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बुधवार, 28 सितंबर 2011

रेलयात्रा हमें सहिष्णु बनाती है…

हमें स्कूल में भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ विषय पर निबन्ध रटाया गया था। इसमें एक विशेषता थी- सहिष्णुता। इस विशेषता को लेकर मेरे मन में कौतूहल होता रहा है। भूख, भय, बेरोजगारी, प्राकृतिक आपदा या किसी दुर्घटना  से उत्पन्न दुख व विपत्ति को सहन कर लेने की क्षमता यदि हमारे भीतर प्रचुर मात्रा में है तो अच्छा ही है। हमें उस विपरीत परिस्थिति से बाहर निकलने में मदद मिलती है। लेकिन यदि इस फेर में हमें कुछ भी सह लेने की आदत पड़ जाय तो वही होता है जो भारत के साथ हुआ है। इतिहास बताता है कि किस तरह हमने विदेशी लुटेरों और आक्रान्ताओं को भी आराम से सहन कर लिया। घर बुलाकर मेहमान बनाया और फिर मालिक बनाकर देश की राजगद्दी सौंप दी। एक के बाद एक भ्रष्टाचारी कीर्तिमान हमारी आँखों के सामने बनते जाते हैं और हम मूक दर्शक बनकर या “अन्ना हजारे जिन्दाबाद” का नारा लगाकर घर बैठ जाते हैं। हमारे भीतर अन्याय, अत्याचार, शोषण, और भ्रष्टाचार के प्रति गजब की सहनशक्ति विकसित हो चुकी है। इस उपलब्धि के पीछे हमारी भारतीय रेल का भी थोड़ा हाथ है इसका विचार मेरे मन में पिछली यात्रा के दौरान प्रकट हुआ।

मेरा अनुभव कुछ नया नहीं है। आप सबको इस स्थिति का सामना आये दिन होता होगा। एक आम भारतीय के लिए रेलगाड़ी से यात्रा करना अपनेआप में एक मजबूरी है। एक मात्र सस्ता और टिकाऊ विकल्प यही है, सुन्दर भले ही न हो। a-crowded-passenger-trainलम्बी दूरी की गाड़ियो के जनरल डिब्बे किस प्रकार जीवित मानव देह की लदान करते हैं; और जायज टिकट वालों को भी किसप्रकार थप्पड़ खानी पड़ती है और अंटी ढीली करनी पड़ती है, यह वर्णनातीत है। मैं उस चरम स्थिति की चर्चा नहीं कर रहा हूँ। मैं तो अपेक्षाकृत अधिक सुविधा सम्पन्न श्रेणियों में यात्रा करने वालों में से एक होकर उससे प्राप्त अनुभव के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि रेलयात्रा हमें सहिष्णु बनाती है और इस प्रकार भारतीय संस्कृति की रक्षा में अनुपम योगदान दे रही है।Open-mouthed smile

हाल ही में मुझे अपनी माता जी के खराब स्वास्थ्य की चिन्ता से गोरखपुर जाना हुआ। वहाँ से लखनऊ वापसी की यात्रा रविवार 25 जुलाई, 2011 को अवध एक्सप्रेस से करनी थी जिसका निर्धारित समय दोपहर 1:15 का था। गाड़ी पकड़ने से पहले मुझे अम्मा को हड्डी के डॉक्टर से दिखाना था। अलस्सुबह उठकर मैंने डॉक्टर के यहाँ नम्बर लगाया, क्‍लिनिक खुलने पर लाइन लगाया, डॉक्टर ने प्रारम्भिक जाँच के बाद डिजिटल एक्स-रे के लिए अन्यत्र भेजा। वहाँ एक घंटे लगे। वापस आकर उन्होंने रिपोर्ट देखी और दवाएँ लिखने के बाद दो अन्य विशेषज्ञ चिकित्सकों (न्यूरोलॉजिस्ट और गैस्ट्रोइंटेरोलॉजिस्ट) को रेफ़र कर दिया। दोनो जगह जाने पर पता चला कि रविवार होने से इनके क्‍लिनिक बन्द थे। मेरे बड़े भैया ने कहा कि वे अम्मा को अगले दिन दिखा देंगे। यानि मुझे अब लखनऊ की गाड़ी पकड़ने के लिए स्टेशन जाना चाहिए। मैं यह सब दौड़-धूप करता हुआ लगातार मोबाइल से गाड़ी के प्रस्थान समय की सूचना ले रहा था।

