हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

मंगलवार, 28 मई 2013

औरतों को पूरा बदल देना चाहते हैं चेतन भगत

chetan bhagatचेतन भगत ने अपने उपन्यासों से नौजवानों के बीच अपनी विशिष्ट पहचान बना ली है। एक बिन्दास, साहसी, स्पष्ट सोच रखने वाला और बातों का धनी नौजवान लेखक। सामाजिक मसलों पर खुली राय रखने के लिए उन्हें टीवी चैनेलों पर भी देखा जा सकता है और यत्र-तत्र अंग्रेजी अखबारों में भी। कुछ नया सोचने और पेश करने का सलीका उन्हें खूब आता है। हाल ही में महिला दिवस के मौके पर लिखे अपने एक छोटे से आलेख (ब्लॉग पोस्ट) में उन्होंने पहले तो वे बिन्दु गिनाये हैं जो महिलाओं के प्रति पुरुषों के व्यवहार में परिवर्तन की अपेक्षा करते हैं। इसे ईमानदारी से उन्होंने स्वीकार भी कर लिया; लेकिन उनकी चर्चा फिर कभी। यहाँ यह बताना है कि उस आलेख में उन्होंने यह सलाह दे डाली कि सभी महिलाओं को अपने भीतर निम्नलिखित पाँच मौलिक परिवर्तन करने की आवश्यकता है :

  1. दूसरी महिलाओं की अनावश्यक आलोचना करना बन्द करें। वे हमेशा दूसरी महिलाओं के बारे में अपना फैसला सुनाने को आतुर रहती हैं। यह फैसला प्रायः कठोर ही रहता है। वे अपने प्रति भी कठोर होती हैं लेकिन महिलाएं एक-दूसरे के प्रति तो कुछ ज्यादा ही कठोर होती हैं। खराब फिटिंग के पहनावे से लेकर बिगड़ गये पकवान तक। वे टिप्पणी करने से नहीं चूकतीं। भले ही वे जानती हैं कि कोई भी सर्वगुणसंपन्न नहीं होता।
  2. झूठा व्यवहार करना बन्द करें। महिलाओं में यह आम प्रवृत्ति होती है कि अगले को खुश करने के लिए, खासकर पुरुष-अहम्‌ को तुष्ट करने के लिए ऐसा कुछ करती हैं जो उन्हें खुद ही सही नहीं लगता। जैसे किसी बचकाने चुटकुले पर भी जबरदस्ती हँसना, बॉस द्वारा नाजायज काम सौंपने पर भी खुशी-खुशी स्वीकर कर लेना, किसी बड़बोले की आत्मश्लाघा को चुपचाप सुनते हुए उसे अपने से श्रेष्ठतर समझने देना। यह सब खुद के साथ अच्छा व्यवहार नहीं है।
  3. अपने संपत्ति संबंधी अधिकारों के लिए खड़ी हों। भारत में असंख्य महिलाएँ अपनी संपत्ति का अधिकार अपने भाइयों, पुत्रों या पतियों के हाथों लुटा देती हैं। इसके लिए उन्हें आगे बढ़कर अपना अधिकार प्रकट करना चाहिए।
  4. महत्वाकांक्षी बनें और बड़े सपनें देखें। भारत के सभी नौजवानों के सीने में एक आग होनी चाहिए। भारतीय समाज की जो संरचना है उसमें लड़कियों के लिए जो सपने देखे जाते हैं वे लड़कों से अलग हैं। लड़कियाँ उतनी महत्वाकांक्षा नहीं रख पातीं जितना लड़के। लड़कियों को खुद ही इस स्थिति को बदलना होगा।
  5. रिश्तों के नाटक में ज्यादा मत उलझें। रिश्ते बहुत जरूरी हैं, लेकिन इतने भी नहीं। एक अच्छी माँ होना, पत्नी होना, बहन होना, बेटी होना, दोस्त होना या एक अच्छी प्रेमिका होना बहुत ही महत्वपूर्ण है, लेकिन इन रिश्तों में पूरी तरह खो जाना ठीक नहीं है। आपके जिम्मे एक और रिश्ता है- स्वयं से। रिश्तों के नाम पर इतना त्याग न करें कि आप अपने आप का ही बलिदान कर दें।

यह पाँचो सदुपदेश देखने में बहुत आकर्षक हैं और फॉलो करने लायक हैं। मैं अपनी बेटी को जरूर सिखाऊंगा। लेकिन इसपर पाठकों की जो राय आयी है वह भी बहुत रोचक है और मंथन को प्रेरित करती है।

मुम्बई की स्निग्धा इन पाँचों का जवाब यूँ देती हैं :

    1. क्या मर्द हमारी आलोचना नहीं करते हैं। हमने यह उन्हीं से सीखा है।
    2. क्या आप कभी मर्दों की ओछी हरकतों के शिकार हुए हैं- ‘वाह क्या बॉडी है’ वाली मानसिकता के? इनसे बचने के लिए झूठा व्यवहार करना ही पड़ता है।
    3. संपत्ति के अधिकार के बारे में अब जागरुकता बढ़ रही है। लेकिन अभी कितनी ग्रामीण औरतें इसका नाम भी जानती हैं?
    4. अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए पैसा कहाँ से लाएँ। अच्छा, खुद कमाकर?
    5. रिश्ते ! हिलैरी क्लिंटन को भी पहले बिल क्लिंटन की पत्नी कहा जाता है और बाद में अमेरिका की विदेश मंत्री।

