हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

शनिवार, 28 मार्च 2009

वाह भोजपुरी... वाह!

 

हिन्दी और संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान, मनीषी, आचार्य और ग्रन्थकार पं. विद्या निवास मिश्र जी के सारस्वत जीवन पर ‘हिन्दुस्तानी’ त्रैमासिक का विशेषांक निकालने की तैयारी हिन्दुस्तानी एकेडेमी में की जा रही है। इसी सिलसिले में मुझे उनकी कुछ पुस्तकों को देखने का अवसर मिला।

भारतीय दर्शन, संस्कृति और लोकसाहित्य के प्रखर अध्येता और अप्रतिम उपासक श्री मिश्रजी अपने बारे में एक स्थान पर गर्व से स्वयं बताते हैं; “...वैदिक सूक्तों के गरिमामय उद्गम से लेकर लोकगीतों के महासागर तक जिस अविच्छिन्न प्रवाह की उपलब्धि होती है, उस भारतीय भावधारा का मैं स्नातक हूँ।”

यूँ तो उन्होंने भाषा, साहित्य, संस्कृति और समाज पर केन्द्रित विपुल मात्रा में शोधपरक लेखन किया है और विविध विषयों पर लिखे उनके ललित निबन्ध सर्वत्र प्रशंसित हुए हैं, लेकिन मैं यहाँ भोजपुरी लोकसंस्कृति का परिचय कराती उनकी पुस्तक वाचिक कविता : भोजपुरी का जिक्र करना चाहूंगा। इस पुस्तक ने मुझे इस प्रकार बाँध लिया कि कई जरूरी काम छोड़कर मैने इसे आद्योपान्त पढ़ डाला। अब इस अद्‌भुत सुख को आपसे बाँटने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ।वाचिक कविता भोजपुरी

पुस्तक वाचिक कविता: भोजपुरी
संपादक विद्यानिवास मिश्र
प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ (लोकोदय ग्रन्थमाला-६४१)
पता १८, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड
नई दिल्ली- ११००३२

इस पुस्तक की भूमिका में भोजपुरी माटी में पले-बढ़े श्री मिश्र जी ने लोकसाहित्य के शिल्प विधान पर एक गहन विश्लेषण प्रस्तुत किया है। जिनकी रुचि इसमें है वे पुस्तक खोजकर जरूर पढ़ें। मैं तो इस पुस्तक से आपको सीधे भोजपुरी माटी की सुगन्ध बिखेरती कुछ पारम्परिक रचनाओं का रसपान कराना चाहता हूँ।

कजली

रुनझुन खोलऽ ना हो केवड़िया, हम बिदेसवा ज‍इबो ना

जो मोरे सँइया तुहु ज‍इबऽ बिदेसवा, तू बिदेसवा ज‍इबऽ ना

हमरा बाबा के बोला दऽ, हम न‍इहरवा ज‍इबो ना

जो मोरी धनिया तुहु ज‍इबू न‍इहरवा, तू न‍इहरवा ज‍इबू ना

जतना लागल बा रुप‍इया ततना देके ज‍इहऽ ना

जो मोरे सँइया तुहु लेबऽ रुप‍इया, तू रुपइया लेबऽ ना

ज‍इसन बाबा घरवा रहलीं त‍इसन क‍इके ज‍इहऽ ना

[“रुनझुन (प्रिया, पत्नी)! दरवाजा खोलो, अब मैं विदेश जाऊँगा।” “मेरे प्रियतम! यदि तुम विदेश जाओगे तो मेरे पिताजी को बुला दो। मैं मायके चली जाऊँगी” “मेरी धनिया! यदि तुम्हें मायके जाना है तो (तुमपर) जितना रुपया खर्च हुआ है वह देकर ही जाना” “मेरे पति! यदि तुम रुपया (वापस) लेना चाहते हो तो मुझे वैसा ही वापस बना दो जैसी मैं अपने बाबा के घर पर थी”]

बेटी-विवाह (कन्यादान)

