हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

क्या है भारत में धर्मनिरपेक्षता का भविष्य?

वर्धा वि.वि. के स्थापना-दिवस पर बड़े बुद्धिजीवियों ने दिया जवाब…

कुलदीप नैयर का कहना है कि हिंदुस्तान में धर्मनिरपेक्षता का भविष्य बहुत सुंदर है। यहाँ सेक्युलरिज्म बहुत मजबूत होता जा रहा है। इस देश का आम आदमी सांप्रदायिक नहीं है। जिन (साम्प्रदायिक) पार्टियों द्वारा हिंदू-हिंदू की रट लगायी जाती है उनको देश के बहुसंख्यक हिंदुओं ने ही सत्ता से बाहर बैठा रखा है।

यह चर्चा हो रही थी महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के हबीब तनवीर प्रेक्षागृह में और अवसर था विश्वविद्यालय की स्थापना को तेरह साल पूरा होने पर आयोजित समारोह का। यहाँ देश के तीन बड़े बुद्धिजीवी और विचारक आमंत्रित किये गये थे - इस प्रश्न पर विचार मंथन करने के लिए कि देश के वर्तमान परिदृश्य में धर्मनिरपेक्षता का मूल्य कितना महत्वपूर्ण है और इसका भविष्य कितना सुरक्षित है। पाकिस्तान के साथ भाईचारा बढ़ाने के लिए वाघा सीमा पर मोमबत्तियाँ जलाकर अभियान चलाने वाले वरिष्ठ स्तम्भकार कुलदीप नैयर, गांधी संग्रहालय पटना के सचिव व प्रतिष्ठित इतिहासकार डॉ.रज़ी अहमद और देश विदेश की मीडिया में अनेक प्रकार से सक्रिय रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी ने इस परिचर्चा में अपने विचार रखे।

इस विषय पर चर्चा क्यों : विभूति नारायण राय

विश्वविद्यालय के कुलपति विभूतिनारायण राय ने अपने अतिथियों का स्वागत करने के बाद विषय प्रवर्तन करते हुए यह स्पष्ट किया कि इस समय धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर चर्चा की आवश्यकता क्यों पड़ी। उन्होंने कहा कि हाल की दो घटनाओं ने इस मुद्दे पर दुबारा विचार के लिए प्रेरित किया। एक तो अयोध्या के विवादित मुद्दे पर हाईकोर्ट के अनपेक्षित फैसले ने और दूसरा विनायक सेन को देशद्रोह के आरोप में आजीवन कारावास की सजा ने।

कुलपति ने कहा कि अयोध्या पर उच्च न्यायालय ने जो निर्णय लिया उसमें आस्था को आधार बनाया। यह एक खतरनाक बात है। अगर देश का कायदा-कानून आस्था के आधार पर चलने लगा तो अनेक मध्यकालीन कुरीतियाँ दुबारा सिर उठा सकती है। संभव है कि सती-प्रथा दुबारा जन्म ले ले; क्योंकि आज भी देश में एक बड़ी संख्या सती को पूजनीय मानती है। अस्पृश्यता की प्रथा भी दुबारा सिर उठा सकती है क्योंकि बहुत लोग आज भी उसमें आस्था रखते हैं। विनायक सेन की सजा हमें ‘ककड़ी के चोर को कटार से काट डालने’ की कहावत याद दिलाती है। जनता के हक के लिए लड़ने वाले को एक लोकतांत्रिक देश में ऐसी सजा होना दुर्भाग्यपूर्ण है। क्या हमारी न्याय व्यवस्था अब जन आंदोलनों को दबाने का काम भी करेगी?

धर्मनिरपेक्षता को लोकतंत्र, आधुनिकतावाद व राष्ट्रवाद के परिप्रेक्ष्य में देखें- रामशरण जोशी

पत्रकारिता के क्षेत्र में विशद अनुभव रखने वाले और अबतक तेईस पुस्तकों के प्रणेता डॉ. रामशरण जोशी ने इतिहास का संक्षिप्त संदर्भ देते हुए कहा कि भारत में अलग-अलग चरणों में हिंदू और मुस्लिम शासक व शासित वर्ग के रूप में बँटे रहे हैं। अंग्रेजी गुलामी के समय दोनो शासित वर्ग में आ गये। सम्मिलित संघर्ष के बाद आजादी मिली लेकिन देश का बँटवारा हो गया। भारत में धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना हुई। पाकिस्तान में भी जिन्ना समर्थकों ने ‘पॉलिटिकल सेक्यूलरिज़्म’ की बात उठायी थी। लेकिन वहाँ स्थिति बदल गयी। भारत में स्वतंत्रता मिलने के तिरसठ वर्ष बाद  धर्मनिरपेक्षता का स्वरूप क्या होना चाहिए यह मुद्दा विचारणीय बना हुआ है।

उन्होंने बताया कि सोवियत संघ के विघटन के बाद बची विश्व की एकमात्र महाशक्ति अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने संयुक्त राष्ट्र संघ में कहा था कि शीतयुद्ध के बाद सबसे अधिक ‘धार्मिक आतंकवाद (religious terrorism)’ बढ़ा है।

डॉ.जोशी ने यह सवाल उठाया कि क्या हमारे देश के राष्ट्रीय चरित्र में धर्मनिरपेक्षता का मूल्य व्यावहारिक स्वरूप ले पाया है। क्या हम वास्तविक अर्थों में एक बहुलवादी राष्ट्र बन पाये हैं। हमारे संविधान में जिन मूल्यों को समाहित किया गया है क्या उन मूल्यों की पैठ हमारे जनमानस में हो पायी है? अयोध्या के उस विवादित ढाँचे का गिराया जाना उतना चिंताजनक नहीं है जितना उस कृत्य से हमारे संविधान में रचे-बसे भारतीय राष्ट्र के चरित्र का नष्ट हो जाना है। संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को ढहा देने वाले आज भी सुरक्षित हैं और फल-फूल रहे हैं, यह बहुत महत्वपूर्ण है।

धर्मनिरपेक्षता को आज के हालात में समझने के लिए हमें आधुनिकतावाद (modernism) को समझना होगा, लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद की विवेचना करनी होगी। इसके अतिरिक्त राष्ट्र-राज्य के चरित्र पर वैश्वीकरण और तकनीकी विकास के प्रभावों की पड़ताल भी करनी होगी। हमारे राजनेताओं ने धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे का प्रयोग अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेंकने में की हैं। वे `सेलेक्टिव सेकुलरिस्ट’ नीतियों पर चले हैं। (अर्थात्‌ अपनी सुविधा और वोट खींचने की संभावना के अनुसार सेक्यूलरिज़्म की व्याख्या और प्रचार-प्रसार करते रहे हैं)

राजनीतिक प्रतिस्पर्धा  में पक्षपातपूर्ण नीतियों का अनुगमन होने लगता है। अपने देश में यही हुआ है। धर्मनिरपेक्षता आज भी भारतीय नागरिक के जीवन के अविभाज्य अंग के रूप में विकसित नहीं हो सकी है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद केवल दिल्ली में दिनदहाड़े हजारो सिक्खों का कत्ल कर दिया गया लेकिन आजतक किसी को इस जुर्म में फाँसी नहीं हुई। (बल्कि हत्यारों को उकसाने वाले और संरक्षण देने वाले राजनेता सत्तासीन होते रहे हैं)

आज यह देखने में आ रहा है कि वैश्वीकरण और तकनीकी विकास से उपजी नयी अर्थव्यवस्था में उभरने वाला नव-मध्यम वर्ग अधिक धार्मिक प्रतीकों का प्रयोग कर रहा है। नये धनिकों द्वारा सबसे अधिक मंदिर-मस्ज़िद-गुरुद्वारे बनवाये जा रहे हैं। इस परिदृश्य में धर्मनिरपेक्षता के स्थान पर पंथनिरपेक्षता की बात की जा रही है। देश के राष्ट्रीय चरित्र में धर्मनिरपेक्षता का मूल्य बचा होने पर ही शंकाएँ उठने लगी हैं। इन शंकाओं का उठना ही सेक्यूलरिज़्म की हार है। इसलिए यह मुद्दा बहुत गम्भीर चिंतन के योग्य है। वैश्विक पूँजीवाद, तकनीक और अंतरराष्ट्रीयतावाद के परिप्रेक्ष्य में इस मूल्य को व्याख्यायित करना होगा।

इतना बताता चलूँ कि विद्वान वक्ताओं द्वारा कही गयी इन बातों को यहाँ प्रस्तुत करते समय मुझे अपने निजी विचारों को रोक कर रखना पड़ा है। टिप्पणियों की शृंखला में आवश्यकतानुसार चर्चा की जा सकती है। अगली कड़ी में मैं डाँ रज़ी अहमद की चमत्कृत कर देने वाली बातों की चर्चा करूंगा और कुलदीप नैयर के अति आशावादी जुमलों को प्रस्तुत करूंगा। इन विचारों पर आपकी प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित है। अभी इतना ही… (जारी)

!!! आप सबको नये वर्ष की कोटिशः बधाई और हार्दिक शुभकामनाएँ !!!