टिप्पणियाँ तो और भी करारी हैं लेकिन यहाँ केरल निवासी जी.पिल्लई की बातें संक्षेप में रखना चाहूँगा :

चेतन भगत ने अपने आलेख में एक गहरी समस्या के सतह को ही छुआ है। …पुरुष महिलाओं के साथ क्या करते हैं यह तो विचारणीय है ही, एक महिला दूसरी महिला के साथ क्या-क्या और कैसे-कैसे व्यवहार करती है यह भी सोचना होगा। …यह दुश्मनी गर्भ में कन्या भ्रूण के आते ही शुरू हो जाती है। भारत की कौन स्त्री बेटी के बजाय बेटा पैदा करना ज्यादा पसन्द नहीं करती होगी? …घर के भीतर रोज ही बेटे और बेटी में फर्क करने का काम उसकी माँ ही करती है। …कौन माँ अपने बेटे के लिए बड़ा दहेज पाने की कामना नहीं करती? …गोरी-चिट्टी और सुन्दर बहू किस माँ को नहीं चाहिए, भले ही उसका बेटा कुरूप और नकारा हो? इन सबके पीछे आपको एक धूर्त, निष्ठुर, स्वार्थी और लालची महिला दिखायी देगी जिसके मन में एक दूसरी ‘महिला’ के प्रति तनिक भी सहानुभूति नहीं है। …इसके लिए आपको दूर जाने की जरूरत नहीं है, अपने घर के भीतर ही झाँकिए, दिख जाएगा। …दहेज हत्या के मामले ही देख लीजिए। वास्तव में किसी भी औरत के जीवन में मिले कुल कष्टों में से जितने कष्ट दूसरी औरतों से मिलते हैं उतने मर्दों से नहीं।

इस बहस की लंबी सृंखला मूल आलेख में देखी जा सकती हैं। गंभीर बहस तो होती ही रहती है, होनी भी चाहिए। लेकिन मैं यहाँ अपनी बात माहौल को थोड़ा हल्का रखने की इच्छा से यूँ कहना चाहता हूँ :

पहली राय तो इनकी प्रकृति-प्रदत्त विशिष्टता (यू.एस.पी.) को ही तहस-नहस करने वाली है। क्या इसके बिना महिलाओं की अपनी दुनिया उतनी मजेदार रह जाएगी। टाइम-पास का इतना बढ़िया साधन उनके हाथ से छीन लेना थोड़ी ज्यादती नहीं है क्या? ऐसे तो निन्दारस का आनन्द ही विलुप्त हो जाएगा इस धराधाम से। पतिदेव के ऑफिस और बच्चों के स्कूल जाने के बाद जब कामवाली भी सब निपटाकर चली जाती है तो अकेले समय काटना कितना मुश्किल होता है! इस मुश्किल घड़ी में यही तो काम आता है। बालकनी से लटककर पड़ोसन से, या फोन पर अपनी दूर-दराज की दोस्त या बुआ-मौसी-दीदी से यह रसपान करने में घंटो का समय कम पड़ जाता है। सुनते हैं इसके बिना उनका खाना भी मुश्किल से पचता है।

झूठा व्यवहार मत कहिए इसे जी। यह तो दुनियादारी है। यह न करें तो क्या कदम-कदम पर आफ़त को न्यौता दें। रोज इन्हें एक से एक घामड़ और घोंचू भी मिलते हैं। उन्हें हल्का सा ‘फील-गुड’ करा देने से मैडम को सेफ़टी भी मिल जाती है और उस मूढ़ पर मन ही मन हँस लेने का मौका भी मिल जाता है। फालतू में बहादुरी दिखाने से तो टेंशन ही बढ़ता है।

संपत्ति के अधिकार ले तो लें लेकिन ससुराल और मायके को एक साथ सम्हालना कितना मुश्किल हो जाएगा। ऊपर से मायके से भाई-भाभी जो रोज हाल-चाल लेते हैं, कलेवा भेजते हैं, और अपने जीजाजी की दिल से जो आवभगत करते हैं वह सब बन्द न हो जाएगा। सावन का झूला झूलने और गृहस्थी के बोझ से थोड़ी राहत पाने वे किसके पास जाएंगी? बच्चों के लिए मामा-मामी का दुलार तो सपना हो जाएगा। दूसरी तरफ़ बुआ और फूफा जी तो फिल्मी खलनायक ही नजर आएंगे। जब बहन अपने भाई की जायदाद बाँट लेगी तो वह ससुराल में अपनी ननद को भी तो हिस्सा देगी। इस बाँट-बँटवार में हमारे रिश्ते तो बेमानी हो जाएंगे।

