हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

ठंड में यूँ याद आया बचपन…

 

camp-fireलखनऊ की ठंड भी कंपाने वाली है। ऑफिस से लौटने के बाद आग तापने से अच्छा कुछ भी नहीं लगता। अपार्टमेंट फ़्लैट की लाइफ में आंगन में अलाव जलाकर तापने का सुख तो नहीं मिल पाता लेकिन हमने उसकी भरपाई कुछ ऐसे कर ली। अंगारे बड़े प्यारेलोहे का पोर्टेबल ‘हवनकुंड’ लकड़ी और कोयले की आग जलाकर तापने के काम आ रहा है। पड़ोसियों से मेल मुलाकात का बहाना भी।

 

 

 

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child-hood days 001आज पुराने कागज टटोलते हुए एक मुड़ा-तुड़ा पन्ना हाथ लगा तो मन खुश हो गया। बात उन दिनों की है जब कम्प्यूटर से भेंट नहीं थी लेकिन कुछ तुकबन्दी जोड़ लेने का शगल फिर भी आता-जाता रहता था। ऐसे में कागज पर लिखा हुआ आइटम जेब में कुछ दिनों साथ घूमता, फिर जब आसपास के सबलोग पढ़-सुन लेते तो बासी अखबार की तरह कहीं कोने में पड़ रहता। बचपन की देहरी लाँघते हुए जब तरुणाई की ओर कदम बढ़ रहे थे उन्ही दिनो ननिहाल में ये भाव उपजे थे। एक मौसी का जन्मदिन था। माँ की फुफेरी बहन थीं और हमउम्र थी इसलिए ‘नीलूमोछी’ कहा करते थे। “हैप्पी बर्डे” कहने का शऊर सीखा नहीं था इसलिए ‘सुखी और चिरायु होने की शुभकामनाएँ’ देने के लिए यह कविता रच डाली थी। इसमें शुभकामना कहाँ छिपी है यह आप खोजिए, मैं तो कविता ठेलता हूँ।

मेरे मन कर वन्दन प्रभु से अब सबकुछ मंगलकारी हो।

रीते दिन बीतें अब अपनी एक हरी भरी फुलवारी हो॥

नील गगन में पंछी सा उड़ने को मन ललचाता है।

लूटे थे जो सुख बचपन में उन सबकी याद दिलाता है॥

मोहक नानी के घर की सारी बातें प्यार लड़ाई की।

छीना-झपटी का खेल और चुपके से मिली मिठाई की॥

सब धमा-चौकड़ी लुका-छिपी फिर भोली-भाली किलकारी।

दैनिक जीवन निश्चिन्त अहा, अल्हणता कैसी थी प्यारी॥

वह खेल-कबड्डी, गुल्ली-डंडा, भाग-दौड़ वह अठखेली।

सुबके रोये भी वहाँ और मुस्कान खिली भी अलबेली॥

खींच चुकी है मन में गहरी अमिट रेख उन यादों की।

हों विस्मृत कैसे वे पल-छिन वे घड़ियाँ मीठे वादों की॥

चिरकाल हमारे जीवन में सब रचा-बसा रह जाएगा।

राहें जीवन की जहाँ मिलें सबकुछ पहचाना जाएगा॥

युग बचपन का बीता, आयी तरुणाई तो अपनाएंगे।

होंठों पर हो मुस्कान अमिट ईश्वर से यही मनाएंगे॥

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

-सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी         

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

सेमिनार रिपोर्ट... डेटलाइन लखनऊ (कल्याण से लौटकर) भाग-II

प्रपत्र वाचन का क्रम थम गया तो मुझे बोलने के लिए बुलाया गया। इतनी अधिक बातें कही जा चुकी थीं कि कुछ कहने को बचा नहीं था। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी। इतना बताता चलूँ कि मैंने वर्ष २००८ में ब्लॉगिंग शुरू करने के बाद इस आभासी दुनिया के चेहरों को वास्तविक रूप में श्रोताओं के आमने-सामने लाने के तीन बड़े कार्यक्रमों– (i) ब्लॉगिंग की पाठशाला, (ii)चिठ्ठाकारी की दुनिया, (iii) चिठ्ठाकारी की आचारसंहिता के आयोजन और ऐसे अनेक छोटे-बड़े अवसरों में उपस्थित रहने का सौभाग्य पाया है लेकिन विषय विशेषज्ञ के रूप में अपनी बात कहने का मौका शायद पहली ही बार मिला था। अस्तु, मैं बड़े उहापोह में था कि कहाँ से बात शुरू करूँ और क्या-क्या बता दूँ। समय की कमी की ओर बार-बार इशारे हो रहे थे लेकिन जब मैंने माइक सम्भाला तो कई बातें कर डाली:

मैने इस सेमिनार के आयोजकों को साधुवाद दिया और बोला कि अबतक ब्लॉगिंग के ‘स्वरूप, व्याप्ति और संभावनाओं’ के बारे में बहुत सी चर्चा हो चुकी है; इसका परिचय देने के लिए कुछ बाकी नहीं है; इसकी क्या-क्या उपयोगिता हो सकती है इसपर भी अनेक सुझाव आये हैं; मैं आगे चलकर उनमें कुछ जोड़ना चाहूँगा; लेकिन यहाँ इस माध्यम के बारे में जो शंकाएँ उठायी गयी हैं उनके बारे में स्थिति स्पष्ट करना जरूरी समझता हूँ इसलिए मैं सबसे पहले यह माध्यम जिस पृष्ठभूमि में अवतरित हुआ है उसओर आपका ध्यान दिलाना चाहूँगा।

यदि आप मानव सभ्यता के विकास की कहानी पर ध्यान देंगे तो पाएंगे कि समुद्र से जंगल और जंगल से बाहर निकलकर सभ्य समाज की स्थापना की लम्बी यात्रा में मनुष्य के रहन सहन के तरीके में जो बड़े बदलाव आये हैं वे किसी न किसी बड़ी वैज्ञानिक खोज या तकनीकी अविष्कार के कारण ही आये हैं। जब हमने पहली बार आग की खोज की तो खाने का स्वाद बदल गया, पहिया या चक्का बनाना आया तो हमारी गति बदल गयी, धातु की खोज हुई और हथियार बनाना सीख लिया तो बेहतर शिकारी और पशुपालक बन गये। अन्न उगाना सीख लिया तो घुमक्कड़ी छोड़ स्थायी नगर और गाँव बसाने लगे। नदी-घाटी सभ्यताएँ विकसित हो गयीं। कपड़े बनाना सीख लिया तो कायदे से तन ढकने लगे, अधिक सभ्य हो गये। भोजपत्र पर अक्षर उकेरने लगे तो पठन-पाठन का विकास हुआ। कागज बना और छापाखाना ईजाद हुआ तो लोगों को किताबे मिलने लगी। ज्ञान विज्ञान का प्रसार हुआ। लोग अँधेरे से निकलकर उजाले की ओर आने लगे। नवजागरण हुआ। बड़े पैमाने पर उत्पादन की तकनीकें विकसित हुईं तो बड़े कल कारखाने स्थापित हुए और उनके इर्द-गिर्द बस्तियाँ बसने लगी। कामगारों का विस्थापन हुआ। समुद्री नौकाएँ बनी तो नये महाद्वीप खोजे गये। अंतरराष्ट्रीय व्यापार होने लगा। औद्यौगिक क्रान्ति हुई।