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

शुक्रवारी की परंपरा से...

“सृजन और नयी मनुष्यता की समस्याएँ” विषयक वार्ता और विमर्श: श्री प्रकाश मिश्र

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के प्रांगण में यूँ तो नियमित अध्ययन-अध्यापन से इतर विशिष्ट विषयपरक गोष्ठियों, सेमिनारों व साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों को निरंतर आयोजित किये जाने की  प्रेरणा वर्तमान कुलपति द्वारा सदैव दी जाती रही है, लेकिन इन सबमें ‘शुक्रवारी’ का आयोजन एक अनूठा प्रयास साबित हो रहा है।

परिसर में बौद्धिक विचार-विमर्श को सुव्यवस्थित रूप देने के लिए ‘शुक्रवारी’ नाम से एक  समिति का गठन किया गया है। इस समिति के संयोजक हैं ख्यातिनाम स्तंभकार व विश्वविद्यालय के  ‘राइटर इन रेजीडेंस’ राजकिशोर। यहाँ के कुछ शिक्षकों को इसमें सह-संयोजक की जिम्मेदारी भी सौंपी गयी है। विश्वविद्यालय परिवार के सभी सदस्य इस साप्ताहिक चर्चा शृंखला में भागीदारी के लिए सादर आमंत्रित होते हैं। शुक्रवारी की बैठक हर शुक्रवार को विश्वविद्यालय के परिसर में किसी उपयुक्त जगह पर होती है जो विशिष्ट वक्ता और वार्ता के विषय के चयन के साथ ही निर्धारित कर ली जाती है। इस अनौपचारिक विमर्श के मंच पर परिसर से बाहर के अनेक अतिथियों ने भी बहुत अच्छी वार्ताएँ दी हैं। वार्ता समाप्त होने के बाद खुले सत्र में उपस्थित विद्यार्थियों और अन्य सदस्यों द्वारा उठाये गये प्रश्नों पर भी वार्ताकार द्वारा उत्तर दिया जाता है और बहुत सजीव बहस उभर कर आती है।

गत दिवस मुझे भी ‘शुक्रवारी’ में भाग लेने का अवसर मिला। इस गोष्ठी में कुलपति जी स्वयं उपस्थित थे। इस बार के वार्ताकार थे प्रतिष्ठित कवि, उपन्यासकार, आलोचक व साहित्यिक पत्रिका ‘उन्नयन’ के संपादक श्रीप्रकाश मिश्र। उनकी वार्ता का विषय था “सृजन और नयी मनुष्यता की समस्याएँ”। उनकी वार्ता सुनने से पहले तो मुझे इस विषय को समझने में ही कठिनाई महसूस हो रही थी लेकिन जब मैं गोष्ठी समाप्त होने के बाद बाहर निकला तो बहुत सी नयी बातों से परिचित हो चुका था; साथ ही श्री मिश्र के विशद अध्ययन, विद्वता व वक्तृता से अभिभूत भी। श्रीप्रकाश मिश्र वर्धा के स्टाफ के साथ

(बायें से दायें) मो.शीस खान (वित्ताधिकारी), शंभु गुप्त (आलोचक), प्रोफ़ेसर के.के.सिंह और श्री प्रकाश मिश्र

अबतक दो कविता संग्रह, दो उपन्यास और तीन आलोचना ग्रंथ प्रकाशित करा चुके श्री मिश्र का तीसरा काव्य संग्रह और दो उपन्यास शीघ्र ही छपकर आने वाले हैं। आप बीस से अधिक वर्षो से साहित्यिक पत्रिका ‘उन्नयन’ का सम्पादन कर रहे हैं जो साहित्यालोचना के क्षेत्र में एक प्रतिष्ठित स्थान पा चुकी है। आलोचना के लिए प्रतिवर्ष ‘रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान’ इसी प्रकाशन द्वारा प्रायोजित किया जाता है। यह सारा सृजन श्रीप्रकाश जी द्वारा केंद्रीय पुलिस संगठन में उच्चपदों पर कार्यरत रहते हुए किया गया है।

अपने उद्‌बोधन में उन्होंने सृजन की अवधारणा को समझाते हुए कहा कि सृजन एक प्रक्रिया है- बनाने की प्रक्रिया- जिसे मनुष्य अपनाता है। उस बनाने की कुछ सामग्री होती है, कुछ उपकरण होते हैं और उसका एक उद्देश्य होता है। उद्देश्य के आधार पर वह कला की श्रेणी में आता है तो सामग्री और उपकरण के आधार पर संगीत, चित्र, मूर्ति, वास्तु, साहित्य -और साहित्य में भी काव्य, नाटक, कथा आदि - कहा जाता है। इसमें संगीत सबसे सूक्ष्म होता है और वास्तु सबसे स्थूल। सृजन मूल्यों की स्थापना करता है जो सौंदर्य के माध्यम से होती है। इसका उद्देश्य वृहत्तर मानवता का कल्याण होता है। साहित्य के माध्यम से यह कार्य अधिक होता है।

सृजन को चिंतन से भिन्न बताते हुए उन्होंने कहा कि चिंतन विवेक की देन होता है जबकि सृजन का आधार अनुभूति होती है। इस अनुभूति के आधार पर संवेदना के माध्यम से वहाँ एक चाहत की दुनिया रची जाती है जिसका संबंध मस्तिष्क से अधिक हृदय से होता है। लेकिन सृजन में अनुभूति के साथ-साथ विवेक और कल्पना की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं होती है।

मूल्यों की चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि इनका महत्व इसलिए नहीं होता कि वे जीवन में पूरे के पूरे उतार लिये जाते हैं; बल्कि इसलिए होता है कि एक पूरा समुदाय उन्हें महत्वपूर्ण मानता है, उन्हें जीवन का उद्देश्य मानता है- व्यक्ति के भी और समुदाय के भी- उससे भी बढ़कर इसे वह आचरण का मानदंड मानता है। मूल्य मनुष्य की गरिमा की प्रतिष्ठा करते हैं। सृजनकर्ता का दायित्व उस गरिमा में संवेदनाजन्य आत्मा की प्रतिष्ठा करना होता है जिसका निर्वाह बहुत वेदनापूर्ण होता है। सृजन के हर क्षण उसे इसका निर्वाह करना होता है।

मनुष्यता को अक्सर संकट में घिरा हुआ बताते हुए उन्होंने कहा कि वर्तमान में मनुष्यता पर जो संकट आया हुआ है वह दुनिया के एक-ध्रुवीय हो जाने से उत्पन्न हुआ है। उन्होंने रसेल होवान के उपन्यास ‘रिडले वाकर’, डेविड प्रिन के ‘पोस्टमैन’, कामार्क मेकॉर्थी के ‘द रोड’ का उल्लेख करते हुए बताया कि ज्ञानोदय द्वारा रचित मनुष्य की प्रगति और विकास की सभी योजनाएँ आज इतनी संकट में हैं कि उनका अंत ही आ गया है। सच पूछिए तो मनुष्य की मूलभूत अवधारणा ही संकट में है; और यह संकट वास्तविक है। जिस प्रौद्यौगिकी पर मनुष्य ने भरोसा करना सीखा है वह उसके विरुद्ध हो गयी है।

हमारी दुनिया वास्तविक न रहकर आभासित बन गयी है और आदमी मनुष्य न रहकर ‘साइबोर्ग’ बन गया है। साईबोर्ग यानि- “A human being prosthetically inhanced, or hybridized with electronic or mechanical components which interact with its own biological system.”