महत्वाकांक्षी बनने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन इसके लिए खुद ही मेहनत भी करना होगा। एक फॉर्म भरकर रजिस्ट्री करने भर के लिए भैया या पापा का मुँह ताकने से काम नहीं चलेगा। निडर होकर बाहर निकलना पड़ेगा, मम्मी का कंधा छोड़ना होगा और कड़ी प्रतिस्पर्धा के लिए वह सब करना होगा जो लड़के कर रहे हैं। आरक्षण का भरोसा नहीं अपने उद्यम का सहारा लेना होगा। इसके लिए कितनी लड़कियाँ तैयार हैं? मुझे लगता है - बहुत कम। जो तैयार हैं उन्हें सलाम। लेकिन ज्यादा संख्या उनकी है जो सिर्फ़ इसलिए पढ़ रही हैं कि पापा को उनकी शादी के लिए अच्छे लड़के मिल सकें।

रिश्ते नाटक की चीज नहीं हैं। इनके बिना व्यक्ति का अस्तित्व किस प्रकार परिभाषित होगा? मैंने उन लोगों को पागल होते देखा है जिन लोगों ने सामाजिक व पारिवारिक रिश्तों की कद्र नहीं की। कुछ समय तो साहस और उत्साह बना रहता है लेकिन बाद में एक साथी की तलाश शुरू हो जाती है जिसमें विफलता व्यक्तित्व को मुरझा देती है। एकला चलो का नारा इन रिश्तों के बाहर नहीं भीतर ही प्रस्फुटित होना श्रेयस्कर है। अन्य  प्राणियों से मनुष्य भिन्न सिर्फ़ इसलिए है कि वह एक सामाजिक प्रामाणिक है। समाज का निर्माण ये रिश्ते ही करते हैं। इसमें महिलाएँ जानबूझकर उलझती नहीं हैं, बल्कि इनके बीच ही वे बड़ी होती हैं। रिश्तों का ख्याल महिलाएँ ज्यादा करती हैं तो इसके लिए उन्हें धन्यवाद दीजिए और उनका अधिक सम्मान करिए। हाँ, उन्हें इतनी जगह जरूर दीजिए कि वे अपने आप के साथ भी एक सुखी और गौरवशाली रिश्ता कायम कर सकें।

मैं तो ऐसा ही सोचता हूँ। आशा है आप अपने विचार यहाँ जरूर साझा करना चाहेंगे।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

मंगलवार, 14 मई 2013

लंपट (कहानी)

