुक्त होकर हिंदी में कुछ लिख रही है। इतनी बड़ी दुनिया के कबाड़खाने से जिसके हाथ अनुभव का जो टुकड़ा जिस हाल में लग गया, वह उसी को लेकर लिखना शुरू कर देता है। इस हिंदी को लिखने के पीछे का सीधा-सा फार्मूला है जो बात जैसे दिल-दिमाग के रास्ते कीबोर्ड पर उतर आये उसे टाइप कर डालो, भाषा तो पीछे से टहलती हुई अपने-आप चली आएगी।”

इस वार्ता के बाद मेरा विश्वास और पक्का हुआ है कि वर्धा में एक जोरदार विचार मंथन और कुछ ठोस फैसले लेने का औचित्य बनता है। आपका क्या ख़्याल है?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

गुरुवार, 8 अगस्त 2013

खुद करके देखो...

[मेरे मेलबॉक्स में एक मित्र का भेजा एक सामूहिक मेल मिला। अंग्रेजी में। इसके अन्त में यह अपील थी कि इसे अधिक से अधिक लोगों तक फॉरवर्ड कीजिए। यह अपील यदि प्रारंभ में होती तो शायद मैंने बिना पढ़े ही इसे मिटा दिया होता। लेकिन पूरी कहानी पढ़ने के बाद स्थिति दूसरी हो गयी। मैंने इसे हिंदी में प्रसारित करने का निर्णय लिया। इसका मूल संदेश तो मेरे मन में बहुत पहले से बैठा हुआ था जिसे लेकर कई बार अपने घर में चर्चा कर चुका हूँ। लेकिन आज इसे बहुत सुन्दर तरीके से समझाता हुआ यह संदेश मिला तो मेरी पौ-बारह हो गयी। इसे देखिए फिर बताइए आप क्या सोचते है।]

यह कहानी भीतर तक कुरेदती है।

एक नौजवान ने एक बड़ी कंपनी में मैनेजर की पोस्ट के लिए आवेदन किया। प्रारंभिक चरण के साक्षात्कार में सफल होने के बाद अब उसे कंपनी के निदेशक से मिलना था – फाइनल इंटरव्यू के लिए।

निदेशक ने उसके आत्मवृत्त (सी.वी.) से जान लिया कि उसकी शैक्षणिक उपलब्धियाँ उत्कृष्ट कोटि की हैं। उसने पूछा- “क्या तुम्हें स्कूल में कोई छात्रवृत्ति मिलती थी?” नौजवान ने जवाब दिया- “नहीं”

“तो क्या तुम्हारी स्कूल फीस तुम्हारे पिताजी ने दी ?”

“मेरे पिताजी की मृत्यु बहुत पहले हो गयी थी, जब मैं मात्र एक वर्ष का था। ...मेरी फीस तो मेरी माँ देती है।” उसने जवाब दिया।

“तुम्हारी माँ कहाँ काम करती है?”

“मेरी माँ कपड़े धुलती है।”

निदेशक ने उससे अपने हाथ दिखाने को कहा। नौजवान ने अपने हाथ दिखाये जो बहुत कोमल और सुन्दर थे। बिल्कुल तराशे हुए दिखते थे।

“क्या तुमने कभी अपनी माँ के साथ कपड़े धोए हैं? कभी उनकी मदद की है?”

“कभी नहीं, मेरी माँ हमेशा चाहती थी कि मैं पढ़ाई करूँ, अधिक से अधिक किताबें पढ़ूँ। इसके अलावा मेरी माँ कपड़े बहुत जल्दी-जल्दी धो लेती है। मुझसे कहीं ज्यादा तेजी से।”

निदेशक ने कहा, “मेरा एक अनुरोध है। जब तुम आज घर जाना तो अपनी माँ के हाथ देखना और उन्हें खूब अच्छी तरह धोना। उसके बाद कल सुबह मुझसे मिलना।”

नौजवान को लगा कि अब उसे नौकरी शायद मिल ही जाएगी। घर लौटकर उसने अपनी माँ से कहा कि वह उसके हाथ धोना चाहता है। माँ को यह अजीब लगा। वह खुश तो थी लेकिन मन में मिश्रित भाव लिए उसने अपना हाथ बेटे के आगे कर दिया।

effort and experienceयुवक ने अपनी माँ का हाथ धीरे-धीरे धोना शुरू किया ...और उसकी आँखों ने रोना...। यह पहली बार था जब उसने देखा कि माँ के हाथों में कितनी झुर्रियाँ है और कितने घाव के निशान हैं। कुछ घाव तो इतने दर्द से भरे हुए थे कि जब वह छू रहा था तो माँ के मुँह से सिसकी निकल जाती। एक दबायी हुई कराह...।