जलवायु वैज्ञानिक जेम्स लवलॉक का कहना है कि धरती को खोदकर, जल को सुखाकर, और वातावरण को प्रदू्षित कर हम कुछ इस तरह से जीने लगे हैं कि मनुष्य का जीवन बहुत तेजी से विनाश की ओर बढ़ने लगा है। धरती के किसी अन्य ग्रह से टकराने से पहले ही ओज़ोन की फटती हुई पर्त, समुद्र का बढ़ता हुआ पानी, धरती के पेट से निकलती हुई गैस और फटते हुए ज्वालामुखी मनुष्य जाति को विनष्ट कर देंगे।

जॉन ग्रे कहते हैं कि मनुष्य तमाम प्राणियों में एक प्राणी ही है; और उसे अलग से बचाकर रखने के लिए पृथ्वी के पास कोई कारण नहीं है। यदि मनुष्य के कारन कारण पृथ्वी को खतरा उत्पन्न होगा तो वह मनुष्य का ही अंत कर सकती है। वह नहीं रहेगा तो पृथ्वी बच जाएगी। दूसरे प्राणियों का जीवन चलता रहेगा। इस प्रकार राष्ट्रों की आंतरिक नीतियों के कारण मनुष्य का जीवन खतरे में है।

इस खतरे के प्रति कौन आगाह करेगा, उससे कौन बचाएगा? सृजन ही न...!!!

श्री मिश्र ने विश्व की शक्तियों के ध्रुवीकरण और इस्लामिक और गैर-इस्लामिक खेमों के उभरने तथा विश्व की एकमात्र महाशक्ति द्वारा किसी न किसी बहाने अपने विरोधियों का क्रूर दमन करने की नीति का उल्लेख करते हुए  भयंकर युद्ध की सम्भावना की ओर ध्यान दिलाया। आतंकवाद ही नहीं आणविक युद्ध की भयावहता धरती से आकाश तक घनीभूत होती जा रही है। पश्चिमी प्रचार तंत्र द्वारा यह दिखाया जा रहा है कि सभ्य दुनिया बर्बर दुनिया से लड़ने निकल पड़ी है।

अपने विस्तृत उद्‌बोधन में उन्होंने वर्तमान वैश्विक परिदृश्य के तमाम लक्षणों और दुनिया भर में रचे जा रहे साहित्य में उसकी छाया का उल्लेख करते हुए मनुष्यता की अनेक समस्याओं कि ओर ध्यान दिलाया और उनके समाधान की राह तलाशने की जिम्मेदारी सृजनशील बुद्धिजीवियों के ऊपर डालते हुए मिशेल फूको का उद्धरण दिया जिनके अनुसार पश्चिम का समकालीन सृजन मनुष्यता संबंधी इन तमाम चुनौतियों को स्वीकार करने में सक्षम नहीं दिख रहा है। लेकिन, उन्होंने बताया कि अमेरिकन विचारक ब्राउन ली के मत से सहमत होते हुए कहा कि इतना निराश होने की जरूरत नहीं है। अभी भी एशिया, अफ़्रीका और लातिनी अमेरिका का सृजन संबंधी चिंतन मनुष्य को बचाये रखने में और मनुष्यता संबंधी मूल्यों की प्रगति में कुछ योग दे सकता है।

इस लम्बी वार्ता की सभी बातें इस ब्लॉग पोस्ट में समाहित नहीं की जा सकती। उनका पूर्ण आलेख शीघ्र ही विश्वविद्यालय की साहित्यिक वेब साइट (हिंदीसमय[डॉट]कॉम और त्रैमासिक बहुवचन में प्रकाशित किया जाएगा।

निश्चित रूप से शुक्रवारी की जो परंपरा शुरू की गयी है उससे अनेक मुद्दों पर विचार मंथन की प्रक्रिया तेज होने वाली है। वार्ता के बाद वहाँ उपस्थित विद्यार्थियों ने जिस प्रकार के गम्भीर प्रश्न पूछे और विद्वान वक्ता द्वारा जिस कुशलता से उनका समाधान किया गया वह चमत्कृत करने वाला था। हमारी कोशिश होगी कि शुक्रवारी में होने वाली चर्चा आपसे समय-समय पर विश्वविद्यालय के ब्लॉग के माध्यम से बाँटी जाय।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

दास्ताने स्कूटर… बहुत कठिन है डगर।

पिछली कड़ी में आपने पढ़ा…

…तभी एक हँसमुख डॉक्टर साहब ने मुस्कराते हुए कहा- “मुझे इसका बहुत अच्छा अनुभव है। आपकी समस्या का जो पक्का समाधान है वह मैं बताता हूँ…। ऐसा कीजिए इसे जल्दी से जल्दी बेंच दीजिए…। जो भी दो-तीन हजार मिल जाय उसे लेकर खुश हो जाइए और मेरी तरह शेल्फ़-स्टार्ट वाली स्कूटी ले लीजिए…” वहाँ उपस्थित सभी लोग ठठाकर हँस पड़े, इनका चेहरा उतर गया और मेरे पहियों के नीचे से जमीन खिसक गयी…।

अब आगे…

लेकिन इन्होंने धैर्य नहीं खोया। बोले- “बेंचने का तो मैंने कभी सोचा ही नहीं; अधिक से अधिक मैं इसे वापस उत्तर प्रदेश भेज दूंगा। वहाँ पर इसके स्पेयर पार्ट्स मिल जाएंगे। …आपलोग बस इतना कन्फ़र्म कर दीजिए कि उद्योगपति जमनालालाल बजाज के मूलस्थान वर्धा में बजाज स्कूटर का एक भी मिस्त्री नहीं है। दीपक तले अंधेरा की इस मिसाल को मैं पूरी दुनिया को बता लूँगा उसके बाद ही हार मानूंगा।” इतना सुनने के बाद वहाँ के डिप्टी स्पोर्ट्स ऑफीसर ने कहा कि आप घबराइए नहीं; मैं आपको एक एक्सपर्ट के पास ले चलता हूँ। मेरे मुहल्ले में रहता है। इन्होंने मुझे उनकी बाइक के पीछे लगा दिया। कई चौराहों, तिराहों और अंधे मोड़ों को पार करते हुए, मोटी-पतली गलियों से गुजरते हुए हम अंततः एक मिस्त्री के दरवाजे पर जा पहुँचे। सुबह आठ बजे का वक्त था और उसके छोटे से अहाते से लेकर बाहर सड़क तक पंद्रह-बीस मोटरसाइकिलें आड़े-तिरछे खड़ी हुईं थीं। इन्होंने उचक-उचक कर देखा, उस भीड़ में एक भी स्कूटर नहीं दिखा।

‘नितिन मिस्त्री’ ने अभी काम शुरू नहीं किया था। ये सभी गाड़ियाँ पिछले दिन इलाज के लिए भर्ती हुईं थीं। उस भीड़ की ओर देखते हुए स्पोर्ट्स ऑफीसर ने भावपूर्ण मुस्कान बिखेरी। मानो कह रहे हों- “देखा, कितना बड़ा मिस्त्री है… गाड़ियों की लाइन लगी है। एक दिन जमा करो तो दूसरे-तीसरे दिन नम्बर लगता है”

मुझे उस मुस्कान में कोई आशा की किरण नहीं दिखी। यदि बोल पाता तो मैं कहता- “हाँ देख रहा हूँ… कितना चिरकुट मिस्त्री है। आठ-गुणा-आठ फुट के कमरे में तीन-चार बच्चो और पत्नी के साथ रह रहा है और साथ में शायद एक छोटा भाई भी है। इतनी ही कमाई होती तो एक बड़ा गैरेज न बना लेता…!! काम अधिक है तो असिस्टेंट रख लेता, स्टाफ़ बढ़ा लेता…!!!”  दर‌असल मुझे वहाँ ‘प्रोफ़ेसनलिज़्म’ का घोर अभाव दिखायी दे रहा था।

स्पोर्ट्स ऑफीसर ने नितिन मिस्त्री को बुलाया जो ब्रश करते हुए बाहर निकला। आपस में दोनो ने मराठी में कुछ बात की। वे शायद हम नये ग्राहकों का परिचय बता रहे थे। कुछ देर बाद मिस्त्री मेरे मालिक से मुखातिब हुआ, “सर जी, हम इसको देख तो लेंगा लेकिन इसमें कोई स्पेयर पार्ट ‘लगेंगा’ तो यहाँ नहीं मिल ‘पायेंगा’।  नागपुर से आपको मँगाना पड़ेंगा…” हमें इस बात की उम्मीद तो पहले से ही थी इसलिए उसके बाद तय यह हुआ कि मिस्त्री मेरी जनरल सर्विसिंग करेगा। मेरी हेड लाइट का स्विच जाम हो गया है उसकी ऑयलिंग-ग्रीसिंग करेगा, पुरानी हो चुकी बैटरी बदल देगा ताकि हॉर्न और लाइट तेज हो सके, लेकिन ‘चोक-वायर’ की समस्या ठीक होने की गारंटी नहीं होगी। कोई जुगाड़ आजमाने की कोशिश करेगा लेकिन सफलता की संभावना क्षीण ही है। इन्होंने जब संभावित समय पूछा तो मध्यस्थ महोदय के दबाव में उसने मुझे ‘अगले दिन भर्ती कर लेने’ पर सहमति दे दी।