बोस्टन से वाशिंगटन के बीच चलने वाली एसला एक्सप्रेस जब प्रोविडेन्स स्टेशन पर रुकी तो निमेष की आँखें उन्हें कौतूहल से तलाश रही थीं। प्लैटफ़ॉर्म पर लगे संकेतक से वह पहले ही जानता था कि उनका ‘बिजनेस क्लास’ का कोच कहाँ है, वह उसी स्थान पर खड़ा भी था लेकिन फिर भी एक विचित्र बेचैनी उसके मन में थी।  क्या पता, आज उ्न्होंने गाड़ी न पकड़ी हो। किसी काम से बोस्टन में रुक गये हों । इतने बड़े प्रोफ़ेसर है। जरूरी तो नहीं कि मेरी तरह बिना नागा किये कंपनी में ड्यूटी बजाना उसकी मजबूरी हो। आज अगर भेंट नहीं हुई तो उनकी मजेदार बातों के लिए शायद एक सप्ताह तक प्रतीक्षा करनी पड़े। वह सोच ही रहा था कि कूपे के दरवाजे से प्रोफ़ेसर ने हाथ हिलाकर इशारा किया- आ जाओ यार, मैं यहीं हूँ। निमेष ने मुस्कराकर अभिदान किया और डिब्बे में चढ़ गया।
प्रोफ़ेसर आदित्यन के भारतवंशी पिता देश के बँटवारे से क्षुब्ध होकर अमेरिका में बस गये थे। उन्होंने आई.सी.एस. की नौकरी छोड़ दी थी और मैसाच्यूसेट्स प्रान्त में आकर बोस्टन के एक प्रबन्धन संस्थान में नौकरी कर ली थी। आदित्यन का जन्म बोस्टन के अस्पताल में हुआ और उसी साल पिता ने अपने बंगले में शिफ़्ट किया। उनके होनहार पुत्र ने अमेरिकी समाज में पल-बढ़कर  उच्च शिक्षा अर्जित की, दुनिया भर की सैर करता रहा लेकिन स्थायी निवास बोस्टन  का वह बंगला ही रहा। साल में एक बार भारत की यात्रा पिता-पुत्र अनिवार्य रूप से करते जिससे आदित्यन भारत के लगभग हर कोने से परिचित हो गये थे। इन यात्राओं से उनके मन में  हिंदी के प्रति अनुराग भी पनपता गया था।
आदित्यन को न्यूयार्क यूनिवर्सिटी में साइकॉल्जी पढ़ाने और एड्वान्स रिसर्च कराने का काम मिला तो भी वे कैंपस में मिले भव्य आवास के बजाय बोस्टन के पैतृक निवास में रहना ज्यादा पसन्द करते। सप्ताहान्त अवकाश में तो निश्चित ही न्यूयार्क से बोस्टन आ जाते। सोमवार की सुबह बोस्टन से न्यूयार्क जाते समय उनकी भेंट निमेष से हुई थी जो सुबह 7:50 बजे प्रोविडेन्स स्टेशन से ‘एसला’ पकड़कर प्रतिदिन स्टैम्फर्ड-सी.टी. स्टेशन तक जाता और शाम को वापस आता। भारतीय मूल की पहचान ने उनके बीच सहज दोस्ती बढ़ा दी, जबकि उनकी उम्र में कम से कम बीस साल का अन्तर था। हिंदी भाषा में बात करने का अवसर भी दोनो के लिए बहुत मूल्यवान था।
निमेष भार्गव अपने नये नियोक्ता से बहुत खुश था। उसने सोचा नहीं था कि इन्स्टीट्यूट से निकलते ही अमेरिका से आकर कोई कंपनी उसे इतनी मोटी पगार पर उठा ले जाएगी। घर वाले यह तो जानते थे कि लड़का जब देश के चुनिन्दा संस्थान से पढ़कर निकलेगा तो बहुत अच्छी नौकरी पाएगा; लेकिन सालाना एक करोड़ का पैकेज लेकर वह अमेरिका उड़ चलेगा इसकी तो उन्हें कल्पना भी नहीं थी। सबकुछ इतना आनन-फानन में हुआ कि सब भौचक रह गये।
अमेरिका आकर उसने कनेक्टिकट प्रान्त के स्टैंफर्ड में काम सम्हाला लेकिन रहने के लिए उसे रोड्स-आईलैंड के छोटे से शहर प्रोविडेन्स में एक फ्लैट लेना पड़ा। एसला एक्सप्रेस उसे रोज सुबह 7:50 पर मिलती और 9:52 पर स्टैफर्ड पहुँचा देती। शाम को 5:43 पर वही गाड़ी मिलती जो 7:55 पर प्रोविडेन्स छोड़ देती। इन दो स्टेशनों के बीच यह गाड़ी केवल न्यू लंदन-सी.टी. और न्यू हैवेन स्टेशनों पर ही रुकती। लगभग दो घंटे की यात्रा अवधि में प्रोफ़ेसर आदित्यन का साथ पाने के लिए वह मचलता रहता था। सप्ताह में कम से कम दो बार मिलने वाले अवसर को वह कभी मिस नहीं करना चाहता था।
एक मिडिल स्कूल में अध्यापक पिता की चार सन्तानों में तीसरा पुत्र था निमेष। दोनो बड़े भाई अपनी मेहनत से सरकारी नौकरी पा गये थे और उनके सहयोग से निमेष की पढ़ाई का खर्च आसानी से जुटता गया। पहले आई.आई.टी. और फिर आई.आई.एम. से प्रबन्धन की डिग्री हाथ में आयी। सबकुछ अव्वल नंबर का था। पिता ने अपने बच्चों को संस्कार भी अच्छे दिये थे। आधुनिक शिक्षा-दीक्षा के बावजूद निमेष ने रोज प्रातःकाल उठकर सबसे पहले नित्यकर्म और स्नान के बाद पूजा करने का क्रम किंचित ही कभी भंग होने दिया हो। उसकी वेष-भूषा भी बहुत पारंपरिक होती। सिगरेट, पान, गुटखा इत्यादि से सदैव दूर रहने और उसकी सादगी के लिए कई बार हॉस्टल के साथियों के ताने भी सुनने पड़ते थे उसे।
परीक्षा समाप्त होने के दिन शाम को हॉस्टल में देर तक चलने वाली पार्टी में नाचने और व्हिस्की चढ़ाकर दोस्तों के साथ झूमने के बजाय वह गाड़ी पकड़कर अपने गाँव चला आता। माँ के पास बैठकर गाँवभर के लोगों का हालचाल जानता। पिताजी के साथ खेतों की सैर करने निकल जाता। उनसे खूब बातें करता। चारित्रिक शुचिता, अनुशासन, नैतिक दायित्व, लोकमर्यादा और जाने कितने मूल्यों के विषय में पिताजी उसे सीख देते। रामायण, महाभारत, गीता, उपनिषद इत्यादि के बहुत से आख्यान सुनाते। उनके मन में कदाचित यह आशंका घर किये रहती कि महानगरीय उच्च संस्थानों में आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति ने जो पैर जमा रखा है वह उनके होनहार पुत्र के व्यक्तित्व को दूषित न कर दे। वे इस आशंका को घुमा-फिराकर जाहिर भी करते रहते थे।