गाड़ी 50 मिनट लेट होने की कम्प्यूटरीकृत सूचना मोबाइल पर एक बार शुरू हुई तो अन्ततक रिकार्ड बदला नहीं गया। मैं उसी के अनुसार स्टेशन पहुँचा तो पू्छताछ केन्द्र पर लगा बोर्ड गाड़ी के 30 मिनट देरी से  7-नम्बर प्‍ले‍टफॉर्म पर आने की सूचना दे रहा था। मेरे हाथ पाँव फूल गये। दौड़ता-भागता हुआ मैं ओवरब्रिज पर चढ़कर प्‍ले‍टफॉर्म नम्बर-7 पर उतरा। एक दिक्कत यह भी हुई कि ओवरब्रिज से प्‍ले‍टफॉर्मों पर उतरने वाली सीढ़ियों के पास प्‍ले‍टफॉर्म संख्या दर्शाने वाले बोर्ड नदारद थे। मुझे एक मिनट रुककर पहले नम्बर से गिनती करते हुए सातवें नम्बर का अनुमान लगाना पड़ा।

प्‍ले‍टफॉर्म पर अधिकांश यात्री अपना सामान हाथ में संभाले गाड़ी आने की दिशा की ओर देख रहे थे। मुझे आश्वस्ति हुई कि अभी गाड़ी आयी नहीं है, बल्कि कुछ ही देर में आने वाली है। दस-पन्द्रह मिनट बीते और गाड़ी नहीं आयी तो सबने अपने हाथ में टँगा सामान नीचे रखना शुरू किया और अपनी जगह पर वापस आने लगे। कुछ देर खड़ा रहने के बाद मैं भी थकान के कारण बैठने की जगह खोजने लगा। सारी बेन्चें क्षमता से अधिक भार से लदी हुई थीं। रेलगाड़ी चलाने वाले गार्ड्स के उपयोग हेतु बने लकड़ी या लोहे के बक्से बड़ी मात्रा में वहीं बिखरे पड़े थे। उनपर भी यात्रियों ने कब्जा जमा रखा था। एक जगह बक्से एक के ऊपर एक रखे हुए थे जो ऊँचे हो जाने के कारण खाली थे। मैं उचककर ऐसे ही एक बक्से पर बैठ गया। निचले बक्से के कोने की टिन फटी हुई थी जिसमें मेरे पैंट की मोहरी उलझ गयी लेकिन संयोग से कोई चीरा नहीं लगा।

मोबाइल पर कम्प्यूटरीकृत सूचना अभी भी वास्तविक आगमन समय 13:55 और वास्तविक प्रस्थान समय 14:00 बजे का बता रही थी जबकि सवा दो बज चुके थे और गाड़ी का कुछ पता नहीं था। कुछ देर बाद सात नम्बर प्‍ले‍टफॉर्म पर ही दूसरी दिशा से (लखनऊ की ओर से) एक गाड़ी आकर रुकी। इस पर भी अवध एक्सप्रेस लिखा था। कुछ लोग इसपर चढ़ने का उपक्रम करने लगे। ये वो थे जिन्हें अपने गन्तव्य की सही दिशा का ज्ञान नहीं था। गनीमत थी कि यह इस गाड़ी का आखिरी स्टेशन था और यात्रियों के उतरने के बाद रेलकर्मी इसकी खिड़कियाँ और दरवाजे बन्द करने लगे। मुझे अब यह चिन्ता हुई कि इस गाड़ी के प्‍ले‍टफॉर्म खाली करने में कम से कम आधे घंटे तो लगेंगे ही, इसलिए मेरी गाड़ी अभी आधे घंटे और नहीं आ सकेगी। तभी घोषणा हुई कि अवध एक्सप्रेस थोड़ी ही देर में दूसरी ओर प्‍ले‍टफॉर्म नम्बर-6 पर आ रही है। सभी यात्री अपना सामान उठाकर उसी प्‍ले‍टफॉर्म पर एक तरफ़ से दूसरी तरफ़ हो लिए।