इस प्रकार हम देखते हैं कि जब भी कोई बड़ी तकनीकी खोज आयी उसने हमारे रहन-सहन के तरीके में युगान्तकारी परिवर्तन कर दिया। इतना बड़ा परिवर्तन कि यह कल्पना करना कठिन हो जाय कि पहले के लोग इसके बिना रहते कैसे होंगे। रेलगाड़ी के बिना लम्बी यात्राएँ कैसे होती होंगी कंप्यूटर के बिना आम जनजीवन कैसे चलता होगा, यह सोच पाना कठिन है। मोबाइल का उदाहरण तो बिल्कुल हमारे सामने पैदा हुआ है। अबसे दस पन्द्रह साल पहले जब मोबाइल प्रचलन में नहीं था तब लोग कैसे काम चलाते थे?  आज हमें यदि वैसी स्थिति में वापस जाना पड़े तो कितनी कठिनाई आ जाएगी?

इस परिप्रेक्ष्य में यदि हम ब्लॉग के आविर्भाव को देखें तो पाएंगे कि सूचना क्रांति के इस युग में विचार अभिव्यक्ति का यह ऐसा माध्यम हमारे हाथ लगा है जो एक नये युग का प्रवर्तन करने वाला है। एक लोकतांत्रिक समाज में रहते हुए हमें जो मौलिक अधिकार मिले हुए थे उनका सर्वोत्तम उपयोग कर पाने का अवसर हममें से कितनों के पास था? हम कितने लोगों से अपनी बात कह पाते थे और कितने लोगों की प्रतिक्रिया हम जान पाते थे? इस माध्यम ने हमें अनन्त अवसर दे दिये हैं जिनका सदुपयोग करने की जिम्मेदारी हमारी है।

मैं इस संगोष्ठी में उठायी गयी कुछ आशंकाओं की चर्चा करना चाहूँगा। कल शशि मिश्रा जी ने बहुत ही भावुक कर देने वाला आलेख पढ़ा। खासकर महिला ब्लॉगर्स द्वारा लिखे गये ब्लॉगों से सुन्दर उद्धरण प्रस्तुत किये। लेकिन उन्हें इस बात का अफसोस था कि अब अपने इष्ट मित्रों, स्नेही स्वजनों को लिखकर भेजे जाने वाला पोस्टकार्ड विलुप्त हो गया है। चिठ्ठी लिखना, लिफाफे में भरकर डाक के हवाले करना और हफ्तो महीनों उसके जवाब का इन्तजार करना एक अलग तरह का सुख देता था। अब यह सब इतिहास हो जाएगा। मैं पूछता हूँ - क्या बिहारीलाल की बिरहिणी नायिका का दुःख सिर्फ़ इसलिए बनाये रखा जाना चाहिए कि उसके वर्णन में एक साहित्यिक रस मिलता है? क्या आज संचार के आधुनिक साधनों ने हमें अपने स्वजनों की कुशलक्षेम की चिन्ता से मुक्त नहीं कर दिया है? हमें अपनों के बारे में पल-पल की जानकारी मिलती रहे तो मन में बेचैनी नहीं रहती। यह स्थिति प्रसन्न रहने की है या अफ़सोस करने की?

अभी एक सज्जन ने कहा कि कम्प्यूटर के माध्यम से हम दुनिया से तो जुट जाते हैं लेकिन पड़ोस में क्या हो रहा है इसका पता नहीं चलता। मेरी समझ से ऐसी स्थिति उनके साथ होती होगी जो कम्प्यूटर और इन्टरनेट का प्रयोग गेम खेलने और पोर्नसाइट्स देखने के लिए करते होंगे। मैं बताना चाहता हूँ कि जिसे ब्लॉगिंग के बारे में कुछ भी पता है वह ठीक इसका उल्टा सोचता होगा। एक ब्लॉगर के रूप में आप कम्प्यूटर और इंटरनेट से जुड़कर क्या करते हैं? आपका कंटेंट क्या होता है? जबतक आप अपने आस-पास के वातावरण के प्रति संवेदनशील नहीं होंगे, अपने घर-द्वार, कार्यालय और नजदीकी समाज के बारे में कुछ चिंतन नहीं करेंगे तबतक आप क्या इनपुट देंगे? किस बात के बारे में पोस्ट लिखेंगे? मैं तो समझता हूँ कि एक सामान्य व्यक्ति के मुकाबले एक ब्लॉगर अपने आँख कान ज्यादा खुले रखता है। एक पोस्ट के जुगाड़ में वह सदैव खोज करता रहता है। मूर्धन्य ब्लॉगर ज्ञानदत्त पांडेय जी की पोस्टें देखिए उनके घर के पास बहने वाली गंगा जी के तट पर रहने वाले तमाम जीव-जन्तु और मनुष्य उनकी पोस्टों के नियमित पात्र हैं। उनके पड़ोस के बारे में उनके साथ-साथ हम भी बहुत कुछ जान गये हैं और वैसी ही ही दृष्टि विकसित करना चाहते हैं। यहाँ तक कि सोशल नेटवर्किंगसाइट्स से जुड़े लोग भी अपने आसपास पर निकट दृष्टि रखते हैं, ब्लॉगर्स के तो कहने ही क्या?