यह पहली बार था जब उसे भान हुआ कि इन्ही चोटिल हाथों से उसकी माँ रोज कपड़े धोती है ताकि उसकी पढ़ाई के लिए फीस जमा कर सके। उसकी पढ़ाई के लिए, उसके स्कूल की दूसरी गतिविधियों के लिए और उसका भविष्य सँवारने के लिए उसकी माँ को जो कीमत चुकानी पड़ती थी वे उसके हाथों में रिसते घावो की पीड़ा ही थी।

माँ के हाथ धोने के बाद उस नौजवान ने चुपचाप वो सारे कपड़े धो डाले जो उसकी माँ को धोने थे।

उस रात माँ-बेटे बहुत देर तक आपस में बात करते रहे।

अगली सुबह वह निदेशक के कार्यालय में पहुँचा।

“अच्छा बताओ, कल तुमने अपने घर क्या किया और क्या सीखा?” निदेशक ने यह पूछने से पहले उस नौजवान की आँखों में तिर आयी नमी को देख लिया था।

उसने बताया, “मैंने अपनी माँ के हाथों को धोया और बाकी बचे सारे कपड़े भी धो डाले...”

“अब मैं जान गया हूँ कि दूसरों के काम का मूल्य समझना क्या होता है। मैं जो आज हूँ वह माँ के बिना नहीं बन सकता था। माँ का हाथ बँटाने के बाद मैंने आज ही जाना कि अपने आप अपने हाथ से कोई काम करना कितना कठिन और दुष्कर होता है। मुझे अब पता चला है कि अपने परिवार की देखभाल करने और उसे संभालने का काम कितना महत्वपूर्ण और मूल्यवान है।”

निदेशक ने कहा, “बस यही है जो मैं एक मैनेजर में देखना चाहता हूँ। मैं एक ऐसे व्यक्ति की भर्ती करना चाहता हूँ जो दूसरों की मदद का मोल समझ सके, जो यह जानता हो कि कोई काम करके देने में कितनी तक़लीफ उठानी पड़ती है, और जिसने जीवन में केवल धन कमाने का एकमात्र लक्ष्य नहीं निर्धारित किया हो।”

“अब तुम चुन लिये गये हो”

इस नौजवान ने कड़ी मेहनत से काम किया और अपने अधीनस्थों के लिए खूब आदर व सम्मान का पात्र बना। सभी कर्मचारियों ने एक टीम की तरह खूब परिश्रम किया। कंपनी के प्रदर्शन में गजब का उछाल आ गया।

एक ऐसा बालक जिसे खूब संरक्षण दिया गया हो और उसे सभी मनचाही चीजें आसानी से पा जाने की आदत पड़ गयी हो, उसके भीतर एक ‘हकदारी की मानसिकता’ (entitlement mentality) विकसित हो जाती है। वह अपने को ही सबसे पहले रखने का आदी हो जाता है। वह अपने माँ-बाप की कठिनाइयों और संघर्ष से पूरी तरह अन्‍जान होता है। जब वह काम करना शुरू करता है तो यह मानकर चलता है कि सबको उसकी बात सुननी ही चाहिए। जब वह एक मैनेजर बन जाता है तो वह अपने कर्मचारियों की कठिनाइयाँ जान ही नहीं पाता है और हमेशा उन्हें दोषी ठहराता रहता है।

इस प्रकार के लोग हो सकता है पढ़ाई में बहुत आगे रहे हों और कुछ समय के लिए सफल भी हो गये हों; लेकिन अन्ततः उन्हें जीवन में कुछ उपलब्धि पा लेने का एहसास नहीं हो पाता है। वे हमेशा कुढ़ते रहते हैं, विद्वेष से भरे होते हैं और अधिक से अधिक पाने के लिए लड़ते रहते हैं। यदि हम अपने बच्‍चों को इस प्रकार का अतिशय दुलार और संरक्षण दे रहे हैं तो सोचिए, क्या हम उन्हें वास्तव में प्यार कर रहे हैं कि उल्टे अपने ही हाथों उन्हें बर्बाद कर रहे हैं।

