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शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

सुधार की जरूरत है क्या?

हमारा समाज बेईमानी, भ्रष्टाचार व अकर्मण्यता के प्रति उदासीन क्यों है?

चार साल पहले लिखी एक पोस्ट में मैंने पूछा था कि यह सरकारी ‘असरकारी’ क्यों नहीं है? तब मैंने जिलों में अपनी तैनाती के अनुभव के आधार पर यह प्रश्न रखा था। पिछले चार साल में इस निराशाजनक स्थिति से उबरने का कोई रास्ता तो मुझे नहीं दिखायी दिया लेकिन सरकारी तंत्र में मुख्यालय स्तर पर कार्य करने के बाद मुझे यह विश्वास हो गया है कि मेरी वह चिन्ता ही बेकार थी। यहाँ तो सरकारी तंत्र को असरकारी बनाने की कोई खास आवश्यकता ही नहीं महसूस की जा रही है। फिर तो कोई गंभीर कोशिश किये जाने का प्रश्न ही बेमानी है। इस स्थिति में कोई सकारात्मक सुधार होने की सम्भावना तो मृग मरीचिका सी हो गयी है।

मैंने फील्ड स्तर पर देखा था कि गाँव-गाँव में खोले गये प्राथमिक स्तर के सरकारी स्कूलों की तुलना गली-गली में उग आये प्राईवेट नर्सरी स्कूलों या तथाकथित साधारण ‘कान्वेन्ट स्कूलों’ से भी करने पर भारी अंतर मिलता है। महानगरों में संचालित उत्कृष्ट पब्लिक स्कूलों की तो बात ही अलग है। एक सरकारी प्राथमिक स्कूल के अध्यापक को जो वेतन और भत्ते (२० से ४० हजार) सरकार दे रही है उसमें किसी साधारण निजी नर्सरी स्कूल के आठ-दस अध्यापक रखे जा सकते हैं। लेकिन एक सरकारी प्राथमिक शिक्षक एक माह में कुल जितने घंटे वास्तविक शिक्षण का कार्य करता है, प्राईवेट शिक्षक को उससे आठ से दस गुना अधिक समय पढ़ाना होता है। विडम्बना यह है कि सरकारी स्कूलों में उन्ही की नियुक्ति होती है जो निर्धारित मानक के अनुसार शैक्षिक और प्रशिक्षण की उचित योग्यता रखते हैं; कहने को मेरिट के आधार पर चयन होता है; लेकिन उनका ‘आउटपुट’ प्राइवेट स्कूलों के अपेक्षाकृत कम योग्यताधारी शिक्षकों से कम होता है। ऐसा क्यों?
उच्च प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के जिन निजी विद्यालयों के वेतन बिल का भुगतान सरकारी अनुदान से होने लगता है, वहाँ शैक्षणिक गतिविधियों में गिरावट दर्ज होने लगती है। स्कूल के निजी श्रोतों से वेतन पाने वाले और निजी प्रबन्धन के अधीन कार्य करने वाले जो शिक्षक पूरे अनुशासन (या मजबूरी) के साथ अपनी ड्यूटी किया करते थे, सुबह से शाम तक स्कूल में छात्र-संख्या बढ़ाने के लिए जी-तोड़ मेहनत किया करते थे; वे ही सहसा बदल जाते हैं। सरकार द्वारा अनुदान स्वीकृत हो जाने के बाद सरकारी तनख्वाह मिलते ही उनकी मौज आ जाती है। पठन-पाठन गौण हो जाता है। उसके बाद संघ बनाकर अपनी सुविधाओं को बढ़ाने और बात-बात में हड़ताल और आन्दोलन करने की कवायद शुरू हो जाती है। मुझे हैरत होती है कि एक ही व्यक्ति प्राइवेट के बाद ‘सरकारी’ होते ही इतना बदल कैसे जाता है। उसकी दक्षता कहाँ चली जाती है?
इनकी तुलना में, या कहें इनके कारण ही निजी क्षेत्र के संस्थान जबर्दस्त प्रगति कर रहे हैं। यह प्रगति शैक्षणिक गुणवत्ता की दृष्टि से चाहे जैसी हो लेकिन मोटी फीस और दूसरे चन्दों की वसूली से मुनाफ़ा का ग्राफ ऊपर ही चढ़ता रहता है। बढ़ती जनसंख्या और शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ने के साथ-साथ प्राइवेट स्कूल-कॉलेज का धन्धा बहुत चोखा तो हो ही गया है; लेकिन सरकारी तन्त्र में जगह बना चुके चन्द ‘भाग्यशाली’ (?!) लोगों की अकर्मण्यता और मक्कारी ने इस समानान्तर व्यवस्था को एक अलग रंग और उज्ज्वल भविष्य दे दिया है।
