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बुधवार, 28 सितंबर 2011

रेलयात्रा हमें सहिष्णु बनाती है…

हमें स्कूल में भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ विषय पर निबन्ध रटाया गया था। इसमें एक विशेषता थी- सहिष्णुता। इस विशेषता को लेकर मेरे मन में कौतूहल होता रहा है। भूख, भय, बेरोजगारी, प्राकृतिक आपदा या किसी दुर्घटना  से उत्पन्न दुख व विपत्ति को सहन कर लेने की क्षमता यदि हमारे भीतर प्रचुर मात्रा में है तो अच्छा ही है। हमें उस विपरीत परिस्थिति से बाहर निकलने में मदद मिलती है। लेकिन यदि इस फेर में हमें कुछ भी सह लेने की आदत पड़ जाय तो वही होता है जो भारत के साथ हुआ है। इतिहास बताता है कि किस तरह हमने विदेशी लुटेरों और आक्रान्ताओं को भी आराम से सहन कर लिया। घर बुलाकर मेहमान बनाया और फिर मालिक बनाकर देश की राजगद्दी सौंप दी। एक के बाद एक भ्रष्टाचारी कीर्तिमान हमारी आँखों के सामने बनते जाते हैं और हम मूक दर्शक बनकर या “अन्ना हजारे जिन्दाबाद” का नारा लगाकर घर बैठ जाते हैं। हमारे भीतर अन्याय, अत्याचार, शोषण, और भ्रष्टाचार के प्रति गजब की सहनशक्ति विकसित हो चुकी है। इस उपलब्धि के पीछे हमारी भारतीय रेल का भी थोड़ा हाथ है इसका विचार मेरे मन में पिछली यात्रा के दौरान प्रकट हुआ।

मेरा अनुभव कुछ नया नहीं है। आप सबको इस स्थिति का सामना आये दिन होता होगा। एक आम भारतीय के लिए रेलगाड़ी से यात्रा करना अपनेआप में एक मजबूरी है। एक मात्र सस्ता और टिकाऊ विकल्प यही है, सुन्दर भले ही न हो। a-crowded-passenger-trainलम्बी दूरी की गाड़ियो के जनरल डिब्बे किस प्रकार जीवित मानव देह की लदान करते हैं; और जायज टिकट वालों को भी किसप्रकार थप्पड़ खानी पड़ती है और अंटी ढीली करनी पड़ती है, यह वर्णनातीत है। मैं उस चरम स्थिति की चर्चा नहीं कर रहा हूँ। मैं तो अपेक्षाकृत अधिक सुविधा सम्पन्न श्रेणियों में यात्रा करने वालों में से एक होकर उससे प्राप्त अनुभव के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि रेलयात्रा हमें सहिष्णु बनाती है और इस प्रकार भारतीय संस्कृति की रक्षा में अनुपम योगदान दे रही है।Open-mouthed smile

हाल ही में मुझे अपनी माता जी के खराब स्वास्थ्य की चिन्ता से गोरखपुर जाना हुआ। वहाँ से लखनऊ वापसी की यात्रा रविवार 25 जुलाई, 2011 को अवध एक्सप्रेस से करनी थी जिसका निर्धारित समय दोपहर 1:15 का था। गाड़ी पकड़ने से पहले मुझे अम्मा को हड्डी के डॉक्टर से दिखाना था। अलस्सुबह उठकर मैंने डॉक्टर के यहाँ नम्बर लगाया, क्‍लिनिक खुलने पर लाइन लगाया, डॉक्टर ने प्रारम्भिक जाँच के बाद डिजिटल एक्स-रे के लिए अन्यत्र भेजा। वहाँ एक घंटे लगे। वापस आकर उन्होंने रिपोर्ट देखी और दवाएँ लिखने के बाद दो अन्य विशेषज्ञ चिकित्सकों (न्यूरोलॉजिस्ट और गैस्ट्रोइंटेरोलॉजिस्ट) को रेफ़र कर दिया। दोनो जगह जाने पर पता चला कि रविवार होने से इनके क्‍लिनिक बन्द थे। मेरे बड़े भैया ने कहा कि वे अम्मा को अगले दिन दिखा देंगे। यानि मुझे अब लखनऊ की गाड़ी पकड़ने के लिए स्टेशन जाना चाहिए। मैं यह सब दौड़-धूप करता हुआ लगातार मोबाइल से गाड़ी के प्रस्थान समय की सूचना ले रहा था।

