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बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

लोकतंत्र के गुनहगार हमलोग

आजकल जहाँ देखिए वहाँ नेताओं को गाली देती पब्लिक मिल जाएगी और उन गालियों पर ताली बजाती भीड़ भी। कांग्रेस का वंशवाद हो या भाजपा का संप्रदायवाद, समाजवादियों का मुस्लिम तुष्टिकरण हो या शिवसैनिकों का संकुचित क्षेत्रवाद, वामपंथी पार्टियों का मार्क्सवाद के नाम पर खोखला पाखंड हो या दक्षिणपंथियों का धूर्त राष्ट्रवाद। ये सभी बुराइयाँ बदस्तूर जीवित है और लहलहा रही हैं तो यह निश्चित है कि इनके लिए आवश्यक उर्वरक और खाद-पानी हमारे समाज से ही मिल रहा है।

Mobocracyएक राजनैतिक दल का घोषित और जायज लक्ष्य होता है राजनैतिक सत्ता पाने के लिए चुनाव लड़ना और सत्ता मिल जाने पर उसे बरकरार रखना। इसी लक्ष्य को पाने के लिए पार्टी का गठन होता है, इसके संगठन को मजबूत किया जाता है, इसके लिए लोकप्रिय समर्थन जुटाने का प्रयास किया जाता है। एक खास विचारधारा और राजनैतिक सिद्धान्त का पालन करते हुए मतदाताओं के बीच अपनी स्वीकार्यता का आधार बढ़ाया जाता है और उनके वोट पाकर सत्ता की कुर्सी पायी जाती है। चुनाव लड़ना और सरकार बनाना राजनीतिक दलों का काम ही है। इसमें सफलता पाने के लिए उन्हें जो करना चाहिए वे करते हैं। यदि उन्हें लगता है कि जनता हमें वोट तब देगी जब हम किसी एक खास जाति एक खास धर्म या एक खास इलाके के पक्ष में काम करेंगे या कम से कम करने का वादा करेंगे तो वे ऐसा करने लगते हैं। इसे यूं भी कह सकते हैं कि वे ऐसा करते हैं क्योंकि उन्हें ऐसा लगता है कि जनता इसी आधार पर उन्हें वोट देगी। अब उन्हें ऐसा लगता है तो इसमें कुछ सच्चाई जरूर होगी।

अगर कांग्रेस के एक से एक प्रतिभाशाली नेता अपनी योग्यता और अनुभव को नेपथ्य में रखकर सोनिया गांधी और राहुल गांधी की अति साधारण बुद्धि और वैयक्तिक योग्यता पर वाह-वाह करते रहना और चारण धर्म का पालन करना बेहतर समझ रहे हैं तो निश्चित रूप से उन्हें यह विश्वास है कि जनता का वोट पाने के लिए उनकी अपनी योग्यता और अनुभव से ज्यादा कारगर नेहरू खानदान का नाम है। यह विश्वास इस जनता ने ही तो दिया है। कांग्रेस का साठ साल का शासन चाहे जितना भ्रष्ट और नकारा रहा हो लेकिन हर पाँच साल बाद उसे कुर्सी पर जनता ने वोट देकर पहुँचाया है। यह कोई सद्दाम हुसेन या कर्नल गद्दाफी के लंबे शासन काल की तरह बन्दूक की ताकत से नहीं चला है। जब बहुसंख्यक जनता इस वंश को अपना शासक मानने के लिए तैयार है तो आप शिकायत कैसे कर सकते हैं?

बाबरी मस्जिद टूट जाने के बाद दुनिया भर में भारत की किरकिरी भले ही हुई हो लेकिन उसके बाद हुए चुनावों में इस देश की जनता ने उन लोगों को ही वोट दे दिया जो इस कारनामें के लिए जिम्मेदार माने गये। मजहबी खूँरेजी बढ़ती गयी और चुनाव दर चुनाव इनका वोट-प्रतिशत। अब जनता की ऐसी प्रकृति और प्रवृत्ति देखकर क्यों न नेता कोशिश करेंगे ऐसा माहौल बनाने की? वोटर को पोलराइज करने का प्रयास कोई कर रहा है, तो क्यो? इसलिए कि जनता पोलराइज होने की ताक में बैठी है।