कवन गरहनवा बाबा साँझे जे लागे, कवन गरहनवा भिनुसार

कवन गरहनवा बाबा मड़वनि लागे, कब होइहें उगरह तोमार

चन्दर गरहनवा बेटी साँझे जे लागे, सुरुज गरहनवा भिनुसार

धिया गरहनवा बेटी मड़वनि लागे, कबहूँ न उगरह हमार

र‍उरा जे बाटे बाबा हंसराज घोड़वा सोनवे गढ़ावल चारो गोड़

ऊहे घोड़‍उआ बाबा धिया दान करबऽ, तब होइहें उगरह तोहार

बाभन काँपेला, माँड़ो काँपेला, काँपेला नगर के लोग

गोदी बिटिउआ लेले काँपेलें कवन बाबा, अब होइहें उगरह हमार

कथि बिना बाबा हो हुमियो ना होइहें, कथि बिना ज‍उरी न होइ

कथि बिना बाबा हो जग अन्हियारा कथि बिना धरम न होइ

घिव बिना बेटी हो हुमियो ना हो‍इहें, दूध बिना ज‍उरी न होइ

एक पुतर बिना जग अन्हियारा, धिया बिना धरम न होइ

[“बाबा! कौन ग्रहण साँझ को लगता है, कौन ग्रहण सुबह, कौन ग्रहण (विवाह) मण्डप में लगता है, (जिससे) तुम्हारा उग्रह कब होगा ?” “बेटी!चन्द्र ग्रहण साँझ को, सूर्य ग्रहण सुबह और पुत्री-ग्रहण मण्डप में लगता है, (जिससे) मेरा उग्रह कभी नहीं होगा।” “बाबा! आपके पास हंसराज घोड़ा है जिसके चारो पैर सोने से मढ़े हुए हैं। उसी घोड़े को कन्यादान में दे दीजिए (तो) आपका उग्रह हो जाएगा।” ब्राह्मण काँपता है, मण्डप काँपता है, नगर के लोग काँपते हैं, बेटी को गोद में बिठाए बाबा काँपते हैं (क्या) अब मेरा उग्रह होगा!” “बाबा! किसके बिना होम नहीं हो सकेगा, किसके बिना खीर नहीं बन सकेगी, किसके बिना दुनिया अन्धेरी होती है और किसके बिना धर्मपालन नहीं हो सकता?” “बेटी! घी के बिना होम व दूध के बिना खीर सम्भव नहीं और पुत्र के बिना दुनिया अन्धेरी होती है और पुत्री के बिना धर्म का पालन नहीं हो सकता।”]

इस पुस्तक में भोजपुरी लोकपरम्परा में रचे बसे अनेक विलक्षण गीतों को विविध श्रेणियों में बाँटकर सजोया गया है। इस विद्वान विभूति ने इन गीतों का अत्यन्त रसयुक्त और भावप्रवण हिन्दी अनुवाद भी कर दिया है जिससे भोजपुरी से अन्जान हिन्दी भाषी पाठक भी इसका रसास्वादन कर सकते हैं। श्रेणियों पर ध्यान दीजिए;

१.सुमिरल- मइया गीत, छठी मइया, पताती, संझा, बिरहा, सुमिरन की होली, सुमिरन का चैता, कजली, भजन, निरगुन, कन्हैया जागरण,

२.कहल- सोहर, खेलवना, नेवतन, सिन्दूर दान, सुहाग, जोग, झूमर, बहुरा गीत, हिन्डोला गीत, बेटी विदाई, जँतसार, मार्ग गीत, फगुई, कजली, होरी, बारहमासा, चैती, नेटुआ गीत, कँहार गीत, गोंड़ गीत,

३.बतियावल- जनेऊ, सोहर, कजली, बेटी विवाह, कन्यादान, विदाई, जँतसार, रोपनी गीत, सोहनी गीत, चइता

४.कथावल- सोहर, चैता, मार्गगीत, बारहमासा, कजरी, शिवविवाह, कलशगाँठ, बिरहा, रोपनी गीत,