निमेष को अपने पिताजी की आशंका का भान था इसलिए वह अपने इन्स्टीट्यूट व हॉस्टल की गतिविधियों का जिक्र कम ही करता था। सेमेस्टर की परीक्षा और परीक्षा परिणाम की सूचना भर देकर वह अपने पिताजी की बातें सुनता जो उससे अपने परिवार, समाज और ग्रामीण संस्कृति से जुड़ी बातों पर घंटों चर्चा करते। उसने उनसे कभी यह तक नहीं बताया कि कॉलेज में उसके साथ जो लड़कियाँ पढ़ती हैं उनसे उसकी दोस्ताना बातचीत होती है, कैंपस कैंटीन में बैठकर चाय पी जाती है, नोट्स का आदान प्रदान होता है और सब एक साथ फिल्म देखने भी जाते हैं। इसके आगे की गतिविधियों से तो वह खुद भी दूर रहता था लेकिन पिताजी की मनःस्थिति जानकर वह इन सामान्य बातों की चर्चा भी नहीं करता।
घर से दूर सात समन्दर पार आकर निमेष की दुनिया बदल गयी। इतनी कम उम्र में उसने बहुत कुछ पा लिया था। अमेरिका की टॉप-रेटेड कंपनी में अच्छी नौकरी, अच्छा पैकेज और पसन्दीदा काम। उसे ‘एसला’ के बिजनेस क्लास में बैठकर रोज आना-जाना कतई बुरा नहीं लगता था। रेलगाड़ी क्या थी अन्दर हवाई जहाज जैसी सुविधाएँ फिट हो रखी थीं। चौड़े आरामदायक सोफानुमा रिक्लाइनिंग सीट, एक्स्ट्रा लेग-रूम, फोल्ड-डाउन ट्रे, ओवर-हेड स्टोरेज, इन्डीविजुअल रीडिंग लाइट, 120 V इलेक्ट्रिक ऑउटलेट, कूपे के भीतर अलग से रेस्ट-रूम, साइलेन्स जोन, वाई-फाई आदि की सुविधाओं से लैस गाड़ी का अपना ही मजा था। लेकिन उसे तो प्रोफ़ेसर के साथ बतकही करने में मजा आता था। भले ही उसके लिए दोनों को ‘साइलेन्स जोन’ वाला डिब्बा बदल कर कैंटीन वाले चालू डिब्बे में बैठना पड़े।
दो चार मुलाकातों के बाद सहज होते ही प्रोफ़ेसर ने पूछ लिया-  “कोई लड़की – वड़की पटायी कि नहीं?”
निमेष थोड़ा झेंप गया। इसलिए नहीं कि उसने प्रोफ़ेसर से इस प्रश्न की उम्मीद नहीं की थी, बल्कि इसलिए कि वास्तव में उसके पास यह कर पाने का साहस नहीं आ पाया था। अपने पिता को मन ही मन कोसते हुए उसने बात बनायी-
“नहीं, अभी तो पढ़ाई में ही लगा रहा, उधर ध्यान ही नहीं गया। अब सोचता हूँ कि कोई कायदे की गर्लफ्रेन्ड मिल जाय तो यह काम भी पूरा कर लूँ।”
“काम? …. तो तुम भी इसे एक काम समझते हो?” प्रोफ़ेसर ने रहस्यमय अन्दाज में सवाल दागा।
निमेष हकबका गया। वह समझ नहीं सका कि क्या कहे- हाँ या ना। क्या उसके मुँह से कोई ऐसी बात निकल गयी जिसका इस साइकॉल्जी के प्रोफ़ेसर ने एक्स-रे कर लिया हो और उसकी मानसिकता में कोई गन्दगी देख ली हो।
आदित्यन ने उसके उहा-पोह को भाँप लिया और बोले- ‘वेरी गुड, आई लाइक दैट एट्टीट्यूड। दिस इज व्हाट आई कॉल एलीट’
निमेष फिर चौक गया। इसमें ‘एलीट’ वाली क्या बात है?  आज ये क्या कह रहे हैं। आभिजात्य, कुलीन, अग्रगण्य…। मैंने ऐसा क्या बता दिया इन्हें जो मुझे ऐसा कुछ कह रहे हैं? वह थोड़ी देर तक सोचता रहा, आदित्यन मुस्कराते हुए उसके चेहरे का भाव पढ़ते रहे।
-सर, मैं समझ नहीं पाया।
-मैं तुम्हें डिटेल में समझाऊंगा। लेकिन अभी नही। तुम्हारा स्टेशन दो मिनट में आने वाला है। जाओ घर जाओ। वीक –एंड इन्ज्वॉय करो। सोमवार को मिलते हैं।
उसने अपना बैग उठाया, कूपे से बाहर आया, अपने फ़्लैट पर पहुँचकर नेट खोल लिया और गूगल में टाइप किया – ELITE
इन्टर बटन दबाने के बाद जो लिंक मिले उनमें से
एक उसे एक नयी दुनिया में ले गया। इसी कारण सोमवार को स्टेशन पर पहुँचकर उसे प्रोफ़ेसर आदित्यन से मिलने की अतिरिक्त उत्सुकता थी।
Lampat
“हाँ तो मिस्टर एलीट, वीक-एन्ड कैसा रहा? पिता जी से बात-चीत हुई? कैसे हैं वे?” ऑनबोर्ड रेस्तराँ में पहुँचकर प्रोफ़ेसर ने सीट पर बैठते हुए पूछा।
निमेष अपना कौतूहल छिपाते हुए चुपचाप मुस्कराता रहा। उसने इस रविवार अपने पिताजी से बहुत संक्षिप्त बात की थी। लगभग न के बराबर। उनके उपदेश वह फिर कभी सुन लेगा।
“सो, लेट्‌स कम टु द प्वॉइन्ट, मुद्दे पर आते हैं”
निमेष ने उनके चेहरे पर अपनी आँखें गड़ा दीं।
“देखो, ज्यादातर युवकों के पास एक गर्लफ्रेंड होती हैं, इसलिए नहीं कि वे  इनके साथ रहना चाहती हैं और उन्हें इनका साथ बहुत आनन्द देता है; बल्कि इसकी दूसरी वजहें होती हैं – सबसे पहली वजह है उनकी असुरक्षा और यह जरूरत कि उनके साथ में कोई रहे, दूसरा कारण है यह समाज जो उनके ऊपर एक रूमानी संबंध में बंधे रहने की तलब लगभग थोप सा देता है; क्यों कि माना जाता है कि यह एक करने लायक सही काम है। एक आखिरी कारण उनकी यह गलत सोच है जिसमें खालिस सेक्स की अनुभूति को भी प्यार की अनुभूति मान लिया जाता है।”
“सर, क्या आपकी कोई गर्लफ्रेंड रही है” निमेष ने अब अपना मुँह खोला।
“ना ना, मैं इस पचड़े में नहीं पड़ने वाला। मुझे इसकी कत्तई जरूरत नहीं रही”। निमेष सोचने लगा कि कहीं इन जनाब के लिए अंगूर खट्टे तो नहीं रहे। लेकिन वह प्रकट में यह बोल न सका। उसने कहा-