अगले दिन स्टेडियम से हम दुबारा उसकी दुकान पर पहुँचे। मिस्त्री ने इन्हें घर तक छोड़ा और मुझे वापस अपने घर/दुकान/गैरेज पर ले जाकर खड़ा कर दिया। मैं दिन भर दूसरी बाइक्स का आना-जाना देखता रहा। मिस्त्री वास्तव में बहुत बिजी था। उसकी मेहनत की तुलना में उसका मेहनताना बहुत कम था। ज्यादातर ग्राहक उसके परिचित टाइप थे जो छोटी-मोटी गड़बड़ियाँ मुफ़्त में ठीक कराने की फिराक में लगे रहते थे। पिछले दिन से भर्ती गाड़ियाँ एक-एक कर जाती रहीं और शाम तक उतनी दूसरी गाड़ियाँ आकर जमा हो गयीं। मेरी पैरवी करने वाला कोई नहीं था, इसलिए मुझे शाम होने तक उसने हाथ नहीं लगाया। शाम को छः बजे मेरे मालिक का फोन आया कि काम पूरा हो गया हो तो मुझे लेने आ जाँय। ऑफिस से छूटते वक्त इन्होंने फोन किया होगा। इधर से मिस्त्री ने जवाब दिया कि अभी थोड़ा काम बाकी रह गया है। एकाध घंटे बाद हो पाएगा। फोन पर मिस्त्री के हाव-भाव से लगा कि वे इस समय मुझे लेने नहीं आ रहे हैं, क्योंकि उसने उस फोन के बाद भी मुझे छुआ नहीं था।

अगले दिन सुबह आठ बजे ये स्टेडियम से खेलकर कार से गैरेज पर  आये तो मेरी बारी आ चुकी थी। हेडलाइट का स्विच ठीक हो चुका था लेकिन असली समस्या जस की तस थी। मिस्त्री ने उन्हें बताया कि स्कूटर के लिए ‘ओरिजिनल बैटरी’ कल मिल नहीं पायी थी। आज मँगाया है। शाम तक मैं चोक का भी कुछ कर दूँगा। ये चले गये तो उसने दूसरी गाड़ियों का काम शुरू कर दिया। आखिरकार दोपहर बाद बैटरी बदली गयी। शाम को ये आये तो मिस्त्री ने चोक की समस्या न ठीक कर पाने के कई कारण गिनाने शुरू किए। इन्होंने उससे पारिश्रमिक पूछकर डेढ़ हजार रूपये थमाए और मुझे लेकर घर आ गये।

अगले दिन से इन्होंने चोक वायर की खोज शुरू की। इनके एक मित्र इलाहाबाद से वर्धा आने वाले थे। उनसे इन्होंने कहा कि बजाज-लीजेंड में जितने किस्म के ‘वायर’ लगते हों सभी वहाँ से लेते आयें। एक सप्ताह बाद क्लच-वायर, एक्सीलरेटर-वायर और चोक वायर इलाहाबाद से वर्धा की यात्रा करके आ गये। अगले दिन चोक वायर के साथ मुझे नितिन के गैरेज़ भेजा गया। एक बार फिर चौबीस घंटे की प्रतीक्षा के बाद नम्बर आया। लेकिन दुर्भाग्य के क्षण अभी समाप्त नहीं हुए थे…Sad smile

पुराना केबल निकालकर नया केबल डालने में उसके पसीने छूट गये। अंततः उसने हार मान ली। फोन करके इसने बता दिया कि इलाहाबाद से मँगाया हुआ चोक-वायर इस मॉडल का नहीं हैं इसलिए नहीं लग सकता। फिर एक विचित्र जुगाड़ लगाने का काम शुरू हुआ। चोक वायर के दोनो सिरों पर घुंडियाँ होती हैं। एक सिरा दाहिनी हैंडिल के पास बने लीवर के खाँचे में फिट होता है और दूसरा सिरा कार्ब्यूरेटर में जाता है जहाँ एक स्प्रिंग के साथ जोड़कर इसे खास तरीके से फिट किया जाता है। नितिन मिस्त्री ने एक पुराने तार के घुंडी वाले सिरे को नीचे कार्ब्यूरेटर में तो फिट कर दिया लेकिन दूसरे सिरे को उसके सही रूट से हैंडिल तक ले जाने के बजाय सीट के नीचे से दाहिनी ओर बाहर निकाल दिया और उसमें एक छल्ला बना दिया। इस प्रकार चोक लेने के लिए सीट के नीचे छिपे छल्ले को बाहर निकालकर उसमें उंगली फसाते हुए जोर से खींचना होता था और फिर इसी स्थिति में किक मारना होता था।

जुगाड़ वाला चोक लगवाकर हम घर आये। लेकिन इसमें एक बड़ी खामी रह गयी थी। छल्ला पकड़कर जोर से खींचने पर चोक लेने की प्रक्रिया तो पूरी हो गयी लेकिन छोड़ने पर तार ठीक से वापस नहीं हो पा रहा था। नतीजा यह हुआ कि एक बार चोक में ही तार अटका रह गया और मेरे मालिक मुझे चोक में ही हाँकते रहे। अलस्सुबह जब पहली किक में ही मैं भरभराकर स्टार्ट हो गया तो इन्हें कुछ संदेह तो हुआ लेकिन एक दो बार उस तार की पूँछ उल्टा घुसेड़ने के अलावा ये कुछ न कर सके। इनका संदेह यकीन में तब बदला जब मेरी टंकी का पेट्रोल सम्भावित समय से बहुत पहले ही खत्म हो गया। मुझे एक बार फिर उसी नितिन के पास जाना पड़ा। उसने ढ‌क्‌कन खोलकर फँसा हुआ तार छुड़ा दिया और तार को ‘आहिस्ता खींचने’ की ट्रेनिंग देकर चलता कर दिया।

अब दो-चार दिन के अभ्यास से काम आसान होता गया और जुगाड़ चल निकला। लेकिन एक दूसरी समस्या तैयार खड़ी थी।  अचानक क्लच वायर की घुंडी भी तीन-चार साल की सेवा देकर चल बसी। गनीमत थी कि यह दुर्घटना घर पर ही हुई, इसलिए मुझे ठेलकर चलाने की जरुरत नहीं पड़ी। वैसे तो नया क्लच वायर डालने में पाँच से दस मिनट ही लगते हैं लेकिन मिस्त्री की तलाश में ही तीन दिन लग गये। मुझको बिना क्लच के स्टार्ट करके दुकान तक ले जाना संभव नहीं था। इन्होंने नितिन मिस्त्री को फोन मिलाया तो उसने असमर्थता जताते हुए ‘ऑउट ऑफ़ स्टेशन’ होने की बात बतायी। दूसरी कई दुकानों पर संपर्क किया गया तो सबने कहा कि दुकान छोड़कर नहीं जाएंगे। गाड़ी यहीं लाइए, यह भी कि गाड़ी देखकर ही बता पाएंगे कि काम हो पाएगा कि नहीं। रोज़ शाम को ये घर आते और अपनी असफलता की कहानी मालकिन को सुनाते। मैं  उत्सुकता पूर्वक रोज किसी मिस्त्री की प्रतीक्षा करता रहा।

अंततः इन्होंने विश्वविद्यालय के इंजीनियर साहब को, जो यहाँ का स्थानीय निवासी ही हैं, मेरी समस्या बताकर एक मिस्त्री का जुगाड़ करने का अनुरोध किया। उन्होंने विश्वास दिलाया कि बहुत जल्द मेरा काम हो जाएगा। दो-दिन और बीते तब अचानक इनके ऑफ़िस का एक कर्मचारी एक मिस्त्री को लेकर आया और उसने दस मिनट में एक क्लच वायर फिट कर दिया। इलाहाबाद से आया क्लच-वायर का केबल पड़ा रह गया। इन्होंने उस मिस्त्री से अनुरोध किया कि यदि हो सके तो चोक वायर को उसके सही स्थान पर फिट कर दो। इसपर उसने कहा कि किसी दिन फुर्सत से गाड़ी दुकान पर भेज दीजिएगा। ठीक करा दूँगा।