यहाँ कुछ वक्ताओं द्वारा पुस्तकों के घटते महत्व और हमारी संस्कृति से जुड़ी तमाम बातों के लुप्त होने पर चिन्ता व्यक्त की गयी। मैं यहाँ यह कहना चाहूँगा कि ब्लॉग लेखन इस समस्या का कारण नहीं है बल्कि यह इसका समाधान है। हमारे कितने ब्लॉगर बन्धु अच्छी-अच्छी किताबें पढ़ते हैं और उसकी समीक्षा लिखते हैं। दूसरों को पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। बहुत सा उम्दा साहित्य ब्लॉग और साइट्स के माध्यम से इंटरनेट पर अपलोड किया जा रहा है। अनूप शुक्ल जी ने अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर ‘राग दरबारी’ जैसे कालजयी उपन्यास को एक ब्लॉग बनाकर उसपर पोस्ट कर दिया है। वर्धा विश्वविद्यालय की साइट हिंदी-विश्व पर उत्कृष्ट हिंदी साहित्य के दस लाख पृष्ठ अपलोड करने की योजना चल रही है। रवि रतलामी ने ‘रचनाकर’ पर तमाम साहित्य चढ़ा रखा है। आज यदि आप यह सोच रहे हैं कि बच्चे कम्प्यूटर शट-डाउन करके लाइब्रेरी जाएँ और साहित्यिक किताबें इश्यू कराकर पढ़ें तो आपको निराशा होगी। करना यह होगा कि लाइब्रेरी के साहित्य को ही यहाँ उठाकर लाना होगा। ब्लॉग इस काम के लिए सबसे अच्छा और सहज माध्यम है।

हमारी सांस्कृतिक विरासत को सहेजने में भी ब्लॉग बहुत हद तक समर्थ है। मैंने अपनी एक ब्लॉग पोस्ट का उदाहरण दिया जिसमें गाँवों में पहले कूटने-पीसने के लिए प्रयुक्त ढेंका और जाँता के बारे में बताया था। उन यन्त्रों के बारे में आगे की पीढ़ियाँ कुछ भी नहीं जान पाएंगी यदि हमने उनके बारे में जानकारी यहाँ सहेजकर नहीं रख दी। उनसे उपजे मुहाबरे और लोकोक्तियों का अर्थ रटना पड़ेगा क्योंकि उन्हें समझना मुश्किल हो जाएगा। देश दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में मनाये जाने वाले पर्व त्यौहार कैसे होते हैं, क्या रीति-रिवाज व्यवहृत हैं इनके बारे में प्रथम स्तर की सीधी जानकारी ब्लॉग नहीं देगा तो कौन देगा?

पिछले सत्र में किसी ने बहुत ही सही बात कही कि एक तेज चाकू की धार से कुशल सर्जन द्वारा शल्यक्रिया करके किसी की जान बचायी जाती है और वही चाकू जब कोई विवेकभ्रष्ट अपराधी थाम लेता है तो किसी की हत्या तक कर देता है। इसलिए किसी भी साधन के प्रयोग में विवेक का सही प्रयोग तो महत्वपूर्ण शर्त होगी ही। इससे हम कत्तई इन्कार नहीं कर सकते कि ब्लॉग के माध्यम का प्रयोग भी पूरी जिम्मेदारी से सकारात्मक उद्देश्य के लिए किया जाना चाहिए। हम अपने आप को गौरवान्वित महसूस करें कि हम सभ्यता के विकास के ऐसे सोपान पर खड़े हैं जो एक और युगान्तकारी परिवर्तन का साक्षी है। अभिव्यक्ति की जो नयी आजादी मिली है वह गलत हाथों में पड़कर जाया न हो जाय इसलिए हमें पूरी दृढ़ता से अपने विवेक का प्रयोग करते हुए इसके सदुपयोग को सुनिश्चित करना चाहिए जिससे मानवता की बेहतर सेवा  हो सके।

मेरे बाद शैलेश भारतवासी को आमंत्रित किया गया जिन्होंने संक्षिप्त किंतु बहुत उपयोगी बातें रखीं। मैं अपनी बात कहने के बाद इस स्थिति में नहीं था कि आगे की बातें नोट कर सकूँ। आशा है कि वे अपनी बातें समय निकालकर अपनी साइट पर आप सब से साझा करेंगे। हाँ इतना और बताता चलूँ कि मैंने सत्राध्यक्ष डॉ. शीतला प्रसाद पांडे जी की अनुमति से अपना रचा हुआ एक गीत भी लैपटॉप खोलकर मंच से सुना दिया। आपने यदि नहीं पढ़ा हो तो यहाँ पढ़ लीजिए। जुलाई २००८ में रचित यह गीत आज भी प्रासंगिक जान पड़ता है।

यदि समय ने साथ दिया तो आयोजन की कुछ झलकियाँ चित्रों के माध्यम से प्रस्तुत करूंगा। धन्यवाद।


(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

रविवार, 11 दिसंबर 2011

सेमिनार रिपोर्ट... डेटलाइन लखनऊ (कल्याण से लौटकर) भाग-I

ब्लॉग के बारे में विद्वानों की अद्‌भुत राय
...पिछली कड़ी से आगे

आपने हमारी लाइव रिपोर्ट्स और उनके बीच आये क्षेपक को पढ़ा ही होगा इसलिए अब हम बिना किसी भूमिका के सीधे प्रथम दिवस के अपराह्न सत्र की चर्चा करेंगे जो चाय विश्राम के बाद प्रारम्भ हुआ था। इस सत्र का विषय था – “ब्लॉगिंग की उपयोगिता” । इस भाग में तय कार्यक्रम के अनुसार कुल ११ वक्ताओं और एक संचालक को अपनी बात कहनी थी। वक्ताओं में एक अध्यक्ष, दो विषय विशेषज्ञ, दो विशेष अतिथि और छः प्रपत्र वाचक सम्मिलित थे। शाम चार बजे शुरु किए गये सत्र को पाँच बजे समाप्त हो जाना था। शुक्र है कि उसके बाद कोई और चर्चा सत्र नहीं था इसलिए संचालक की टोकाटाकी के बीच भी हम इसे सवा छः बजे तक खींच ले जाने में सफल रहे। एक अच्छी बात यह भी रही कि वक्ताओं में से दोनो विशेष अतिथि और एक प्रपत्र वाचक उपस्थित नहीं हुए, जिससे बाकी लोग कुछ अधिक समय पा सके।
संचालक डॉ.(श्रीमती) रत्ना निम्बालकर (संस्था की उप प्राचार्य) ने शुरू में ही बता दिया कि वे हिंदीभाषी नहीं हैं और वे अंत तक इस तथ्य की पुष्टि करती रहीं। उन्हें जो कहना था उसे उन्होंने लिखकर रखा था और बड़ी सावधानी से उसे पढ़ रही थीं। एक गैरहिंदीभाषी द्वारा इतना दत्तचित्त होकर हिंदी ब्लॉगिंग के चर्चा सत्र को संचालित करना हमें बहुत अच्छा लगा। ब्लॉगिंग विधा के लिए यह भी एक उपलब्धि है जो अलग-अलग भाषाओं को एक साथ जोड़ने का माध्यम बन रही है।

