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शनिवार, 7 मई 2011

कविता बहुत कठिन कर्म है : आलोकधन्वा

alokdhanwa-jiकवि आलोकधन्वा वर्धा विश्वविद्यालय में जब ‘राइटर इन रेजीडेन्स’ के रूप में आये तो सबको उम्मीद हुई कि अब ‘दद्दा’ अपनी वर्षों से बंद पड़ी कलम में नयी स्याही डालेंगे। कुछ और सादे कागजों में अपनी कविता का रंग भरकर उन्हें हमेशा के लिए सहेजकर रखने लायक बना देंगे। विश्वविद्यालय के फादर कामिल बुल्के अंतरराष्ट्रीय छात्रावास (गेस्ट हाउस) में उनके साहचर्य का सुख भोग रहे शिक्षकों व अन्य अंतर्वासियों को जब ख्यातिलब्ध कवि जी अपने तरह-तरह के अनुभव अत्यंत रोचक शैली में सुनाते; अपने प्रेम के बारे में, अपने विलक्षण विवाह के बारे में और फिर उससे उत्पन्न विछोह के बारे में बताते हुए जब वे अपने से दूर चली गयी पत्नी की तस्वीर अपने पर्स से निकालकर दिखाते; और परिसर की सड़कों पर चहलकदमी करते हुए देर रात तक देश-दुनिया की तमाम बातों की चर्चा करते रहते तो यह सहज ही था कि हम सभी उनसे यह उम्मीद लगा बैठते कि वे हिंदी साहित्य जगत को नये सिरे से कुछ अनमोल भेंट देने वाले हैं।

अपनी एक मात्र काव्य पुस्तक में छपी कुल जमा इकतालीस (41) कविताओं से ही आलोकधन्वा ने गम्भीर काव्यप्रेमियों के बीच ऐसा स्थान बना लिया जो बिरलों को ही नसीब होता है। पूरी दुनिया में चर्चित और अनेक भाषाओं में अनूदित उनकी कविताएँ एक दौर में देश के पढ़े-लिखे नौजवानों के दिलो-दिमाग पर छायी रहती थीं और व्यवस्था के प्रति रोष से उत्पन्न आंदोलनों में प्रेरक क्रांतिगीत के रूप में समूहों द्वारा पढ़ी जाती थीं।  आज भी इन कविताओं का महत्व कम नहीं हुआ है।

alokdhanwa-happyइस दौरान विश्वविद्यालय द्वारा अनेक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियाँ आयोजित होती रहीं और उनमें इन्होंने लगातार अपनी ओजस्वी और बेलाग बातें प्रभावी ढंग से रखी। सभागारों में आलोकधन्वा के वक्तव्य खूब तालियाँ बटोरते रहे। लोग उनकी बातों पर बहस-मुबाहिसा करते रहे। कंप्यूटर और इंटरनेट की एबीसीडी से भी अनभिज्ञ रहने वाले कवि आलोकधन्वा ने जब ‘चिठ्ठाकारी की आचारसंहिता’ विषयक राष्ट्रीय सेमीनार में अपनी बात रखी तो सबसे अधिक तालियाँ उनके हिस्से में ही आयीं। सभी भौचक होकर देख रहे थे- जब उन्होंने इस माध्यम की तुलना रेलगाड़ी के ईजाद से कर डाली और बोले कि जब पहली बार रेल चलना शुरू हुई तो लोग उसपर बैठने से डरते थे- इस आशंका में कि पता नहीं एक बार चल पड़ने के बाद यह रुक भी पाएगी या नहीं। तमाम डरावनी बातें इस सवारी को लेकर उठती रहीं। लेकिन समय के साथ इसका उपयोग बढ़ा और आज हम इसके बिना सामान्य जीवन की कल्पना नहीं कर सकते।