three_tier_air_conditioned_करीब सवा तीन बजे गाड़ी नमूदार हुई। हम थके-हारे अपना ए.सी. थर्ड कोच नम्बर-B2 ढूँढकर उसके बर्थ संख्या-11 पर पहुँचे। यह सबसे ऊपर की बर्थ मैंने जानबूझकर ली थी ताकि दिन में भी आराम से लेटकर यात्रा की जा सके। थकान इतनी थी कि तुरन्त सो जाने का मन हुआ। मैंने अटेन्डेन्ट को खोजकर तत्काल बेडरोल ले लेने का सोचा लेकिन वह अपने स्थान पर नहीं मिला। मैं अपनी बर्थ पर लौट आया और यूँ ही लेट गया। सामने की बर्थ से पहले से प्रयोग की जा चुकी एक तकिया लेकर अपने सिर को आराम दे दिया। गाड़ी चल चुकी थी। पन्द्रह-बीस मिनट बाद जब टीटीई साहब आये तो मुझे नींद लग चुकी थी। उनके जगाने पर मैंने आँखें मूँदे हुए ही जेब से टिकट और फोटो आईडी (PAN Card) निकाला और उनकी ओर बढ़ाते हुए अनुरोध किया कि बेडरोल वाले को चादर के साथ भेज दें। उनके आश्वासन से सन्तुष्ट होकर मैं करवट बदलकर सो गया।

करीब एक घंटे बाद एक स्टेशन पर कुछ और यात्री चढ़े। उनका टिकट देखने टीटीई साहब दुबारा आये तो मैंने उठकर बेडरोल की बात याद दिलायी। वे चकित होकर बोले- मैंने तो उससे तभी कह दिया था, क्या अभी तक नहीं दिया उसने? यह कहते हुए वे तत्परता से किनारे की ओर गये और थोड़ी देर में एक लड़के के साथ वापस आये। यह कोच अटेन्डेन्ट था। टीटीई ने उससे कहा कि इन्हें बताओ कि मैंने तुमसे बेडरोल के लिए कहा था कि नहीं। वह बोला- अच्छा, दे देंगे। उसकी लापरवाह शैली से मुझे झुँझलाहट हुई। मैंने अधीर होकर पूछा- कबतक दे दोगे। लखनऊ पहुँच जाने के बाद? इस पर वह तैश में आ गया और बोला- जाओ, नहीं दूँगा (मानो कह रहा था- क्या कल्लोगे!) मैं हतप्रभ सा हो गया। टीटीई साहब को भी यह बहुत बुरा लगा। वे उसे डाँटने जैसा कुछ कहने लगे। उसमें यह बात भी शामिल थी  कि उस लड़के के साथ ही अक्सर ऐसा लफड़ा हो जाता है। मैंने उनसे पूछा- क्या आपके पास इसकी शिकायत दर्ज करने का कोई अधिकार नहीं है? आप मेरी ओर से लिखित शिकायत दर्ज कर लीजिए और उच्चाधिकारियों के संज्ञान में लाइए।

