हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

लोकतंत्र के गुनहगार हमलोग

आजकल जहाँ देखिए वहाँ नेताओं को गाली देती पब्लिक मिल जाएगी और उन गालियों पर ताली बजाती भीड़ भी। कांग्रेस का वंशवाद हो या भाजपा का संप्रदायवाद, समाजवादियों का मुस्लिम तुष्टिकरण हो या शिवसैनिकों का संकुचित क्षेत्रवाद, वामपंथी पार्टियों का मार्क्सवाद के नाम पर खोखला पाखंड हो या दक्षिणपंथियों का धूर्त राष्ट्रवाद। ये सभी बुराइयाँ बदस्तूर जीवित है और लहलहा रही हैं तो यह निश्चित है कि इनके लिए आवश्यक उर्वरक और खाद-पानी हमारे समाज से ही मिल रहा है।

Mobocracyएक राजनैतिक दल का घोषित और जायज लक्ष्य होता है राजनैतिक सत्ता पाने के लिए चुनाव लड़ना और सत्ता मिल जाने पर उसे बरकरार रखना। इसी लक्ष्य को पाने के लिए पार्टी का गठन होता है, इसके संगठन को मजबूत किया जाता है, इसके लिए लोकप्रिय समर्थन जुटाने का प्रयास किया जाता है। एक खास विचारधारा और राजनैतिक सिद्धान्त का पालन करते हुए मतदाताओं के बीच अपनी स्वीकार्यता का आधार बढ़ाया जाता है और उनके वोट पाकर सत्ता की कुर्सी पायी जाती है। चुनाव लड़ना और सरकार बनाना राजनीतिक दलों का काम ही है। इसमें सफलता पाने के लिए उन्हें जो करना चाहिए वे करते हैं। यदि उन्हें लगता है कि जनता हमें वोट तब देगी जब हम किसी एक खास जाति एक खास धर्म या एक खास इलाके के पक्ष में काम करेंगे या कम से कम करने का वादा करेंगे तो वे ऐसा करने लगते हैं। इसे यूं भी कह सकते हैं कि वे ऐसा करते हैं क्योंकि उन्हें ऐसा लगता है कि जनता इसी आधार पर उन्हें वोट देगी। अब उन्हें ऐसा लगता है तो इसमें कुछ सच्चाई जरूर होगी।

अगर कांग्रेस के एक से एक प्रतिभाशाली नेता अपनी योग्यता और अनुभव को नेपथ्य में रखकर सोनिया गांधी और राहुल गांधी की अति साधारण बुद्धि और वैयक्तिक योग्यता पर वाह-वाह करते रहना और चारण धर्म का पालन करना बेहतर समझ रहे हैं तो निश्चित रूप से उन्हें यह विश्वास है कि जनता का वोट पाने के लिए उनकी अपनी योग्यता और अनुभव से ज्यादा कारगर नेहरू खानदान का नाम है। यह विश्वास इस जनता ने ही तो दिया है। कांग्रेस का साठ साल का शासन चाहे जितना भ्रष्ट और नकारा रहा हो लेकिन हर पाँच साल बाद उसे कुर्सी पर जनता ने वोट देकर पहुँचाया है। यह कोई सद्दाम हुसेन या कर्नल गद्दाफी के लंबे शासन काल की तरह बन्दूक की ताकत से नहीं चला है। जब बहुसंख्यक जनता इस वंश को अपना शासक मानने के लिए तैयार है तो आप शिकायत कैसे कर सकते हैं?

बाबरी मस्जिद टूट जाने के बाद दुनिया भर में भारत की किरकिरी भले ही हुई हो लेकिन उसके बाद हुए चुनावों में इस देश की जनता ने उन लोगों को ही वोट दे दिया जो इस कारनामें के लिए जिम्मेदार माने गये। मजहबी खूँरेजी बढ़ती गयी और चुनाव दर चुनाव इनका वोट-प्रतिशत। अब जनता की ऐसी प्रकृति और प्रवृत्ति देखकर क्यों न नेता कोशिश करेंगे ऐसा माहौल बनाने की? वोटर को पोलराइज करने का प्रयास कोई कर रहा है, तो क्यो? इसलिए कि जनता पोलराइज होने की ताक में बैठी है।

भ्रष्टाचार के नित नये कीर्तिमान बनाती सरकारों को कई राज्यों में बारी-बारी से मौका देते रहने का गर्हित कार्य यह “जनता-जनार्दन” लगातार करती आ रही है। चारा घोटाले की खबर पूरी तरह चर्चित और प्रचारित हो जाने के बाद भी लालू प्रसाद यादव को जनता ने दूसरे दलों पर तरजीह देते हुए तीसरी बार जिता दिया था; जिसकी उम्मीद शायद वे खुद ही नहीं कर रहे थे। तमिलनाडु में बारी-बारी नागनाथ और साँपनाथ का दुष्चक्र खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है – वह भी पूरे लोकतांत्रिक तरीके से।

लोकतंत्र के नाम पर वोट के माध्यम से लिया गया हर फैसला परम पवित्र और सर्वोत्कृष्ट माना जाता है लेकिन उच्च स्तरीय मानवीय मूल्यों की कसौटी पर तौलने बैठिए तो जनता द्वारा किये हुए बहुत से फैसले गले से नहीं उतरते। समानता, स्वतंत्रता, भाईचारा, धर्म निरपेक्षता, न्याय, मानवाधिकार आदि के मूल्य सेमिनारों और अकादमिक बहसों में तो स्थान पा जाते हैं लेकिन भारत का वोटर जब हाथ पर अमिट स्याही लगवाकर गोपनीय घेरे में वोट डालने के लिए घुसता है तो ये मूल्य जाने कहाँ पीछे छूट जाते हैं और उसे केवल अपनी जाति, अपना धर्म, अपना संकुचित समाज और अपना निजी स्वार्थ याद रहता है; और याद रहती है सदियों से चली आ रही रूढ़िवादी, दकियानूसी, गुलामी की विरासत में पगी पिछड़ी सोच का प्रतिनिधित्व करती अधोचेतना।