“मैंने कहीं सुना है कि गर्लफ्रेंड बना लेने से और उसके साथ अच्छे से संबंध निर्वाह करने से आदमी अपने को बेहतर इन्सान बना सकता है।”

“यही तो फर्जी बात फैलायी गयी है, दरअसल होता इसका उल्टा है।”

“मैं समझा नहीं” निमेष ने भोलेपन से अज्ञानता दिखायी।

“यह बहुत ही कमजोर करने वाली, अमानवीय और तमाम बंधनों में जकड़ने वाली चीज है। आपने किसी गर्लफ्रेन्ड का चक्कर पाला नहीं कि आपके बारे में सहज ही यह घटित होगा-  कुछ हफ़्तों तक आपके सभी दोस्त आपको कोसते नजर आएंगे, आपको घामड़ और बेवकूफ़ कहेंगे, मेहरा कहलाएंगे आप; क्योंकि आप वास्तव में वही बन जाएंगे।”

निमेष के चेहरे पर अजीब सी उलझन तैरने लगी। आदित्यन अपने लेक्चर मोड में आ चुके थे।

“जब हमारे- तुम्हारे जैसा कोई मर्द अपनी जवानी के शीर्ष पर हो तो सिर्फ़ एक लड़की पर अपनी ऊर्जा का उफान जाया करना कहाँ की बुद्धिमानी है। जो भी हो, लेकिन औरतें या लड़कियाँ यदि हमसे वफादारी की उम्मीद रखती हैं तो उन्हें स्वार्थी के अलावा कुछ नहीं कह सकते। उन्हें तो इसी से खुश होना चाहिए कि हम उनको “सबसे पहले” मौका देने के लिए तैयार हैं।”

“लेकिन मर्दों का काम भी तो औरत के बिना नहीं चलने वाला, हमें भी तो उनकी जरूरत है” निमेष ने सकुचाते हुए टोका।

“बस यही सबसे बड़ी गलती मर्दों ने सभ्यता की शुरुआत में ही कर दी… जिसका ख़ामियाजा आजतक भुगतना पड़ रहा है।”

“मैं समझा नहीं” निमेष हतप्रभ था।

“मर्दों को शुरू में ही औरतों से यह जाहिर नहीं करना चाहिए था कि उनके पास कुछ ऐसा है जिसकी मर्दों को पूरी जिन्दगी जरूरत पड़ती रहेगी। यदि औरतों को यह पता नहीं होता कि हमारे लिए सेक्स कितनी कीमती चीज है  तो वे इसे बिना कोई सिरदर्द बढ़ाये लुटाती रहतीं।”

“सिरदर्द…?”

“और नहीं तो क्या…! किसी लड़की या औरत के साथ स्थायी संबंध बनाकर रहने की मजबूरी सिरदर्द ही तो है।” प्रोफ़ेसर ने रुककर एक लंबी साँस ली और अपने दृष्टिकोण की व्याख्या करने लगे। बोले-

“मैं आजतक 18 से 35 की उम्र के एक भी ऐसे आदमी से नहीं मिला जिसे अपने दीर्घ-कालीन सम्बंध में वफ़ादारी निभाने में कोई कठिनाई न आयी हो। ऐसा क्यों है? क्यों कि एक गर्लफ्रेन्ड रखना आपको, आपके व्यक्तित्व को, आपके भीतर के मर्द को पूरी तरह से लील जाता है।”

“वह कैसे?”