भ्रष्टाचार के नित नये कीर्तिमान बनाती सरकारों को कई राज्यों में बारी-बारी से मौका देते रहने का गर्हित कार्य यह “जनता-जनार्दन” लगातार करती आ रही है। चारा घोटाले की खबर पूरी तरह चर्चित और प्रचारित हो जाने के बाद भी लालू प्रसाद यादव को जनता ने दूसरे दलों पर तरजीह देते हुए तीसरी बार जिता दिया था; जिसकी उम्मीद शायद वे खुद ही नहीं कर रहे थे। तमिलनाडु में बारी-बारी नागनाथ और साँपनाथ का दुष्चक्र खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है – वह भी पूरे लोकतांत्रिक तरीके से।

लोकतंत्र के नाम पर वोट के माध्यम से लिया गया हर फैसला परम पवित्र और सर्वोत्कृष्ट माना जाता है लेकिन उच्च स्तरीय मानवीय मूल्यों की कसौटी पर तौलने बैठिए तो जनता द्वारा किये हुए बहुत से फैसले गले से नहीं उतरते। समानता, स्वतंत्रता, भाईचारा, धर्म निरपेक्षता, न्याय, मानवाधिकार आदि के मूल्य सेमिनारों और अकादमिक बहसों में तो स्थान पा जाते हैं लेकिन भारत का वोटर जब हाथ पर अमिट स्याही लगवाकर गोपनीय घेरे में वोट डालने के लिए घुसता है तो ये मूल्य जाने कहाँ पीछे छूट जाते हैं और उसे केवल अपनी जाति, अपना धर्म, अपना संकुचित समाज और अपना निजी स्वार्थ याद रहता है; और याद रहती है सदियों से चली आ रही रूढ़िवादी, दकियानूसी, गुलामी की विरासत में पगी पिछड़ी सोच का प्रतिनिधित्व करती अधोचेतना।

आप कह सकते हैं कि पार्टियों और नेताओं ने हमें कोई बेहतर विकल्प दिया ही नहीं तो क्या करें? जो विकल्प उपलब्ध हैं उन्हीं में से तो चुनेंगे। लेकिन यह प्रश्न तो वैसा ही है जैसा “पहले मुर्गी कि पहले अंडा?” विकल्प भी तो इस जनता को ही देना था।  इस जनता के हाथों अरविन्द केजरीवाल की जो गति होने जा रही है वह एक बड़ा सबक बनकर उभरने वाला है। बस देखते जाइए। अन्ना हजारे और रामदेव का हश्र तो सामने है ही।

इसलिए अब मैंने किसी बड़े परिवर्तन की आस लगभग छोड़ ही दी है। लगता है सबकुछ ऐसे ही चलता रहेगा। थोड़ा बहुत इधर या उधर पैबन्द लगाकर। सिद्धान्त और व्यवहार में भयंकर अंतर बना रहेगा। दौड़ की रेखा सबसे पहले छूने वाले (First Past the Post) को ही विजेता घोषित करने वाली चुनाव की प्रक्रिया में आमूल-चूल परिवर्तन तो होने से रहा। आम आदमी की आदर्श छवि इस धरा-धाम पर हकीकत बनकर आने से रही। भले ही इस नाम की टोपियाँ लगाने वालों की संख्या बढ़ती रहे। अतः एक नागरिक होने के नाते मैं खुद को भारतीय लोकतंत्र का गुनहगार मानता हूँ… आपको भी… और आपको भी…।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
satyarthmitra.com

13 टिप्‍पणियां:

  1. पूर्णतः सहमत हूँ आपके पूरे आलेख से. एक तरफ हम भ्रष्टाचार मुक्ति की आवाज़ लगाते हैं और दूसरी तरफ नौकरी पाने के लिए, नंबर पाने के के लिए, दो दिनों में कुबेर बनने के लिए घूस देने स्वयं चले जाते हैं. तंत्र ठीक हो तो हो कैसे.