लेकिन कवि आलोकधन्वा की पहचान तो उनकी कविता है न! सभी उनसे कुछ नये प्रतिमान गढ़ती कविता की आस लगाये रहे। फरमाइशें बढ़ती रहीं और फिर ‘तगादे’ का रूप लेती गयीं।

आखिरकार उन्होंने बड़े मनोयोग से लिखी चार कविताएँ विश्वविद्यालय की साहित्यिक पत्रिका ‘बहुवचन’ को प्रकाशन के लिए उपलब्ध करायीं। पत्रिका छपकर आयी तो चारो ओर इन कविताओं की ही चर्चा होने लगी। सभी अपनी-अपनी राय देने लगे। सबको अलग-अलग कविताएँ पसन्द आयीं। एक समय में `गोली दागो पोस्टर’, `ब्रूनो की बेटियाँ’, ‘भागी हुई लड़कियाँ’ और `जनता का आदमी’ सरीखी कालजयी क्रांतिकारी कविताएँ लिखकर मशहूर होने वाले कवि ने जब नये समय में दूरस्थ प्रेयसी से मुलाकात की आतुरता बयान करती, गाय व बछड़े के ऊपर भावुक बातें करती और आम के बाग़ पर लुभावनी रसपान कराती कविता लिखी हैं तो आभास होता है कि समय के साथ व्यक्ति का कैनवास कैसे बदल जाता है। मानव मन कैसे-कैसे करवट लेता है और उसके निजी अनुभव उसकी वैचारिक प्राथमिकताओं को कैसे बदल देते हैं। कविमन की स्वतंत्रता और उदात्तता दोनो ही के दर्शन इनकी इन कविताओं में होते हैं।

alok-dhanwaमैने अनुरोध किया कि इन चारो कविताओं को इंटरनेट के पाठकों के लिए उपलब्ध कराने की अनुमति दीजिए। वे सहर्ष तैयार हो गये- इस शर्त पर कि उन्हें हूबहू किताब जैसे फॉर्मैट में देना होगा। मैने उन्हें विश्वास दिलाना चाहा तो भी उन्हें संतोष न हुआ। स्वयं ‘बहुबचन’ लेकर मेरे लैपटॉप के सामने बैठ गये। एक-एक हिज्जे को लाइन दर लाइन पत्रिका से मिलाते रहे। उसमें प्रकाशित कविता की कुछ पंक्तियों को  बदलवा दिया, एक-दो नयी पंक्तियाँ भी जोड़ डालीं। रात काफी बीत चुकी थी; लेकिन जबतक वे संतुष्ट नहीं हो गये कि सभी शब्द पूर्णतः शुद्ध और पंक्तियाँ दुरुस्त हो चुकी हैं तबतक बैठे रहे। स्क्रीन पर अपनी कविता को अपलक निहारते रहे- जैसे कोई माँ अपनी नवजात संतान को निहारती है। बार-बार पढ़ते रहे और मुग्ध होते रहे।

मैने कहा- आदरणीय, अब इसे पब्लिक डोमेन में जाने दीजिए, कबतक सीने से चिपकाए रहेंगे!

उन्होंने जवाब दिया- कविता बहुत कठिन कर्म है त्रिपाठी जी, एक-एक लाइन प्रसव वेदना देती है...

आखिर उन्होंने ओ.के. कहा और मैने पब्लिश बटन दबाया। चारों कविताएँ यहाँ नमूदार हो गयीं। हिंदी-समय पर आलोक धन्वा की सभी कविताएँ उपलब्ध हैं। चार नयी कविताओं में से एक आपके लिए यहाँ प्रस्तुत करता हूँ-

 

मुलाक़ातें


अचानक तुम आ जाओ


इतनी रेलें चलती हैं
भारत में
कभी
कहीं से भी आ सकती हो
मेरे पास


कुछ दिन रहना इस घर में
जो उतना ही तुम्हारा भी है
तुम्हें देखने की प्यास है गहरी
तुम्हें सुनने की