सर्व प्रथम प्रपत्र-वाचन का क्रम शुरू हुआ। यह प्रपत्र-वाचन आजकल बहुत ज्यादा प्रयोग किया जा रहा है। इसकी डिमांड अचानक बढ़ गयी है। मैंने पता किया तो लोगों ने बताया कि अब यूजीसी (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग) ने विश्वविद्यालयों और डिग्री कॉलेजों में कार्यरत सहायक प्रोफ़ेसर व एसोसिएट प्रोफ़ेसर की पदोन्नति के लिए यह जरूरी कर दिया है कि वे क्लास में लेक्चर देने के अलावा एक निश्चित संख्या में शोधपत्र तैयार करें और राष्ट्रीय स्तर के सेमिनार में हिस्सा लें। इस अनिवार्यता ने बहुत से अध्यापकों को ऐसे ‘राष्ट्रीय’ सेमिनारों की राह दिखा दी है। वे ऐसे विषयों पर भी किताबें पलट रहे हैं और इंटरनेट खंगाल रहे हैं जिनमें न तो उनकी कोई मौलिक रुचि रही है और न ही उसके अध्ययन-अध्यापन का कोई अनुभव रहा है। इस सेमिनार में भी जो प्रपत्र पढ़े गये उनकी विषयवस्तु और प्रस्तुतिकरण की शैली इसी बात की गवाही दे रही थी। यू.जी.सी. के इस फरमान ने ब्लॉगिंग को बहुत संबल दिया है। हम शुक्रगुजार हैं।

इस तीसरे सत्र से पहले भी करीब दर्जन भर प्रपत्र पढ़े जा चुके थे; मैंने उनकी विषयवस्तु सुन रखी थी और कुछ नोट भी कर लिया था। इसलिए मंचपर बैठे हुए मुझे बहुत कुछ नोट नहीं करना पड़ा। लगभग सभी ने ब्लॉग के बारे में इसकी उत्पत्ति, विकास और प्रसार की कहानी बतायी; कुछ प्रचलित, कुछ प्रसिद्ध और कुछ कम प्रसिद्ध ब्लॉग्स का नाम लिया और उद्धरण सुनाये; इसके लाभ गिनाये, इससे मिलने वाली अभिव्यक्ति की नयी आजादी की चर्चा की; और अंत में कुछ किंतु-परंतु के साथ इसकी कमियों पर दृष्टिपात किया। मुझे महसूस हुआ कि ये गिनायी गयी कमियाँ तथ्यात्मक विश्लेषण पर आधारित कम थीं और प्रायः प्रपत्र को संतुलन प्रदान करने के उद्देश्य से ही जोड़ी गयी थीं। जिस सत्र में मुझे विशेषज्ञ के रूप में बोलना था उसमें प्रपत्र वाचन करने वाले थे : शिरूर के डॉ. ईश्वर पवार, दिल्ली के डॉ.चन्द्र प्रकाश मिश्र, पश्चिम बंगाल के आशीष मोहता, दिल्ली की डॉ.विनीता रानी और मुम्बई के डॉ. विजय गाड़े।

ईश्वर पवार जी ने अपनी बात के बीच में कविता की चार पंक्तियाँ पढ़ी जिनपर तालियाँ बजी-
तुम हो तो ये घर लगता है,
वरना इसमें डर लगता है।
ख़ुलूस-ओ-मोहब्बत से तर है,
चले आइए ये अपना घर है।
मैं यह नोट नहीं कर पाया कि यह किस संन्दर्भ में कहा गया। फिर भी अच्छी भावुक कर देने वाली लाइने हैं इसलिए बता देना उचित लगा। उन्होंने आगे कहा कि ब्लॉग (पोस्ट) की उम्र बहुत कम होती है। जल्द ही लोग इसे भुला देते हैं। इसकी उम्र लम्बी करने के लिए उपाय खोजे जाने चाहिए। यह भी खोजा जाना चाहिए कि शिक्षा के क्षेत्र में ब्लॉग का प्रयोग कैसे किया जा सकता है। उन्होंने ब्लॉग को प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए उपयोगी बनाये जाने पर बल दिया। इस माध्यम की कमियों के रूप में उन्होंने यह बात बतायी कि ब्लॉग के आ जाने के बाद नयी पीढ़ी इस ओर चली आ रही है और बड़ा साहित्य पढ़े जाने से वंचित हो जा रहा है। इसी क्रम में उन्होंने यह जुमला भी उछाल ही दिया कि आजकल के युवा पहले ई-मेल से संबंध बना रहे हैं और बाद में फीमेल से। इसपर उन्हें उम्मीद थी कि तालियाँ बजेंगी लेकिन शायद यह चुटकुला सबको पहले से ही पता था।

अगले वक्ता के रूप में डॉ. चन्द्र प्रकाश मिश्र अपना ‘पेपर’ लेकर तो आये, लेकिन बोलते रहे बिना पढ़े ही। एक कारण तो यह था कि वे इस विषय के अच्छे जानकार हैं और बहुत अवसरों पर वार्ता दे चुके हैं, किताबे भी लिख चुके हैं; लेकिन दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह था कि उनके पर्चे की अधिकांश बातें दूसरे वक्ता पहले ही बोल चुके थे। उन्होंने डॉ.सुभाष राय को उद्धरित करते हुए कहा कि “ब्लॉग लेखन असंतोष से उपजेगा।” अन्ना हजारे के आन्दोलन का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि व्यवस्था के प्रति युवा मन में जो आक्रोश पैदा हो रहा है उसे स्वर देने में ब्लॉग का माध्यम पूरी तरह सक्षम है और इसका उपयोग बढ़-चढ़कर हो रहा है। उन्होंने इस माध्यम के बारे में तमाम आशावादी बातें बतायीं और यह भी कहा कि इसे निरंकुश माध्यम कतई न माना जाय। हर ब्लॉगर को यह पता होना चाहिए और “पता है” कि निरंकुशता का वही हश्र होता है जो सद्दाम हुसेन और कर्नल गद्दाफ़ी का हुआ। उन्होंने कहा कि ब्लॉगर को किसी संपादक या सिखाने वाले की जरूरत नहीं है। वह ‘आपै गुरू आपै चेला’ है। उन्होंने प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (न्यूज चैनेल) में आने वाली गिरावट का जिक्र किया, नीरा राडिया टेपों और पेड न्यूज का उदाहरण देते हुए ललित शर्मा के वक्तव्य की चर्चा की जिसके अनुसार “ब्लॉगर मीडिया की बखिया उधेड़ रहे हैं”। चन्द्र प्रकाश जी ने कहा कि जहाँ तक ब्लॉग की उपयोगिता और इसके लिए विषय चुने जाने का सवाल है तो उसका एक शब्द में उत्तर है- “अनन्त”। इसके शीघ्र बाद उन्होंने अपनी वार्ता समाप्त कर दी।

कोलकाता से पाँच वर्ष की ब्लॉगिंग का अनुभव लेकर आये आशीष मोहता ने ‘विषय वस्तु की विशिष्टता’ (Specialization of Content) पर जोर दिया। उन्होंने ब्लॉगर को अपनी रुचि और विशेषज्ञता के अनुसार कोई खास विषय चुनने और उसे उपयोगी व आकर्षक रूप में प्रस्तुत करने की सलाह दी। उदाहरणार्थ उन्होंने पाकशास्त्र के जानकारों को लजीज व्यंजन बनाने का वीडियो तैयारकर उसे पॉडकास्ट करने का सुझाव दिया। इसी प्रकार अनेक ऑडियो-विज़ुअल और टेक्स्ट डिजाइन आधारित विशिष्ट विषयों के ब्लॉग बनाये जा सकते हैं।

