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बुधवार, 8 जून 2011

नयी कहानी - मोहन बाबू

मित्रों,

लम्बे अंतराल के बाद आना हुआ। कुछ संयोग ही ऐसा बन पड़ा कि कोलकाता यात्रा का फल अधर में अटक गया और हमारी ब्लॉगरी भी मद्धम पड़ गयी। फिल्म अभिनेता उत्तम कुमार जी की पत्नी सुप्रिया जी का जो मकान हम क्षेत्रीय केंद्र के लिए पसन्द कर आये थे उसे ज्यादा किराया देकर किसी बैंक ने हथिया लिया। हमारी मेहनत व्यर्थ हो गयी।

पिछली पोस्ट में जो चित्र पहेली पूछी गयी थी उसका सही जवाब कोलकाता वासी मनोज कुमार जी ने दे दिया था। उम्मीद के मुताबिक ही कुछ लोग गलत लेकिन बेहद रोचक जवाब के साथ भी आये। वैसे तो हम गर्मियों में काले पके हुए जामुन का फल सीधे पेड़ से तोड़कर खाने का मजा ले चुके हैं लेकिन मुझे यह फल इस रूप में पहली बार कोलकाता में ही देखने को मिला। कौतूहलवश मैने इसे सौ रूपये किलो की दर से खरीद तो लिया लेकिन इसे मेज पर सजाने और फोटू खींचने में ही अच्छा लगा। खाने में तो यह बिल्कुल बेस्वाद और फीका ही था। अलबत्ता इसमें बीज नहीं होने से इसे बुजुर्गों और बिना दाँत वालों को आसानी से खिलाया जा सकता है।

080520111145जी हाँ, यह जामुन का फल है जो मुझे कोलकाता में मिला 080520111146इसमें कोई बीज नहीं है, न ही कोई स्वाद या मिठास ही

 

पिछली रामकहानी को यहीं विराम देते हुए आज पेश कर रहा हूँ बिल्कुल ताजी लिखी कहानी। इतना बताता चलूँ कि इस कहानी के पात्र मेरी कल्पना की उपज हैं। यदि कोई वास्तविक घटना या किसी व्यक्ति की कहानी इससे मिलती-जुलती पायी जाय तो इसे मात्र संयोग समझा जाय।

कहानी
मोहन बाबू

राम मोहन सक्सेना के भाग्य को सराहने वालों की कमी नहीं थी। वे थे तो राज्य सरकार के आबकारी महकमें के एक अदने से मुलाजिम लेकिन इस छोटी सी नौकरी से उन्होंने काफी अच्छी हैसियत बना ली थी। उनके दोनो बेटे अपनी पढ़ाई में अव्वल रहे और इन्जीनियरिंग कॉलेज से निकलकर बड़ी कंपनियों में मोटा पैकेज पा चुके थे। बड़े बेटे ने तो अमेरिका जाकर एम.बी.ए. कोर्स पूरा किया और अपनी कंपनी का सी.ई.ओ. हो गया था। बेटियों ने मेडिकल की पढ़ाई की। एम.बी.बी.एस. पूरा कराने के बाद मोहन बाबू ने उनकी पसंद की शादी कर दी। बड़ा दामाद जर्मनी में सरकारी मेडिकल रिसर्च इन्स्टीट्यूट में ज्वाइंट डाइरेक्टर था और छोटा दामाद आस्ट्रेलिया में सिविल सर्जन था।

जब छोटे बेटे प्रशांत ने विदेशी नौकरी के बजाय भारत में ही विप्रो की नौकरी चुनी तो पूरे स्टाफ ने मोहन बाबू को बधाई दी। माँ-बाप की देख-भाल के लिए बेटे द्वारा किये गये इस त्याग की सर्वत्र सराहना हुई।