इन श्रेणियों में जो अतुलित लोकरंग समाया हुआ है उसका रसास्वादन एक विलक्षण अनुभूति दे जाता है। पं.विद्यानिवास मिश्र जी की यह सुकृति अपनी माटी के प्रति अगाध श्रद्धा और सच्ची सेवाभावना और अपनी संकृति के प्रति उनकी निष्ठा की पुष्ट करती है।

सांस्कृतिक आदान प्रदान

vidyaniwas“...विलायती चीजों के आदान से मुझे विरोध नहीं है, बशर्ते कि  उतनी मात्रा में प्रदान करने की अपने में क्षमता भी हो। इस सिलसिले में मुझे काशी के एक व्युत्पन्न पंडित के बारे में सुनी कहानी याद आ रही है। उन पंडित के पास जर्मनी से कुछ विद्वान आये (शायद उन दिनों जो विद्वान संस्कृत सीखने आते थे, उनका घर जर्मनी ही मान लिया जाता था, खैर) और उनके पास टिक गये। स्वागत-सत्कार करते-करते पंडित जी को एक दिन सूझ आयी कि इन लोगों को भारतीय भोजन भारतीय ढंग से कराया जाये। सो वह इन्हें गंगा जी में नौका-विहार के लिए ले गये और गरमा-गरम कचालू बनवाकर भी लेते गये। नाव पर कचालू दोने में परसा गया, पंडित जी ने भर मुँह कचालू झोंक लिया, इसलिए उनकी देखादेखी जर्मन साहबों ने भी काफी कचालू एक साथ मुँह में डाला, और बस मुँह में जाने की देरी थी, लाल मिर्च का उनके संवेदनशील सुकंठ से संस्पर्श होते ही, वे नाच उठे और कोटपैंट डाले ही एकदम गंगा जी में कूद पडे। किसी तरह मल्लाहों ने उन्हें बचाया। पर इसके बाद उनका ‘अदर्शनं लोपः’ हो गया।”

दूसरे लोगों ने पंडित जी को ऐसी अभद्रता के लिए भलाबुरा कहा तो उधर से जवाब मिला, “...इन लोगें ने हमें अंडा-शराब जैसी महँगी और निशिद्ध चीजें खानी सिखलायीं तो ठीक और मैंने शुद्ध चरपरे भारतीय भोजन की दीक्षा एक दिन इन लोगों को देने की कोशिश की तो मैं अभद्र हो गया ?’’

...परन्तु मैं साहित्य में ऐसे आदान-प्रदान का पक्षपाती नहीं हूँ। सूफियों और वेदान्तियों के जैसे आदान-प्रदान का मैं स्वागत करने को तैयार हूँ, नहीं तो अपनी बपौती बची रहे, यही बहुत है।

विद्यानिवास मिश्र- ‘चितवन की छाँह’ में

यदि आपने पसन्द किया तो कुछ और रचनाएं आगे की कड़ियों में प्रस्तुत कर सकता हूँ।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

मंगलवार, 24 मार्च 2009

उफ्फ्‌ ये नर्वस नाइण्टीज़...

 

मेरी पिछली पोस्ट छपे दस दिन हो गये। यह सत्यार्थमित्र पर ९९वीं पोस्ट थी यह दे्खकर मेरा मन मुग्ध हो गया था। शतक से बस एक पोस्ट दूर था मैं। यानि अगली बार राइटर में ‘पब्लिश’ बटन दबाते ही मैं शतकवीर हो जाउंगा। सहसा हवा में बैट उठाकर पैबेलियन की ओर अभिवादन करते, फिर एक हाथ में हेलमेट और दूसरे में बल्ला पकड़े, बाँहें फैलाए आसमान की ओर देखकर किसी देवता को धन्यवाद देते सचिन का चेहरा मेरे मन की आँखों के आगे घूम गया।

nervous 90s

क्या यादगार क्षण होते हैं जब शतक जैसा एक मील का पत्थर पार किया जाता है। इसका मुझे प्रत्यक्ष अनुभव होने वाला था। मैने सोचना शुरू कर दिया कि इस नम्बर पर मैं कलमतोड़ लिखाई करूंगा। यादगार पोस्ट होगी। एक बार में ही समीर जी, ज्ञान जी, फुरसतिया जी, ये जी, वो जी, सबकी छुट्टी कर दूंगा। बस छा जाऊंगा। ...यह भी सोच डाला कि जल्दबाजी नहीं करूंगा। फुरसत में सोचकर बढ़िया से लिखूंगा।