“शुरू के कु्छ महीनों या कहें कुछ हफ़्तों तक तो बड़ा आनन्द आता है; लेकिन जब यह हनीमून खत्म होता है तब नीचे की ओर तेज ढलान शुरू हो जाती है। उसके बाद वह ऐसा बर्ताव करती है जैसे आप उसके हसबैंड हो गये हो। उसके बाद लगातार शिकायतों से सिर खाने और बिना बात के झगड़ा करने का क्रम शुरू हो जाता है।”

“क्या सच में सभी गर्लफ्रेन्ड्स ऐसी ही होती हैं?” निमेष ने अविश्वास पूर्वक पूछा।

“यार, यहाँ अमेरिका में तो कुछ ऐसा ही है। यहाँ गर्लफ्रेन्ड पूरी तरह से आपकी सेक्स पार्टनर हो जाती है लेकिन इसमें लफड़ा ज्यादा है और आनन्द कम”

“मतलब…?”

“मतलब यह कि शुरू के कुछ हफ़्तों के बाद यह आनन्द एक जीते-जागते नर्क में बदल जाता है। खास तौर पर वे चार-पाँच दिन जब आप सेक्स भी नहीं कर सकते। पहले एकाध महीने तो उस समय ब्लो-जॉब अच्छा भी लगता है लेकिन बाद में वह इतना बोरियत भरा और चिड़चिड़ा बनाने वाला होता है कि भाग जाने का मन करता है।  हाँ, यह चक्‍कर बहुत खर्चीला भी होता है।”

निमेष अब निःशब्द हो चला था। जिज्ञासा, आश्चर्य, कौतूहल, वितृष्णा और जुगुप्सा की आती-जाती लहरों के बीच उसका मन गोते लगा रहा था और वाणी अवरुद्ध हो गयी थी।

“अर्थशास्त्र में एक अवधारणा है ’विकल्प-लागत’ की - जिसका मोटे तौर पर मतलब है कि कोई एक विकल्प चुन लेने पर आप अन्य कितने ही अवसर गँवा देते हैं।”  एक के बजाय दूसरा विकल्प चुन लेने पर आप जिस आय अथवा अवसर को प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं उसे उस विकल्प की लागत (opportunity cost) कहते हैं। क्या आपको पता है कि एक लड़की के पीछे लगे रहने से आप कितनी दूसरी लड़कियों के साहचर्य से वंचित रह जाते हैं? “

“अगाध यौन सुख, सैकड़ो सुन्दरियाँ, और उनके साथ एक-एक रात का चरम आनन्द यह सब आप एक झटके में खिड़की से बाहर फेंक देते हैं जब आप किसी एक लड़की का ब्वायफ्रेंड बनने की बेवकूफी वाला निर्णय ले लेते हैं। सिंगिल रहने के रिस्क में बहुत बड़े-बड़े फ़ायदे छिपे हुए हैं। अकेले रहकर आप विविध प्रकार के आनन्द तो पाते ही हैं दूसरों की तरह यह खतरा भी नहीं रहता  कि यदि गर्लफ्रेन्ड ने आपका नाजुक दिल तोड़ दिया या आप दगाबाजी करते हुए पकड़ लिए गये तो आपको दूसरी औरत नहीं मिलेगी।”

“औरत स्वाभाविक रूप से नियन्त्रण करने वाली प्रजाति हैं। हम मर्द लोग स्वतंत्र रहना पसन्द करते हैं और जो मन करे वह करने की छूट चाहते हैं। सबसे खराब तो तब लगता है जब गर्लफ्रेन्ड के मम्मी-डैडी के साथ डिनर पर बैठना पड़ता है और व्यर्थ की लल्लो-चप्पो में पूरी शाम खराब करना पड़ता है। वे हमारे जीने के ढंग को कंट्रोल करना चाहते हैं, हमें उस ओर इशारा करते हैं जिधर हम कत्तई जाना नहीं चाहते।”

“गर्लफ्रेन्ड यह चाहती है कि हम किसी दूसरी लड़की से बात करना तो दूर किसी दूसरी लड़की की ओर देखें भी मत। उन्हें मौका मिले तो वे यहाँ तक जा सकती हैं कि आपके फेसबुक खाते से सभी महिला मित्रों का नाम डिलीट कर दें। हम मर्दों को कभी भी इसके लिए तैयार नहीं होना चाहिए।”

निमेष अब प्रोफ़ेसर साहब की ओर कुछ कम आदर-भाव से देखने लगा। उन्होंने शायद इसे ताड़ लिया। अपनी बात दुरुस्त करते हुए बोले-

“देखो, तुम्हारे जैसे 20 से 30 की उम्र वाले नौजवान के लिए सबसे जरूरी है एकाग्रचित्त होना- अपने लक्ष्य के प्रति, जीवन के उद्देश्यों के प्रति। इन्हें पाने के लिए खूब मेहनत करना ताकि बाकी जिन्दगी उतनी खुबसूरत हो सके जितनी सदा से तुम्हारी इच्छा रही हो।”