आबकारी दफ़्तर में मोहन बाबू बड़ा से बड़ा काम भी अपनी लगन और सूझ-बू्झ से आसान बना देते। उन्होंने कभी किसी का दिल नहीं दुखाया। सबसे बड़ी विनम्रता से मिलते, उच्चाधिकारियों के आगे हाथ जोड़े रहते।  दफ़्तर में चारो ओर उनकी पूछ थी। मंत्री जी का दौरा हो या कलेक्टर साहब के घर होली की पार्टी हो, बड़े साहब लोगों के घर शादी-ब्याह में रंग जमाने का इन्तजाम करना हो या विभागीय समीक्षा बैठक में लक्ष्यों की पूर्ति का आँकड़ा तैयार करना हो, मोहन बाबू को ऐसा कोई भी काम सौंपकर अधिकारी आश्वस्त हो जाते कि विभाग की इज्जत रह जाएगी। वे हर काम इतनी चतुराई से करते कि विभाग की धाक तो जमती ही, खर्चा-पानी में से काफी कुछ बचा भी लेते। हर ठेकेदार मोहन बाबू के इशारे की ताक में रहता। रहे भी क्यों न, साहब लोग किसी भी फाइल का निपटारा उनकी राय के बिना नहीं करते थे। विभाग में नियुक्त आबकारी इन्स्पेक्टर मनचाहा हल्का पाने के लिए मोहन बाबू को ही खुश करने की जुगत भिड़ाते रहते। उनकी व्यवहार कुशलता और काबिलियत के कारण मंत्री जी भी उन्हें बखूबी पहचानने लगे थे। मोहन बाबू इस नजदीकी का फायदा भी मौके-बेमौके उठा लेते।

इन्ही जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए मोहन बाबू ने राजधानी के सबसे विकसित (पौश) इलाके में एक आलीशान महलनुमा घर खड़ा कर लिया था। शहर और गाँव में अनेक जमीनें खरीद डालीं। कितनों को नौकरी दिलवायी, ठेके में लगवाया। समृद्धि के सभी साधन जुटा लिए। जब मोहन बाबू की पत्नी कैंसर का शिकार होकर असमय चल बसीं तो उनके अंतिम संस्कार में पूरा शहर उमड़ पड़ा। जाने कितने मंत्री, विधायक, आइ.ए.एस. और पी.सी.एस. अफसर उनकी मातमपुर्सी में आये। बारह-तेरह दिन तक लाल-नीली बत्ती वाली गाड़ियों का आना-जाना लगा रहा। मोहन बाबू का संपर्क कितना विस्तृत और कितना प्रभावशाली था यह पहली बार सबके सामने प्रकट हो रहा था। विदेश से बड़ा बेटा सपरिवार आया था। अमेरिकन बहू और उसके सफ़ेद बालों वाले बच्चे सबकी विस्मृत निगाहों के केंद्र में थे। दोनो बेटियाँ भी अपने-अपने पति व बच्चों के साथ आयीं थीं। इन सबकी आव-भगत में दफ़्तर का अमला और छोटा बेटा प्रशांत लगा रहा। पहली बार पूरा घर भरा हुआ था। सबने खूब तस्वीरें खींचीं, वीडियो बनायी और तेरहवीं बीत जाने के बाद सभी अपने-अपने देश काम पर लौट गये।

मोहन बाबू ने भौतिक संसार की सभी सहूलियतें अपनी मेहनत और चतुराई से अर्जित कर ली थीं। यद्यपि मधुमेह, रक्तचाप और हृदयरोग की परेशानी नौकरी के अंतिम वर्षों में शुरू हो गयी थी, फिर भी वे सफलतापूर्वक सेवारत रहने के बाद अपनी अधिवर्षता आयु पूरी करके धूमधाम से सेवानिवृत्त हुए।