अगले इतवार को इन्होंने स्वयं उसकी दुकान पर जाकर चोक वायर डलवाने का निश्चय किया। लेकिन जब इन्होंने मोबाइल पर आने की अनुमति माँगी तो उसने टरकाते हुए कहा कि आज वह मिस्त्री आया ही नहीं है जो इस काम का एक्सपर्ट है।

इतना सुनने के बाद कोई भी झुँझलाकर सिर पीट लेता। लेकिन दाद देनी पड़ेगी इनके धैर्य की और काम पूरा कराने की जिद्दी धुन की। ये चोक वायर की केबिल डिक्की में डाल मुझे लेकर शहर की ओर निकल पड़े। पूछते-पू्छते बजाज कंपनी की अधिकृत वर्कशॉप पर जा पहुँचे। वही वर्कशॉप जहाँ से बहुत पहले मुझे बैरंग लौटाया जा चुका था। उसबार इनके चपरासी ने मुझे वहाँ ले जाकर सर्विसिंग कराने की असफल कोशिश की थी। तब किसी मिस्त्री ने मुझे घास नहीं डाली थी। कहते थे कि इस शहर में यह गाड़ी है ही नहीं इसलिए हम इसका स्पेयर पार्ट नहीं रखते। कंपनी के नियमों के अनुसार हम बाहर से मँगाकर कोई स्पेयरपार्ट डाल भी नहीं सकते।

इस बार भी यही टका सा जवाब इन्हें मिला। लेकिन इन्होंने मैनेजर से बहस करनी शुरू की। बोले- यदि बजाज कंपनी ने मुझे यह स्कूटर बेचा है और आपको सर्विस सेंटर चलाने का लाइसेंस दिया है तो आपको इसे ठीक करना ही चाहिए…। यह कैसे होगा यह आप जानिए, लेकिन आप बिना सर्विस दिए लौटा नहीं सकते…। मैं इसके लिए ‘राहुल बजाज’ को भी एप्रोच कर सकता हूँ…। आपकी कम्पलेंण्ट करके कुछ नुकसान तो करा ही सकता हूँ। आप अपने उत्तरदायित्व से भाग नहीं सकते… कुछ तो संवेदनशील होना सीखिए आप लोग…  आदि-आदि। मैनेजर भौचक होकर देख रहा था। ...फिर इनका पूरा परिचय पूछने लगा।

एक मिस्त्री ने इनको किनारे ले जाकर प्रस्ताव रखा कि सामने जो प्राइवेट मिस्त्री ने दुकान खोल रखी है वह स्कूटर का स्पेशलिस्ट  है। मैं उससे बोल देता हूँ कि आपका चोक वायर डाल दे। लेकिन इन्होंने ठान लिया था कि काम यहीं से कराकर जाना है। अब और भटकने को तैयार नहीं थे ये। इनकी मंशा भाँपकर वहाँ सबने आपस में बात की और भीतर काम कर रहे एक मिस्त्री को बुलाया गया। उस मिस्त्री ने मुझे देखकर पहचान लिया। उसी ने पिछली बार मुझे छू-छाकर छोड़ दिया था। लेकिन इस बार उसे मैनेजर द्वारा समझाया गया कि काम करना ही है, चाहे जैसे हो। जनार्दन मिस्त्री ने बेमन से तैयार होते हुए आखिरी दाँव चला। साहब जी, इसे छोड़कर जाना पड़ेगा। तीन-चार घण्टे लगेंगे। न हो तो कल सुबह लेकर आ जाओ।

लेकिन ये टस से मस न हुए। बोले- आज मेरी छुट्टी है। मैं पूरा दिन यहीं बैठने को तैयार हूँ। बस अब आगे के लिए नहीं टाल सकता। देखते-देखते सभी मिस्त्री वहाँ से चले गये, एक आदमी दुकान का शटर गिराने लगा। इन्होंने पूछा तो बताया गया कि लंच ब्रेक हो गया है अब तीन बजे से काम शुरू होगा। ये अड़े रहे कि मैं काम पूरा कराकर ही जाऊँगा, आपलोग लंच करके आइए। इसपर उस मिस्त्री ने मुझे स्टैंड से उतारा और भीतर की ओर लेकर चला गया। इनको पिछले दरवाजे से आने के लिए कह दिया।

जब ये पिछले दरवाजे से भीतरी अहाते में पहुँचे तो जनार्दन मिस्त्री अपना टिफिन समाप्त करने वाला था। हाथ धोकर उसने मेरी डिक्की से केबल निकाला, दोनो सिरों की घुंडियों का मुआइना किया और इंजन का ढक्कन उतारकर पुरानी केबल के उपरी सिरे से नयी केबल का निचला सिरा एक पतले तार से बाँध दिया। फिर पुरानी केबल के निचले सिरे को धीरे-धीरे खींचकर बाहर निकालने लगा। इस प्रकार दो-तीन मिनट में ही पुरानी केबल का स्थान नयी केबल ने ले लिया। केबल के भीतर दौड़ रहे चोक-वायर के दोनो सिरों को उनके जायज स्थानों में फिट करने में पाँच मिनट और लगे। इस प्रकार पूरा काम पंद्रह मिनट का ही निकला।

मेरे मालिक इस टुच्चे से काम पर इतना समय और दौड़-धूप करने के बाद मन ही मन कुढ़ तो रहे ही थे लेकिन अंततः मिली अपनी सफलता पर प्रसन्न भी हो गये थे। इन्होंने उस मिस्त्री को पचास रूपये देने का मन बनाया था, लेकिन देने से पहले आदतन उससे ही पूछ लिया। पहले तो उसने संकोच किया लेकिन जब इन्होंने कहा कि ‘काम मेरे मनमाफ़िक और दाम तुम्हारी इच्छानुसार’ तो उसने अपनी फीस माँगी- 20/- रूपये।

प्रस्तुति : सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

स्कूटर बोले तो घुर्र.. घुर्र.. घुर्र.. टींऽऽऽ

 

hamara-bajajयूँ तो मेरे मालिक आजकल बहुत परेशान हैं लेकिन मुझे पता है कि कुछ ही दिनों में समस्या का समाधान हो ही जाएगा। चूँकि चालू परेशानी का कारण मैं बना हुआ हूँ इसलिए मुझे थोड़ी सफाई देने की – या कहें कि बतकही करने की – तलब महसूस हो रही है। दरअसल पहली बार मुझे अपने भाग्य पर बहुत कोफ़्त हो रही है। मेरी तबीयत थोड़ी सी ही नासाज़ है लेकिन आजकल मैं ऐसे विचित्र स्थान पर ला दिया गया हूँ कि यहाँ साधारण सी गड़बड़ी की दवा करने वाले भी नहीं मिल पा रहे हैं। यहाँ कुछ ऐसे नीम-हकीमों से मेरा पाला पड़ा है कि उन्होंने मेरी बीमारी ठीक करने को कौन कहे मेरा हुलिया ही बिगाड़ दिया। अपनी विचित्र स्थिति पर चिंतन करता हूँ तो मन बहुत दूर तक सोचने लगता है।

क्या आपने कभी सुना है कि देवाधिदेव महादेव को नंदी ‘भाई’ से कोई परेशानी हुई हो? क्या छोटे उस्ताद मूषक राज ने कभी भारी-भरकम गणेश जी को पैदल चलने पर मजबूर किया? कार्तिकेय जी से रेस हुई तो कैसे उसने बुद्धि के बल से जीत दर्ज कर ली। घर-घर में धन-संपत्ति का डिस्ट्रीब्यूशन करने में घँणी बिजी रहने वाली लक्ष्मी माता को भी क्या उल्लू राजा ने कभी धोखा दिया? लक्ष्मी जी को चंचला की उपाधि दिलाने में निश्चित रूप से उसकी मेहनत, लगन व परिश्रम का हाथ रहा होगा। विद्या की देवी सरस्वती जी को भी हंस की सवारी में कभी रुकावट का सामना नहीं करना पड़ा होगा। कम से कम मैंने तो नहीं सुना है। सभी देवताओं में बड़े विष्णु भगवान को देखिए। पक्षीराज गरुण की सेवाओं के प्रताप से ही उनके यत्र-तत्र सर्वत्र पाये जाने की बात प्रचलित है। यह सब कहने का मतलब यह है है कि यदि काम लायक सवारी न हो तो बड़े से बड़ा आदमी भी घोर संकट में पड़ जाता है।