आदमी अपनी शादी के समय जिस तरह की योजनाएं बनाता है, सबसे अच्छा कपड़ा लेकर, सबसे अच्छा केश-विन्यास (हेयर स्टाइल) बनाकर, इत्र-फुलेल, चमकते जूते, ताजा इश्तरी, गर्मियों में भी कोट और टाई, आदि से सजधजकर, सभी दोस्तों-मित्रों व रिश्तेदारों के बीच सजी धजी गाड़ी में राजकुमार जैसा दिखने की जैसी लालसा करता है वैसी ही कुछ हलचल मेरे मन में होने लगी। ऐसा मौका रोज-रोज थोड़े ही आता है...। ये बात अलग है कि नाच-कूदकर जब दूल्हा ससुर के दरवाजे पर बारात लिए पहुँचता है तबतक सबकुछ हड़बड़ी में बदल चुका होता है। मुहूर्त निकला जाता है।

विषय के चयन को लेकर मन्थन शुरू हुआ। होली के बीतने के बाद हँसी-ठट्ठा का माहौल थोड़ा बदल लेना चाहिए इसलिए कोई हल्का-फुल्का विषय नहीं चलेगा। राजनीति में उबाल आ तो रहा है लेकिन मुझे इसपर लिखना नहीं है। सरकारी नौकर जो ठहरा। साहित्य की रचना करूँ भी तो अनाधिकार चेष्टा होगी, क्योंकि मैंने साहित्य का विषय पढ़ा ही नहीं है। बड़ी से बड़ी कोशिश में भी औसत से भी कम दर्जे की कविता बना पाऊंगा। इस मुकाम पर ऐसा कैसे चल पाएगा? सामाजिक मुद्दों पर लिखना भी बहुत अच्छा रिस्पॉन्स नहीं देता। वही दस-बारह लोग जो हमें पहले से ही जानते हैं, यहाँ आकर कुछ टीप जाएंगे। ट्रैफिक बढ़ाने की ताकत इन मुद्दों में भी नहीं है।

तो क्या कुछ विवादित बात की जाय जिससे क‍इयों की सुग्राही भृकुटियों का तनाव हमारी ओर लक्षित हो जाय। कुछ लोग तो तैयार मिलेंगे ही बमचक के लिए...। 

लेकिन जूतम-पैजारियत की संभावनाओं वाला लेखन मुझे सीखना अभी बाकी है। सत्यार्थमित्र की इस संकल्पना का क्या होगा?

“हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।”

फिर क्या लिखें फड़कता हुआ...?

यही सोचते विचारते पूरा सप्ताह निकल गया। ऑ्फ़िस से घर, घर से ऑफिस आते-जाते, चिन्तन-मनन करते एक कालजयी रचना का शीर्षक तक नहीं सूझ सका। शिवकुमार जी से बात की तो बोले ठाकुर बाबा जैसा कुछ लिख मारिए। ...हुँह! मुझे किसी ‘जैसा’ तो लिखना ही नहीं है। मुझे तो बस अद्वितीय लिखना है। वह जो पिछली निन्यानबे पोस्टों में न रहा हो।

पत्नी को एक सप्ताह के लिए मायके जाना था तो बोलीं कि मेरे जाने से पहले शतक पूरा कर लेते। मैं था कि आइडिया ढूँढ नहीं पा रहा था। विदा लेते समय बोलीं,

“जा रही हूँ, ...आपकी पोस्ट वहीं पढूंगी। घर में अकेले रहिएगा। जी भर लिखिएगा और ब्लॉगरी करिएगा। ...कोई डिस्टर्ब नहीं करेगा।”

मैं झेंपने जैसा मुँह बनाकर भी भीतर से मुस्करा रहा था। बात तो सही थी। जितना चाहूँ कम्प्यूटर पर बैठूँ? कोई टोकने वाला नहीं। एक ब्लॉगर को और क्या चाहिए?