mohan babuविदाई समारोह में विभागीय सहकर्मियों ने मोहन बाबू को गुलाब और गेंदें की फूलमालाओं से लाद दिया। अधिकारियों ने इन्हें खूब सराहा और भविष्य का जीवन सुखमय और सानंद होने की शुभकामनाएँ दीं। जब सभी बोल चुके तो अंत में कार्यक्रम के संचालक और कर्मचारी संघ के अध्यक्ष ने मोहन बाबू से आशीर्वाद स्वरूप दो शब्द बोलने और अपने अनुभव के आधार पर छोटे भाइयों का मार्गदर्शन करने का अनुरोध किया। माइक पर मोहन बाबू ने भावुक भाषण दिया। सरकारी सेवा में अनुशासन, कर्तव्यपरायणता, सच्चाई, ईमानदारी, और विनम्रता के महत्व पर प्रकाश डाला और यह कहते हुए लगभग रो पड़े कि कल से जब मैं दफ़्तर आने के बजाय घर पर अकेला बैठ रहूँगा तो जीवन शायद बहुत कठिन हो जाएगा। लोगों ने उन्हें ढाँढस बँधाया और जरूरत पड़ने पर किसी को भी याद कर लेने की सलाह दी। मन बहलाने के लिए जब जी चाहे दफ़्तर आ जाने को कहा। चलते-चलते भेंट स्वरूप लाल कपड़े में लपेटकर गीता की पुस्तक व नक्काशीदार पॉलिश की हुई चमचमाती छड़ी दी गयी और रेशमी शाल ओढ़ाकर सम्मानित किया गया। उन्हें विभागीय कार से घर तक छोड़ा गया। कार के बोनट पर सैकड़ों फूलमालाएँ लाद दी गयीं थी।

पिता की सेवानिवृत्ति की खबर पाकर बेटियों ने फोन पर ‘विश’ किया। बड़े बेटे को वीक-एंड में फुर्सत मिली तो अमेरिका से एक घंटे तक बात करता रहा। उसने अपनी पत्नी और बच्चों से भी बात कराया। सबने ‘कांग्रेट्स’ और ‘टेक-केयर’ कहा। प्रशांत ने भी बंगलुरू से लखनऊ का बिजनेस टूर बनाया और पिता को अपनी सेहत का ख्याल रखने और फोन पर बात करते रहने की ताकीद कर गया। कंपनी में रिसेसन की वजह से छँटनी की कार्यवाही की संभावना की चर्चा की और जल्दी ही इस बारे में डिटेल में बात करने का वादा करके वापस चला गया। मोहन बाबू अपने आलीशान बंगले में अकेले रह गये।

नौकरानी समय से आती और झाड़ू-बुहारू करके व खाना बनाकर ढककर चली जाती। मोहन बाबू सुबह उठकर पार्क में टहलने जाते और दिनभर बेटे-बेटियों के फोन का इन्तजार करते और अखबार पढ़ते। समय के साथ फोन काल्स की आवृत्ति घटती जाती। सबकी अपनी-अपनी व्यस्तता थी जो लगातार बढ़ती जा रही थी। इसी बीच एक दिन प्रशांत ने फोन पर बताया कि उसकी विप्रो से छुट्टी हो गयी है और वह कनाडा की एक कंपनी में सीनियर सॉफ़्टवेयर एनलिस्ट के बड़े पैकेज पर ज्वाइन करने के लिए टोरंटो की फ्लाइट पकड़ने जा रहा है। सबकुछ इतना जल्दी हुआ कि उसे सोचने और बताने का मौका ही नहीं मिला। अभी वह अकेले जा रहा है। सब कुछ ठीक रहा तो तीन महीने बाद पत्नी और बच्चे को भी ले जाएगा। तबतक वे बंगलुरू में कंपनी के फ़्लैट में ही रह लेंगे।