दिल्ली की डॉ. विनीता रानी ने, जो पेशे से शिक्षिका हैं अपना पर्चा पूरे आत्मविश्वास से पढ़ा जो सुरुचिपूर्वक तैयार किया गया था। उन्होंने बताया कि ब्लॉग बीसवीं शताब्दी की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसे सामाजिक सरोकारों से जोड़ा जाना चाहिए। इसे समाज के हाशिए पर रहने वालों की आवाज़ बनाया जा सकता है। कभी कभी हमें अपना दुःख अभिव्यक्त कर लेने से भी मन को राहत मिल जाती है। दुःख और शोषण से मुक्ति दिलाने की दिशा में बड़ा योगदान हो सकता है यदि ब्लॉग इसके लिए जोरदार आवाज उठाएँ। इसे आपसी लड़ाई लड़ने के लिए निजी अखाड़े के रूप में प्रयोग नहीं करना चाहिए। वैसे तो इसका प्रयोग हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति अपने-अपने तरीके से कर सकता है लेकिन सृजनात्मक प्रतिभा के धनी व्यक्ति के लिए यह माध्यम बहुत उपयोगी है।

मुम्बई के ही किसी कॉलेज में प्राध्यापक डॉ. विजय गाड़े ने अपना पर्चा उलट कर रख दिया और अपनी बात सीधे कहने लगे। उनकी शैली में मराठी भाषा का इतना जबरदस्त प्रभाव था कि हम बहुत सी बाते चाहकर भी समझ नहीं पाये, नोट करने में तो दिक्कत थी ही। फिर भी उनकी दो बातें मुझे जरूर समझ में आ गयीं। पहली यह कि कम्प्यूटर पर अधिक समय देने वाले समाज से कट जाते हैं। उन्होंने कहा कि हम दुनिया के बारे में तो तमाम बातें जान जाते हैं लेकिन पड़ोस में क्या हो रहा है इसकी खबर तक नहीं होती। दूसरी बात यह कि नेट आधारित माध्यम का नुकसान सबसे अधिक किताबों को हो रहा है। उन्होंने एक अज्ञात शायर का शेर सुनाया-
बच्चे तो टीवी देखकर खुश हुए जनाब।
दुख इस बात का है कि बेवा हुई किताब॥
इस शेर के बाद भी उन्होंने संचालक के इशारों के बीच कुछ बातें की लेकिन मुझे उनकी सुध नहीं रही क्योंकि उनके तुरन्त बाद मुझे बोलना था। मैंने जो कुछ नोट किया था उसे समेटा और माइक पर रत्ना जी के आह्वाहन पर माइक पर पहुँच गया।
(मैने वहाँ क्या बोला यह जानने के लिए यहाँ क्लिक कीजिए।)
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

सेमिनार रिपोर्ट... डेटलाइन कल्याण (मुम्बई) :एक क्षेपक

...पिछ्ली किश्त से आगे

चाय विश्राम से लौटकर मुझे सीधे मंच को ‘सुशोभित’ करना था इसलिए लाइव रिपोर्टिंग का सिलसिला थम गया। मुझे तमाम लोगों को यह बताना था कि ब्लॉगिंग की उपयोगिता क्या है। मुझसे पहले चार-पाँच विद्वानों को इस विषय पर प्रपत्र वाचन भी करना था। बहुत जानदार व शानदार सत्र रहा। मंच पर जो कुछ हुआ उसका किस्सा आगे है। अभी यह बताता चलूँ कि जिस ‘बालाजी इंटरनेशनल’ में हमें ठहराया गया था उसमें हम आज की रात मौजूद नहीं हैं।

हमें कोई ले उड़ा है। सिर्फ़ हमें ही नहीं, हमारे साथ रवीन्द्र प्रभात जी और शैलेश भारतवासी भी आ गये हैं। या कह लीजिए कि हम उनके साथ उड़ा लिए गये हैं। कल्याण से करीब पचास किलोमीटर दूर पहाड़ी ऊबड़ खाबड़ रास्तों से होते हुए हमें जिस तरह लाया गया है उसका परिणाम यह है कि हम लोग यहाँ से वापस भी अपनेआप नहीं जा पाएंगे। अंधेरे रास्ते से होते हुए आये। मुम्बई के रास्तों पर भी स्ट्रीट लाइट नहीं जलती है यह जानकर हमें सदमा सा लग रहा था। कार के बन्द शीशे से बाहर झाँकते हुए रस्तेभर हम साइनबोर्ड पढ़ने की कोशिश करते रहे कि जान सकें किधर को जा रहे हैं। लेकिन अभी जब मैं लिखने की कोशिश कर रहा हूँ तो एक भी नाम याद नहीं आ रहे। रवीन्द्र जी भी भौचक बैठे हैं। रास्ते में शैलेश बार-बार एक उन्नत मोबाइल पर लोकेशन का नक्शा देखने की कोशिश करते रहे लेकिन उन्हें भी कुछ खास पता नहीं चला। हमें बस इतना पता है कि इस समय ‘नवी मुम्बई’ के किसी पॉश इलाके की ऊँची मिनार नुमा एक रिहाइशी बिल्डिंग की नवीं मंजिल पर हम दो जने ठकुआए एक दूसरे को निहार रहे हैं। भकुआए हुए खिड़कियों से बाहर जगमगाती मुम्बई को ताक रहे हैं।

इस पेन्टहाउस (Painthouse Penthouse) के ऊपरी कमरे के हवाले कर हमें लाने वाली शख़्सियत “सुबह भेंट होगी” कहकर चली गयी हैं। शैलेश भी किसी बहाने से अपने एक दोस्त के घर मिलने निकल गया।  हमारे ‘मेजबान’ ने दिनभर की बातें और तमाम ब्लॉगजगत का हालचाल जानने और उसपर चर्चा करने के बाद कहा कि आप लोगों को कल सुबह वापस छोड़ दिया जाएगा। रात यहीं काटनी होगी। उनके जाने के बाद हमने फौरन कमरे की बत्ती बुझा दी, सारी खिड़कियाँ खोल लीं जिनसे ताजा हवा अंदर आने लगी। ए.सी. का रिमोट हमें दिखा दिया गया था लेकिन उसे चलाने की जरूरत नहीं पड़ी। (क्या पूछ रहे हैं? ए.सी.? जी हाँ, यहाँ मुम्बई में इतनी गर्मी है कि लोग ए.सी. पंखा इस्तेमाल कर रहे हैं। हमने जो स्वेटर और कोट रखा था उसका प्रयोग गैर जरूरी हो गया है।)

खैर... हम सोने की कोशिश करते रहे लेकिन बहुत करवट बदलने के बाद भी नींद नहीं आयी। अन्ततः हमने हमने सोचा कि अरविन्द जी की प्रतीक्षा और लम्बी करने के बजाय आज का पूरा हाल यहाँ लिख ही डालें। सो हम उठ बैठे हैं; और चायकाल के सत्र के बाद का हाल बताने वाले हैं...