मेरी इस बात पर टीटीई साहब थोड़े संजीदा हो गये। सकुचाते हुए बोले- अरे साहब, यह बात किसको नहीं पता है! जबसे यह काम प्राइवेट ठेकेदारों के हाथ में दे दिया गया है तबसे कोई कंट्रोल नहीं रह गया है। ये किसी की नहीं सुनते। इन्हें कोई डर ही नहीं है। मैं अगर शिकायत करना चाहूँ तो मुझे तमाम कागज बनाने पड़ेंगे, कई बार ऑफिस के चक्कर लगाने पड़ेंगे और परिणाम फिर भी कुछ नहीं मिलेगा। मैंने पूछा- अगर मैं शिकायत करना चाहूँ तो किसे लिखना होगा? वे बोले- वेबसाइट पर देखिएगा। यह गाड़ी (19040/AVADH EXP) पश्चिम रेलवे की है। ठेकेदार भी उन्ही का है। यहाँ से उनके खिलाफ़ कुछ नहीं हो पाता है। आप वहीं शिकायत कीजिए। मैंने तय किया कि घर पहुँचकर रेलवे में उस लापरवाह केयरटेकर की शिकायत ऑनलाइन दर्ज कराऊंगा।

इस कहासुनी के दस-पन्द्रह मिनट बाद उसने मुझे दो चादरें व एक तकिया लाकर दे दिया। कम्बल सामने की बर्थ पर मौजूद था जिसकी जरूरत नहीं थी, और छोटा तौलिया वह किसी को दे ही नहीं रहा था।

मैं अपनी बर्थ पर लेटे हुए इस परिदृश्य पर विचार करता रहा। काश रेलवे का कोई सक्षम अधिकारी बिना किसी पूर्व सूचना के ऐसे यात्री डिब्बों में चुपचाप यात्रा करता और बाद में दोषियों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करता! wishful thinking!!! मैंने देखा तो यह है कि जब किसी ट्रेन में कोई बड़ा रेल अधिकारी अपने सैलून में चल रहा होता है तो वह ट्रेन भी समय से चलती है और दूसरी यात्री सुविधाएँ भी जैसे- भोजन व जलपान आदि  बेहतर हो जाती हैं। बाकी समय में रेल हमारी सहिष्णुता भरी छाती पर मूँग दलते ही चलती है।

मैं उस डिब्बे में चल रहे अन्य यात्रियों के दृष्टिकोण को परखने की कोशिश करने लगा। मैंने महसूस किया कि रेलवे द्वारा टिकट के पैसों में इस सुविधा के लिए अलग से शुल्क वसूलकर भी इसको वास्तव में उपलब्ध कराने में की जा रही लापरवाही के प्रति लोगों में प्रायः उदासीनता है। जो चिन्तित करने वाली बात है। मैंने देखा कि जिन्हें बेडरोल की तुरन्त जरूरत थी वे कोच के एक सिरे तक जाते और वहाँ उस लड़के से अनुरोध करके अपने लिए चादर वगैरह खुद ले आते। मैंने देखा कि वह लड़का जाने कहाँ से आये अपने साथियों के साथ ताश खेलने में व्यस्त रहा। उसने न तो कोई यूनीफॉर्म पहन रखा था और न ही नाम का कोई बिल्ला लगा रखा था कि उसे पहचाना जा सके। यात्री आपस में भुनभुनाते हुए उसके प्रति असंतोष तो व्यक्त कर रहे थे लेकिन उससे उलझने या उसको टोकने की जरूरत किसी ने नहीं समझी। शायद वे रात में सोने का समय होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। शायद तबतक उन्हें बेडरोल अपनेआप ही मिल जाता। लेकिन रात दस बजे लखनऊ पहुँचने तक लगभग सात घंटे की यात्रा में मैंने एक भी बर्थ पर उसे अपनेआप बेडरोल पहुँचाते नहीं देखा।

घर वापस आकर मैं अपनी गृहस्थी और नौकरी में व्यस्त हो गया हूँ। शिकायत दर्ज करने की इच्छा धीरे-धीरे दम तोड़ रही है। तीन दिन बीत जाने के बाद यह हाल आपको बता पाने का मौका पा सका हूँ। यात्रा की तिथि, स्थान, समय व अन्य विवरण वास्तविक रूप से इसलिए उद्धरित कर दिया है कि शायद रेल महकमें का कोई जिम्मेदार अधिकारी इसे पढ़कर कोई स्वतः स्फूर्त कार्यवाही कर डाले। हमें तो परिस्थितिजन्य सहिष्णुता ने घेर लिया है। Confused smile

