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गुरुवार, 31 जनवरी 2013

जनवरी के जाते-जाते...

कई दिनों से उधेड़बुन चल रही है। कई दिनों से नहीं बल्कि अब तो एक  महीना बीत गया है। दिसंबर की भयावह सर्दी में निर्भया की कहानी ने मन को उद्विग्न रखा। उससे जुड़ी तमाम खबरों को पढ़ने, देखने व सुनने के बाद कुछ भी लिखने की हिम्मत नहीं हुई। कुछ अवधि तो ऐसी थी कि खुद के पुरुष होने पर शर्म आने लगी थी। हमारे समाज में कुछ पुरुष इतने पतित और नृशंस हो सकते हैं यह सोचकर ही एक अपराध बोध सा हो गया था। नये साल का स्वागत करने और हर्ष व्यक्त करती शुभकामनाओं की भी कोई गुन्जाइश नहीं बची थी। बिल्कुल निःशब्द रहकर शान्ति की आतुरता के साथ जनवरी की शुरुआत हुई।
train journey
इसी बीच जनवरी की रिकॉर्ड ठंड के बीच लखनऊ से रायबरेली के लिए स्थानान्तरण हो जाने से पूरी दिनचर्या गड़बड़ा गयी। देश और समाज के बारे में चिन्तन को शब्द देने और इंटरनेट मीडिया की सैर का क्रम कुछ इस तरह टूटा कि अबतक ठीक से नहीं जुड़ पाया है। साल की शुरुआत में जब पारा 02-03 डिग्री को छू रहा था तब मुझे सुबह साढ़े पाँच बजे रजाई और कम्बल का त्याग करके जल्दी-जल्दी तैयार होकर रेलगाड़ी पकड़ने के लिए साढ़े छः बजे तक घर से निकलना पड़ रहा था। बल्कि अभी भी निकलना पड़ रहा है।  रेलवे स्टेशन पर जाकर उपलब्ध गाड़ियों में से उसका चुनाव करना कि कौन सी सबसे पहले रायबरेली पहुँच सकती है एक कठिन पहेली थी। मासिक सीजनल टिकट (MST) वाले यात्रियों से परिचय का दौर चला तो सही गाड़ी चुनने का शऊर भी आ गया। लेकिन रोज की रेलयात्रा मुझे अभी भी बेहद थकाऊ और समय की बर्बादी लग रही है। (शायद एक-दो सप्ताह तक यह क्रम बना रहेगा जब मेरा सरकारी आवास मरम्मत और रंग-रोगन के बाद तैयार हो जाएगा।)
ट्रेन पहुँचने के समय से ही ऑफिस पहुँचने की मजबूरी ने क्या नहीं किया! कभी इतना जल्दी ऑफिस पहुँचा दिया कि केवल जमादार ही  स्वागत करता मिला तो कभी ग्यारह बजे के बाद लेट-लतीफ़ कर्मचारियों की तरह मुँह छुपाये अन्दर जाना पड़ा। यह बात अलग है कि अपने ऑफिस का बॉस होने के कारण कोई पूछने या टोकने वाला नहीं है। लेकिन अपने अन्दर से ही खुद को बहुत झेंप महसूस होती है। इसी तरह वापसी के लिए भी चार बजते-बजते काम पर ध्यान कम और रेलवे इन्क्वायरी की साइट पर ध्यान अधिक जाने लगता है। किस गाड़ी के जल्दी आने की संभावना है इसी के फिराक में रहने लगे। कई कर्मचारी मेरी इस मनःस्थिति को जानते हैं तो वे लेटेस्ट अपडेट देते रहते हैं। साहब आज अर्चना (एक्सप्रेस) का दिन है, लेट भी है मिल जाएगी। आज पंजाब समय से निकल गयी नहीं मिल पाएगी। भोपाल मिल सकती है। इन्टरसिटी तो आठ बजे आएगी। जबसे इसे इलाहाबाद के बजाय विन्ध्याचल से चला रहे हैं तबसे यह हमेशा पिटती रहती है। गाड़ियों का नाम अब मुझे भी याद रहने लगा है। लेकिन कुहरे की वजह से रोज-ब-रोज लेट रहने वाली गाड़ियों में यात्रा करना बहुत दुखदायी हो गया है। अब तो पांच बजे की बस पकड़ने लगा हूँ।