कुछ दिन रहना
जैसे तुम गई नहीं कहीं


मेरे पास समय कम
होता जा रहा है
मेरी प्यारी दोस्त


घनी आबादी का देश मेरा
कितनी औरतें लौटती हैं
शाम होते ही
अपने-अपने घर
कई बार सचमुच लगता है
तुम उनमें ही कहीं
आ रही हो
वही दुबली देह
बारीक चारखाने की
सूती साड़ी
कंधे से झूलता
झालर वाला झोला
और पैरों में चप्पलें
मैं कहता जूते पहनो खिलाड़ियों वाले
भाग दौड़ में भरोसे के लायक


तुम्हें भी अपने काम में
ज़्यादा मन लगेगा
मुझसे फिर एक बार मिलकर
लौटने पर


दुख-सुख तो
आते जाते रहेंगे
सब कुछ पार्थिव है यहाँ
लेकिन मुलाक़ातें नहीं हैं
पार्थिव
इनकी ताज़गी
रहेगी यहीं
हवा में !
इनसे बनती हैं नयी जगहें
एक बार और मिलने के बाद भी
एक बार और मिलने की इच्छा
पृथ्वी पर कभी ख़त्म नहीं होगी

-आलोकधन्वा

 

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

22 टिप्‍पणियां:

  1. एक बार और मिलने के बाद भी
    एक बार और मिलने की इच्छा
    पृथ्वी पर कभी ख़त्म नहीं होगी..
    सरल शब्दों में इन्तजार का मर्म समझा दिया ...

    कविता बहुत कठिन कर्म है , एक-एक लाइन प्रसव वेदना देती है...
    कवि जब इस पीड़ा या आनंद के साथ रचता है ,कविता अनमोल हो जाती है ...

    कवि आलोकधन्वा जी के परिचय और कविताओं के लिए आभार !

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  2. आलोक धन्वाजी की ये कवितायें मैंने वर्धा वाली साइट पर पढ़ीं थीं। लेकिन इस पोस्ट में विस्तार से कविता लिखे जाने और पोस्ट होने का विवरण पढ़कर बहुत अच्छा लगा।

    आलोक जी को मैंने कविता सुनाते हुये और वर्धा में मंच से ब्लाग के बारे में बोलते हुये सुना है। यह पोस्ट देखकर सब फ़िर से याद आ गया। कामना है कि वे स्वस्थ रहें और खूब सारी कवितायें लिखें।

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  3. कवि कोई एलियेन नहीं है धरा पर -वह भी सहज मनुष्य की भांति प्रेम विछोह की उछाह, पीड़ा सहता है ..कोई फांस इस कवि को भी गहरे गडी है जो अब बाहर आने को बेचैन है -
    लगता है कवि रेलगाडी के उपमान को गहरे पकड़ बैठा है -मगर यह सभी कवि कलाकारों के साथ होता है -कोई न कोई टेक ,अवलंब जो खुद उसके लिए एक राहत है ही ,आडियेंस तक भाव संचार के लिए भी जरुरी हो जाता है !
    कविता निश्चय ही समष्टि से भी तुरत ही नाता जोड़ लेती है जो एक श्रेष्ठ काव्य कर्म का परिचयाक एलिमेंट है!
    अब आप भी इतिहास में सुवर्ण बन रहे हैं !बधाई !!

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  4. बहुत बढ़िया!!
    सक्रिय रखिये उन्हें, जो भी कुछ देते रहें, खजाना बढ़ेगा ही! आप ही लोगों से संभव भी लग रहा, शायद वर्धा उन्हें हाल के वर्षों में सर्वाधिक रास भी दे रही है।
    सारी कविताएँ सुन्दर हैं!! आभार..!

