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गुरुवार, 8 अगस्त 2013

खुद करके देखो...

[मेरे मेलबॉक्स में एक मित्र का भेजा एक सामूहिक मेल मिला। अंग्रेजी में। इसके अन्त में यह अपील थी कि इसे अधिक से अधिक लोगों तक फॉरवर्ड कीजिए। यह अपील यदि प्रारंभ में होती तो शायद मैंने बिना पढ़े ही इसे मिटा दिया होता। लेकिन पूरी कहानी पढ़ने के बाद स्थिति दूसरी हो गयी। मैंने इसे हिंदी में प्रसारित करने का निर्णय लिया। इसका मूल संदेश तो मेरे मन में बहुत पहले से बैठा हुआ था जिसे लेकर कई बार अपने घर में चर्चा कर चुका हूँ। लेकिन आज इसे बहुत सुन्दर तरीके से समझाता हुआ यह संदेश मिला तो मेरी पौ-बारह हो गयी। इसे देखिए फिर बताइए आप क्या सोचते है।]

यह कहानी भीतर तक कुरेदती है।

एक नौजवान ने एक बड़ी कंपनी में मैनेजर की पोस्ट के लिए आवेदन किया। प्रारंभिक चरण के साक्षात्कार में सफल होने के बाद अब उसे कंपनी के निदेशक से मिलना था – फाइनल इंटरव्यू के लिए।

निदेशक ने उसके आत्मवृत्त (सी.वी.) से जान लिया कि उसकी शैक्षणिक उपलब्धियाँ उत्कृष्ट कोटि की हैं। उसने पूछा- “क्या तुम्हें स्कूल में कोई छात्रवृत्ति मिलती थी?” नौजवान ने जवाब दिया- “नहीं”

“तो क्या तुम्हारी स्कूल फीस तुम्हारे पिताजी ने दी ?”

“मेरे पिताजी की मृत्यु बहुत पहले हो गयी थी, जब मैं मात्र एक वर्ष का था। ...मेरी फीस तो मेरी माँ देती है।” उसने जवाब दिया।

“तुम्हारी माँ कहाँ काम करती है?”

“मेरी माँ कपड़े धुलती है।”

निदेशक ने उससे अपने हाथ दिखाने को कहा। नौजवान ने अपने हाथ दिखाये जो बहुत कोमल और सुन्दर थे। बिल्कुल तराशे हुए दिखते थे।

“क्या तुमने कभी अपनी माँ के साथ कपड़े धोए हैं? कभी उनकी मदद की है?”

“कभी नहीं, मेरी माँ हमेशा चाहती थी कि मैं पढ़ाई करूँ, अधिक से अधिक किताबें पढ़ूँ। इसके अलावा मेरी माँ कपड़े बहुत जल्दी-जल्दी धो लेती है। मुझसे कहीं ज्यादा तेजी से।”

निदेशक ने कहा, “मेरा एक अनुरोध है। जब तुम आज घर जाना तो अपनी माँ के हाथ देखना और उन्हें खूब अच्छी तरह धोना। उसके बाद कल सुबह मुझसे मिलना।”

नौजवान को लगा कि अब उसे नौकरी शायद मिल ही जाएगी। घर लौटकर उसने अपनी माँ से कहा कि वह उसके हाथ धोना चाहता है। माँ को यह अजीब लगा। वह खुश तो थी लेकिन मन में मिश्रित भाव लिए उसने अपना हाथ बेटे के आगे कर दिया।

effort and experienceयुवक ने अपनी माँ का हाथ धीरे-धीरे धोना शुरू किया ...और उसकी आँखों ने रोना...। यह पहली बार था जब उसने देखा कि माँ के हाथों में कितनी झुर्रियाँ है और कितने घाव के निशान हैं। कुछ घाव तो इतने दर्द से भरे हुए थे कि जब वह छू रहा था तो माँ के मुँह से सिसकी निकल जाती। एक दबायी हुई कराह...।

यह पहली बार था जब उसे भान हुआ कि इन्ही चोटिल हाथों से उसकी माँ रोज कपड़े धोती है ताकि उसकी पढ़ाई के लिए फीस जमा कर सके। उसकी पढ़ाई के लिए, उसके स्कूल की दूसरी गतिविधियों के लिए और उसका भविष्य सँवारने के लिए उसकी माँ को जो कीमत चुकानी पड़ती थी वे उसके हाथों में रिसते घावो की पीड़ा ही थी।

माँ के हाथ धोने के बाद उस नौजवान ने चुपचाप वो सारे कपड़े धो डाले जो उसकी माँ को धोने थे।

उस रात माँ-बेटे बहुत देर तक आपस में बात करते रहे।

अगली सुबह वह निदेशक के कार्यालय में पहुँचा।

“अच्छा बताओ, कल तुमने अपने घर क्या किया और क्या सीखा?” निदेशक ने यह पूछने से पहले उस नौजवान की आँखों में तिर आयी नमी को देख लिया था।

उसने बताया, “मैंने अपनी माँ के हाथों को धोया और बाकी बचे सारे कपड़े भी धो डाले...”