गाड़ी 50 मिनट लेट होने की कम्प्यूटरीकृत सूचना मोबाइल पर एक बार शुरू हुई तो अन्ततक रिकार्ड बदला नहीं गया। मैं उसी के अनुसार स्टेशन पहुँचा तो पू्छताछ केन्द्र पर लगा बोर्ड गाड़ी के 30 मिनट देरी से  7-नम्बर प्‍ले‍टफॉर्म पर आने की सूचना दे रहा था। मेरे हाथ पाँव फूल गये। दौड़ता-भागता हुआ मैं ओवरब्रिज पर चढ़कर प्‍ले‍टफॉर्म नम्बर-7 पर उतरा। एक दिक्कत यह भी हुई कि ओवरब्रिज से प्‍ले‍टफॉर्मों पर उतरने वाली सीढ़ियों के पास प्‍ले‍टफॉर्म संख्या दर्शाने वाले बोर्ड नदारद थे। मुझे एक मिनट रुककर पहले नम्बर से गिनती करते हुए सातवें नम्बर का अनुमान लगाना पड़ा।

प्‍ले‍टफॉर्म पर अधिकांश यात्री अपना सामान हाथ में संभाले गाड़ी आने की दिशा की ओर देख रहे थे। मुझे आश्वस्ति हुई कि अभी गाड़ी आयी नहीं है, बल्कि कुछ ही देर में आने वाली है। दस-पन्द्रह मिनट बीते और गाड़ी नहीं आयी तो सबने अपने हाथ में टँगा सामान नीचे रखना शुरू किया और अपनी जगह पर वापस आने लगे। कुछ देर खड़ा रहने के बाद मैं भी थकान के कारण बैठने की जगह खोजने लगा। सारी बेन्चें क्षमता से अधिक भार से लदी हुई थीं। रेलगाड़ी चलाने वाले गार्ड्स के उपयोग हेतु बने लकड़ी या लोहे के बक्से बड़ी मात्रा में वहीं बिखरे पड़े थे। उनपर भी यात्रियों ने कब्जा जमा रखा था। एक जगह बक्से एक के ऊपर एक रखे हुए थे जो ऊँचे हो जाने के कारण खाली थे। मैं उचककर ऐसे ही एक बक्से पर बैठ गया। निचले बक्से के कोने की टिन फटी हुई थी जिसमें मेरे पैंट की मोहरी उलझ गयी लेकिन संयोग से कोई चीरा नहीं लगा।

मोबाइल पर कम्प्यूटरीकृत सूचना अभी भी वास्तविक आगमन समय 13:55 और वास्तविक प्रस्थान समय 14:00 बजे का बता रही थी जबकि सवा दो बज चुके थे और गाड़ी का कुछ पता नहीं था। कुछ देर बाद सात नम्बर प्‍ले‍टफॉर्म पर ही दूसरी दिशा से (लखनऊ की ओर से) एक गाड़ी आकर रुकी। इस पर भी अवध एक्सप्रेस लिखा था। कुछ लोग इसपर चढ़ने का उपक्रम करने लगे। ये वो थे जिन्हें अपने गन्तव्य की सही दिशा का ज्ञान नहीं था। गनीमत थी कि यह इस गाड़ी का आखिरी स्टेशन था और यात्रियों के उतरने के बाद रेलकर्मी इसकी खिड़कियाँ और दरवाजे बन्द करने लगे। मुझे अब यह चिन्ता हुई कि इस गाड़ी के प्‍ले‍टफॉर्म खाली करने में कम से कम आधे घंटे तो लगेंगे ही, इसलिए मेरी गाड़ी अभी आधे घंटे और नहीं आ सकेगी। तभी घोषणा हुई कि अवध एक्सप्रेस थोड़ी ही देर में दूसरी ओर प्‍ले‍टफॉर्म नम्बर-6 पर आ रही है। सभी यात्री अपना सामान उठाकर उसी प्‍ले‍टफॉर्म पर एक तरफ़ से दूसरी तरफ़ हो लिए।