तीन महीने बाद प्रशांत एक दिन के लिए अपनी पत्नी और दो साल के बच्चे के साथ आया और पिता को ढाढस बँधाकर कनाडा चला गया। उसने यह कहा कि जब भी कोई जरूरत हो वे निस्संकोच उसे फोन करके बता दें। वह हर संभव कोशिश करके उनकी मदद करेगा। उधर प्रशांत कनाडा पहुँचा और इधर मोहन बाबू बीमार रहने लगे। इनके पास पैसे की कोई कमी नहीं थी इसलिए इलाज कराते रहे। बेटों को इसकी खबर नहीं होने दी। फोन पर बातचीत का सिलसिला दैनिक से साप्ताहिक और फिर पाक्षिक स्तर पर चला गया। आत्मीयता का स्थान औपचारिकता लेती गयी। बड़े बेटे से तो महीने में एकाध बार ही बात हो पाती।

इसी बीच एक घटना ने मोहन बाबू को हिला दिया। उनके पड़ोस में अकेले रह रहे एक सेवानिवृत्त आई.ए.एस. अधिकारी की रहस्यमय मौत घर के भीतर हो गयी थी और इसका पता तब चला जब उनकी लाश की बदबू अड़ोस-पड़ोस तक फैलने लगी। इस बात की आशंका जतायी गयी कि उनकी हत्या घर के नौकर ने ही कर दी थी। विदेश में रह रहे बेटों को अपने पिता के अंतिम दर्शन का अवसर भी नहीं मिला था। एक एन.जी.ओ. द्वारा उनका अंतिम क्रिया-कर्म किया गया। बेटे उनका अस्थि-कलश लेने के लिए ही पहुँच सके थे। मोहन बाबू ने जब दबी जुबान से इस घटना की जानकारी अपने छोटे बेटे को दी तो उसने फौरन इंटरनेट से शहर में उपलब्ध ‘ओल्ड-एज-होम’ सर्च किया और ऑनलाइन बुकिंग करते हुए सबसे मंहगी सुविधाओं से लैस वृद्धाश्रम में मोहन बाबू को शिफ़्ट करा दिया।

अब मोहन बाबू की देखभाल प्रशिक्षित नर्सों के हाथ से होने लगी। विशेषज्ञ चिकित्सक डॉ.मिश्रा रुटीन चेक-अप करते और खान-पान की व्यवस्था भी विशेषज्ञ परामर्श के अनुसार की जाने लगी। इन सबके बावजूद मोहन बाबू की सेहत सुधरने का नाम नहीं ले रही थी। वे फोन पर प्रशांत से अपनी तकलीफ़ बताने से परहेज करते। प्रशांत की कम्पनी पहले मुश्किल दौर से गुजर रही थी लेकिन इसके काम सम्भालने के बाद उसकी स्थिति सुधरने लगी थी। प्रबंध-तंत्र उसपर बहुत प्रसन्न था और तरक्की की लालच देकर उससे दोगुनी मेहनत करा रहा था। उसने दिन-रात मेहनत कर अपनी स्थिति मजबूत करने की धुन में पिता की बातों में छिपे दर्द को अनसुना कर दिया। उनकी देखभाल कर रहे डॉ.मिश्रा से पूछकर अच्छी से अच्छी दवाएँ चलाते रहने का अनुरोध करता और पैसे की चिन्ता न करने की बात कहता। पैसे की कमी तो वहाँ वैसे भी नहीं थी।

अंततः मोहन बाबू ने बिस्तर पकड़ लिया। साँस मद्धम पड़ने लगी। जीवन रक्षक उपकरण लगा दिए गये। वेन्टीलेटर लग गया। कृत्रिम ऑक्सीजन दी जाने लगी। नियमित डायलिसिस होती रही। प्रशांत लगातार डॉ.मिश्रा से हाल-चाल लेता रहा। एक दिन डॉ.मिश्रा ने बताया कि अब आखिरी समय नजदीक आ गया है। सभी उपाय आजमाये जा चुके हैं लेकिन सुधार नहीं हो रहा है। सभी इंद्रियाँ शिथिल पड़ गयी हैं। मोहन बाबू अधिक से अधिक दो सप्ताह के मेहमान हैं। प्रशांत ने अपने कंपनी मालिकों से बताया- पिता के जीवन के आखिरी पंद्रह दिन उनके साथ रहने के लिए और अगले पंद्रह दिन अंतिम क्रिया-कर्म के लिए चाहिए थे। प्रबंधन ने एक महीने की छुट्टी मंजूर कर दी। प्रशांत स्वदेश पिता को देखने चल दिए।