रामचंद्र जी को वनवास में सबसे अधिक तकलीफ़ सवारी के अभाव के कारण ही उठानी पड़ी थी। बेचारे पैदल होने के कारण ही मारीच के पीछे भागते रहे और उधर रावण उड़नखटोले पर सीता मैया को ले उड़ा। उनके पास भी अच्छी सवारी रहती तो यह दुर्घटना नहीं हो पाती। इस कलयुग में तो एक से एक अच्छी सवारियों की ईजाद मनुष्यों ने कर ली है। जितना बड़ा आदमी उतनी बड़ी सवारी। जानवरों की सवारी छोड़कर अब मनुष्य साइकिल से लेकर हवाई जहाज तक की कल-पुर्जे वाली सवारियाँ  अपना चुका है। इस परिवर्तन का एक प्रभाव यह है कि अब सवारियाँ अपने मालिक की इच्छानुसार सेवाएँ तो दे रही हैं लेकिन मनुष्य अब बिना सवारी के एक कदम भी चलने लायक नहीं रह गया है। सभी कोई न कोई सवारी गाँठने के चक्कर में ही पड़े रहते हैं।

मैंने भी अपने मालिक की सेवा में यथा सामर्थ्य कभी कोई कसर नहीं रखी। मैं हूँ तो दो पहिए का एक अदना सा स्कूटर लेकिन मुझमें कुछ तो ऐसा खास है कि नयी चमचमाती कार आने के बाद भी मेरा महत्व कम नहीं हुआ। किसी ने एक बार मेरे स्वामी को सलाह दी कि अब ‘फोर व्हीलर’ अफ़ोर्ड कर सकते हैं तो इस फटफटिया को निकाल दीजिए। इसपर उन्हे रहीम का दोहा सुनना पड़ा – “रहिमन देखि बड़ेन को लघु न दीजिए डारि”। यह सुनकर मेरा मन बल्लियों उछल पड़ा था। वैसे भी जब बैंक से लोन लेकर मुझे खरीदा गया था उस समय इनके पास एक मारुती कार थी; लेकिन घर से बाहर बाजार तक जाने, परचून की दुकान से लेकर सब्जी आदि खरीदने और स्टेडियम जाकर खेल-कूद में पसीना बहाने तक के काम में मेरा विकल्प वह खर्चीली कार नहीं बन सकती थी। जितना समय उसे गैरेज़ से निकालने व रखने में लगता उतने समय में मैं बाजार जाकर लौट भी आता।

मुझे कभी लम्बी दूरी की यात्रा अपने पहियों से नहीं करनी पड़ी। जब भी इनका कहीं तबादला हुआ मुझे ट्रक पर लादकर नयी जगह पर लाया गया। इस उठा-पटक में मुझे कई बार खरोंचे भी आयीं। मुझे याद है अबसे नौ साल पहले अपने नये नवेले रूप पर आत्ममुग्ध हो जब मैं शान से चलता था तो सबकी निगाहें एक बार मेरी ओर बरबस खिंची चली आती थीं। लोग मेरे सीने पर ‘बजाज’ का लोगो देखते तो हैरत से मेरा नाम पढ़ते। ‘लीजेंड’…? यह मॉडेल तो एक बार फेल हो गया था। फिर फोर-स्ट्रोक में दुबारा लांच कर दिया गया? एवरेज क्या है इसकी? ये सकुचाते हुए बताते कि चालीस-पैंतालीस तक जाता है; इन्हें पता होता कि भीड़-भाड़ भरी बाजार में ही चलने के कारण मैं ज्यादा माइलेज कभी नहीं दे पाऊँगा।

शान की सवारी…फिर ये मेरी उपयोगिता के सौ-सौ उदाहरण गिनाते। बाजार से चाहे जितना भी सामान खरीद लिया गया हो, उसे ढोने के लिए मैं हमेशा तैयार रहता हूँ। धोने-पोंछने और मेंटिनेन्स में भी कोई खास मेहनत नहीं है। ट्रबुल-फ्री गाड़ी है। केयर-फ्री ड्रायविंग है। आगे की डीक्की और डिक्की व सीट के बीच की खुली जगह में ढेर सारा सामान आसानी से रखकर चला आता है। सीट के आगे खड़े होकर इनके दोनो बच्चों ने बारी-बारी से मेरी सवारी खूब इन्ज्वॉय किया है। कभी-कभार तो मालकिन भी पीछे बैठकर इनका कंधा पकड़े पीठ से सटकर चलना ज्यादा पसंद करती हैं। मैंने इन लोगों को आपस में बात करते सुना है कि कार की ‘स्प्लिट सीट’ में वह आनंद कहाँ…। इश्किया सुना तो और भी बहुत कुछ है लेकिन वो मैं नहीं बताने वाला…!

फिर भी जब लोग इनसे पूछते हैं कि इस महंगाई के जमाने में तेल की कीमत इतनी बढ़ गयी है तब भी आप एक लीटर में सौ-सौ किमी. तक चलने वाली बाइक्‍स के बजाय इस बजाज के थकेले स्कूटर को क्यों ढो रहें है; तो मेरा कलेजा धक्क से रह जाता है। डरता हूँ कि जाने कब ये इस मतलबी दुनिया की बातों में आ जाँय; इनका मन मुझसे फिर जाय और मेरी छुट्टी हो ले। वर्धा में आकर यह संकट और गहरा होता जा रहा है, मेरा भय घनीभूत होकर मेरी साँसे चोक करने लगा है। ‘चोक’ से मुझे याद आया कि मेरी इस दुरवस्था का तात्कालिक कारण यह चोक ही बना है।

हुआ यह कि नौ-दस साल की अहर्निश सेवा के बाद मेरा चोक खींचने वाले तार की घुंडी एक दिन टूट गयी। इन्होंने आदतन अपने चपरासी को मार्केट भेजा कि दूसरा नया ‘चोक-वायर’ डलवा लाये। काफी चक्कर लगाकर हम और चपरासी दोनो लौट आये। पूरे शहर में कोई मिस्त्री ऐसा नहीं मिला जो मुझे छूने के लिए भी तैयार हो। यह सुनकर इन्हें तो विश्वास ही नहीं हुआ। ये चपरासी पर बिगड़ पड़े कि वह कामचोर है, कहीं गया नहीं होगा, एक छोटा सा काम भी नहीं कर सकता। इलाहाबाद में ‘सुदेश’ था तो चुटकी बजाते ऐसा कोई भी काम कर लाता था। अब मैं ठहरा एक बेजुबान सेवक। चाहकर भी यह नहीं बता सकता था कि चपरासी की कोई गलती नहीं है; और इलाहाबाद में सुदेश चुटकी में काम इसलिए पूरा कर देता था कि कचहरी में स्थित आपके ऑफिस से बाहर निकलते ही लाइन से मिस्त्री और सर्विसिंग की दुकाने सजी रहती थीं। एक से एक हुनरमंद मिस्त्री बजाज के स्पेशलिस्ट थे। यहाँ वर्धा में न तो सड़कों पर कोई बजाज का स्कूटर दिखता है और न ही दुकानों पर कोई स्पेयर पार्ट मिलता है। 

मुझे पता चला है कि है कि वर्धा का यह इलाका सेठ जमनालाल बजाज जी का मूल स्थान रहा है। यहाँ की अधिकांश जमीन उनकी मिल्कियत रही है। गांधी जी ने जब साबरमती आश्रम इस संकल्प के साथ छोड़ दिया कि अब आजादी मिले बिना नहीं लौटना है तो जमनालाल जी ने उन्हें वर्धा आमंत्रित कर सेगाँव नामक गाँव में उन्हें आश्रम खोलने के लिए पर्याप्त जमीन दे दी और इस प्रकार प्रसिद्ध ‘सेवाग्राम आश्रम’ की नींव पड़ी। विडंबना देखिए कि उसी बजाज परिवार के उद्योग से जन्म लेकर मैं सुदूर पूर्वी उत्तर प्रदेश में सेवा के लिए धरती पर उतारा गया और प्रसन्नता पूर्वक घूमते-घामते वर्धा आ जाने के बाद मेरी देखभाल को एक अदद काबिल मिस्त्री नहीं मिल रहा है।