घर पहुँचते-पहुँचते रात के नौ बज ही जाते हैं। मेरे दोनो बच्चे कॉलबेल बचते ही दौड़कर दरवाजा खोलते हैं। अन्दर से उनकी किलकती आवाज पहले ही आ जाती है- ''मम्मी..., डैडी आ गये।'' उनकी आँखों में खुशी की वह चमक मैंने लखनऊ में रहते हुए कम ही देखी थी। लेकिन 'मम्मी' तो मेरे पहुँचने पर भोजन की व्यवस्था में लग जाती हैं। मैं हाथ-मुँह धोकर सीधे खाने की मेज पर बैठ जाता हूँ। उसी दौरान दिनभर का हाल-चाल हो जाता है। बच्चों के स्कूल की इतनी बातें रहती हैं कि उन्हें शॉर्ट में कहने के लिए टोकना पड़ता है। श्रीमती जी किचेन से ही आ-जाकर बात कर पाती हैं। टीवी पर कोई समाचार चैनेल पहले ही खोल लेता हूँ। कोई रोचक चर्चा सुनने का लोभसंवरण नहीं कर पाने का खामियाजा़ सुबह अधूरी नींद से जागकर चुकाना पड़ता है। अर्नब गोस्वामी का न्यूज ऑवर भी मिस करना पड़ता है। थकान इतनी रहती है कि सोफे पर ही आँखें बन्द होने लगती हैं। श्रीमती जी टीवी बन्द करके याद दिलाती हैं कि कल फिर उसी समय निकलना है। इसके बाद बिस्तर पर पड़ते ही खर्राटे शुरू हो जाते हैं।
सबसे बेतुका परिवर्तन खान-पान में हुआ है। सुबह साढ़े-छः बजे श्रीमती जी गरम-गरम रोटियाँ और सब्जी बनाकर तो परोस देती हैं लेकिन न मुझे खाने का चाव होता है और न उन्हें खिलाने का संतोष। यह भी कोई समय है...! जैसे-तैसे ठूसकर निकल पड़ता हूँ। पैदल-ऑटो-रेल-जीप-बस आदि पर चढ़ता उतरता ऑफिस पहुँचना और वापस आना। धत है जी ..! सुबह और शाम के कुल छः घंटे यात्रा में बर्बाद करने के बाद ऐसी स्थिति नहीं रह जाती कि यहाँ कुछ रचनात्मक लिखा जा सके। बहुत कुछ कहने की इच्छा और बाँटने का उत्साह मन में दब कर रह जाता है। यदा-कदा फेसबुक पर कुछ सोसलगीरी हो लेती है। लेकिन सत्यार्थमित्र तो अव्यक्त ही रह जाता है। चिन्ता होने लगी है कि मेरे इस प्रिय अनुष्ठान का क्या होगा।
लेकिन मुझे इसकी चिन्ता अपेक्षया कम है। इससे बड़ी चिन्ता दूसरी है जो बहुत निजी है। इस  ब्‍लॉग से भी ज्यादा कोई और भी अव्यक्त रह जाता है, मेरी इस विकट दिनचर्या में। वो जिसने मेरी चुनौतियों में मुझे सम्बल देने का बीड़ा उठा रखा है। जिसने मेरे बच्चों का हौसला और उनके चेहरे पर मुस्कान बनाये रखने के लिए अपना निजी सुख और कैरियर ताख पर रख दिया है। जिसे दिनभर इसकी चिन्ता रहती है कि मैं सकुशल पहुँच गया कि  नहीं। कुछ खा लिया की नहीं। मुझे कोई कठिनाई तो नहीं है? मैं तो यह भी नहीं देख पा रहा कि लगातार गरम और गुनगुने पानी से जिस खांसी सर्दी का इलाज किया जा रहा है उसके लिए जरूरी दवा भी घर में आ पायी है कि नहीं। कितने व्रत और त्यौहार आये लेकिन उसकी जरूरी तैयारियाँ मेरे बिना कैसे हो पा रही हैं यह नहीं जान पा रहा हूँ। सबकुछ  इतवार के लिए छोड़ रखा है।
वह भी क्या दिन थे जब घर से बिना कुछ ग्रहण किए ऑफिस आ जाने पर वह नहारी लेकर सीधे ट्रेज़री चली आयी थीं। इस बात का जिक्र हाल ही में सतीश पंचम जी ने किया तो मेरा मन उस दौर की एक भावुक यात्रा कर गया। समय बदला, परिस्थितियाँ बदलीं लेकिन वो आज भी कहाँ बदली हैं? आज भी वही चिन्ता, वही फिक्र। ज्ञान जी ने अपनी टिप्पणी में जिस गहन अनुभूति की चर्चा की थी वह आज भी उतनी ही टटका है।
( सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)