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  2. तो आप भी पेसिमिज्म के शिकार हो ही गए। मौजूदा सिस्टम यही तो चाहता है। कि लोग निराशावाद के शिकार हो जाएँ और वह जनता का खून चूसता रहे।

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    1. आदरणीय, यह पेसिमिज्म नहीं है; बल्कि वस्तुनिष्ठ तथ्यों को देखकर निकाला गया कड़वा निष्कर्ष है। अच्छे से अच्छे प्रयास को यह जनता जनार्दन जमीन दिखाने से नहीं चूकती। मेरी शिकायत इस बात से है कि लोकतंत्र का भारतीय मॉडल जो हमारे संविधान द्वारा खड़ा किया गया है वह अपेक्षित परिणाम देने में नाकाम रहा है। इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए जो कुछ आवश्यक है वह करने का रास्ता फिलहाल नहीं दिख रहा। विकट ट्रैप में फँसा हुआ है सबकुछ।

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  3. सटीक विवेचन।
    अगर कोई व्यवस्था में कमी है तो उसकी गुनहगार जनता ही है । व्यवस्था दूषित करने वालों से उसे साफ करने की उम्मीद बेमानी है।
    फिर भी आशा है कि कोई तो आएगा जो सब ठीक कर देगा।यह सब एक दिन में नहीं होगा।

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  4. यह तो सच है कि जनता ही अपने स्‍वार्थ के लिए ऐसी राजनीति को आगे बढ़ाती है। वोट देने से परे बात, आप किसी भी राजनेता के घर चले जाइए, वहाँ अपने स्‍वार्थ की पूर्ति के लिए लोगों का हुजूम उमड़ा रहता है। मेरी राय में तो जनता अर्थात हम ही इन राजनेताओं को भ्रष्‍ट बनाते हैं।

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  5. सुन्दर प्रस्तुति-

    आभार आदरणीय-

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  6. अब विद्रोह जरूरी है !!

    मानव रूपी, कुत्तों से
    रात में जगे,भेड़ियों से
    राजनीति के दल्लों से
    खादी की, पोशाकों से

    बदन के भूखे मालिक से, सम्पादकी तराजू से !
    अब संघर्ष जरूरी है !

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  7. लोकतन्त्र के प्रयोग न जाने और कितने कष्टकर होंगे।

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  8. कभी न कभी तो नैया पार लगेगी। कोई तो सुखद तट पर उतरेगा। हम न सही आगे आनेवाली पीढ़ी । हार न मानिए।

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  9. बड़े बदलाव भले न कर पायें आप और हम लेकिन अपनी औकात भर ठीक-ठाक करते रहें यही बहुत है। दुनिया कभी भी पूरी की पूरी भली न बनेगी। कुछ न कुछ अच्छा करने को बचा ही रह जायेगा। लगे रहिये। अपने आसपास ठीक करने का प्रयास कीजिये। देश भी बेहतर होगा। :)

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  10. सिद्धार्थ, अच्छा है पर रस्ते तो कभी बंद नहीं होते। नदी का पानी बढ़ता है तो पहाड़ों को रास्ता देना पड़ता है। सामान्य नजर से देखने पर भले जन नदी सूखी लग रही हो लेकिन गहराई से देखने पर लगता है कि मौसम बिगड़ रहा है, लोगों की नाराजगी छिटपुट जनदबाव के रूप में प्रकट हो रही है। जैसे-जैसे गुस्सा बढ़ेगा, यह दबाव भी बढ़ेगा। और फिर एक दिन उसे ये पाखंड, भ्रष्टाचार और धूर्त राष्ट्रवाद का पहाड़ रोक नहीं पायेगा। हम जैसे जो लोग सीधे लड़ाइयों का हिस्सा न बनकर केवल हालात पर चिंता जता रहे हैं, उनका भी इस दबाव को बढ़ाने में योगदान रेखांकित किया जायेगा।

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  11. दौड़ की रेखा सबसे पहले छूने वाले-
    बोले तो सर्वाइवल आफ द फिटेस्ट ....
    अभी जन मानस परिपक्व नहीं है यहं का

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    1. साठ साल पूरे हो चुके हैं। जिस पीढ़ी ने आजाद देश में जन्म लिया वह भी अब रिटायर हो रही है। अभी कितना वक्त और चाहिए परिपक्व होने में?

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