आप कह सकते हैं कि पार्टियों और नेताओं ने हमें कोई बेहतर विकल्प दिया ही नहीं तो क्या करें? जो विकल्प उपलब्ध हैं उन्हीं में से तो चुनेंगे। लेकिन यह प्रश्न तो वैसा ही है जैसा “पहले मुर्गी कि पहले अंडा?” विकल्प भी तो इस जनता को ही देना था।  इस जनता के हाथों अरविन्द केजरीवाल की जो गति होने जा रही है वह एक बड़ा सबक बनकर उभरने वाला है। बस देखते जाइए। अन्ना हजारे और रामदेव का हश्र तो सामने है ही।

इसलिए अब मैंने किसी बड़े परिवर्तन की आस लगभग छोड़ ही दी है। लगता है सबकुछ ऐसे ही चलता रहेगा। थोड़ा बहुत इधर या उधर पैबन्द लगाकर। सिद्धान्त और व्यवहार में भयंकर अंतर बना रहेगा। दौड़ की रेखा सबसे पहले छूने वाले (First Past the Post) को ही विजेता घोषित करने वाली चुनाव की प्रक्रिया में आमूल-चूल परिवर्तन तो होने से रहा। आम आदमी की आदर्श छवि इस धरा-धाम पर हकीकत बनकर आने से रही। भले ही इस नाम की टोपियाँ लगाने वालों की संख्या बढ़ती रहे। अतः एक नागरिक होने के नाते मैं खुद को भारतीय लोकतंत्र का गुनहगार मानता हूँ… आपको भी… और आपको भी…।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
satyarthmitra.com

बुधवार, 16 अक्तूबर 2013

दशहरे के दिशाशूल

जब नवरात्रि के अंतिम चरण में माँ दुर्गा के बड़े-बड़े भक्तों द्वारा भगवती जागरण और जगराता के बड़े-बड़े पांडाल सजाये जा रहे थे, जब भारत के क्रिकेट प्रेमी भारत-ऑस्ट्रेलिया के पहले एकदिवसीय मैच में ट्वेन्टी-ट्वेन्टी की तरह जोरदार जीत की उम्मीद से टीवी के आगे जम जाने और बाद में बुरी तरह पिट जाने की तैयारी में लहालोट थे; और जब देश के पूर्वी भाग के लोग मौसम-विज्ञानियों द्वारा फेलीनी के आतंक से भयभीत किये जाने के बाद अपने यात्रा कार्यक्रम बदल रहे थे उस समय मैं अपने बॉस से यह जिरह कर रहा था कि सरकारी छुट्टी के दिन मुझे जिले से बाहर जाने की अनुमति दी जाय ताकि मैं अपने गाँव जाकर दशहरे के त्यौहार पर अपने माता-पिता सहित गाँव भर के बड़े-बुजुर्गों से मिलकर उनका आशीर्वाद ग्रहण कर सकूँ और वहाँ के अन्य सभी लड़के-लड़कियों, महिलाओं-पुरुषों का हाल-चाल जानने की वार्षिक परंपरा का निर्वाह कर सकूँ। बड़ी मशक्कत के बाद मुझे अनुमति तो मिल गयी लेकिन प्रकृति ने कुछ ऐसा संयोग बनाया कि इस बार की मेरी यात्रा मेरे उत्साह और धैर्य की लगातार परीक्षा लेती रही। अहर्निश संघर्ष करता हुआ मैं जब आज रायबरेली लौटा हूँ और कल बकरीद की छुट्टी पर लखनऊ जाने की अनुज्ञा बॉस ने खुद ही बुलाकर दे दी है तब भी मैंने रायबरेली में रुककर आराम करने का मन बनाया है। लगातार की दौड़-धूप से तन ही नहीं मन में भी थकान घुस गयी है। अपनी एक पुरानी कविता याद आ रही है:

कुंजीपट खूँटी पर टांग
धत्‌ कुर्सी कर्मठता का स्वांग
दफ़्तर में अनसुनी है छुट्टी की मांग

कूड़े का ढेर
फाइल में फैला अंधेर
चिट्ठों में आँख मीच रहे उटकेर

आफ़त में जान
भला है बन बैठो अन्जान
देह नहीं मन में घुस पैठी थकान

इस थकान और निराशा के मुख्य कारण जो रहे उनका बिन्दुवार ब्यौरा यहाँ प्रस्तुत है:

  • कॉन्वेन्ट स्कूल की रीति-नीति ने बच्चों को इतना “प्रोफ़ेशनल और बिजी” बना दिया है कि उन्हें एक-दो दिन की छुट्टी में गाँव जाने की बात बिल्कुल कबूल नहीं होती। साथ में महानगरों में त्यौहारों की रौनक जो होती है उसकी तुलना में गाँव की अंधेरी रातें किसे सुहाएंगी भला। इसके फलस्वरूप मेरे परिवार के सभी सदस्यों ने मुझे गाँव जाने के लिए अकेला छोड़ दिया। बच्चों ने साफ-साफ “डू नॉट डिस्टर्ब” का बोर्ड लगाकर स्टडी-रूम भीतर से बन्द कर लिया और उनकी मम्मी पहरेदार बन बैठीं।
  • अकेले यात्रा करने के लिए ट्रेन से जाना उपयुक्त मानकर लखनऊ से गोरखपुर जाने और वापस आने के लिए आरक्षण करा रखा था। अलस्सुबह जागकर तैयार हुआ और निकलने से पहले जब नेट खोलकर गाड़ी की स्थिति जाननी चाही तब शहीद एक्सप्रेस का नाम सूची से नदारद दिखा। हक्का-बक्का होकर जब मैंने ध्यान से अपने मोबाइल में टिकट कन्फर्मेशन का मेसेज देखा तो यात्रातिथि (DoJ) में 13.10.2013 के स्थान पर 13.11.21013 लिखा था। यानि हड़बड़ी में मैंने आरक्षण कराते समय अक्तूबर के बजाय नवंबर के कैलेंडर से तेरह तारीख चुन ली थी।
  • अब तैयार हो चुका था तो जाना था ही। मोबाइल में वापसी यात्रा का मेसेज देखा तो बिल्कुल दुरुस्त निकला-14.10.2013 अवध एक्सप्रेस। पिठ्ठू बैग कंधों में फँसाकर निकल पड़ा। लखनऊ से गोरखपुर के लिए जाने वाली परिवहन निगम की बसें मेरे घर के निकट ही पॉलिटेक्‍निक चौराहे से गुजरती हैं, सो मैं पाँच रूपये ऑटो पर खर्च करके वहीं पहुँच गया। पाँच मिनट में एक बस आयी जो आजमगढ़ जा रही थी- फैजाबाद होते हुए। मैंने सोचा अगली बस पता नहीं कबतक आये इसलिए आधे रास्ते तक की यात्रा इसी से कर लेते हैं। फैजाबाद पहुँचकर गोरखपुर की दूसरी बस ले ली जाएगी। इस कैलकुलेशन में निकट के बादशाहनगर स्टेशन से सात बजे गुजरने वाली बाघ एक्सप्रेस छोड़ दिया जो साढ़े बारह बजे तक गोरखपुर पहुँचा देती। इधर साढ़े छः बजे मेरी बस चल पड़ी थी।
  • चूँकि मूल रूप से मुझे ट्रेन के ए.सी. कोच में यात्रा करनी थी इसलिए मैंने रात में ज्यादा सोने के बजाय बच्चों से बात करने, अपनी सलहज को उसके पति (यानि मेरे साले Smile) के साथ स्टेशन छोड़ने और नेटसर्फ़िंग में ज्यादा समय बिताया था ताकि सुबह गाड़ी में घुसते ही लंबी तानकर सो सकूँ। लेकिन किस्मत में बस की हरहराती-चिघ्घाड़ती सेवा लिखी थी जिसकी आगे की सीट पर दबकर बैठा हुआ मैं इंजन की घरघराती आवाज पर भी भारी पड़ती टेप के गानों की चिल्लाहट सुनने को मजबूर था। आँखें बन्द करके उंघने के मेरे सारे प्रयास निष्फल हो गये।
  • करीब साढ़े सात बजे एक ढाबे पर बस रुक गयी। ड्राइवर और कंडक्टर इत्मीनान से उतरे और तख्त के किनारे लगी कुर्सियों पर बैठ गये। ढाबे वाले ने इनकी आव-भगत शुरू की क्योंकि इन्होंने इस वीराने में अचानक पचासो ग्राहक लाकर डाल दिया था। यात्रियों ने तो चाय, बिस्कुट, और टिकिया आदि खाकर दाम चुकाया लेकिन ये दोनो सरकारी कर्मचारी सुबह-सुबह तंदूरी रोटी के साथ दाल-मखानी और मटर–पनीर मुफ़्त में जीमते रहे। बाद में इन्होंने चाय पी और मुँह में पान दबाकर बस में लौटे। तबतक मैं कई बार घड़ी देख चुका था और नियमित टाइप यात्रियों से पूछ चुका था कि फैजाबाद कबतक पहुँचेंगे।
  • बीस मिनट के ब्रेक के बाद बस आगे बढ़ी तो एक अजीब हरकत शुरू हुई। ड्राइवर साहब को खैनी की तलब लग गयी। मैंने सोचा किसी चेले या कंडक्टर को कहेंगे; लेकिन वे तो खुद ही शुरू हो गये। बस को रोका नहीं, बल्कि नेशनल हाई-वे पर पूरी रफ़्तार से बस को दौड़ाते हुए ही दोनो हाथों से खैनी मलने लगे। मेरी नींद को तो पंख लग गये। चालक महोदय किसी मदारी की तरह अपनी कोहनी से स्टीयरिंग ह्वील को साधते हुए अपने दोनो हाथों से चैतन्य-चुर्ण बनाने लगे। मैंने सोचा-एक दो मिनट सावधान रहना होगा ताकि यदि बस इधर-उधर सरके तो अपना बचाव किया जा सके।
  • सुर्ती मलने का कार्यक्रम जब अपने पाँचवें मिनट में प्रवेश कर गया और इस बीच जब ट्रकों की तीन-चार कतारें ओवर-टेक कर ली गयीं तो मेरा मन घबराने लगा; लेकिन चालक संजय राय का कौशल देखने लायक था; और खैनी के प्रति उनका अनुराग अचंभित करने वाला। मुझे अपने गाँव के स्वर्गीय राम दुलारे जी याद आ गये जो कहा करते थे- तीन सौ चुटकी तेरह ताल, तब देखो सुर्ती का हाल।
  • मेरे मन का ब्लॉगर जाग उठा और इस खैनी-मर्दन की अनुपम छटा को कैमरे में कैद करने को मचल उठा। हाई-वे पर आती-जाती गाड़ियों से गति मिलाती हमारी बस तेजी से बढ़ती जा रही थी और ड्राइवर की एक हथेली पर रखी खैनी दूसरे हाथ के अंगूठे से रगड़ खाकर मोक्षदायी होती जा रही थी। मैंने एक स्टिंग ऑपरेशन कर डाला। यहाँ देखिए:


    तीन सौ चुटकी तेरह ताल, तब देखो सुर्ती का हाल
  • जब ड्राइवर साहब ने मतवाली खैनी को होठ में दबाया और दोनो हाथों से स्टियरिंग थामकर चलने लगे तो मन को सुकून हुआ और ध्यान आया कि फैजाबाद आते-आते नौ बज गये हैं। स्टेशन पर उतरे तो फैजाबाद से लखनऊ जाने वाली चार बसें तैयार खड़ी मिलीं, लेकिन गोरखपुर के लिए कोई सवारी नहीं थी।
  • तभी एक जीप फर्राटे भरती आयी और बस्ती की सवारी पुकारने लगी। मैंने बढ़कर गोरखपुर के लिए पूछा तो वह आगे बढ़ गया लेकिन थोड़ी देर में वापस आ गया। उसे काम भर की सवारियाँ नहीं मिलीं थीं तो मुझे पटाने लगा। बोला- मैं गोरखपुर तो नहीं जाऊँगा लेकिन आपको बस्ती रोडवेज पर छोड़ दूंगा जहाँ से आपको गोरखपुर की बस मिल जाएगी। मुझे पता था कि यह जब तक तीन की सीट पर चार आदमी नहीं ठूस लेगा तबतक नहीं चलेगा। फिर भी मैंने अपना बैग बीच वाली सीट पर रखा और इधर उधर बेहतर विकल्प तलाशते हुए भी अंदर घुसने का उपक्रम करने लगा। तभी पीछे एक बस से आवाज आयी- आइए गोरखपुर। मैं फौरन मुड़ा और बैग उठाकर उधर झपट पड़ा जहाँ ड्राइवर अपनी बस के आगे लगी लखनऊ और गोरखपुर की तख्तियाँ अदल-बदल रहा था।
  • बस में आगे की सीट पर हम ज्यों ही बैठे तभी दूसरे दर्जनों यात्री भी अंदर आ घुसे। लेकिन तभी ड्राइवर बस को एक किनारे ले जाकर उसमें किसी व्यापारी का माल लादने लगा। इसे देखकर मुझे आगे की यात्रा बड़ी विकट जान पड़ी। काफी पुराने जमाने की खड़खड़िया बस थी यह। मैंने शीशा-विहीन खिड़की से झांककर देखा तो वह जीप भी जा चुकी थी। निराशा ने मन में पाँव पसारना शुरू ही किया था कि एक झोंके के समान लखनऊ की ओर से एक चमचमाती बस आ पहुँची जिसपर लिखा था- गोरखपुर मेल। मैं झट से उठा और उस मेल की ओर लपक लिया। देखते-देखते यह माल लादने वाली बस लगभग पूरी खाली हो गयी और गोरखपुर मेल पूरी सवारी भरकर चल पड़ी।
  • मैं सोच रहा था कि अब तो बात बन गयी। मौसम भी सुहाना हो गया था। तभी बस्ती पहुँचने से पहले ही हल्की बूँदा-बाँदी से मुलाकात हो गयी जो क्रमशः बढ़ती गयी। लोगों ने बस के शीशे खींच लिए और बारिश को देखने का आनंद लेने लगे। गोरखपुर पहुँचने से पहले मैंने अपने भतीजों को फोन करके शहर के प्रवेश द्वार पर ही मुझे रिसीव कर लेने को कहा ताकि शहर की भीड़-भाड़ पार करके बस स्टेशन तक जाने में लगने वाले अतिरिक्त एक घंटे की बचत हो सके। जब हम दो बजे गोरखपुर के आवास पर पहुँचे तो मूसलाधार बारिश शुरू हो चुकी थी। हमें यहाँ से साठ किलोमीटर दूर गाँव तक जाना अभी बाकी था। लेकिन मुझे जोर की भूख लगी थी सो दबाकर खाना खाया और भयंकर नींद सता रही थी सो वहीं पसर गये।
  • हम दो घंटे बाद सोकर उठे तो बड़े भैया और भतीजे के साथ घनघोर बारिश को चीरते हुए गाँव के लिए चल पड़े। बरसात के लिहाज से अच्छे रास्ते की तलाश में हमें बीस-पच्चीस किलोमीटर अतिरिक्त चलना पड़ा लेकिन अंधेरा होते-होते हम गाँव पहुँच गये। वहाँ जाने पर दो बातें पता चलीं जो मुझे फिरसे निराश करने वाली थीं।
  • पहली बात यह कि मेरे गाँव में उसदिन दशहरा मनाया ही नहीं जाने वाला था। स्थानीय पंडित जी ने ‘साइत’ (मुहूर्त) देखकर बताया था कि असली दशहरा 14 अक्तूबर को पड़ेगा। यानि गाँव के घर-घर जाकर मिलने-जुलने वाली शाम अगले दिन आयोजित होने वाली थी जब मैं अपनी वापसी यात्रा में ट्रेन में रहूँगा। रही-सही कसर लगातार हो रही बारिश ने पूरी कर दी जिससे गाँव के भीतर कींचड़ और जल-जमाव का कब्जा हो गया था; और चाहकर भी किसी के दरवाजे पर नहीं जाया जा सकता था। घुप अंधेरे का साम्राज्य तो था ही।
  • दूसरी निराशाजनक बात यह सामने आयी कि पड़ोस की मेरी सबसे उम्रदराज भौजाई (पचासी साल की) पिछले दिनों चल बसी थीं जिनकी तेरहवीं की रस्म अगले दिन थी। हमारे लिए साल में दो बार, होली और दशहरा पर उनसे मिलना विशेष उत्सुकता का विषय होता था। उम्र में भारी अन्तर होते हुए भी हम तीन भाइयों के साथ उनका देवर-भाभी के रिश्ते का निर्वाह अद्‌भुत था। अब इसपर सदा के लिए विराम लग चुका था। उन्हें हमारी श्रद्धांजलि।
  • अपने घर पर अम्मा-बाबूजी से मिलना और उनका आशीर्वाद पाना सुकून देने वाला था। परिवार के अन्य कई सदस्यों से लंबे समय बाद भेंट हुई थी इसलिए देर रात तक बातें होती रहीं। गाँव के एक बड़े आदमी ने कालीस्थान पर अखंड रामायण का पाठ आयोजित कर रखा था जहाँ जाकर रामचरितमानस की चौपाइयाँ बाँचने का लोभ हो रहा था; लेकिन बताया गया कि उन्होंने संपूर्ण पाठ को पूरा करने का ठेका किसी बाहरी मंडली दे रखा है और इसमें गाँव के लोगों का स्वतःस्फूर्त सहयोग अपेक्षित नहीं हैं। काले बादलों की गर्जन और घनघोर बारिश की तर्जन ने वहाँ तक जाने का विचार स्थगित करा दिया और हम मच्छरदानी लगाकर घर के बाहरी बरामदे में सो गये। [बाद में इसके लिए लखनऊ लौटकर डाँट भी खानी पड़ी। मैंने स्वास्थ्य और शरीर दोनो की सुरक्षा को खतरे में जो डाल दिया था। Sad smile]
  • अगले दिन हमें सुबह आठ बजे ही लौटना था। लेकिन स्वर्गीया भौजाई के नाम पर उनके घर अन्न ग्रहण करने का भावुक आमंत्रण पाकर हमें वहाँ जाना ही था; सो हम गये और दही-चिउड़ा-चीनी-चटनी की अत्यल्प मात्रा के साथ बुनिया (शीरे में भिगोयी हुई बूँदी) खाकर लौट आये।
  • एक दिन पहले से जो बारिश चल रही थी वह बदस्तूर जारी थी। लेकिन मुझे डेढ़ बजे अवध एक्सप्रेस पकड़नी थी और बड़े भैया को अपनी ससुराल में एक गोद-भराई की रस्म में फूफा की भूमिका का निर्वाह करना था। इसलिए हम फिरसे उसी राह वापस चल पड़े और राह में जगह-जगह हुए जल-जमाव को पार करने के अलावा बिना किसी अन्य व्यवधान के वापस गोरखपुर आ गये।
  • 2013-10-14 18.56.52अवध एक्सप्रेस की यात्रा बहुत अच्छी रही। मैंने जाते ही ऊपरी बर्थ पर अपने को कंबल में लपेट लिया था और सो गया था। लेकिन गहरी नींद को भी भगाने वाली नीचे से आ रही कोमल और कर्णप्रिय बातचीत ने हमें नीचे आकर बैठ जाने पर मजबूर कर दिया। एक युवा दंपति के साथ उनकी दो नन्ही-नहीं बेटियाँ हमारी सहयात्री थीं। उनकी बातें हमें रास्ते भर गुदगुदाती रहीं। उनके करतब से कंपार्टमेंट में कोई भी सो नहीं सका था; लेकिन किसी को इसका मलाल भी नहीं रहा। मुझे भी नहीं, जबकि मैं कई दिनों से अच्छी नींद की तलाश में था।
  • लखनऊ जब बच्चों के पास लौटा तो सबने मेरी खूब मौज ली। बच्चों ने भी। आखिर मैं उनकी पसन्द का ख्याल किये बिना अपने गाँव वालों से मिलने जो गया था।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)  

मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

सेकुलरिज्म का श्रेय हिंदुओं को: विभूति नारायण राय

2013-10-06 21.30.34“हिंदुस्तान का बँटवारा मुस्लिम कौम के लिए एक अलग मुल्क की मांग के कारण हुआ। मुसलमानों ने अपने लिए पाकिस्तान चुन लिया। उस समय यह बहुत संभव था कि हिंदू भारतवर्ष में हिंदूराष्ट्र की स्थापना करने की मांग करते और जिस प्रकार पाकिस्तान से हिंदुओं को भगा दिया गया उसी प्रकार यहाँ से मुसलमानों को बाहर कर देते। लेकिन ऐसा हुआ नहीं; क्योंकि हिंदू जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा भारत को धर्म पर आधारित राष्ट्र नहीं बनाना चाहता था। हमने एक धर्मनिरपेक्ष संविधान बनाया और आज देश में सेक्युलर शक्तियाँ इतनी मजबूत हो चुकी हैं कि अब दक्षिणपंथी पार्टियाँ चाहें तो भी भारत एक हिंदूराष्ट्र नहीं बन सकता। यह देश ज्यों ही हिंदूराष्ट्र बनेगा, टूट जाएगा। भारत जो एक बना हुआ है तो इसका कारण यह सेक्युलरिज्म ही है; और इस सेक्युलरिज़्म के लिए हिंदुओं को श्रेय देना पड़ेगा।”

2013-10-06 19.54.00लखनऊ के जयशंकर प्रसाद सभागार (राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह) में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने जब यह बात कही तो दर्शक दीर्घा में तालियाँ बजाने वालों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं थी। इसका कारण भी स्पष्ट था। दरअसल यह मौका था हफ़ीज नोमानी के जेल-संस्मरण पर आधारित पुस्तक “रूदाद-ए-क़फ़स” के हिंदी संस्करण के लोकार्पण का और आमंत्रित अतिथियों में हफ़ीज साहब के पारिवारिक सदस्यों, व्यावसायिक मित्रों, पुराने सहपाठियों, मीडिया से जुड़े मित्रों, उर्दू के विद्वानों, और शेरो-शायरी की दुनिया के जानकार मुस्लिम बिरादरी के लोगों की बहुतायत थी। मंच पर हफ़ीज नोमानी साहब के सम्मान में जो लोग बैठाये गये थे उनमें श्री राय के अलावा लखनऊ विश्वविद्यालय के डॉ.रमेश दीक्षित, पूर्व कुलपति और “साझी दुनिया” की सचिव प्रो.रूपरेखा वर्मा, पूर्व मंत्री अम्मार रिज़वी, जस्टिस हैदर अब्बास रज़ा, नाट्यकर्मी एम.के.रैना, पत्रकार साहिब रुदौलवी और कम्यूनिस्ट पार्टी के अतुल कुमार “अन्जान” भी शामिल थे। दर्शक दीर्घा में मशहूर शायर मुनव्वर राना भी थोड़ी देर के लिए दिखे लेकिन वे कहीं पीछे चले गये।