OLYMPUS DIGITAL CAMERA         यह ठीक है कि आप अपने बच्‍चे को रहने के लिए एक बड़ा घर दे सकते हैं, खाने के लिए अच्छा भोजन दे सकते हैं, पियानो सिखा सकते हैं और बड़ी स्क्रीन वाली टीवी देखने को दे सकते हैं, लेकिन जब आप लॉन में घास काट रहे हों तो उन्हें भी यह करने को प्रेरित कीजिए। उन्हें अच्छा अनुभव होगा। भोजन करने के बाद उन्हें भाई-बहनों के साथ अपनी जूठी थाली और कटोरियाँ धुलने दीजिए। फर्श पर कुछ गिर गया हो तो उसे साफ करने को कहिए।

यह इसलिए नहीं कि आपके पास कामवाली बाई रखने को पैसे नहीं है, बल्कि इसलिए कि आप को उन्हें एक सही तरीके से प्यार करना है। उन्हें यह समझाना है कि उनके माता-पिता चाहे जितने अमीर हों, एक दिन जरूर आयेगा जब उनके बाल भी सफेद हो जाएंगे जैसे उस नौजवान की बूढ़ी माँ के हो गये थे। सबसे महत्वपूर्ण बात उन्हें यह समझाना है कि कोई काम अपने हाथ से करने में जो कष्ट होता है उसका अनुभव होना जरूरी है और उसका मूल्य इन्हें समझना चाहिए। दूसरों के साथ मिलकर कोई काम कैसे पूरा किया जाता है यह योग्यता उन्हें सीखनी चाहिए।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

सोमवार, 5 अगस्त 2013

आपकी प्रविष्टियों की प्रतीक्षा है

हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा की राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रतिभाग हेतु पहला कदम बढ़ाइए 

मेरी पिछली पोस्ट में सूचना दी गयी थी कि वर्धा में एक बार फिर हिंदी ब्लॉगिंग को केन्द्र में रखकर राष्ट्रीय स्तर का सेमिनार आगामी 20-21 सितंबर को आयोजित किया जा रहा है। कुछ ब्लॉगर मित्रों की उत्साहजनक प्रतिक्रिया मिली है। कुलपति जी ने इसकी आवश्यक तैयारियों के लिए निर्देश दे दिये हैं। इस सेमिनार के संयोजन से पूर्व उन्होंने मेरे जिम्मे किया है – इस राष्ट्रीय विचारमंथन के लिए एक ऐसे पैनेल के लिए नाम सुझाने का दायित्व जो हिंदी ब्लॉगिंग और सोशल मीडिया के तमाम पक्षों पर  साधिकार विचार विनिमय कर सके और जिसके माध्यम से कुछ ठोस नतीजों पर पहुँचा जा सके।

इसी जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए मैंने पिछली पोस्ट में आप सभी से अनुरोध किया था कि इस मंच पर विचार और बहस के लिए प्रस्तावित विषय सामग्री अपने एक आलेख के रूप में मुझे उपलब्ध करा दें ताकि उनको सम्मिलित करते हुए सभी सत्रों की रूपरेखा तैयार की जा सके। अभी तक कुछ मित्रों से मौखिक बात-चीत हुई है। कुछ लोगों ने अपनी टिप्पणी में एक-दो बिन्दु सुझाए हैं। लेकिन अभी भी आप सबका इनपुट अपर्याप्त लग रहा है। मैं दिल से चाहता हूँ कि बहस के तमाम मुद्दे एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया से उभरकर आयें। पिछला अनुभव बताता है कि समय रहते अवसर का सदुपयोग करने में जो भाई लोग आलस्य दिखाते है वे ही बाद में कार्यक्रम का छिद्रान्वेषण करते हैं।

मैं बार-बार अनुरोध करता हूँ कि आप इस कार्यक्रम का हिस्सा बनने में यदि गहरी रुचि रखते हैं तो इसे जाहिर कीजिए। अपने आलेख द्वारा व अपने सुझावों द्वारा अपनी यू.एस.पी. से हमें परिचित कराइए ताकि हम विश्वविद्यालय से कार्यक्रम के पैनेलिस्टों व प्रतिभागियों का शीघ्रातिशीघ्र अनुमोदन प्राप्त करते हुए आमंत्रण पत्र भेज सकें। वर्धा आने के लिए आपको रेल टिकट भी बुक कराना होगा। समय रहते नहीं करा लिया तो कन्फर्म टिकट मिलने में मुश्किल आ सकती है। कुलपति जी ने बताया कि विश्वविद्यालय द्वारा आमंत्रित अतिथियों को वहाँ आने-जाने का किराया रेलगाड़ी की ए.सी.थ्री टियर की सीमा तक भुगतान किया जाएगा।