क्या कहा? उससे पहले यह बताएँ कि इस हाईजैकिंग का राज क्या है? बिना यह जाने कि यू.पी. की तहजीबी राजधानी से आये हम दो ब्लॉगरान के साथ यह बरजोरी किसने की, आप सेमिनार का आगे का हाल नहीं पढ़ेंगे? तो साहब, बस इतना जान लीजिए कि हम अपने साथ घटी इस घटना से बहुत खुश हो लिए हैं। क्योंकि सेमिनार के आयोजकों के भरोसे तो हम कल्याण के उस मुहल्ले से बाहर कदम भी नहीं रख पाते। पहली बार मुम्बई आये लेकिन बिना कुछ देखे-जाने लौट जाते। इसलिए हम यहाँ आकर आनंदित च किलकित हैं। जिस व्यक्ति ने हमें अपनी गाड़ी में बिठाकर, खुद ड्राइव करते हुए अपने भव्य आशियाने तक लाया, बालकनी से चारो ओर की जगमगाती मुम्बई का दर्शन कराया, तालाब के आकार का एक्वेरियम और उसमें तैरती मछलियों से परिचय कराया और स्वादिष्ट भोजन अपने हाथ से परोसकर खिलाया उसे आप स्वयं देख लीजिए। हम अपने मुँह से उनका नाम क्या लें...! तारीफ़ के शब्द कम पड़ रहे हैं सो यह तस्वीर लगाकर काम चला लेते हैं। देखिए...



इस भोजन के बाद नींद भला कैसे न आती। रवीन्द्र जी जगाकर पूछ रहे हैं कि क्या हुआ पोस्ट का। छाप दिए कि नहीं...? 
ओहो... क्या बजा है? 
साढ़े बारह बज गये। 
अब इतनी रात कौन लिखेगा और कौन पढ़ेगा...
अब कल देखी जाएगी...

हम ही सो गये दास्ताँ कहते-कहते... 
(सिद्धार्थ)

राष्ट्रीय सेमिनार लाइव... डेटलाइन- कल्याण (मुम्बई) भाग-II

भोजनावकाश के बाद प्रथम चर्चा सत्र प्रारम्भ हो चुका है। मंच पर विशिष्ट जन आसन जमा चुके हैं। इस सत्र में चर्चा का विषय है- हिंदी ब्लॉगिंग : सामान्य परिचय



इस विषय पर चर्चा हेतु गठित पैनेल इस प्रकार है :

अध्यक्ष : डॉ.आर.पी.त्रिवेदी (पूर्व प्राचार्य, बिड़ला कॉलेज)

विषय विशेषज्ञ : अविनाश वाचस्पति (दिल्ली), रवीन्द्र प्रभात (लखनऊ)

विशेष अतिथि : आलोक भट्टाचार्य (मुम्बई), डॉ. वी.के. मिश्रा (झाँसी)

प्रपत्र वाचक : डॉ. संगीता सहजवानी, डॉ. शशि मिश्रा (मुम्बई), डॉ. पवन अग्रवाल (लखनऊ), डॉ. संगीता सहजवानी (मुम्बई) नरेन्द्र नारायण प्रभू (मुम्बई)

सत्र संयोजक : डॉ.आर.बी.सिंह (उप प्राचार्य, के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय)

डॉ. संगीता सहजवानी जी अपना प्रपत्र पढ़ रही हैं। बहुत उम्दा प्रस्तुति है “अंतरराष्ट्रीय चौपाल पर आप सब आमन्त्रित हैं” बहुत अच्छी बातें। समेटना मुश्किल है। कह रही हैं अकेलेपन का दुश्मन है ब्लॉग। वाह!

***
पुनश्च,

अभी अभी डॉ. शशि मिश्रा जी ने अपना सुन्दर वक्तव्य समाप्त किया। बोलीं- मैने जब पहली बार मनीष से इस सेमिनार की चर्चा सुनी तो पूछा कि ‘यह ब्लॉगिंग किस चिड़िया का नाम है?’ लेकिन जब इस माध्यम के बारे में जानना चाहा तो बस डूबती चली गयी। उन्होंने बहुत साहित्यिक गाम्भीर्य से अपना अध्ययन पत्र रखा। अनेक ब्लॉग्स का उद्धरण दिया। इसी क्रम में उन्होंने रचना त्रिपाठी के ब्लॉग से यह उद्धरण भी दिया

हम और विरना खेले एक साथ,
खेले एक साथ अम्मा खायें एक साथ ।
विरना कलेवा अम्मा हँसी-हँसी देबो,
हमरा कलेवा तुम दीजो रिसियायी।

मैं खुश हो गया। कारण को बगल में बैठी अनिता कुमार जी ने सबसे जाहिर कर दिया। वक्ता को टोकते हुए बोलीं- रचना त्रिपाठी इनकी पत्नी हैं। शशि जी ने मंच से तुरन्त कहा - यही तो ब्लॉग की अद्‌भुत बात है, हम व्यक्ति को नहीं जानते लेकिन उसके विचारों से जुड़ जाते हैं। उन्होंने रचना जी को अपनी ओर से बधाई और धन्यवाद ज्ञापित करने का मुझसे अनुरोध किया। यह दायित्व मैं यहीं से पूरा करता हूँ।

अब डॉ. पवन अग्रवाल अपना शोध पत्र व्याख्यायित कर रहे हैं। कह रहे हैं कि ब्लॉग की तुलना पारम्परिक डायरी से मत करिए। यह उससे आगे की चीज है। ऐसी तुलना हमें दोयम दर्जे का बताती है। उन्होंने किसी विद्वान साहित्यकार का वक्तव्य दोहराया कि ब्लॉग का एक फायदा यह है कि प्रकाशन के योग्य न लिख पाने वालों की बातों से अब हंस जैसी पत्रिकाओं के संपादक को अपना कान नहीं खिलाना पड़ेगा। लेकिन अब स्थिति यह है कि हंस में ही यह प्रकरण पीछे हो गया है और ब्लॉग विषयक आलेख वहाँ प्रकाशित हो रहे हैं। वे आगे चलकर अनेक ख्यातिनाम ब्लॉग्स का परिचय करा रहे हैं।जैसे; अक्षरग्राम, मोहल्ला, वाटिका, गवाक्ष, शब्दों का सफर, प्रभाकर गोपालपुरिया का भोजपुरी ब्लॉग, रचनाकार, कबाड़खाना,पिताक्षरी कई रचनाएँ, अनुगूँज इत्त्यादि।

अब बस्ती से आये डॉ. बलजीत श्रीवास्तव जी भी ब्लॉगिंग के स्वरूप पर अपना पर्चा पढ़ना शुरू कर दिया है...