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

16 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी माताजी को स्वास्थ्य लाभ हो, सहिष्णुता के मानकों से हम भी जूझ रहे हैं।

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  2. इसे पढ़कर हमें भी ऐसी परिस्थितियों से जूझने के लिए आवश्यक मनोबल और सहिष्णुता मिल गयी. भारतीय रेलवे का नाम सार्थक हुआ. मैंने आपकी पीड़ा का अनुभव किया. हम कुछ और विनीत, करुणावान और सहनशील बने, और क्या चाहिए?
    लेकिन एक बात कहना चाहूँगा.... आज तक दिल्ली-भोपाल ट्रैक पर बीसियों बार सफ़र किया है लेकिन वे दिक्कतें कभी नहीं झेलीं जिनका ज़िक्र उत्तरप्रदेश-बिहार के यात्री करते हैं. इसका मतलब यह हुआ कि इन रेल मंडलों के यात्री और रेल महकमे से जुड़े लोग समस्या की तह तक नहीं गए हैं, और समस्या है यहाँ व्याप्त अनुशासनहीनता और अराजकता, जिनके लिए ये प्रदेश पहले से ही कुख्यात हैं.

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  3. बिलकुल यही घटनाएं घटी हैं ..एक ने तो मुझे वैलिड टिकट के बाद भी रात में डिब्बे में ही नहीं चढ़ने दिया था ...हर बार यह सोचता हूँ लौट कर शिकायत करूँगा मगर बात आयी गयी हो जाती है !

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  4. रेल-यात्रा बहुत ही सुखद और रोमांचक अनुभव होना चाहिए पर सिस्टम ने इसे भी जकड़ लिया है.द्वितीय-श्रेणी में यात्रा (व्यस्त-समय में तो असंभव )अब मुश्किल होती जा रही है.बिना सीट के लोग ठंसे जा रहे हैं और कंफ़र्म वालों को आप जैसा 'सहिष्णु' बनना पड़ता है.
    पिछली यात्रा में एक नए-से टीटी ने बिना अतिरिक्त कुछ लिए मुझे कंफ़र्म सीट दे दी थी तो घोर आश्चर्य हुआ था !सुधार किया जाए तो परिवहन का सबसे उत्तम साधन है रेलवे !
    माताजी की ईश्वर से स्वास्थ्य-कामना !

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  5. कुछ दिनों पहले मैंने फोन में टिकट दिखाया तो टीटी साब कहने लगे कि ५० रुपये फाइन लगेगा - प्रिंटआउट चाहिए !
    मैंने उन्हें बताया कि अब ये जरूरी नहीं है और वर्चुअल रिसीट चल जाता है. मैंने उन्हें एक टिकट पर लिखा हुआ भी दिखाया. पर वो नहीं माने. उन्होंने कहा कि ऐसा होता तो भारतीय रेल उन्हें जरूर बताती. उन्हें तो बताया गया है कि प्रिंटआउट नहीं हो तो फाइन लेना है !
    फिर आईआरसीटीसी की वेबसाइट पर उन्हें दिखाया तब जाकर कुछ शांत हुए :)

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  6. किसी के क्या शिकायत कीजिए..

    यात्रा बढिया निकली तो प्रभु को शुकराना..
    वैसे इसकी उम्मीद कम ही होती है, बाकि परेशानी के लिए तो तैयार हो कर जाना चाहिए..

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  7. सही कहा...हमारी सहिष्णुता उस स्तर को प्राप्त है,जहाँ हममे और बकरियों में कोई अंतर नहीं......