three_tier_air_conditioned_करीब सवा तीन बजे गाड़ी नमूदार हुई। हम थके-हारे अपना ए.सी. थर्ड कोच नम्बर-B2 ढूँढकर उसके बर्थ संख्या-11 पर पहुँचे। यह सबसे ऊपर की बर्थ मैंने जानबूझकर ली थी ताकि दिन में भी आराम से लेटकर यात्रा की जा सके। थकान इतनी थी कि तुरन्त सो जाने का मन हुआ। मैंने अटेन्डेन्ट को खोजकर तत्काल बेडरोल ले लेने का सोचा लेकिन वह अपने स्थान पर नहीं मिला। मैं अपनी बर्थ पर लौट आया और यूँ ही लेट गया। सामने की बर्थ से पहले से प्रयोग की जा चुकी एक तकिया लेकर अपने सिर को आराम दे दिया। गाड़ी चल चुकी थी। पन्द्रह-बीस मिनट बाद जब टीटीई साहब आये तो मुझे नींद लग चुकी थी। उनके जगाने पर मैंने आँखें मूँदे हुए ही जेब से टिकट और फोटो आईडी (PAN Card) निकाला और उनकी ओर बढ़ाते हुए अनुरोध किया कि बेडरोल वाले को चादर के साथ भेज दें। उनके आश्वासन से सन्तुष्ट होकर मैं करवट बदलकर सो गया।

करीब एक घंटे बाद एक स्टेशन पर कुछ और यात्री चढ़े। उनका टिकट देखने टीटीई साहब दुबारा आये तो मैंने उठकर बेडरोल की बात याद दिलायी। वे चकित होकर बोले- मैंने तो उससे तभी कह दिया था, क्या अभी तक नहीं दिया उसने? यह कहते हुए वे तत्परता से किनारे की ओर गये और थोड़ी देर में एक लड़के के साथ वापस आये। यह कोच अटेन्डेन्ट था। टीटीई ने उससे कहा कि इन्हें बताओ कि मैंने तुमसे बेडरोल के लिए कहा था कि नहीं। वह बोला- अच्छा, दे देंगे। उसकी लापरवाह शैली से मुझे झुँझलाहट हुई। मैंने अधीर होकर पूछा- कबतक दे दोगे। लखनऊ पहुँच जाने के बाद? इस पर वह तैश में आ गया और बोला- जाओ, नहीं दूँगा (मानो कह रहा था- क्या कल्लोगे!) मैं हतप्रभ सा हो गया। टीटीई साहब को भी यह बहुत बुरा लगा। वे उसे डाँटने जैसा कुछ कहने लगे। उसमें यह बात भी शामिल थी  कि उस लड़के के साथ ही अक्सर ऐसा लफड़ा हो जाता है। मैंने उनसे पूछा- क्या आपके पास इसकी शिकायत दर्ज करने का कोई अधिकार नहीं है? आप मेरी ओर से लिखित शिकायत दर्ज कर लीजिए और उच्चाधिकारियों के संज्ञान में लाइए।

मेरी इस बात पर टीटीई साहब थोड़े संजीदा हो गये। सकुचाते हुए बोले- अरे साहब, यह बात किसको नहीं पता है! जबसे यह काम प्राइवेट ठेकेदारों के हाथ में दे दिया गया है तबसे कोई कंट्रोल नहीं रह गया है। ये किसी की नहीं सुनते। इन्हें कोई डर ही नहीं है। मैं अगर शिकायत करना चाहूँ तो मुझे तमाम कागज बनाने पड़ेंगे, कई बार ऑफिस के चक्कर लगाने पड़ेंगे और परिणाम फिर भी कुछ नहीं मिलेगा। मैंने पूछा- अगर मैं शिकायत करना चाहूँ तो किसे लिखना होगा? वे बोले- वेबसाइट पर देखिएगा। यह गाड़ी (19040/AVADH EXP) पश्चिम रेलवे की है। ठेकेदार भी उन्ही का है। यहाँ से उनके खिलाफ़ कुछ नहीं हो पाता है। आप वहीं शिकायत कीजिए। मैंने तय किया कि घर पहुँचकर रेलवे में उस लापरवाह केयरटेकर की शिकायत ऑनलाइन दर्ज कराऊंगा।

इस कहासुनी के दस-पन्द्रह मिनट बाद उसने मुझे दो चादरें व एक तकिया लाकर दे दिया। कम्बल सामने की बर्थ पर मौजूद था जिसकी जरूरत नहीं थी, और छोटा तौलिया वह किसी को दे ही नहीं रहा था।