लेकिन चाह से सबकुछ तो नहीं हो सकता न...! कोई झन्नाटेदार आइटम दिमाग में उतरा ही नहीं। इसलिए सीपीयू का बटन ऑन करने में भी आलस्य लगने लगा। मैं टीवी पर वरुण गान्धी का दुस्साहसी भाषण सुनता रहा। चैनेल वालों की सनसनी खेज कवरेज देखता रहा जैसे मुम्बई पर हमले के वक्त देखता था। सोचने लगा कि चलो कम से कम एक नेता तो ऐसा ईमानदार निकला जो जैसा सोचता है वही बोल पड़ा। अन्दर सोचना कुछ, और बाहर बोलना कुछ तो आजकल नेताओं के फैशन की बात हो गयी है। ...लेकिन दिल की बात बोल के तो बन्दा फँस ही गया। तो ऐसे फँसे आदमी के बारे में क्या लिखा जाय?

इसी उधेड़ बुन मे नरभसा रहा था तभी अनूप जी ‘फुरसतिया’ हमारे तारणहार बनकर फोन से हाल-चाल लेने आ गये। उनका टेण्ट उखड़ने से थोड़ी मौज की हलचल दूसरे हल्कों में उठ गयी थी। उसी को समेटने के चक्कर में उन्होंने मुझे गुरुमन्त्र दे दिया कि जब ऐसी सोच हावी होने लगे कि बहुत कलमतोड़ लिखाई करनी है तो सावधान हो जाइए। झटपट एक घटिया पोस्ट लिख मारिए ताकि इस दलदल में धँसना न पड़े। ...यह भी कि घटिया लिखने के अनेक फायदों में से एक यह भी है कि उसके बाद सुधार और विकास की सम्भावना बढ़ जाती है। उन्होंने दो मजबूत सूत्र और बताए हैं:

1.अगर आप इस भ्रम का शिकार हैं कि दुनिया का खाना आपका ब्लाग पढ़े बिना हजम नहीं होगा तो आप अगली सांस लेने के पहले ब्लाग लिखना बंद कर दें। दिमाग खराब होने से बचाने का इसके अलावा कोई उपाय नहीं है।

2.जब आप अपने किसी विचार को बेवकूफी की बात समझकर लिखने से बचते हैं तो अगली पोस्ट तभी लिख पायेंगे जब आप उससे बड़ी बेवकूफी की बात को लिखने की हिम्मत जुटा सकेंगे।-(ब्लागिंग के सूत्र से)

फिर क्या था। मेरी ‘लिथार्जी’ खतम हो गयी। ...लेकिन कम्प्यूटर पर बैठना तबतक न हो पाता जबतक एक घटिया पोस्ट का विषय न मिल जाय। इसमें भी एक दिन लग गया। आखिरकार मैं अपने सपने की नश्वरता को पहचान कर वास्तविक धरातल पर लैंड कर गया। यह पोस्ट जबतक आपके सामने होगी तबतक मेरी धर्मपत्नी भी मायके से लौ्टकर यहाँ पहुँचने की राह में होंगी।

पुछल्ला: जब एक तस्वीर के जुगाड़ के लिए गूगल महराज से ईमेज सर्च करने के लिए nervous nineties टाइप करके चटका लगाया तो सबसे अधिक जो तस्वीरें आयीं वह उसी तेन्दुलकर की थीं जिसे दस दिन पहले ही मेरे मन की आँखों ने देखा था। आपभी आजमा कर देख लीजिए। मैं तो चला  फिरसे  आत्ममुग्ध होने। आप भी इस शतक का अपनी तरह से आनन्द उठाइए। नहीं तो मौज ही लीजिए...।

(सिद्धार्थ)

शुक्रवार, 13 मार्च 2009

प्रकृति ने औरतों के साथ क्या कम हिंसा की है...?

