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शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

अपनी फ़िक्र पहले…

एक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना में सरकारी तंत्र की प्रमुख जिम्मेदारी आम जनता की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखना और गरीब व वंचित वर्ग को सहारा देना होता है। ऐसे कार्यों में व्यावसायिक लाभ कमाने का उद्देश्य बहुत पीछे छूट जाता है। जनहित के कार्यों का निष्पादन करने वाले अधिकारी व कर्मचारी यदि इसे अपना पुनीत कर्तव्य मानकर पूरे मनोयोग व निष्ठा से कार्य करें और उन्हें ऐसा वास्तव में करने दिया जाय, तो हमारे समाज के प्रायः सभी दोष थोड़े समय में ही मिट जाँय; लेकिन दुर्भाग्य से वास्तविकता इसके विपरीत है।
मुझे ऐसा महसूस होता है कि सरकारी तंत्र को चलाने के लिए जो नियामक सिद्धान्त लागू किये गये हैं और इसको नियन्त्रित करने की शक्तियों को लोकतंत्र या सामाजिक रीति के नाम पर जिस प्रकार विनियमित किया गया है उससे उनके भीतर ही ऐसे तत्व उत्पन्न हो गये हैं जो एक संवेदनशील व दक्ष प्रशासन की संभावनाओं को हतोत्साहित करते है। इसे हाल ही में सुर्खिया बटोरने वाली एक घटना के माध्यम से समझा जा सकता है।
एक राज्य सरकार ने यह निर्णय लिया कि शहर से लेकर गाँवों तक फैले सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की कमी दूर करने के लिए अभियान चलाकर जल्द से जल्द चिकित्सा उपाधि धारण करने वाले अभ्यर्थियों को सीधी संविदा के आधार पर नियुक्त कर दिया जाय। लोक सेवा आयोग के माध्यम से पर्याप्त चिकित्सकों की भर्ती न हो पाने, सीमित अवधि के प्रोजेक्ट/ मिशन के  अंतर्गत सृजित अस्थायी पदों को भरने की आवश्यकता होने, स्थायी पदों पर नियमित चिकित्सकों की भर्ती में कठिनाई आने या ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करने में उनकी अरुचि को देखते हुए शायद यह विकल्प चुना गया होगा। इस व्यवस्था में ग्रामीण क्षेत्र के अस्पतालों में कार्य करने के लिए ही  डाक्टरों से अनुबन्ध किया जाता और कदाचित्‌  बेरोजगारी काट रहे अभ्यर्थी संविदा से बँधकर उन दूर-दराज़ के अस्पतालों पर रुककर मरीजों की चिकित्सा के लिए उपलब्ध हो जाते। इन्हें भर्ती करने का दायित्व जनपद के मुख्य चिकित्सा अधिकारी को दिया गया। जनपद के प्रशासनिक अधिकारी इस भर्ती प्रक्रिया में सहयोगी की भूमिका निभाने वाले थे। लेकिन जो हुआ वह इस तंत्र के भीतर झाँकने के लिए एक खिड़की खोलने वाला था।
(www.parkhill.org.uk से साभार)
स्थानीय विधायक और मन्त्री ने चयनित डाक्टरों की सूची देखी तो आग बबूला हो गये। बताते हैं कि अपने ‘कैन्डीडेटों’ का नाम नदारद देखकर उन्हें इतना गुस्सा आया कि सीएमओ साहब के पीछे गुंडे भिजवा दिये। अभी तो यह जाँच में स्पष्ट होगा कि सीएमओ साहब के साथ मारपीट हुई कि नहीं लेकिन कुछ तो ऐसी बात थी कि उन्हें अपना ऑफिस और सरकारी आवास छोड़कर भूमिगत होना पड़ा। मीडिया ने मामले को उछाल दिया तो कहानी में मोड़ आ गया। मुख्य मंत्री जी को मन्त्री जी से इस्तीफा लेना पड़ा। मन्त्रीजी उसके बाद भी मीडिया से पूछ रहे थे कि सीएमओ को मुझसे इतना ही डर था तो उन्होंने मेरे क्षेत्र में पोस्टिंग ही क्यों करायी। फिलहाल अंतिम सूचना यह है कि डॉक्टरों की भर्ती प्रक्रिया स्थगित कर दी गयी है और वहाँ के सभी महत्वपूर्ण अधिकारी, डीएम, एसएसपी, सीडीओ, सीएमओ आदि हटा दिये गये हैं।