जूते बाहर निकाल आई.सी.यू. का दरवाजा खोलकर प्रशांत ने भीतर प्रवेश किया तो मोहन बाबू आँखें बंद किए बेसुध पड़े थे। इन्होंने धीरे से ‘पापा’ ‘पापा’ की आवाज लगायी। मोहन बाबू के हाथों में हरकत हुई। फिर उन्होंने धीरे से आँखे खोली। सामने बेटे को देखकर आँखों में अजीब चमक लौट आयी। उन्होंने आशीर्वाद में हाथ उठाने की चेष्टा की लेकिन ज्यादा सफल नहीं हुए। हाथ जरा सा उठने के बाद एक ओर लुढ़क गया। बेटे ने उनका हाथ थाम लिया। थोड़ी ही देर में उन्होंने इशारे से बैठने की इच्छा व्यक्त की। नर्स की मदद से प्रशांत ने बिस्तर में लगे हाइड्रॉलिक सिस्टम का प्रयोगकर बिस्तर एक ओर से उठा दिया। अब मोहन बाबू के शरीर में हरकत लौट आयी थी। वे बोल नहीं पा रहे थे लेकिन उनकी सजल आँखे चिल्ला-चिल्लाकर बता रही थीं कि बेटे के पास बैठना उनके लिए सबसे बड़ी दवा थी। डॉ. मिश्रा ने खिड़की से जब यह चमत्कार देखा तो सामने टंगे कैलेंडर पर सिर झुकाए बिना न रह सके।

एक सप्ताह बाद मोहन बाबू उठ खड़े हुए और दूसरे सप्ताह का अंत आते-आते बेटे के साथ पार्क तक टहलने लगे। दवाएँ अब अपना असर दिखाने लगीं थीं। प्रशांत को आये पच्चीस दिन हो गये थे। शाम को दोनो टहलने के बाद पार्क में लगी बेंच पर बैठकर आपस में बातें कर रहे थे। तभी मोबाइल की घंटी बजी। कनाडा से प्रशांत के बॉस का फोन था-

हेलो सर… गुड मॉर्निंग टु यू…

नो सर, हियर इट्ज़ इवनिंग, …वेरी गुड वेथर इन डीड

नो सर, दैट्स नॉट द केस… थिंग्स अर नॉट गोइंग माइ वे…

नो सर, आई मे नॉट बी फ्री बाई दिस वीक एन्ड… आई ऐम एक्ट्रीम्ली सॉरी सर…

नो, नो, ही इज़ स्टिल एलाइव सर, आइ कांट हेल्प… आइ ऐम सॉरी

येस सर, इ्ट हैज़ सरप्राइज़्ड मी टू सर… डॉ.मिश्रा इज़ आलसो परटर्ब्ड, ही सेड इट वाज़ ए गॉन केस बट…

येस सर, इट्ज़ अनफॉर्चुनेट फ़ॉर मी टू. आइ एम इक्वली कन्सर्न्ड विथ आवर कम्पनीज़ इन्टरेस्ट्स सर…

इसके बाद प्रशांत बेंच पर से उठकर थोड़ी दूर चला गया। अपने बॉस को समझाता रहा कि कैसे उसकी योजना फेल हो गयी। पिता के रोग ने उसे ‘धोखा’ दे दिया। यह भी कि वह उन्हें समझाने की कोशिश करेगा कि वह एक महीने से ज्यादा कतई नहीं रुक सकता। उसका हाव-भाव यह बता रहा था कि बॉस बेहद नाराज है और प्रशांत उससे गिड़गिड़ा रहा है।