“अब मैं जान गया हूँ कि दूसरों के काम का मूल्य समझना क्या होता है। मैं जो आज हूँ वह माँ के बिना नहीं बन सकता था। माँ का हाथ बँटाने के बाद मैंने आज ही जाना कि अपने आप अपने हाथ से कोई काम करना कितना कठिन और दुष्कर होता है। मुझे अब पता चला है कि अपने परिवार की देखभाल करने और उसे संभालने का काम कितना महत्वपूर्ण और मूल्यवान है।”

निदेशक ने कहा, “बस यही है जो मैं एक मैनेजर में देखना चाहता हूँ। मैं एक ऐसे व्यक्ति की भर्ती करना चाहता हूँ जो दूसरों की मदद का मोल समझ सके, जो यह जानता हो कि कोई काम करके देने में कितनी तक़लीफ उठानी पड़ती है, और जिसने जीवन में केवल धन कमाने का एकमात्र लक्ष्य नहीं निर्धारित किया हो।”

“अब तुम चुन लिये गये हो”

इस नौजवान ने कड़ी मेहनत से काम किया और अपने अधीनस्थों के लिए खूब आदर व सम्मान का पात्र बना। सभी कर्मचारियों ने एक टीम की तरह खूब परिश्रम किया। कंपनी के प्रदर्शन में गजब का उछाल आ गया।

एक ऐसा बालक जिसे खूब संरक्षण दिया गया हो और उसे सभी मनचाही चीजें आसानी से पा जाने की आदत पड़ गयी हो, उसके भीतर एक ‘हकदारी की मानसिकता’ (entitlement mentality) विकसित हो जाती है। वह अपने को ही सबसे पहले रखने का आदी हो जाता है। वह अपने माँ-बाप की कठिनाइयों और संघर्ष से पूरी तरह अन्‍जान होता है। जब वह काम करना शुरू करता है तो यह मानकर चलता है कि सबको उसकी बात सुननी ही चाहिए। जब वह एक मैनेजर बन जाता है तो वह अपने कर्मचारियों की कठिनाइयाँ जान ही नहीं पाता है और हमेशा उन्हें दोषी ठहराता रहता है।

इस प्रकार के लोग हो सकता है पढ़ाई में बहुत आगे रहे हों और कुछ समय के लिए सफल भी हो गये हों; लेकिन अन्ततः उन्हें जीवन में कुछ उपलब्धि पा लेने का एहसास नहीं हो पाता है। वे हमेशा कुढ़ते रहते हैं, विद्वेष से भरे होते हैं और अधिक से अधिक पाने के लिए लड़ते रहते हैं। यदि हम अपने बच्‍चों को इस प्रकार का अतिशय दुलार और संरक्षण दे रहे हैं तो सोचिए, क्या हम उन्हें वास्तव में प्यार कर रहे हैं कि उल्टे अपने ही हाथों उन्हें बर्बाद कर रहे हैं।

OLYMPUS DIGITAL CAMERA         यह ठीक है कि आप अपने बच्‍चे को रहने के लिए एक बड़ा घर दे सकते हैं, खाने के लिए अच्छा भोजन दे सकते हैं, पियानो सिखा सकते हैं और बड़ी स्क्रीन वाली टीवी देखने को दे सकते हैं, लेकिन जब आप लॉन में घास काट रहे हों तो उन्हें भी यह करने को प्रेरित कीजिए। उन्हें अच्छा अनुभव होगा। भोजन करने के बाद उन्हें भाई-बहनों के साथ अपनी जूठी थाली और कटोरियाँ धुलने दीजिए। फर्श पर कुछ गिर गया हो तो उसे साफ करने को कहिए।

यह इसलिए नहीं कि आपके पास कामवाली बाई रखने को पैसे नहीं है, बल्कि इसलिए कि आप को उन्हें एक सही तरीके से प्यार करना है। उन्हें यह समझाना है कि उनके माता-पिता चाहे जितने अमीर हों, एक दिन जरूर आयेगा जब उनके बाल भी सफेद हो जाएंगे जैसे उस नौजवान की बूढ़ी माँ के हो गये थे। सबसे महत्वपूर्ण बात उन्हें यह समझाना है कि कोई काम अपने हाथ से करने में जो कष्ट होता है उसका अनुभव होना जरूरी है और उसका मूल्य इन्हें समझना चाहिए। दूसरों के साथ मिलकर कोई काम कैसे पूरा किया जाता है यह योग्यता उन्हें सीखनी चाहिए।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

28 टिप्‍पणियां:

  1. सबका कार्य जानना चाहिये, हाथ बटाना चाहिये, और सम्मान भी करना चाहिये। सुन्दर प्रेरक कथा।

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  2. दृष्टि को आमूल-चूल बदल देता प्रेरक दृष्टांत!!