Hafeez Nomani-Rudad-e-Kafasपुस्तक की प्रस्तावना में बताया गया है कि- “रूदाद-ए-कफ़स एक ऐसी शख्सियत का इकबालिया बयान है जिसने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से “मुस्लिम” लफ्ज़ हटाने और उसकी अकलियती स्वरूप को खत्म करने की नीयत से मरक़जी हुकूमत द्वारा 20 मई 1965 को जारी किये गये अध्यादेश की पुरज़ोर मुखालिफत करने के लिए अपने साप्ताहिक अख़बार “निदाये मिल्लत”  का मुस्लिम यूनिवर्सिटी नंबर निकालकर और हुकूमत की खुफिया एजेन्सियों की दबिश के बावजूद उसे देश के कोनो-कोनों तक पहुँचाकर भारतीय राज्य के अक़लियत विरोधी चेहरे को बेनकाब करने और तत्कालीन मरकज़ी हुकूमत को खुलेआम चुनौती तेने का जोख़िम उठाया था और अपने उस दुस्साहसी कदम के लिए भरपूर कीमत भी अदा की थी, पूरे नौ महीने जेल की सलाखों के भीतर गु्ज़ारकर।”

इस कार्यक्रम के मंच संचालक डॉ.मुसुदुल हसन उस्मानी थे जो प्रत्येक वक्ता के पहले और बाद में खाँटी उर्दू में अच्छी-खासी तक़रीर करते हुए कार्यक्रम को काफी लंबा खींच ले गये थे और उतनी देर माइक पर रहे जितना सभी दूसरे बोलने वालों को जोड़कर भी पूरा न होता। अंत में जब अध्यक्षता कर रहे कुलपति जी की बारी आयी तबतक सभी श्रोता प्रायः ऊब चुके थे। उनके पूर्व के वक्ताओं ने बहुत विस्तार से उन परिस्थितियों का वर्णन किया था जिसमें श्री नोमानी जेल गये थे और जेल के भीतर उन्हें जो कुछ देखना पड़ा। बहुत सी दूसरी रोचक बातें भी सुनने को मिलीं।

2013-10-06 19.55.44अतुल कुमार “अंजान” ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लगातार संघर्ष करने के लिए हफ़ीज़ नोमानी की सराहना की। प्रो.रूपरेखा वर्मा ने पुस्तक में व्यक्त किये गये इस मत का समर्थन किया कि आज भी राज्य सरकार की मशीनरी में हिंदू सांप्रदायिकता का रंग चढ़ा हुआ है जो मुस्लिमों के प्रति भेदभाव का व्यवहार करती है। डॉ रमेश दीक्षित ने तो इस पुस्तक की प्रस्तावना में लिखी अपनी यह सरासर ग़लत बात भी मंच से दुहरा दी कि 20 मई 1965 में केंद्र सरकार ने जो अध्यादेश लाया था उसका असल उद्देश्य अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से “मुस्लिम” शब्द हटाने का था और बी.एच.यू. का नाम तो केवल बहाने के लिए जोड़ा गया था।

एक तुझको देखने के लिए बज़्म में मुझे।
औरों की सिम्त मसलहतन देखना पड़ा॥

उन्होंने कहा - “हकीकत यह है कि मुस्लिम समुदाय का अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के साथ जितना गहरा जज़्बाती और अपनेपन का रिश्ता रहा है उतना गहरा रिश्ता हिंदू लफ़्ज जुड़ा रहने के बावजूद बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के साथ बहुसंख्यक हिंदू समाज का कभी नहीं रहा।” दीक्षित जी यह भी बता गये कि उस यूनिवर्सिटी का नाम अंग्रेजी में तो बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी है लेकिन उसका हिंदी नाम काशी विश्वविद्यालय है काशी हिंदू विश्वविद्यालय नहीं। उनकी इस जबरिया दलील को विभूति जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में खारिज कर दिया।

सेक्यूलरिज़्म के सवाल पर जो खरी बात कुलपति जी ने कही उसका कारण यह था कि हफ़ीज़ मोमानी की जिस किताब का लोकार्पण उन्होंने अभी-अभी किया था उसमें लिखी कुछ बातें उनके गले नहीं उतर रही थीं। समय की कमी के बावजूद उन्होंने एक उद्धरण पृष्ठ-19 से सुनाया- “लेकिन यह भी सच है मुल्क की तकसीम होने और पाकिस्तान बनने के बाद आम तौर पर हिंदू लीडरों और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का व्यवहार मुसलमानों के प्रति नफ़रत और दूसरे दर्ज़े के शहरी जैसा होता जा रहा था। वास्तविकता यह है कि 90 प्रतिशत हिंदू लीडरों और कार्यकर्ताओं को यह बात सहन नहीं होती थी कि पाकिस्तान बनने के बाद भी चार करोड़ मुसलमानों की मौजूदगी अपनी आंखों से वे यहाँ देख रहे थे।…”

विभूति नारायण राय ने इस धारणा पर चोट करते हुए उपस्थित लोगों में हलचल मचा दी। कानाफूसी होने लगी जब उन्होंने जोर देकर कहा कि हिंदुस्तान में यदि सेक्युलरिज्म मजबूत हुआ है तो वह इन 90 प्रतिशत हिंदुओं की वजह से ही हुआ है। उन्होंने जोड़ा कि इस जमाने में सबके के लिए सेक्यूलरिज ही एक मात्र रास्ता है- न सिर्फ़ भारत के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए। यह पाकिस्तान में भी उतना ही जरूरी है और सऊदी अरब में भी। यह नहीं चलेगा कि आप हिंदुस्तान में तो सेक्यूलरिज़्म की मांग करें और जहाँ बहुसंख्यक हैं वहाँ निज़ाम-ए-मुस्तफा की बात करें।

मेरे बगल में बैठे एक नौजवान मौलवी के चेहरे पर असंतोष की लकीरें गहराती जा रही थीं। अंत में उसने अपने बगलगीर से फुसफुसाकर पूछा- इन्हें सदारत के लिए किसने बुलाया था?