बार-बार ‘सॉरी’ और ‘आइ विल ट्राई’ की आवाज मोहन बाबू के कानों तक पड़ती रही। अचानक उन्हें सीने में दर्द महसूस हुआ और जोर की हिचकी आयी। प्रशांत जब आधे घंटे बाद माथे पर पसीना पोंछते बेंच की ओर वापस लौटा तो मोहन बाबू का सिर एक ओर लुढक गया था और शरीर ठंडा पड़ चुका था।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

21 टिप्‍पणियां:

  1. आधुनिक पीढ़ी की प्राथमिकतायें अनिर्धारित हैं, उन पर बहुत अधिक निर्भरता नहीं रख पायेगी पुरानी पीढ़ी।

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  2. आपकी कहानी आज की वास्तविकता है.हर कोई जीवन के सुख के लिए भग रहा है ,ऐसे में उसे यह भी नहीं पता चलता कि उसी पैसे ने उसका सुकून और अपनों को कब छीन लिया !

    मैं अकसर यही बातें करता रहता हूँ,मगर अफ़सोस कि ज़्यादातर लोग इस पर ध्यान नहीं धरते !

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  3. yahi bhautik sukh ki parakastsa hai ...........................................

    jai baba banaras..............

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  4. वाह सिद्धार्थ जी ,कविता के साथ ही कहानी पर भी आपकी जोरदार पकड़ है ...
    यथार्थ कथा है ....द्वैध भाव पूरी कथा तक विद्यमान है..अंत बिलकुल ही अप्रत्याशित!
    मगर यह सुखान्त नहीं है -पर दृष्टांत तो सच है!

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  5. काश कि यह केवल कथा भर होती...

    इक्के दुक्के इस तरह घटने वाले इन किस्सों में दिनोदिन जिस तेजी से वृद्धि हो रही है, बस दुर्भाग्यपूर्ण कह लम्बी उसाँसे भरी जा सकती हैं...क्योंकि वैयक्तिकता के इस युग में रिश्ते नातों और कर्तब्यों के प्रति सजगता संवेदनशीलता में सुधार की तो कोई बहुत भारी संभावना ही नहीं दीखती...

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  6. ओह ..बेशक यह कहानी हो पर आधुनिक युग में बहुतों का सच है.

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  7. यावद्वित्तोपार्जनसक्त:
    तावन्निजपरिवारो रक्त:
    पश्चाज्जीवति जर्जर देहे
    वार्ताम कोsपि न पृच्छति गेहे!

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  8. बहुत वास्तविक सी कहानी सुनाई है. यह समय आने पर हममें से किसी की भी हो जाएगी. या कहिए की हम कहानी में फिट हो जाएँगे. :)

    मानव ने जो फसल बोई वही काटनी होगी यह तो वह सदा से जानता आया है किन्तु फिर भी जब जब अपने पर आती है या अपनी बारी आती दिखती है तो वह आश्चर्यचकित अवश्य हो जाता है. क्यों पता नहीं.

    हमने जो आधुनिक समाज रचा है उसमें किसी से सालों साल सेवा की अपेक्षा करना मूर्खता है. न ऐसा हो सकता है न होगा. हाँ यदि सन्तान को किसी ऐसे काम व पद पर लगाएं जहाँ उसकी कोई जबावदेही न हो तो वह समय दे सकेगा किन्तु उसका छोटा पद व कम पैसा हमारे अहम को स्वीकार नहीं. सो झेलना भी हमें ही होगा.
    घुघूती बासूती

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  9. कहानी मार्मिक है पर यह क्या? डिस्केमर भी और मोहन बाबू का फोटुवा भी :)

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  10. चन्द्रमौलेश्वर जी, आप मोहन बाबू को पहचानते हैं क्या? यह फोटुवा तो उनकी नहीं है।