आज मुझे औपचारिक रूप से एक प्रतिष्ठित प्रिन्ट माध्यम के संपादक व स्वयं एक महत्वपूर्ण ब्लॉगर द्वारा निम्नलिखित विषय सुझाए गये हैं:

साहित्य की ब्लॉगिंग : इसमें इस विषय पर चर्चा की जानी चाहिए कि वास्तव में ब्लॉग पर पर साहित्य है क्या. इसमें कितने स्थापित, युवा, नवोदित, उदीयमान या शौकिया साहित्यकार हैं. किन विधाओं की अधिकता है और उनमें वास्तव में कितना साहित्य और कितना साहित्य के नाम पर कूड़ा है.

ब्लॉग साहित्य की आलोचना : अगर साहित्य को विकास के लिए आलोचना की ज़रूरत है तो ब्लॉग पर साहित्य के लिए क्यों नहीं? क्या ब्लॉग पर जो साहित्य प्रेषित किया जा रहा है, उसकी आलोचना के लिए कुछ लोग हैं?  क्या उन्होंने ब्लॉग साहित्य को केन्द्र में रखकर साहित्य की कसौटी पर उसे कसने की कोशिश कभी की? या केवल सतही टिप्पणियों से ही ब्लॉगरजन ख़ुश हैं?

साहित्येतर ब्लॉग : ब्लॉग पर साहित्य के अलावा जो कुछ है, क्या साहित्य के धुरंधर ब्लॉगर गण उन ब्लॉग्स पर कभी जाते हैं? अगर जाते हैं तो उसे पढ़ने की जहमत उठाते हैं और उसपर टिपियाते भी हैं या केवल एक नज़र मारकर खिसक लेते हैं.

ब्लॉगिंग के विकास में चिट्ठा चर्चा जैसे ब्लॉग्स और अग्रीगेटर्स की अहमियत.  

साहित्य, साहित्य के ब्लॉग और समाज : एक-दूसरे से अपेक्षाएं

ब्लॉगिंग कम होने के कारण और उसे बढ़ावा देने की रणनीति.

अविनाश वाचस्पति  जी ने पिछली पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए एक महत्वपूर्ण बिन्दु का उल्लेख किया था –

“कि हिन्‍दी ब्‍लॉगबुक जैसा एक मंच बनाया जाए जो कि ब्‍लॉगवाणी और चिट्ठाजगत की पूर्ति करे तथा 'फेसबुक' की तरह सदैव प्रवाहमान हो। इसमें हिंदी के सभी ब्‍लॉग जड़े हों और उनकी पोस्‍टें क्रम से सामने से गुजरती रहें और जिसे जिसको पढ़ना व अपनी राय देनी है, वह इसमें बिना अलग से लॉगिन किए दे सके। इससे इस मंच को आगे विस्‍तारित होने से कोई नहीं रोक सकता। इसके लिए तकनीकी और धन-संसाधन की व्‍यवस्‍था किसी विश्‍वविद्यालय से ही की जा सकती है और इसे अमली जामा पहनाया जा सकता है।”

इसी प्रकार आप सभी सुधी जनों से अपेक्षा है कि इस महामंथन के लिए अलग-अलग पहलुओं पर अपना नजरिया प्रस्तुत कीजिए। हमारी कोशिश होगी अधिक से अधिक मुद्दों को मंच पर लाया जाय और उनपर चर्चा करके कुछ ठोस निष्कर्ष निकाले जाय। कुछ ऐसे निर्णय लिए जाय जिनपर विश्वविद्यालय के संसाधनों द्वारा अमल करके हिंदी को अंतर्जाल पर अधिकाधिक प्रयोग की भाषा बनाया जा सके। सूचना, साहित्य और ज्ञान के प्रसार के लिए हिंदी को भी उतना ही समर्थ और सहज-सरल बनाया जा सके जितना अंग्रेजी और अन्य भाषाएँ हैं। यह सब तभी संभव होगा जब प्रत्येक हिंदीप्रेमी जो इंटरनेट से जुड़ा हुआ है पूरे मनोयोग से इस दिशा में अपना योगदान देने के लिए उद्यत हो जाएगा।

तो देर किस बात की है? संभालिए अपना की-बोर्ड और शुरू हो जाइए। मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)