सरकार जो नियम बनाती है उसका पालन करना कार्यपालिका यानि प्रशासनिक विभाग का काम है लेकिन नियमों का उल्लंघन होता रहता है। ब्यूरोक्रेसी के भीतर राजनीतिक फाँट देखी जा सकती है। माननीय मन्त्रीगण और उनके अनुयायियों द्वारा सरकारी तंत्र का उपयोग जनहित के बजाय निजी हित में किये जाने की चर्चा आम हो गयी है। अपने लोगों को सरकारी ठेके या अन्य लाभ के पद दिलाने के लिए अधिकारियों को डराना धमकाना अब सामान्य बात है। अधिकारीगण माननीयों को प्रसन्न रखने में हलकान हुए जा रहे हैं। जो चतुर हैं वे इसी राजनीतिक आड़ में अपना उल्लू सीधा करने में प्रवीण हो चुके हैं।
किसी संस्था का अंग होकर कार्य करने के लिए हमें संस्था द्वारा वेतन भत्तों के अलावा अनेक सुविधाएँ दी जाती हैं। इसके बदले संस्था हमसे यह अपेक्षा करती है कि हम संस्था के उद्देश्यों व लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए ईमानदारी से प्रयास करें। प्रबंधन या अधिकारी वर्ग से ऐसे निर्णयों की अपेक्षा की जाती है जो इन लक्ष्यों और उद्देश्यों की प्राप्ति की राह आसान बनायें, कार्मिकों की कार्यक्षमता का सही उपयोग हो सके, न्यूनतम आर्थिक लागत पर अधिकतम उत्पादन या सेवा प्राप्त हो सके और दक्षता में वृद्धि हो। सरकारी प्रतिष्ठानों में मितव्ययिता के साथ-साथ जनहित के उद्देश्य को भी बहुत महत्व दिया जाता है; भले ही इसपर व्यय कुछ अधिक हो जाय।
निजी संस्थाओं के बारे में तो मुझे ज्यादा नहीं पता लेकिन सरकारी विभागों में जो स्थिति है वह प्रो-एक्टिव होकर कार्य करने लायक नहीं रह गयी है। साथी अधिकारियों या सीनियर्स द्वारा कई बार  सकारात्मक सक्रियता को पागलपन या बेवकूफ़ी का नाम देकर ऐसा करने वाले अधिकारी को अपनी फिक्र करने की सलाह दी जाती है। बताया जाता है कि होम करने में हाथ जला बैठोगे। जो भी करो अपने को बचाकर करो। ऐसा कुछ भी मत करो जिसकी जिम्मेदारी तुम्हारे सिर पर डाली जा सके। अच्छा काम हो या बुरा काम इससे फ़र्क नहीं पड़ता। यदि एक बार इसकी जिम्मेदारी आपके सिर पर डाल दी गयी तो आगे चलकर आपको जाँच प्रक्रिया से गुजरना ही पड़ेगा और आप लाख सफाई देते रहोगे कुछ न कुछ छींटे आपके दामन पर पड़ ही जाएंगे। सरकारी कामकाज के बारे में आम छवि इतनी दूषित हो चुकी है कि कोई मुद्दा उठने पर सहज ही यह मान लिया जाता है कि गड़बड़ और धाँधली तो जरूर हुई होगी। 
काजल की कोठरी में कैसोहू सयानो जाय एक लीक काजल की लागिहें पै लागिहैं 
अब यह सयानापन दिखाने की प्रवृत्ति इस कदर बलवती हो गयी है कि जिन अधिकारियों को अपना दामन साफ रखने की चिन्ता है वे यथासंभव अपने को किसी भी निर्णय से दूर रखने की कोशिश करते हैं। प्रकरण की महत्ता, अनिवार्यता और और उसमें निहित जनहित के तत्व से ज्यादा वे इस बात पर ध्यान लगाते हैं कि कैसे इसपर कोई भी निर्णय लेने से बचा जा सकता है। भले ही यह निर्णय लेना उनकी ड्यूटी का अविभाज्य अंग हो; लेकिन यदि इससे बचने की कोई सूरत मौजूद है तो उसे जरूर अपनाएंगे। 