मैंने यह भी सुना है कि कुटीर उद्योग के प्रबल पक्षधर गांधी जी की महिमा से इस क्षेत्र को बड़े उद्योग लगाने से प्रतिबंधित कर दिया गया है और यहाँ का आर्थिक विकास अनुर्वर जमीन में कपास की खेती करने वाले किसानों के भरोसे है जो प्रकृति की मार खाते हुए खुद पर भरोसा खोकर आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाते हैं।

ओह, मैं अपनी राम कहानी सुनाते-सुनाते विषयांतर कर बैठा…। क्या करूँ, सोचते-सोचते मन भारी हो गया है।

हाँ तो, …चपरासी को ‘अयोग्य’ और ‘नकारा’ करार देने के बाद इन्होंने मेरी हालत स्वयं सुधरवाने का निश्चय किया। अगले दिन मुझे किसी तरह स्टार्ट करके स्टेडियम तक ले गये। वहाँ इनके साथ बैडमिंटन खेलने वाले अनेक स्थानीय लोग थे। खेल के बाद जब चलने को हुए तो इन्होंने मेरे सामने ही इन लोगों से मेरी समस्या बतायी। सबने सहानुभूति पूर्वक ग़ौर से सुना। फिर ये लोग आपस में मराठी में एक दूसरे से बात करने लगे। मैंने अनुमान किया कि सभी किसी न किसी मिस्त्री को जानते होंगे; इसलिए आपस में यह विचार-विमर्श कर रहे हैं कि कौन सा मिस्त्री सबसे अच्छा है, उसी को ‘रेफ़र’ किया जाय। बाहर से आये  हुए व शहर से अन्जान त्रिपाठी जी की मदद करने को सभी आगे आना चाहते होंगे शायद…। ‘शायद’ इसलिए कि इनकी बातचीत का ठीक-ठीक अर्थ तो ये भी नहीं लगा पा रहे थे।

तभी एक हँसमुख डॉक्टर साहब ने मुस्कराते हुए कहा- “मुझे इसका बहुत अच्छा अनुभव है। आपकी समस्या का जो पक्का समाधान है वह मैं बताता हूँ…। ऐसा कीजिए इसे जल्दी से जल्दी बेंच दीजिए…। जो भी दो-तीन हजार मिल जाय उसे लेकर खुश हो जाइए और मेरी तरह शेल्फ़-स्टार्ट वाली स्कूटी ले लीजिए…” वहाँ उपस्थित सभी लोग ठठाकर हँस पड़े, इनका चेहरा उतर गया और मेरे पहियों के नीचे से जमीन खिसक गयी…।

(पोस्ट लम्बी होती जा रही है और मेरी कहानी का चरम अभी आना बाकी है इसलिए अभी के लिए इतना ही…)

प्रस्तुति: सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी

समय: जब ‘इनके’ भगीरथ प्रयत्न के बाद मेरा स्वास्थ्य सुधरने की दहलीज़ पर है और पूरा देश सचिन तेंदुलकर के पचासवें शतक के जश्न में डूबकर दक्षिण अफ़्रीका के हाथों हुई धुनाई और पारी की हार को भूल जाने का प्रयास कर रहा है।

स्थान: वहीं जहाँ गांधी जी के ‘बुनियादी तालीम प्रकल्प’ का सूत्र पकड़कर दुनिया का एक मात्र अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय अंगड़ाई ले रहा है।

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

पढ़ना, पढ़वाना और लिखना साथ-साथ…

 

wife-scoldआजकल मुझे डाँटने वालों की फ़ेहरिश्त लम्बी होती जा रही है। प्रदेश सरकार की नौकरी से छुट्टी लेकर घर से हजार किलोमीटर दूर आ गया और केंद्रीय विश्वविद्यालय में काम शुरू किया तो माता-पिता ही नाराज हो गये। भाई-बंधु, दोस्त-मित्र और रिश्तेदार भी फोन पर ताने मारने लगे कि क्या मिलेगा यहाँ जो वहाँ नहीं था। ऊल-जलूल मुद्दों को लेकर सुर्खियों में छाये रहने वाले एक विश्वविद्यालय से जुड़कर ऐसा क्या ‘व्यक्तित्व विकास’ कर लोगे?

बच्चे और पत्नी तो जैसे एक बियाबान जंगल में फँस जाने का कष्ट महसूस करने लगे हैं। …ना कोई पड़ोस, ना कोई रिश्तेदार और ना कोई घूमने –फिरने लायक सहज सुलभ स्थान। …कहीं जाना हो तो दूरी इतनी अधिक की कार से नहीं जा सकते। रेलगाड़ी में टिकट डेढ़-दो महीना पहले बुक कराने पर भी कन्फ़र्म नहीं मिलता। शादी-ब्याह के निमंत्रण धरे रह जाते हैं और सफाई देने को शब्द नहीं मिलते। किसने कहा था आपसे यह वनवास मोल लेने को..?

लेकिन मैं खुद को समझाता रहता हूँ। प्रदेश सरकार की नौकरी में ही क्या क्वालिटी ऑफ़ लाइफ़ थी। दिनभर बैल की तरह जुते रहो। चोरी, बेईमानी, मक्कारी, धुर्तता धूर्तता, शोषण, अनाचार, अक्षमता, लापरवाही, संत्राष संत्रास, दुख, विपत्ति, कलुष, अत्याचार, बेचारगी, असहायता इत्यादि के असंख्य उदाहरण  आँखों के सामने गुजरते रहते और हम असहाय से उन्हें देखते रहते। सिस्टम का अंग होकर भी बहुत कुछ न कर पाने का मलाल सालता रहता और मन उद्विग्न हो उठता। बहुत हुआ तो सत्यार्थमित्र  के इन पृष्ठों पर अपने मन की बात पोस्ट कर दी। लेकिन उसमें भी यह सावधानी बरतनी होती कि सिस्टम के आकाओं को कुछ बुरा न लग जाय; नहीं तो लेने के देने पड़ जाँय। कम से कम यहाँ वह सब आँखों से ओझल तो हो गया है। यहाँ आकर शांति से अपने मन का काम करने का अवसर तो है।

हिंदी साहित्य की विविध विधाओं में जो कुछ भी अच्छा लिखा गया है; अर्थात्  क्लासिक साहित्य के स्थापित रचनाकारों की लेखनी से निसृत शब्दों का अनमोल खजाना, उसे हिंदीसमय[डॉट]कॉम पर अपलोड करने का जो सुख मुझे यहाँ मिल रहा है वह पहले कहाँ सुलभ था। प्रिंट में उपलब्ध उत्कृष्ट सामग्री को यूनीकोड में बदलकर इंटरनेट पर पठनीय रूप रंग में परोसने की प्रक्रिया में उन्हें पढ़कर जो नैसर्गिक सुख अपने मन-मस्तिष्क को मिलता है वह  पहले कहाँ था?

कबीर ग्रंथावली के समस्त दोहे और पद अपलोड हुए तो इनके भक्तिरस और दर्शन में डूबने के साथ-साथ इसके संपादक डॉ. श्याम सुंदर दास की लिखी प्रस्तावना से भक्तिकाल के संबंध में बहुत कुछ जानने को मिला-

“…कबीर के जन्म के समय हिंदू जाति की यही दशा हो रही थी। वह समय और परिस्थिति अनीश्वरवाद के लिए बहुत ही अनुकूल थी, यदि उसकी लहर चल पड़ती तो उसे रोकना बहुत ही कठिन हो जाता। परंतु कबीर ने बड़े ही कौशल से इस अवसर से लाभ उठाकर जनता को भक्तिमार्ग की ओर प्रवृत्त किया और भक्तिभाव का प्रचार किया। प्रत्येक प्रकार की भक्ति के लिए जनता इस समय तैयार नहीं थी।

मूर्तियों की अशक्तता वि.सं. 1081 में बड़ी स्पष्टता से प्रगट हो चुकी थी जब कि मुहम्मद गजनवी ने आत्मरक्षा से विरत, हाथ पर हाथ रखकर बैठे हुए श्रद्धालुओं को देखते-देखते सोमनाथ का मंदिर नष्ट करके उनमें से हजारों को तलवार के घाट उतारा था। गजेंद्र की एक ही टेर सुनकर दौड़ आने वाले और ग्राह से उसकी रक्षा करने वाले सगुण भगवान जनता के घोर संकटकाल में भी उसकी रक्षा के लिए आते हुए न दिखाई दिए। अतएव उनकी ओर जनता को सहसा प्रवृत्त कर सकना असंभव था। पंढरपुर के भक्तशिरोमणि नामदेव की सगुण भक्ति जनता को आकृष्ट न कर सकी, लोगों ने उनका वैसा अनुकरण न किया जैसा आगे चलकर कबीर का किया; और अंत में उन्हें भी ज्ञानाश्रित निर्गुण भक्ति की ओर झुकना पड़ा।…”