    कई किससे याद हो आये, किस किस का जिक्र करूँ...एक बार मेरे बेटे को टाटानगर से ग्वालिअर अकेले सेकेण्ड एसी में भेज दिया..पहले तो टिकट वेटिंग में थी,पर कुछ घंटे पूर्व यह कंफोर्म हो चुकी थी...नेट में देखकर जो सीट और कोच नंबर दिखा,मैंने बेटे से कहा पेन्सिल से टिकट के पीछे लिख le...बच्चे ने केवल यह गलती कर दी कि पीछे न लिख सीट नंबर आगे टिकट पर लिख दी..

    टाटानगर से ट्रेन निकलने पर जब टी टी बाबू आये और बच्चे को अकेले देखा , तो उससे जिरह करने लगे कि टिकट इनवैलिड हो गया और अब वह पूरा किराया जुर्माने के तौर पर दे..यहाँ से बिलासपुर तक जिरह करते करते ,धमकाते उसने बेटे से उसके पूरी पाकेट मणी le ली..चूँकि स्कूल से मोबाइल देने की मनाही थी,इसलिए वह हममे से किसी से संपर्क भी नहीं कर पाया..जब स्कूल से उनसे फोन कर बताया तो हमारा खून खौल गया..

    कुछ महीनों बाद फिर से जब उसी रूट से बाप बेटा दोनों जा रहे थे, इन्होने ढूंढकर उस टी टी को निकला..और जब उसकी ऐसी तैसी की तो पतिदेव तो छोडिये बच्चे के पैर पाकर कर माफी मांगने लगा...

    ऐसे वाकये सबसे अधिक बिहार यु पी और थोडा बहुत झारखण्ड में भी देखने को मिलते हैं,सब जगह यह हाल नहीं...

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  8. यह हाल यू पी बिहार का ही नहीं देल्ही का भी है.पर शिकायत करो या नहीं उसकी धमकी से कई बार काम हो जाते हैं.

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  9. सहिष्णुता जरूरी है जीवन के लिये। रेल यात्रा के बहाने ही मिल जाये तो और अच्छा! :)

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  10. घर वापस आकर मैं अपनी गृहस्थी और नौकरी में व्यस्त हो गया हूँ। शिकायत दर्ज करने की इच्छा धीरे-धीरे दम तोड़ रही है। तीन दिन बीत जाने के बाद यह हाल आपको बता पाने का मौका पा सका हूँ। यात्रा की तिथि, स्थान, समय व अन्य विवरण वास्तविक रूप से इसलिए उद्धरित कर दिया है कि शायद रेल महकमें का कोई जिम्मेदार अधिकारी इसे पढ़कर कोई स्वतः स्फूर्त कार्यवाही कर डाले। हमें तो परिस्थितिजन्य सहिष्णुता ने घेर लिया है..rail ka chiritchitran bahut hi sahshurn ban pada hai.. padhkar ham bhi rail yaatraon ke khate-meethe anubhavon mein dubne utarne lage hain...
    saarthak aur chintansheel prastuti hetu dhanyavaad.
    Kash ko jimedar rail adhikari-karmachari yah sab padhkar kuch saarthak kadam uthane ke soch bana paate...

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  11. बढ़िया रेल यात्रा ....
    शुभकामनायें आपको !

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  12. बहुत अच्छा आलेख,सटीक चित्रण
    आपका कहना सही है सहिष्णुता सिखाता है रेलवे

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  13. रेल भी एक लघु भारत ही है - बस थोड़ी डायनैमिक ज़्यादा है। अंततः सहिष्णुता हारी कि जीती?

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  14. 1. लिखित शिकायत का कागजी निपटारा होता जरूर है और उस आधार पर (देर से या कम ही सही) कुछ न कुछ कार्रवाई होती है, जिससे गलत काम करने वाले के पेट में दर्द हो।
    2. उत्तरप्रदेश-बिहार के क्षेत्र में सांस्कृतिक अराजकता ज्यादा है, अत: सांस्कृतिक सदमे ज्यादा लगते हैं - यह मैं कह सकता हूं, यद्यपि मैं यहीं का रहनेवाला हूं!

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