 

हाल ही में ऋषभ देव शर्मा जी की कविता ‘औरतें औरतें नहीं हैं’ ब्लॉगजगत में चर्चा का केन्द्र बनी। इसे मैने सर्व प्रथम ‘हिन्दी भारत’ समूह पर पढ़ा था। बाद में डॉ.कविता वाचक्नवी ने इसे चिठ्ठा चर्चा पर अपनी पसन्द के रूप में प्रस्तुत किया। अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस (८ मार्च) के अवसर पर स्त्री विमर्श से सम्बन्धित चिठ्ठों की चर्चा के अन्त में यह कविता दी गयी और इसी कविता की एक पंक्ति को चर्चा का शीर्षक  बना दिया गया। इस शीर्षक ने कुछ पाठकों को आहत भी किया।

स्त्री जाति के प्रति जिस हिंसा का चित्रण इस कविता में किया गया है वह रोंगटे खड़ा कर देने वाला है। युद्ध की एक विभीषिका विजित राष्ट्र के पकड़े गये सैनिकों, नागरिकों, मर्दों और औरतों के साथ की जाने वाली कठोर और अमानवीय यातना के रूप में देखी जाती है। विजेता सैनिकों में उठने वाली क्रूर हिंसा की भावना का शिकार सबसे अधिक औरतों को होना पड़ता है। इसका कारण कदाचित्‌ उनका औरत होना ही है। बल्कि और स्पष्ट कहें तो उनका मादा शरीर होना है। जो पुरुष ऐसी जंगली पाशविकता की विवेकहीन कुत्सा के वशीभूत होकर इस प्रकार से हिंस्र हो उठता है वह स्वयं मानव होने के बजाय एक नर पशु से अधिक कुछ भी नहीं होता। मेरा मानना है कि जिसके भीतर मनुष्यता का लेशमात्र भी शेष है वह इस प्रकार के पैशाचिक कृत्य नही कर सकता। इस कविता में ऐसे ही नर-पिशाचों की कुत्सित भावना का चित्रण किया गया है।

सभ्यता के विकास की कहानी हमारे लिए भौतिक सुख साधनों की खोज और अविष्कारों से अधिक हमारी पाशविकता पर विवेकशीलता के विजय की कहानी है। यह मनुष्य द्वारा जंगली जीवन से बाहर आकर मत्स्य न्याय की आदिम प्रणाली का त्याग करके उच्च मानवीय मूल्यों पर आधारित समाज विकसित करने की कहानी है। यह एक ऐसे सामाजिक जीवन को अपनाने की कहानी है जहाँ शक्ति पर बुद्धि और विवेक का नियन्त्रण हो। जहाँ जीव मात्र की अस्मिता को उसकी शारीरिक शक्ति के आधार पर नहीं बल्कि उसके द्वारा मानव समाज को किये गये योगदान के महत्व को आधार बना कर परिभाषित किया जाय। जहाँ हम वसुन्धरा को वीर-भोग्या नहीं बल्कि जननी-जन्मभूमि मानकर आदर करें। जहाँ हम नारी को भोग की वस्तु के बजाय सृजन और उत्पत्ति की अधिष्ठात्री माने और उसे उसी के अनुरूप प्रतिष्ठित करें।

यदि हम अपने मन और बुद्धि को इस दृष्टिकोण से संचालित नहीं कर पाते हैं तो यह हमें उसी पाशविकता की ओर धकेल देगा जहाँ निर्बल को सबल के हाथों दमित होते रहने का  दुष्चक्र झेलना पड़ता है। वहाँ क्या पुरुष और क्या नारी? केवल ‘शक्तिशाली’ और ‘कमजोर’ की पहचान रह जाती है। इस जंगली व्यवस्था में नर की अपेक्षा नारी को कमजोर पाया जाता है और इसी लिए उसे पीड़िता के रूप में जीना-मरना पड़ता है।