आई.आई.टी., आई.आई.एम. और कुछ अन्य प्रतिष्ठित केन्द्रीय संस्थानों को छोड़ दिया जाय तो सरकारी रोटी तोड़ रहे अधिकांश शिक्षक और कर्मचारी-अधिकारी अपनी कर्तव्यनिष्ठा, परिश्रम, और ईमानदारी को ताख पर रखकर मात्र सुविधाभोगी जीवन जी रहे हैं। इनके भ्रष्टाचार और कर्तव्य से पलायन के नित नये कीर्तिमान सामने आ रहे हैं। जो नयी पीढ़ी जुगाड़ और सिफारिश के बल पर यहाँ नियुक्ति पाकर दाखिल हो रही है, वह इसे किस रसातल में ले जाएगी उसकी सहज कल्पना की जा सकती है।
corruption in vote
(India Against Corruption से साभार)
इस माहौल को नजदीक से देखते हुए भी मैं यह समझ नहीं पाता कि वह कौन सा तत्व है जो एक ही व्यक्ति की मानसिकता को दो अलग-अलग प्रास्थितियों (status) में बिलकुल उलट देता है। अभावग्रस्त आदमी जिस रोजी-रोटी की तलाश में कोई भी कार्य करने को तैयार रहता है, उसी को वेतन की गारण्टी मिल जाने के बाद वह क्यों कार्य के प्रति दृष्टिकोण में यू-टर्न ले लेता है?
प्रशासनिक तंत्र के उच्च सोपानों पर स्थिति और भी दहलाने वाली है। जनता का वोट और विश्वास पाकर सत्ता में केबिनेट मंत्री बनने के बाद अथवा लोक सेवा आयोग की कठिन परीक्षा में उत्कृष्ट प्रदर्शन से चयनित होने के बाद ब्यूरोक्रेसी के तमाम बड़े ओहदेदार अपने अधिकार को धन कमाने के अवसर के रूप में प्रयोग करते देखे जा रहे हैं। जनसेवा को प्रेरित करने वाली संवेदना और पिछड़े तबके का विकास करने की इच्छाशक्ति जैसी बातें अब खोखली और हास्यास्पद सी लगने लगी हैं। राष्ट्रीय सामाचारों में ऐसे लोग लगातार अपनी जगह बना रहे हैं जो उच्च पदो पर रहते हुए सीधे जेल चले जा रहे हैं। केबिनेट मंत्री के स्टेटस से सीधे फरार अपराधी के स्टेटस में परिवर्तन फेसबुक स्टेटस से भी तेज होने लगा है। राज्य अल्पसंख्यक आयोग का अध्यक्ष रहते हुए हत्या की वारदात में धरा जाना कितना शर्मनाक है? राष्ट्रीय समाचार चैनेल के संपादकों का एक उद्योगपति से  कथित डील करने के चक्कर में जेल चले जाना क्या बताता है? यह हमारी पॉलिटी के बारे में बहुत ही खतरनाक संकेत देता है।
सी.ए.जी. जैसी संस्थाओं द्वारा गलती पकड़े जाने पर गलती का सुधार करने के बजाय सी.ए.जी. को घेरने की ही कोशिश की जाती है। खतरे का संदेश समझने और सही राह चुनने के बजाय संदेशवाहक को ही चुप करा देने की कुटिल चाल (shooting the messenger) पूरे राजनीतिक तंत्र की शैली हो गयी है। अरविन्द केजरीवाल जैसे उत्साही नायक कुछ करना भी चाहते हैं तो पूरा तंत्र अपनी पार्टी लाइन छोड़कर एकजुट हमलावर हो जाता है। अन्ना हजारे समस्याएँ तो गिनाते हैं लेकिन समाधान की राह पर चलने में संकोच करते हैं और भ्रष्टाचार की लड़ाई बीच में ही अटक कर रह जाती है।
राज्य सरकारों की नीतियों पर पोन्टी चढ्ढा जैसे कुटिल कारोबारियों का प्रभाव तो आम जनश्रुति हो गयी है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर जो नीतियाँ बनायी जा रही हैं उनका छिछलापन भी सहज ही उजागर हो जाता है। गरीबों को नगद सब्सिडी देने की योजना के पीछे जो तर्क दिये जा रहे हैं उनका व्यावहारिक धरातल पर कोई दर्शन नहीं होने वाला। लोगों का मानना है कि तमाम गरीबोन्मुखी सरकारी योजनाओं की तरह हमारा भ्रष्ट तंत्र इसपर भी डाका डालने से बाज नहीं आएगा। आखिर ऐसा क्यों है?
क्या हम मान चुके हैं कि हम जैसे हैं वैसे ही रहेंगे? हमें सुधरने की कोई जरूरत नहीं है। यह प्रकृति-प्रदत्त तो नहीं है। फिर क्या हम अभिशप्त हैं, एंवेई…?
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)