   पुस्तक : रूदाद-ए-क़फ़स (नौ महीने कारागार में)
    लेखक : हफ़ीज़ नोमानी 
प्रकाशक : दोस्त पब्लिकेशन, भोपाल हाउस, लालबाग-लखनऊ
    संपर्क : 9415111300

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

रविवार, 6 अक्तूबर 2013

वीसी की सीवी : राजकिशोर

राजकिशोर पत्रकारिता के क्षेत्र में अच्छी प्रतिष्ठा रखते हैं। देश के लगभग सभी बड़े अखबारों में उनके आलेख और स्तंभ पाठकों द्वारा रुचिपूर्वक पढ़े जाते हैं। अप्रिय सत्य बोलने में माहिर इस यायावर ने स्वतंत्र लेखन का लंबा सफर तय करने के बाद जब वर्धा विश्वविद्यालय में आवासी लेखक (Writer-in-Residence) का प्रस्ताव स्वीकार किया तो कुछ हलकों में इसे हैरत से देखा गया। जिन्होंने वर्धा विश्वविद्यालय के बारे में कभी  “दरोगा का हरमजैसा जुमला इस्तेमाल किया था वे स्वयं जब उस परिसर में लेखक बनकर गये तो उनकी धारणा में आमूल परिवर्तन हो गया। उन्हें वर्धा परिसर इतना भाया कि एक कार्यकाल पूरा होने के बाद वहीं हिंदीसमय वेबसाइट के संपादक की नौकरी कर ली। यदि उम्र साथ देती तो शायद वे वर्धा से अपनी विदाई अभी भी नहीं होने देते। मूलतः स्वतंत्र प्रकृति के बेखौफ़ टिप्पणीकार राजकिशोर के तेवर का कायापलट कैसे हुआ इसका अनुमान दैनिक जागरण के विमर्श पृष्ठ पर प्रकाशित  उनके हाल के आलेख से मिलता है जो उन्होंने वर्धा विश्वविद्यालय से विदा लेने के बाद लिखा है। अंतर्जाल के पाठकों के लिए इसे अविकल रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ :

वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूतिनारायण राय अगले महीने (अक्तूबर) की २८ तारीख को पदमुक्त हो रहे हैं। उस दिन या उसके दो-चार दिन पहले वहाँ उनका भव्य विदाई समारोह होना निश्चित है। स्वागत और विदाई समारोह झूठी प्रशंसा के प्रचंड ज्वालामुखी होते हैं। इस प्रशंसावली से कुछ व्यक्तियों की छाती फूल जाती है। वह अपने को दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति समझने लगते हैं। विभूति बाबू ऐसे नहीं हैं, वह तुरंत ताड़ जाते हैं कि कोई उनकी प्रशंसा या निंदा क्यों कर रहा है। अपने बारे में ऐसी तटस्थता मैंने कम ही देखी है। मार्क करने की बात यह है कि वे अपनी निन्दा में भी रस लेते हैं, अक्सर मुस्कराते हुए और कभी-कभी हँसते हुए यह बताते हैं कि क या ख उनके बारे में क्या कह रहा था। फिर उसी अन्दाज में बताने लगते हैं कि क या ख ने ऐसा क्यों किया होगा? काश हम सभी में यह खूबी विकसित हो पाती। तब हमारा जीना कितना आसान हो जाता।

किसी भी कुलपति का जीवन आसान नहीं होता। यूं समझिए कि उसे एक छोटी-मोटी सरकार चलानी होती है। जहाँ सरकार होगी वहाँ विपक्ष भी होगा। विश्वविद्यालय की सरकार भी पाँच वर्ष के लिए होती है। फिराक़ गोरखपुरी का एक शेर है-

सुना है जिंदगी है चार दिन की।
बहुत होते हैं यारों चार दिन भी।

बहुत से कुलपतियों के बारे में सुना है कि अपने कुछ लक्ष्य पूरे हो जाने के बाद वे अधेड़ बहादुर शाह ज़फर की तरह वक्त काटने लगते हैं। मुझे विश्वास है कि अपने कार्यकाल के अंतिम दिन भी विभूति बाबू सुबह की सैर पर निकलेंगे, तो जहाँ भी उन्हें कुछ कमी दिखायी देगी जैसे किसी पौधे को पानी नहीं दिया गया है, कहीं गंदगी जमा है, कहीं रास्ते में पत्थर पड़े हुए हैं या किसी साइनबोर्ड में वर्तनी की भूल है तो उसे दूर करने के लिए वह संबंधित व्यक्ति को जरूर चेताएंगे। विभूति बाबू को सफाई और व्यवस्था का एक तरह से एडिक्शन है।

जागरण सेमुझे अपने ऑफिस का पहला दिन कभी नहीं भूलेगा। आम तौर पर कोई भी कुलपति यह देखने नहीं आता कि किसी अधिकारी को जो कक्ष आबंटित किया गया है, उसकी हालत कैसी है। उसे अपने को देखने से ही फुरसत नहीं मिलती। हिंदीसमयडॉटकॉम के संपादक के रूप में जब मुझे अपना कमरा वर्जीनिया वुल्फ का अपना कमरा नहीं मिला, तब स्वयं विभूति बाबू मेरे साथ आये और जांच करने लगे कि कहीं कोई खामी तो नहीं है। छत के एक कोने में जाले लगे हुए थे। उनकी निगाह उधर गयी तो तुरंत उन्होंने सफाई कर्मचारी को बुलवाकर उसे हटवाया। उनका यही दृष्टिकोण विश्वविद्यालय के कण-कण के प्रति रहा है। शायद ही कोई कुलपति अपने विश्वविद्यालय को उतनी बारीकी से जानता होगा जितना विभूति नारायण राय अपने विश्वविद्यालय को जानते हैं। वह जुनूनी आदमी हैं और जुनूनी आदमियों को प्यार करते हैं। भीतर से हर आदमजाद जटिल होता है। विभूति बाबू भी होंगे, लेकिन यह उनकी अपनी दुनिया है। दूसरों को पाला तो उनकी सरलता से ही पड़ता है।