मैं अपनी बर्थ पर लेटे हुए इस परिदृश्य पर विचार करता रहा। काश रेलवे का कोई सक्षम अधिकारी बिना किसी पूर्व सूचना के ऐसे यात्री डिब्बों में चुपचाप यात्रा करता और बाद में दोषियों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करता! wishful thinking!!! मैंने देखा तो यह है कि जब किसी ट्रेन में कोई बड़ा रेल अधिकारी अपने सैलून में चल रहा होता है तो वह ट्रेन भी समय से चलती है और दूसरी यात्री सुविधाएँ भी जैसे- भोजन व जलपान आदि  बेहतर हो जाती हैं। बाकी समय में रेल हमारी सहिष्णुता भरी छाती पर मूँग दलते ही चलती है।

मैं उस डिब्बे में चल रहे अन्य यात्रियों के दृष्टिकोण को परखने की कोशिश करने लगा। मैंने महसूस किया कि रेलवे द्वारा टिकट के पैसों में इस सुविधा के लिए अलग से शुल्क वसूलकर भी इसको वास्तव में उपलब्ध कराने में की जा रही लापरवाही के प्रति लोगों में प्रायः उदासीनता है। जो चिन्तित करने वाली बात है। मैंने देखा कि जिन्हें बेडरोल की तुरन्त जरूरत थी वे कोच के एक सिरे तक जाते और वहाँ उस लड़के से अनुरोध करके अपने लिए चादर वगैरह खुद ले आते। मैंने देखा कि वह लड़का जाने कहाँ से आये अपने साथियों के साथ ताश खेलने में व्यस्त रहा। उसने न तो कोई यूनीफॉर्म पहन रखा था और न ही नाम का कोई बिल्ला लगा रखा था कि उसे पहचाना जा सके। यात्री आपस में भुनभुनाते हुए उसके प्रति असंतोष तो व्यक्त कर रहे थे लेकिन उससे उलझने या उसको टोकने की जरूरत किसी ने नहीं समझी। शायद वे रात में सोने का समय होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। शायद तबतक उन्हें बेडरोल अपनेआप ही मिल जाता। लेकिन रात दस बजे लखनऊ पहुँचने तक लगभग सात घंटे की यात्रा में मैंने एक भी बर्थ पर उसे अपनेआप बेडरोल पहुँचाते नहीं देखा।

घर वापस आकर मैं अपनी गृहस्थी और नौकरी में व्यस्त हो गया हूँ। शिकायत दर्ज करने की इच्छा धीरे-धीरे दम तोड़ रही है। तीन दिन बीत जाने के बाद यह हाल आपको बता पाने का मौका पा सका हूँ। यात्रा की तिथि, स्थान, समय व अन्य विवरण वास्तविक रूप से इसलिए उद्धरित कर दिया है कि शायद रेल महकमें का कोई जिम्मेदार अधिकारी इसे पढ़कर कोई स्वतः स्फूर्त कार्यवाही कर डाले। हमें तो परिस्थितिजन्य सहिष्णुता ने घेर लिया है। Confused smile

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

शनिवार, 17 सितंबर 2011

घर में जंग की नौबत : टालिए न…!

आज मेरे घर में बात-बात में एक बहस छिड़ गयी। बहस आगे बढ़कर गर्मा-गर्मी तक पहुँच गयी है। घर में दो धड़े बन गये हैं। दोनो अड़े हुए हैं कि उनकी बात ही सही है। दोनो एक दूसरे को जिद्दी, कुतर्की, जब्बर, दबंग और जाने क्या-क्या बताने पर उतारू हैं। दोनो पक्ष अपना समर्थन बढ़ाने के लिए लामबन्दी करने लगे हैं। मोबाइल फोन से अपने-अपने पक्ष में समर्थन जुटाने का काम चालू हो गया है। अपने-अपने परिचितों, इष्ट-मित्रों व रिश्तेदारों से बात करके अपनी बात को सही सिद्ध करने का प्रमाण और सबूत इकठ्ठा कर रहे हैं। अब आप जानना चाहेंगे कि मुद्दा क्या है…?

तो मुद्दा सिर्फ़ इतना सा है कि यदि कोई व्यक्ति स्कूटी, स्कूटर, मोटरसाइकिल इत्यादि दुपहिया वाहन चलाना सीखना चाहे तो इसके लिए उसे पहले साइकिल चलाना आना चाहिए कि नहीं?