“एक गर्लफ्रेन्ड बना लेने का अर्थ है कि तुम अपने काम में सौ प्रतिशत मन कभी नहीं लगा पाओगे। तुम जो बड़ी उपलब्धि पाना चाहते हो उससे भटक जाओगे। अभी जिस मामूली पोजीशन में तुम हो उसी में संतोष कर जाओगे। यही पर्याप्त लगने लगेगा। यह सब तुम्हें तथाकथित अमेरिकी स्वप्न तक ले जाएगा- दो बच्चे, एक परिवार के रहने भर का घर और छुट्टियाँ बिताने का ऑल-इन्क्लुसिव पैकेज। जिन्दगी में उत्साह लाने वाला बस एक ही मौका रह जाएगा- भारत में छुट्टियाँ बिताने का मौका।”

तुम या तुम जैसा कोई भी आदमी ऐसी जिन्दगी नहीं चाहेगा; लेकिन अगर तुम किसी गर्लफ्रेन्ड के चक्कर में पड़े तो पक्का जान लो कि इस भँवर में तुम इस प्रकार फँस जाओगे कि तुम्हें यह याद भी नही रहेगा कि तुम यहाँ कैसे आये और यहाँ से निकल भागने का रास्ता क्या है? जबतक यह सब समझ पाओगे तबतक तुम्हारी बर्बादी की कहानी लिखी जा चुकी होगी।”

“पुराने फैशन की एक कहावत है - जिनके पास उरोज हैं और भावुकता भरी बाते हैं उनपर कभी भी विश्वास मत करो।” औरत आपके नाश का कारण हो सकती है और होगी । उनकी भावुकता उन्हें नासमझी भरे, अतार्किक व बेमतलम के काम करने को उकसाती है। यदि आपने उनपर दिल से भरोसा किया तो वे धोखा देंगी, यदि आपने उनपर पैसे से भरोसा किया तो वे उसे चुरा लेंगी, यदि आपने उनपर जीवन से भरोसा किया तो वे उसे बर्बाद कर देंगी। वे यह सब केवल अपने ड्रामेबाज दिमाग को खुश करने के लिए कर डालेंगी।”

“सर, मुझे लगता है आपका अनुभव बहुत खराब रहा है किसी गर्लफ्रेन्ड के साथ। तभी आप इतने “सिनिकल” हो गये हैं।” निमेष ने हिम्मत बटोर कर कहा।

“नहीं प्यारे, ऐसी कोई बात नहीं है। लेकिन सच मानो, गर्लफ्रेन्ड्स बहुत बोरिंग होती हैं। एक गर्लफ्रेन्ड से मेरे संबंध एक साल तक खिंच गये। हालत यह हो गयी कि पन्द्रह मिनट में या काम पूरा होते ही मैं बोर होने लगता था। वो काम भी बोरिंग हो गया, बातचीत बोर करने लगी और उसका चिड़चिड़ाना और बात-बात में शिकायत करना तो बहुत ही अझेल हो जाता था। सबसे बुरा तो तब लगता था जब उसके मुँह से अपने बेस्टफ्रेन्ड के लिए निकलता था- आई हेट यू।”

अपने भारी होते मन को हल्का करने के लिए निमेष ने सिर को झटका दिया। पहलू बदलते हुए उसने शिकायत की- “सर, आपने तो मेरा उत्साह ही ठंडा कर दिया। लगता है अब पिताजी से ही बात करके भारतीय बहू ढूँढने की चर्चा चलानी पड़ेगी…”

“बेशक ऐसा कर डालो, लेकिन यहाँ गर्लफ्रेन्ड बनाने की सलाह तो मैं कतई नहीं दूंगा। गर्लफ्रेन्ड से मन को बहुत तनाव मिलता है। खासकर जिन्दगी के इस पायदान पर तो वे बिल्कुल सूट नहीं करती हैं। वे बहुत खर्च कराती हैं और संबंध टूटने पर कोई रिटर्न वैल्यू भी नहीं है; क्योंकि तब आप न तो उसे गिफ़्ट किये गये महंगे गहने वापस पाओगे और न ही दामी रेस्तराओं के महंगे डिनर का रिफन्ड मिलेगा। आपको बेहतरीन स्वादिष्ट भोजन की अपनी पसन्द का प्रदर्शन भी तो करना था ”

अबतक निमेष की तर्कशक्ति जवाब दे चुकी थी। टेबल पर पड़ी कॉफी ठंडी और बेस्वाद हो चुकी थी। तभी कर्णप्रिय महिला स्वर में उद्‍घोषणा हुई कि एक मिनट में स्टैंफर्ड-सी.टी. स्टेशन पर गाड़ी रुकने वाली है। 

निमेष उठने को हुआ। आदित्यन ने उसका हाथ पकड़ लिया। उठकर दरवाजे तक साथ आये और धीरे से बोले- दोस्त, मेरी बात समझ में आयी हो तो मर्द बनकर रहो और अकेले रहो ।

प्लैटफॉर्म पर उतरते हुए वह सोच रहा था - यदि मेरे अध्यापक पिता इस प्रोफ़ेसर के बारे में जानें तो क्या कहेंगे?

लंपट…! और क्या?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)