मोहन राकेश का लिखा पहले बहुत कम पढ़ पाया था लेकिन जब उनकी रचनाओं का संचयन (कहानी, डायरी, यात्रा-वृत्त, उपन्यास, निबंध आदि) अपलोड करना हुआ तो बीच-बीच में काम रोककर उनकी शब्दों की सहज जादूगरी में डूबता चला जाता था। एक बानगी देखिए-

“पत्रिका के कार्यालय में हम चार सहायक सम्पादक थे। एक ही बड़े से कमरे में पार्टीशन के एक तरफ़ प्रधान सम्पादक बाल भास्कर बैठता था और दूसरी तरफ़ हम चार सहायक सम्पादक बैठते थे। हम चारों में भी एक प्रधान था जिसे वहाँ काम करते चार साल हो चुके थे। एक ही लम्बी डेस्क के साथ चार कुरसियों पर हम लोग बैठते थे। छोटे प्रधान की कुरसी डेस्क के सिरे पर खिडक़ी के पास थी और हम तीनों की कुरसियाँ उसके बाद वेतन के क्रम से लगी थीं। छोटे प्रधान उर्फ बड़े सहायक सुरेश का वेतन दो सौ रुपये था। उसके बाद लक्ष्मीनारायण था जिसे पौने दो सौ मिलते थे। तीसरे नम्बर पर मेरी एक सौ साठ वाली कुरसी थी और चौथे नम्बर पर डेढ़ सौ वाली कुरसी पर मनोहर बत्रा बैठता था। छोटा प्रधान सबसे ज़्यादा काम करता था, क्योंकि प्रूफ़ देखने के अलावा उसे हम सब पर नज़र भी रखनी होती थी और जब सम्पादक के कमरे में घंटी बजती, तो उठकर आदेश लेने के लिए भी उसी को जाना होता था। वह दुबला-पतला हड्डियों के ढाँचे जैसा आदमी था, जिसे देखकर यह अन्देशा होता था कि बार-बार उठने-बैठने में उसकी टाँगें न चटक जाएँ। सम्पादक को हममें से किसी से भी बात करनी होती, तो पहले उसी की बुलाहट होती थी और वह वापस आकर कारखाने के फ़ोरमैन की तरह हमें आदेश देता था, “नम्बर तीन, उधर जाओ। साहब याद कर रहे हैं।” एक बार बत्रा ने उससे कह दिया कि वह साहब के लिए चपरासी का काम क्यों करता है, तो वह सप्ताह-भर बत्रा से अपने प्रूफ़ दिखाता रहा था।”

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हुए देश के विभाजन के ऊपर लगभग सभी भारतीय भाषाओं में बहुत सी मार्मिक कहानियाँ लिखी गयी हैं। इनका हिंदी में अनूदित संचयन भी हिंदी-समय पर उपलब्ध है। इन कहानियों को पढ़कर हम सहसा उस दौर में पहुँच जाते हैं जिसने आज की अनेक राष्ट्रीय समस्याओं को जन्म दिया है। किसी भी साहित्य प्रेमी या समाज के अध्येता के लिए इन ८६ कहानियों से दो-चार होना उपयोगी ही नहीं अपितु अनिवार्य हैं।

अज्ञेय जी का एक लेख ‘सन्नाटा’ नाम से इंटर के कोर्स में पढ़ रखा था। ‘शेखर एक जीवनी’ और ‘नदी के द्वीप’ जैसे उपन्यास यूनिवर्सिटी के समय में पढ़ रखे थे लेकिन अभी जब उनके विशाल रचना संसार से परिचित हुआ और विविध विधाओं में उनके लेखन को अपलोड करते हुए दुरूह विषयों पर उनकी गहरी समझ और सटीक भाषा से प्रभावित हुआ तो लगा कि सब काम छोड़कर उन्हें ही समग्रता से पढ़ लिया जाय तो जीवन सफल हो जाय। मेरी बात मानने के लिए उनका संक्षिप्त जीवन वृत्त ही पढ़ लेना पर्याप्त होगा। दो-चार दिनों के भीतर सम्पूर्ण सामग्री हिंदी-समय पर होगी।

और हाँ,  अमीर खुसरों की मुकरियाँ पढ़कर और सुनाकर जो मुस्कान फैलती है उसका लोभसंवरण किया ही नहीं जा सकता। अब कहाँ तक गिनाऊँ। बहुत बड़ा भंडार है जी…।

इन सब सामग्रियों के बीच डूबकर मुझे इस बात का ध्यान ही नहीं रहा कि सत्यार्थमित्र पर अंतिम पोस्ट डाले हुए तीन सप्ताह निकल चुके हैं और हिंदी ब्लॉग जगत में विचरण का मेरा प्रिय कार्य प्रायः बंद हो चला है। मेरी तंद्रा आज तब टूटी जब घर में ही डाँट-सी सुननी पड़ी।

“आप को क्या हो गया है जी…? देख रही हूँ कि आपने आजकल पोस्ट लिखना बंद ही कर दिया है। जिस ब्लॉगरी के कारण आप सबकुछ छोड़कर यहाँ आये वही भूल गये हैं। यह दिनभर दूसरों के पुराने लिखे में आँख फोड़ने से कोई मेडल नहीं मिलने वाला है। आपकी पहचान हिंदी ब्लॉगजगत से है। उसे छोड़कर आप ‘फ्रंटपेज’ खोले बैठे हैं। कौन जानता है कि आप यह सब कर रहे हैं? कोई क्रेडिट नहीं मिलने वाली।… यही चलता रहा तो …न घर के रहेंगे न घाट के”

मैंने यह समझाने की कोशिश की मैं इस घिसे-पिटे मुहावरे का ‘पात्र’ नहीं हूँ। अब तो कोई धोबी भी इसे नहीं पालता। बल्कि विद्यार्थी जीवन में पहले जो कुछ नहीं पढ़ पाया था उसे पढ़ रहा हूँ और दूसरों को पढ़वाने का उपक्रम भी कर रहा हूँ। इसी काम के लिए मुझे तनख्वाह मिलती है। वैसे भी नेट पर अपना लिखा कूड़ा पढ़वाने से बेहतर है कि दूसरे उत्कृष्ट जनों का लिखा श्रेष्ठ साहित्य नेट पर उपलब्ध कराऊँ।

“तो आपको यह नौकरी करने से कौन मना कर रहा है। इस ‘पुनीत कार्य’ को अपने ऑफिस तक ही रखिए। छुट्टी के दिन घर पर भी वही जोतते रहेंगे तो कुछ दिन में पागल हो जाएंगे। …और आपके दिमाग में जो कूड़ा ही भरा है तो उसे बाहर निकाल देना ही श्रेयस्कर है। उसी ने आपको यहाँ ला पटका है। आप अपनी पहचान खो देने के रास्ते पर क्यों बढ़ रहे हैं।”

मैने सोचा पूछ लूँ कि अपने ब्लॉग पर क्यों कई महीने बाद कल एक पोस्ट डाल पायी हो लेकिन चुप लगा गया। कारण यह था कि उनकी बातें कहीं न कहीं मुझे अंदर से सही लग रही थीं। अपनी आशंका दूर करने के लिए मैंने कुछ ब्लॉगर मित्रों से बात की तो सबने यही कहा कि कुछ न कुछ लिखते रहना तो अनिवार्य ही है। इसी से मन को शांति मिल सकती है।

अब मेरी दुविधा कुछ मिट चली है। अब काम का बँटवारा करूंगा। घर पर ब्लॉगरी और ऑफिस में हिंदी-समय पर अपलोडिंग। काम के घंटे निर्धारित करने होंगे। हिंदी साहित्य का क्षेत्र इतना विस्तृत तो है ही कि इसे कुछ दिनों के ताबड़तोड़ प्रयास से पार नहीं किया जा सकता। स्थिर गति से लम्बे समय तक लगना होगा इसलिए इस काम में रोचकता बनाये रखना जरूरी है। सिर पर लगातार लादे रखने से कहीं यह बोझ न बन जाय। अब होगा पढ़ना-पढ़वाना और लिखना साथ-साथ।

लीजिए इस राम कहानी में एक पोस्ट निकल आयी। अब ठेल ही देता हूँ…!!!

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)