प्रथम पक्ष का कहना है कि जब तक कोई साइकिल चलाना नहीं सीख ले तबतक वह अन्य मोटर चालित दुपहिया वाहन नहीं सीख सकता। इसके समर्थन में उसका तर्क यह है कि दुपहिया सवारी पर संतुलन बनाये रखने का कार्य पूरे शरीर को करना पड़ता है जिसका अभ्यास साइकिल सीखने पर होता है। साइकिल चलाने आ जाती है तो शरीर अपने आप आवश्यकतानुसार दायें या बायें झुक-झुककर दुपहिया सवारी पर संतुलन साधना सीख जाती है। शरीर को यह अभ्यास न हो तो अन्य मोटरचालित दुपहिया वाहन सीख पाना सम्भव नहीं तो अत्यन्त कठिन अवश्य है। इसलिए पहले साइकिल सीखना जरूरी है।

द्वितीय पक्ष का कहना है कि साइकिल चलाने में असंतुलित होने की समस्या ज्यादा इसलिए होती है कि उसमें पैडल मारना पड़ता है। जब पैर दायें पैडल को दबाता है तो साइकिल दाहिनी ओर झुकने लगती है और जब बायें पैडल को दबाता है तो बायीं ओर झुकती है। इस झुकाव को संतुलित करने के लिए शरीर को क्रमशः बायीं और दायीं ओर झुकाना पड़ता है। लेकिन मोटरचालित दुपहिया में यह समस्या नहीं आयेगी क्योंकि उसमें पैर स्थिर रहेगा और पैडल नहीं दबाना होगा। जब एक बार गाड़ी चल पड़ेगी तो उसमें संतुलन अपने आप स्थापित हो जाएगा। इसलिए स्कूटी सीखने के लिए साइकिल चलाने का ज्ञान कत्तई आवश्यक नहीं है।

फोटोसर्च.कॉम से साभार

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इन दो पक्षों में सुलह की गुन्जाइश फिलहाल नहीं दिखती। प्रथम पक्ष का कहना है कि यदि द्वितीय पक्ष एक भी ऐसे व्यक्ति को सामने ला दे जो बिना साइकिल सीखे ही स्कूटी/ मोटरसाइकिल चलाना सीख गया हो तो वह हार मान जाएगा और उस ‘दिव्य आत्मा’ का शागिर्द बन जाएगा। दूसरे पक्ष को किसी ने फोन पर आश्वासन दिया है कि वह ऐसे आम आदमियों, औरतों व लड़के-लड़कियों की लाइन लगा देंगे जिन्होंने ‘डाइरेक्ट’ मोटरसाइकिल- स्कूटर चलाना सीख लिया है।

अब प्रथम पक्ष दिल थामे उस लाइन की प्रतीक्षा में है जो उसके घर के सामने लगने वाली है। लेकिन समय बीतने के साथ अभी उसके आत्मविश्वास में कोई कमी नहीं आयी है क्योंकि अभी कोई उदाहरण सामने नहीं आया है। मुद्दा अभी गरम है। सबूतों और गवाहों की प्रतीक्षा है।

इस मुद्दे को यहाँ लाने का उद्देश्य तो स्पष्ट हो ही गया है कि कुछ जानकारी यहाँ भी इकठ्ठी की जाय। ब्लॉग-जगत में भी तमाम (अधिकांश प्राय) लोग ऐसे हैं जो दुपहिया चलाना जानते हैं। आप यहाँ बताइए कि आपका केस क्या रहा है- पहले साइकिल या ‘डाइरेक्ट’ मोटर साइकिल? निजी अनुभव तो वास्तविक तथ्य के अनुसार बताइए लेकिन इस मुद्दे का व्यावहारिक, वैज्ञानिक और सैद्धान्तिक विवेचन करने की भी पूरी छूट है।

(नोट : घर के भीतर प्रथम पक्ष का प्रतिनिधित्व कौन कर रहा है व दूसरे पक्ष का कौन, यह स्वतःस्पष्ट कारण से गोपनीय रखा जा रहा है।)

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)  

सोमवार, 5 सितंबर 2011

सत्यकथा : अन्ना रे अन्ना…

 