कभी कभी तो ऐसी हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि कोई बड़ा निर्णय लेने के लिए फाइल मेज पर आते ही साहब की तबियत बिगड़ जाती है और वे छुट्टी पर चले जाते हैं। यह स्थिति तब शर्मनाक हद पार कर जाती है जब यह छुट्टी तबतक बढ़ायी जाती है जबतक कोई जूनियर इन्चार्ज अधिकारी उसपर दस्तखत करके फाइल निस्तारित न कर दे। कभी-कभी ऐसी फाइलें महीनों धूल खाती रहती है। भले ही सरकार का या किसी और का लाखों का नुकसान हो जाय, लेकिन अपनी बचत पुख़्ता रखने के लिए जरूरी निर्णय भी नहीं लेने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।
सरकारी नौकरियों के लिए चयन की प्रक्रिया तो इतनी जोखिम वाली हो गयी है कि कोई साफ-सुथरा अधिकारी इस प्रक्रिया से कत्तई जुड़ना नहीं चाहता है। इस काम में इतना दबाव झेलना पड़ता है कि सामान्य ढंग से जीना मुश्किल हो जाता है। मोबाइल बन्द रखना पड़ता है, भूमिगत होना पड़ता है, सुरक्षा बढ़ानी पड़ती है। यदि यह सब करते हुए चयन का परिणाम घोषित करने में सफल हो गये तो असंख्य लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ती है। नेता, मंत्री, उच्चाधिकारी, नातेदार, रिश्तेदार, सहयोगी, मित्र आदि में से कौन आपकी बखिया उधेड़ने को तैयार हो जाय यह कहा नहीं जा सकता। इस सारी मशक्कत से बचने का आसान उपाय यह है कि यह जिम्मेदारी अपने सिर पर लो ही मत। टालते जाओ, टालते जाओ और किसी मजबूर के सिर पर दे मारो जो इससे भाग न सके; या कोई ऐसा जबरदस्त फन्ने खाँ मिल जाय जो पूरी दबंगई से काम निपटाने, सारी चुनौतियों का सामना करने व उनका परिणाम भुगतने को तैयार हो। सच्चाई यह है कि ऐसा कलेजा बहुत कम लोगों के भीतर पाया जाता है। 
अलबत्ता कुछ बहादुर अधिकारी ऐसा बड़ा जिगरा लेकर अभी भी काम कर रहे हैं जो आये दिन अखबारों की सुर्खियाँ बनते हैं। कभी मार-पीट, कभी गुंडागर्दी, कभी ट्रैपिंग, कभी ट्रान्सफर, कभी एफ़.आई.आर. तो कभी विजिलेन्स जाँच के केन्द्र  में होकर भी वे बिन्दास आगे बढ़ रहे हैं। मुझे तो कभी-कभी उनके हौसले को सलाम करने का मन करता है।
(सत्यार्थमित्र)

5 टिप्‍पणियां:

  1. Every comfort,pleasure and amenities in life has a price to be paid,brave and knowladgeble officers understand this and obstruction like those you mention deter them from their goal.

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  2. Nindantu Neetinipuna yadi va stuvantu
    Laksmi samavishatu gachhatu va yatheshtam
    Adyaiv maranmastu yugantare va
    Nyaayat pathah pravichalanti padam n dheera....

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  3. कोई अपना कार्य ठीक से करना भी चाहे तो उसे ज्ञान बताने वाले बहुत से लोग आ जाते हैं।

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  4. यह पोस्ट मैंने कानपुर में पढ़ी थी। अच्छी लगी थी। अब फ़िर देखी तो सोचा बता भी दें। बहुत अच्छे।

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