इस कार्यक्रम की लाइव स्ट्रीमिंग (वीडियो) भी हो रही है। यहाँ देखें

अब विषय विशेषज्ञ रवीन्द्र प्रभात बोल रहे हैं

ऊपर: रवीन्द्र प्रभात, नीचे (अगली पंक्ति में) अनिता कुमार, शैलेश भारतवासी, रवि रतलामी, केवलराम

पुनश्च,
रवीन्द्र प्रभात जी ने कुछ पूर्व वक्ताओं की बातों में संशोधन प्रस्तुत किया। जैसे ब्लॉग को दोयम दर्जे का कतई न मानें, ब्लॉगों की संख्या हिन्दुस्तान में कुल पाँच लाख हो सकती है किन्तु अकेले हिंदी में नहीं। कुछ तर्क-वितर्क भी हुए। रवि रतलामी जी ने बीच बचाव किया। अंतिम समाधान अभी नहीं निकला है।
इस मुद्दे को यहीं छोड़कर रवीन्द्र जी BLOG की व्याख्या कर रहे हैं

B= Brief, L=Logical, O=Operational, G=Genuine
(इस व्याख्या में जो नियम बताये गये हैं उनकी संख्या से ज्यादा उनके अपवाद दिखते हैं क्या ब्लॉगजगत में? मुझे नहीं पता...  :D)
इन्हीं शब्दों की विशद व्याख्या करते हुए रवीन्द्र जी ने अपनी बात पूरी की, अन्त में यह जोड़कर कि - शुरू-शुरू में मुझे भी ब्लॉग बनाना नहीं आता था। १९९५ में  २००५ में। मुझे बसन्त आर्य ने ब्लॉग बनाकर दे दिया था। लेकिन आज मेरी दो-किताबे और अलेक्सा रैंकिंग में १३वें स्थान का ब्लॉग परिकल्पना मेरे नाम से दर्ज है। आप मुझसे से भी बड़ा ब्लॉगर बन सकते हैं। शुरुआत छोटी ही होती है। धीरे-धीरे बड़ा काम अन्जाम दे दिया जाता है।

अब तेताला और नुक्कड़ वाले अविनाश जी बोल रहे हैं।
अविनाश जी चाहते हैं कि जितने लोगों के पास मोबाइल है कम से कम उतने लोगों के पास ब्लॉग भी होना चाहिए। (जिनके पास एक से ज्यादा मोबाइल है उनके पास एक से ज्यादा ब्लॉग भी होने चाहिए ) घर-घर में ब्लॉग होना चाहिए। प्राइमरी कक्षाओं के पाठ्यक्रम में इसको अनिवार्य रूप से शामिल किया जाय। सभी कॉलेजों में ऐसे सेमिनार आये दिन होने चाहिए, आदि-आदि। जय-जय ब्लॉगिंग।

उनके बाद अध्यक्षीय वक्तव्य मुम्बई के आलोक भट्टाचार्य जी द्वारा दिया जा रहा है। वे बोलने से ज्यादा मंत्रमुग्ध लग रहे हैं। बड़े खुश हैं। कह रहे हैं कि नये नये लोगों ने कितने नये और उत्तम विचार दिए हैं, यह देखकर मन आह्लादित है। लेकिन कुछ खतरे और कमजोरियाँ भी हैं। उन्होंने इशारे से बताया कि कैसे एक केंद्रीय मंत्री की इच्छा हो गयी तो बहुत सारे पेज रातो-रात फेसबुक से गायब हो गये। हमें स्वतंत्रता मिली है तो हमें अपना उत्तरदायित्व भी समझना चाहिए। उन्होंने ब्लॉग के लिए चिट्ठा शब्द के प्रयोग पर असहमति जतायी। बोले इससे भंडाफोड़ करने की बात इंगित होती है जो बहुत सीमित और नकारात्मक अवधारणा है।
उन्होंने मेरी लाइव रिपोर्टिंग पर भी आश्चर्य व्यक्त किया। अचम्भित थे।


अगला सत्र चाय विश्राम के बाद शुरू होगा जिसमें मुझे मंच पर बैठना होगा। इसलिए उसके बारे में बात में बात हो पाएगी। अभी इतना ही। नमस्कार धन्यवाद।

(...जारी)

राष्ट्रीय सेमिनार लाइव... डेटलाइन - कल्याण (मुम्बई)

आज हम मुम्बई पहुँच गये हैं। यह ब्लॉगरी जो न जगह दिखाए। जी हाँ, हम ब्लॉगरी की डोर पकड़कर अपने घर से करीब डेढ़ हजार किलोमीटर दूर महाराष्ट्र के ठाणे जिले के कल्याण इलाके में एक महाविद्यालय में अपने ब्लॉगर मित्रों के साथ कुछ खास चर्चा के लिए इकठ्ठा हो गये हैं। किस-किसका जुटान हो चुका है यह बाद में। उद्‌घाटन सत्र शुरू होने जा रहा है। उसके पहले पहली किश्त ये रही...


(बाएँ से (खड़े हुए) केवलराम, डॉ.अशोक कुमार मिश्र, अविनाश वाचस्पति, डॉ.हरीश अरोरा, चन्द्र प्रकाश मिश्र
बाएँ से (बैठे) सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, रवीन्द्र प्रभात, अनिता कुमार, रवि रतलामी)

पुनश्च :
के.एम.अग्रवाल कला, वाणिज्य एवम्‌ विज्ञान महाविद्यालय, कल्याण (प.) के हिंदी विभाग द्वारा यू.जी.सी. के संपोषण से  हिंदी ब्लॉगिंग : स्वरूप, व्याप्ति और संभावनाएँ विषय पर दो दिवसीय राष्ट्री संगोष्ठी का उद्घाटन कार्यक्रम प्रगति पर है। संस्था की प्राचार्य डॉ.अनिता मन्ना ने अतिथियों का औपचारिक स्वागत किया। संयोजक मनीष मिश्र ‘मुन्तज़िर’ अतिथियों को पुष्पगुच्छ इत्यदि से स्वागत का संचालन कर रहे हैं।