उसे कभी किसी ने सराहा नहीं था। कभी मेहनत नहीं की थी उसने पढ़ाई में। न ही किसी दूसरे धन्धे में पसीना बहाया था। पिता ने कई जगह लगाना चाहा लेकिन कोई धन्धा कामयाब नहीं हो पाया। काम के प्रति निठल्लापन बार-बार बेरोजगार बना देता। बेरोजगारी का नतीजा - गरीबी। जीवन प्रायः अभावग्रस्त। लेकिन फक्कड़ हालात में भी उसे मौज करने के बहाने मिल ही जाते। संगीत का शौक था उसे। देवी जागरण के मंचों पर उसकी मांग थी। कुछ वाद्य यंत्र बजाना जानता था। भरती का कलाकार था। मुख्य गायक के आने से पहले खाली समय भरने के लिए उसे थोड़ी देर माइक पकड़ने को भी मिल जाता था। रेडियो स्टेशन में उसे लोकगीतों की रिकॉर्डिंग में गायकों  की संगत के लिए झाँझ बजाने का काम मिल जाया करता था। लेकिन वहाँ महीने दो महीने पर एकाध बार ही मौका मिलता।

सरकारी रेडियो के लिए वाद्य यंत्र बजाने वाले कैजुअल कलाकारों को अपनी बारी का बहुत इन्तजार करना पड़ता। इनकी संख्या बहुत अधिक थी और अवसर बहुत कम। मांग कम थी और आपूर्ति ज्यादा, इसलिए भाव गिरना तय था। एक रिकॉर्डिंग का सरकारी पारिश्रमिक था बाइस सौ रूपये, लेकिन अपनी बारी लगवाने के लिए उन्हें इसमें से कुछ कमीशन देना पड़ता। कमीशन देने की परंपरा काफी मजबूत हो चुकी थी। इतनी कि अब सबके लिए नियम बराबर ही था। चाहे जिसकी भी बारी आ जाये उसे पता होता था कि चेक लेने के लिए अपनी जेब में आठ सौ रूपये लेकर जाना होगा। फिर भी घंटे भर की रिकॉर्डिंग के लिए एक दिन का समय लगाकर चौदह सौ रुपये भी मिल जाय तो बुरा क्या है। बेकार ही तो बैठे रहते हैं। इसलिए यह डील स्थायी प्रकृति की हो चुकी थी।

अभी पिछले हफ्ते एक लोकगीत की रिकॉर्डिंग में शामिल होने का उसका नम्बर लगा। शाम को जब चेक लेने की बारी आयी तो कैशियर आदतन उसकी जेब की ओर देखने लगा। मामूल के मुताबिक उसे अपने चेक के लिए आठ सौ रूपये निकालने थे; लेकिन उसकी सुस्ती देखकर कैशियर ने टोका - जल्दी कर भैये, बहुत लोगों को चेक बाँटना है।

-जल्दी तो आपको करनी है भाई साहब, मैं तो कबका झाँझ बजाकर रिकॉर्डिंग पूरी करा चुका हूँ।

-मैंने भी तो कबका चेक तैयार कर लिया है। बस अब फटाफट निपटाओ।

-तो देते क्यों नहीं, देर किस बात की?

-अरे, देर तो तुम कर रहे हो… निकालो हमारा हक दस्तूर!

-यह क्या होता है?

-क्या मजाक कर रहे हो, तुम कोई नये आदमी तो हो नहीं… इतना भी नहीं जानते?

-ओहो…! माफ करिएगा… अब वो बात नहीं हो पाएगी!

-क्यों, चेक नहीं लेना है क्या?

-लेना क्यों नहीं है, लेकिन बिना रिश्वत दिए। हमने अन्ना हजारे से शपथ ली है।

-अन्ना हजारे से…?

-जी हाँ, अब मैं हक दस्तूर के नाम पर रिश्वत नहीं दे सकता।

-अच्छा ले भाई, जब तूने ऐसी शपथ ले ली है तो हम ही क्यों पापी बनें…! आज हम भी कमीशन नहीं लेंगे। ले जाओ भाइयों आज सबको चेक फ्री मिलेगा।

अन्ना रे अन्ना !!!

भक्त : हे भगवान, मेरा प्रोमोशन करवा देना। इक्यावन रुपया का भोग आपके चरणों में रख रहा हूँ।

भगवान : पागल मरवाएगा क्या? अन्ना देख रहा है…।

उपसंहार :  इस हृदय परिवर्तन की घटना के अगले ही दिन उसे एक विश्व बैंक परियोजना (सर्व शिक्षा अभियान) में कंप्यूटर चलाने की संविदा आधारित नौकरी मिल गयी। वह भी बिना कोई रिश्वत दिए।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)