2010 के जून महीने में एक दिन अचानक उनका फोन आया था कि आप आवासी लेखक के रूप में वर्धा आ जाइए। इतनी सरलता से कोई काम मुझे कभी नहीं मिला था और जमाने की रंगतें देखकर दावा कर सकता हूँ कि अब न कभी मिलेगा। बाद में इसी सरलता से उन्होंने मुझे हिंदीसमय के संपादक के लिए चुन लिया। अन्य क‍इयों के लिए उन्होंने ऐसा ही किया है। सबसे बड़ी बात यह है कि वह इसकी कीमत वसूल नहीं करते। अपने सभी शुभचिंतकों को, जिन्हें मैंने देखा भी नहीं पर जो मेरे चरित्र पर हमेशा निगाह रखते हैं, मैं आश्वस्त करना चाहता हूँ कि वर्धा में मैं किसी के हरम में नहीं रहा, न इसके लिए कभी आमंत्रित किया गया। सचमुच किसी के हरम में कोई पाँव रखता है तो अपनी मर्जी से रखता है। पतन के लिए कोई किसी को बाध्य नहीं कर सकता।

वर्धा प्रवास में जिन दिलचस्प व्यक्तियों से मुलाकात हुई, उनमें आलोकधन्वा और रामप्रसाद सक्सेना का स्थान सबसे ऊपर है। दोनों में कुछ प्रवृत्तियाँ कॉमन हैं। दोनो ही से दस मिनट से ज्यादा बात करते रहने के लिए गहरा प्रेम और अपरिमित धैर्य चाहिए। आलोकधन्वा अत्यन्त प्रतिभाशाली कवि रहे हैं। वक्ता भी वह गजब के हैं। सक्सेना जी भाषा विज्ञान की बारीकियों के जानकार हैं। वह स्वगत बोलने के आदी हैं। मजाल है कि उनके सामने कोई जी और हाँ के अलावा कुछ और बोल सके। यह विभूति बाबू की विलक्षणता है कि उन्होंने न केवल कविवर को पौने दो साल तक प्रेमपूर्वक झेला, बल्कि भाषाविज्ञानी को एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी, जिसका ठीक से निर्वाह न होने पर भी उसे सादर सहते रहे, लेकिन दोनो ही मामले में अन्ततः यही साबित हुआ कि सब्र की भी सीमा होती है।

जो जितना सरल होता है, वह उतना ही अधिक उपलब्ध रहता है। जब मैं कलकत्ता विश्वविद्यालय में पढ़ता था, तब मुझे वहाँ के वीसी और प्रो-वीसी को देखने का एक भी अवसर नहीं मिला। हम सभी के लिए वह सिर्फ़ नाम या तख्ती थे। वर्धा विश्वविद्यालय में जो व्यक्ति मिलने के लिए सबसे ज्यादा उपलब्ध था, वह स्वयं वीसी थे। वह अफसर थे और जरूरत पड़ने पर अफसरी भी दिखाते थे, पर उनकी अफसरी में यह शामिल नहीं था कि उनसे मिलने के लिए किसी की सिफारिश लगानी पड़े।

कोई टोक सकता है कि मैं विभूति नारायण राय की तारीफ पर तारीफ क्यों किये जा रहा हूँ, क्या मुझे उनकी कमियाँ दिखायी नहीं देतीं? निवेदन है कि मैं यहां उनकी समीक्षा करने नहीं बैठा हूँ। यह काम चित्रगुप्तों का है। मैं तो वही बातें लिखना चाहता हूँ जो वीसी की सीवी में जोड़ने लायक हैं। हर समाज में ऐसे अनेक व्यक्ति होते हैं जिनकी सीवी का कुछ हिस्सा दूसरों को अवश्य लिखना चाहिए।

-राजकिशोर

राजकिशोर जी से मेरी पहली भेंट (अप्रैल-2010)
कैण्टीन में राजकिशोर जी मिले
सभ्यता का भविष्य बताते राजकिशोर जी

पुनश्च : राजकिशोर जी से मेरी पहली भेंट तब हुई थी जब वे अप्रैल-2010 में वर्धा परिसर में ‘सभ्यता का भविष्य’ विषय पर अपना व्याख्यान देने आये थे और मैं अपनी प्रतिनियुक्ति के प्रस्ताव पर निर्णय लेने से पूर्व विश्वविद्यालय परिसर के साक्षात्‌ दर्शन कर लेने के उद्देश्य से तीन दिन के लिए वर्धा की यात्रा पर गया हुआ था। वहाँ से लौटकर लिखे गये अपने यात्रा वृत्तान्त में मैंने राजकिशोर जी की चर्चा यों की थी-

…इसी बीच एक छोटेकद के श्यामवर्ण वाले भयंकर बुद्धिजीवी टाइप दिखने वाले महाशय का पदार्पण हुआ। उन्होंने बैठने से पहले ही कैन्टीन के वेटर से कहा कि मुझे बिना चीनी की चाय देना और दूनी मात्रा में देना। यानि कप के बजाय बड़ी गिलास में भरकर। मुझे मन ही मन उनकी काया के रंग का रहस्य सूझ पड़ा और सहज ही उभर आयी मेरे चेहरे की मुस्कान पर उनकी नजर भी पड़ गयी। मैने झेंप मिटाते हुए उनका परिचय पूछ लिया।

वे तपाक से बोले- “मुझे राजकिशोर कहते हैं… दिल्ली से आया हूँ। आप कहाँ से…?”

मेरे यह बताने पर कि मैं इलाहाबाद से आया हूँ और वहाँ कोषाधिकारी हूँ, उन्होंने सीधा सवाल दाग दिया- “अच्छा, ये बताइए कि ट्रेजरी में भ्रष्टाचार की स्थिति अब कैसी है?”

पूरा वाकया पढ़ने के लिए यहाँ चटका लगाइए।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)