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  5. कवि से परिचय अच्छा लगा। कविताएं भी।

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  6. साँझा करने के लिए धन्यवाद. नेट पर फोर्मेट की सुनिश्चितता के प्रकरण की जीवन्तता क्या खूब है. आलोक जी व आपको (मय कंप्यूटर) एक दम जैसे सही कल्पित कर पा रही हूँ. अहा... हा.....|

    हर्ष है कि फिर से कविता-लेखन का आग्रह उन्होंने रख लिया.

    उन तक मेरी बधाई पहुँचाएँ और स्मरण भी.

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  7. अपने अनुभव एवँ नज़रिये को साझा करने लिये धन्यवाद !
    यह मुझे भी लगता है कि एक प्रतिमान के रूप में रेलगाड़ी को उन्होंने कई बार दोहराया है ।
    अरविन्द मिश्र की टिप्पणी पढ़ने के बाद मुझे भी यह लिखने का साहस हुआ ।

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  8. विछोह का दर्द और मिलन की आस ही तो जीवन है और इस आस-निरास को बड़ी सुंदरता से व्यक्त किया है। आखिर जीवन भी तो एक सफ़र है ...

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  9. बढ़िया है....साहित्यकार इस ओर रुख करें तो सबको अच्छा लगे.

    कविता बहुत सुन्दर लगी.

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  10. दोनो वाक्यों से सहमत, कविता कठिन कर्म है और एक एक पंक्ति प्रसव वेदना देती है।

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  11. चारों कविताएँ खुशियों से भर देती हैं
    वही खुशी जो
    पहाड़ी झरने को हौले से छू कर मिलती है
    चिड़ियों की चह-चह से मिलती है
    आम की खुशबू से मिलती है
    दूर से आती रेलगाड़ी में, प्रियतम की एक झलक देख पाने की उत्सुक आकांक्षा से मिलती है।
    नारों-वादों, अमीरी-गरीबी, आचार-विचार से दूर
    शांत मन से लिखी सहज अभिव्यक्ति।

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  12. कवि राज आलोकधन्वा जी से परिचाय करवाने ओर उन की सुंदर रचना पढवाने के लिये आप का धन्यवाद

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  13. कविता को जिस अंदाज में लैपटॉप पर निहार रहे हैं वह देखने लायक है :)

    धन्वा जी के बारे में इतनी दिलचस्प जानकारियां देने के लिये आभार।

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  14. एक बार और मिलने के बाद भी
    एक बार और मिलने की इच्छा
    पृथ्वी पर कभी ख़त्म नहीं होगी
    बहुत सही कहा आलोकधन्वा जी ने. आलोकधन्वा जी के परिचय और उनके कविता का सुन्दर प्रस्तुतीकरण....

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  15. सुन्दर अपने आप में बहुत कुछ कहती कविता, इसीलिए अलोक धन्वा जी के इतने कद्रदान हैं .
    जाता हूँ उनकी बाकी कविताओं को पढने के लिए, शुक्रिया

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  16. बहुत-बहुत आभार इतनी सुन्दर कविता पढवाने के लिये.

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  17. वाह! बाक़ी तीन भी यहीं प्रस्तुत कर दें. बेहतर रहेगा.

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  18. एक खुबसूरत पोस्ट. कविता की आखिरी चार पंक्तियाँ तो गजब की हैं.

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  19. lambi khamoshi ke baad alok ji ki badhia kavita uplabdh karane ke liye bahut-bahut badhai!

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  20. यह जो धारण किये हुए है
    सुदूर जन्म से ही मुझे
    हम ने भी इसे संवारा है !

    यह भी उतनी ही असुरक्षित
    जितना हम मनुष्य इन दिनों

    क्या बात कही है....

    इस महान कलमकार के विषय में इतना कुछ बताने तथा अद्वितीय रचनाएं पढवाने के लिए बहुत बहुत आभार आपका...

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  21. आपने जिस तरीके से आलोक जी के बारे मे लिखा और उनकी कविताओ के बारे बताया तथा इन्‍टरनेट पर आलोक जी की देर रात तक लगे रहने की बात वकाई बहुत अच्‍छी लगी।

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