    इसे तो मैने अपने एक पुराने दफ़्तर में कई साल पहले खींचे गये सामूहिक फोटू में से काट-छाँटकर कम्प्यूटर की मदद से स्केच रूप में तैयार किया था ताकि रिटायर लोगों की विदाई का मंजर बता सकूँ। इसका कहानी के पात्र से बस इतना ही साम्य है।

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  11. kahani hamare swayam ke chakravyuh me fanse hone ki hai.Hamari mahtwakancha,bhautic sukh,economic pressure,dusaron se bhautic rup men aage niklane ki hoad kya yah sab karan nahi hai hamari durdasha ka.Bacche ke top na karane par dukhi hote hain,top kar carriier banane videsh ja basata hai to dukhi hote hain.Khud hi tay karana padega ki average/nalayak(so called)baccha ya layak vedeshi baccha.Hindi translate abhi nahi kar pa raha hun,sorry.

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  12. यथार्थ? बाप एक बार फिर बेटे के काम आया।

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  13. बेशक यह कहानी हो पर आधुनिक युग में बहुतों का सच है.

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  14. आपका डिसक्लेमर बेकार गया कि इस कहानी के पात्र मेरी कल्पना की उपज हैं-

    क्या कहें..

    अति मार्मिक!

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  15. सच में, मार्मिक कथा. यदि कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण लग भी रहा हो तो केवल इसलिए क्योंकि हम इसे स्वीकार ही नहीं करना चाह रहे.

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  16. कहानी दिल को छू गई. लिखते रहें.

    आप जिसे जामून समझ रहे हैं इसका अपने मध्यप्रदेश उत्तरप्रदेश वाले जामून से कुछ भी लेनादेना नहीं है. यह मुख्यतया केरल में लगने वाल एक फल है जो पता नहीं कैसे कलकत्ता पहुंच गया.

    इसे मलयालम में चंबक्का कहा जाता है और सफेद व लाल रंग के दो प्रकार का होता है. सफेद फल एकदम बेस्वाद होता है. लाल रंग का फल हलकी सी खटास लिये होता है. सर्वोत्तम किस्मों में हल्की सी मिठास का अनुभव होता है.

    सफेद, लाल दोनों मेरे आंगन में लगे हैं एवं इनका चित्र एक बार मैं ने सारथी पर दिया था.

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  17. कहानी दिल को छू गई. लिखते रहें.

    आप जिसे जामून समझ रहे हैं इसका अपने मध्यप्रदेश उत्तरप्रदेश वाले जामून से कुछ भी लेनादेना नहीं है. यह मुख्यतया केरल में लगने वाल एक फल है जो पता नहीं कैसे कलकत्ता पहुंच गया.

    इसे मलयालम में चंबक्का कहा जाता है और सफेद व लाल रंग के दो प्रकार का होता है. सफेद फल एकदम बेस्वाद होता है. लाल रंग का फल हलकी सी खटास लिये होता है. सर्वोत्तम किस्मों में हल्की सी मिठास का अनुभव होता है.

    सफेद, लाल दोनों मेरे आंगन में लगे हैं एवं इनका चित्र एक बार मैं ने सारथी पर दिया था.

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  18. मोहन बाबू सर्वत्र मिल जाएंगे।
    यथार्थ है, लेकिन भयावह!
    मध्यवर्ग की यही नियति हो चली है अब।

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  19. मोहन बाबू से स्पष्ट है कि हिंदी क्षितिज पर एक सितारे का उदय हो चुका है जो अतिशीघ्र आसमान पर प्रकाशित होने को प्रस्तुत है . मेरी शुभकामनाये . मोहन बाबू को चाहिए था कि वे परिवार से बाहर आकर समाज को अपना परिवार बना लेते और कुछ असहाय एवं गरीबो को अपने से जोड़कर समय व्यतीत करते .
    (राजीव शर्मा)

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