मंचासीन (उद्‌घाटन सत्र) : डॉ. आर.बी. सिंह संस्था के अध्यक्ष, विजय नारायण पंडित- सचिव, दामोदर खडसे- अध्यक्ष- महाराष्ट्र साहित्य अकादमी, डॉ. विद्याबिन्दु सिंह पूर्व निदेशिका उ.प्र. हिंदी संस्थान, डॉ. रामजी तिवारी, अध्यक्ष हिंदी विभाग मुम्बई विश्वविद्यालय, राजमणि त्रिपाठी, उप संपादक, नवभारत टाइम्स, मुम्बई, रविरतलामी-भोपाल

पुस्तक लोकार्पण हो गया :
नाम: हिंदी ब्लॉगिंग : स्वरूप, व्याप्ति और संभावनाएँ
पृष्ठ २७०, मूल्य : अघोषित
प्रकाशक : के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय, कल्याण(प)
संपादक : डॉ. मनीष मिश्र ‘मुन्तज़िर’
यह पुस्तक इस विषय पर प्रकाशित तीसरी महत्वपूर्ण पुस्तक है। इसमें करीब ४० ब्लॉगर्स के आलेख और शोधपत्र संकलित हैं

संस्था द्वारा कुछ ब्लॉगर मित्रों को अपने मंच पर ‘ब्लॉगभूषण सम्मान’ से सम्मानित किया। सम्मान सवरूप इन्हें प्रशस्ति पत्र, पुष्पगुच्छ व शाल भेंट की गयी।

जो सम्मानित हुए उनके नाम हैं : रवि रतलामी, रवीन्द्र प्रभात, अविनाश वाचस्पति, सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, शैलेश भारतवासी, डॉ. हरीश अरोरा एवम्‌ डॉ. अशोक कुमार मिश्र।


अविनाश वाचस्पति

डॉ.हरीश अरोरा

रवि रतलामी

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी

रवीन्द्र प्रभात

बीज वक्तव्य:
रवि रतलामी जी ने अपना पावर प्वाइंट प्रस्तुतिकरण दिया। ब्लॉगरी के इतिहास, भूगोल, और समाजशास्त्र के बारे में उनके विचार आप सभी इन पृष्ठों पर पढ़ चुके हैं लेकिन आज उन्होंने फिरसे बहुत ही अपडेटेड और गम्भीर जानकारी उपस्थित श्रोताओं को दी।

उद्‌घाटन सत्र में वक्ताओं ने जिस गहनता से अपनी बात रखी और श्रोताओं ने जिस तल्लीनता से उन्हें सुना उसका अन्दाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उद्‌घाटन सत्र के बाद का प्रथम चर्चा सत्र जो भोजनावकाश से पूर्व निर्धारित था उसका समय भोजनावकाश के बाद के लिए स्थगित करना पड़ा।




 भोजन बहुत ही जायकेदार था। सबने छक कर खाया। अशोक जी और रवीन्द्र जी ने अपना खाना खत्म करके सभागार (वाचनालय) के दरवाजे पर अगले सत्र के शुभारम्भ की प्रतीक्षा बेसब्री से करने लगे।


अगला सत्र जल्दी शुरू करो भाई। बहुत से प्रपत्र वाचन होने हैं।
(प्रथम भाग समाप्त)

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

अंततः हम गए, लेकिन…

पिछले दिनों क्वचिदन्यतोऽपि की अचानक गुमशुदगी की सूचना चारो ओर फैल गयी। हिंदी ब्लॉग जगत के सबसे सक्रिय ब्लॉग्स में से एक अचानक गायब हो गया। इंटरनेट के सागर में इतने बड़े ब्लॉग का टाइटेनिक डूब जाय तो हड़कंप मचनी ही थी। बड़े-बड़े गोताखोर लगाये गये। महाजालसागर को छाना गया। कुछ चमत्कार कहें कि डॉ. अरविंद मिश्रा की लम्बी साधना का पुण्य प्रताप जो बेड़ा गर्क होने से बच गया। सच मानिए उनकी पोस्ट पढ़कर मेरे पूरे शरीर में सुरसुरी दौड़ गयी थी। यह सोचकर कि ऐसी दुर्घटना यदि मेरे साथ हो गयी तो मैं इससे हुए नुकसान का सदमा कैसे बर्दाश्त करूंगा? गनीमत रही कि जल्दी ही निराशा के बादल छँट गये और ब्लॉग वापस आ गया।

इस घटना का प्रभाव हिंदी ब्लॉगजगत में कितना पड़ा यह तो मैं नहीं जान पाया लेकिन इतना जरूर देखने को मिला कि गिरिजेश जी जैसे सुजान ब्लॉगर ने आलसी चिठ्ठे का ठिकाना झटपट बदल कर नया प्लेटफॉर्म चुन लिया। कबीरदास की साखी याद आ गयी।

बूड़े थे परि ऊबरे, गुरु की लहरि चमंकि।
भेरा देख्या जरजरा,  ऊतरि पड़े फरंकि॥

मुझे ऐसा करने में थोड़ा समय लगा क्योंकि तकनीक के मामले में अपनी काबिलियत के प्रति थोड़ा शंकालु रहता हूँ। लेकिन मुख्य वजह रही मेरी ब्लॉगरी के प्रति कम होती सक्रियता। इस बात से दुखी हूँ कि इस प्रिय शौक को मैं पूरी शिद्दत से अंजाम नहीं दे पा रहा हूँ। आज मैंने थोड़ा समय निकालकर इस सुस्त पड़ी गाड़ी को आगे सरकाने की कोशिश की। वर्डप्रेस पर आसन जमाने का उपक्रम किया और यह पोस्ट लिखने बैठा।

इस पोस्ट को लिखने के बीच में जब मैने ‘आलसी का चिठ्ठा’ खोलकर उस स्थानान्तरण वाली पोस्ट का लिंक देना चाहा तो फिर से चकरा गया। महोदय वापस लौट आये हैं। पुराना पता फिर से आबाद हो गया है। वर्डप्रेस के पते पर एक लाइन का संदेश भर मिला है। पूरी कहानी उन्हीं की जुबानी सुनने के लिए अब फोन उठाना होगा।

फिलहाल जब इतनी मेहनत करके नये ठिकाने पर एक नया टेम्प्लेट बना ही लिया है तो इस राम कहानी को ठेल ही देता हूँ। इस नये पते को कम ही लोग जानते होंगे। जो लोग वहाँ तक चले जाएंगे उन्हें बता दूँ कि मेरा मूल ब्लॉग सत्यार्थमित्र ब्लॉगस्पॉट के इस मंच पर पिछले पौने-चार साल से बदलती परिस्थितियों के अनुसार मद्धम, द्रुत या सुस्त चाल से चल रहा है। अब लगता है कि फिलहाल यहीं चलता रहेगा। जानकारों की राय लेकर ही कोई बड़ा कदम उठाऊँगा। यह बात दीगर है कि आदरणीय अरविन्द जी की खोज -बी.पी.आई.- की गणित में अपना स्थान मिस हो गया है।Smile

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)