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  3. Inspiring story...i m fully inspired..@

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  4. बहुत ही सुन्दर और प्रेरणादायी कथा
    सार्थक पोस्ट

    बधाई / आभार

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  5. अंगरेजी साहित्य में खूब रमा जा रहा है इन दिनों !

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    1. यह साहित्य नहीं था बल्कि लगभग स्पैम हो जाने लायक bulk mail था।

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  6. हमारे परिवार में तो मैं ने बचपन से देखा है कि सब लोग मिलजुल कर काम करते हैं, बच्चे भी। किसी को कोई काम करने में संकोच नहीं।

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    1. कुछ नव-धनाढ्य परिवारों में बच्चों को pamper करने की प्रवृत्ति पायी जाती है जिससे बचने की सलाह इस बोधकथा में दी गयी है। निस्संदेह आपका परिवार उस कोटि का नहीं है।

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  7. बहुत ही अच्छी और प्रेरक कहानी।
    मुझे मेरे माता-पिता ने हर काम करना सिखाया और मैंने भी वही किया अपने बच्चों के साथ.। मैं अक्सर ट्रावेल करती हूँ, लेकिन हमारे घर का कोई काम नहीं रुकता, हमारे दो बच्चे पूरा घर बहुत अच्छी तरह सम्हालते हैं, हमारा छोटा बेटा बाहर रहता है, पढ़ाई के साथ-साथ, खाना पकाना, कपड़े धोना, बर्तन मांजना हर काम करता है, और तारीफ की बात ये है कि अकेला रहते हुए भी और विद्यार्थी होते हुए भी उसके कपड़े, बिस्तर, बर्तन, बाथरूम सबकुछ बहुत साफ़-सुथरे होते हैं, अक्सर उसके प्रोफ़ेसर्स उसका उदाहरण दिया करते हैं दूसरे विद्यार्थियों को.. पढाई में भी तीनों अच्छे रहे हैं.। जहाँ तक हाथ के कोमल होने का प्रश्न है, वो तो कभी नहीं रहे :)

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  8. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  9. यह पोस्ट आप ही लिख सकते हैं ..क्योकि आपके अन्दर इंसानियत जिन्दा है और उसका कारण यह है की आप भी अपनी मूलभूत जरूरत पूरा करने के लिए मेहनत व ईमानदारी का ही सहारा लेते हैं ....

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  10. सीधी सच्ची और अच्छी सी बात ।

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  11. बहुत ही प्रेरक दुसरे के कार्य का मूल्य तब तक नहीं समझा जा सकता जबतक स्वयं वही काम नहीं किया जाये . मेरे घर के सामने बहुत घास जमा था , आज मैंने निश्चय किया कि उसकी सफाई कर दी जाए , यद्यपि यह आसान था कि एक मजदूर लाकर यह काम कर लिया जाये पर मैने उसे स्वयं करने का निश्चय किया और कुछ ही देर के बाद सचमुच मुझे मजदूर द्वारा किये जाने वाले काम के श्रम का अहसास हो गया था . ,

    आपके इस पोस्ट के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (12.08.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें .

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  12. जीवन का अनुभव करने के लिए अब तक मिले कम ही समय में मुझे एहसास हुआ है कि सभी प्रकार के कार्यो मे आत्मनिर्भर होना व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन में प्राप्य उप्लब्धियॊ के लिये बहुत महत्वपूर्ण कारकों में से एक है। इसकी शुरुआत निश्चित ही बचपन से ही होती है और स्वाभाविक रूप से माता पिता द्वारा ही की जा सकती है। आज के समय मॆ DIY (do it yourself) trend से पूरी तरह सहमत।

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  13. आपकी इस ब्लॉग-प्रस्तुति को हिंदी ब्लॉगजगत की सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुतियाँ ( 6 अगस्त से 10 अगस्त, 2013 तक) में शामिल किया गया है। सादर …. आभार।।

    कृपया "ब्लॉग - चिठ्ठा" के फेसबुक पेज को भी लाइक करें :- ब्लॉग - चिठ्ठा

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  14. जब तक बच्चों को यह अनुभव नहीं होगा कि ईमानदारी से जीवन-यापन के लिए कितना श्रम और कष्ट उठाने पड़ते हैं वे
    प्राप्त साधनों का सदुपयोग नहीं कर पायेंगे,न उनमें वे सुविधाएं देनेवाले के लिए कृतज्ञता,सम्मान आदि के संस्कार विकसित होंगे,जैसे आज की पीढ़ी में अक्सर दिखाई दे रहा है.इस आंखें खोलनेवानी कहानी के लिए धन्यवाद !

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