आपने देखा होगा कि यदि बन्दरों के झुण्ड में अनेक नर वानर हों तो वे आपस में भी हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। मादा वानर पर आधिपत्य के लिए अधिक शक्तिशाली नर कमजोर नर को भी अपनी हिंसा का शिकार उसी प्रकार बनाता है जिस प्रकार वह मादा को अपनी शक्ति से वश में करने के लिए हिंसा का भय दिखाता है। यह बात दीगर है कि बन्दरों में भी मादा को रिझाने के लिए मनुष्यों की भाँति ही दूसरे करतब दिखाने की प्रवृत्ति भी पायी जाती है। कदाचित्‌ इसलिए कि कोमल प्रेम का अवदान बलप्रयोग से प्राप्त नहीं किया जा सकता।

हम अपने समाज में जो हिंसा और उत्पीड़न देखते हैं उसके पीछे वही पाशविकता काम करती है जो हमारे आदिम जीवन से अबतक हमारे भीतर जमी हुई है। सभ्यता की सीढ़ियाँ चढते हुए हम आगे तो बढ़ते आये हैं लेकिन इस सतत प्रक्रिया में अभी बहुत लम्बा रास्ता तय करना बाकी है। बल्कि सम्पूर्ण मानव प्रजाति के अलग-अलग हिस्सों ने अलग-अलग दूरी तय की है। तभी तो हमारे समाज में सभ्यता के स्तर को भी ‘कम’ या ‘ज्यादा’ के रूप में आँकने की जरूरत पड़ती है। जिस समाज में स्वतंत्रता, समानता और न्याय के मूल्य जिस मात्रा में प्रतिष्ठित हैं वह समाज उसी अनुपात में सभ्य माना जाता है।

औरत को प्रकृति ने कोमल और सहनशील बनाया है क्यों कि उसकी कोंख में एक जीव की रचना होती है। उसे वात्सल्य का स्निग्ध स्पर्श देना और स्वयं कष्ट सहकर उस नन्हें जीव को सकुशल इस धरती पर उतारना होता है।

जीवोत्पत्ति की सक्रिय वाहक बनने की प्रक्रिया स्त्री को अनेक शारीरिक कष्ट और मानसिक तनाव देती है। यौवन की दहलीज पर कदम रखते ही उसके शरीर से रक्तश्राव का प्राकृतिक चक्र शुरू हो जाता है और इसके प्रारम्भ होते ही तमाम हार्मोन्स उसकी मनोदशा को तनाव ग्रस्त करते जाते हैं। इस अतिरिक्त जिम्मेदारी के साथ जीना उसे सीखना ही पड़ता है। वह इसे प्रकृति का अनुपम वरदान मानकर  इसमें सुख ढूँढ लेती है। रितु क्रिया को लेकर अनेक धार्मिक और पारिवारिक रूढ़ियाँ स्त्री को हीन दशा में पहुँचाने का काम करती हैं। कहीं कहीं इस अवस्था में उसे अछूत बना दिया जाता है। घर के किसी एकान्त कोने में अस्पृश्य बनकर पड़े रहना उसकी नियति होती है। घर की दूसरी महिलाएं ही उसकी इस दशा को लेकर एक बेतुकी आचार संहिता बना डालती हैं। आधुनिक शिक्षा और वैज्ञानिक जानकारी के अभाव में यह सजा किसी भी औरत को भोगनी पड़ जाती है।

तरुणाई आते ही शरीर में होने वाले बड़े बदलाव के दर्द को महसूस करती, अपने आस पास की नर आँखों से अपने यौवन को ढकती छुपाती और बचपन की उछल कूद को अपने दुपट्टे में बाँधती हुई लड़की अपने समवयस्क लड़कों की तेज होती रफ़्तार से काफी पीछे छूट जाती है। लड़के जहाँ अपनी शारीरिक शक्ति का विस्तार करते हैं वहीं लड़कियों को परिमार्जन का पाठ पढ़ना पड़ता है।

जीवन में आने वाले पुरुष के साथ संसर्ग का प्रथम अनुभव भी कम कष्टदायक नहीं होता। आदमी जब अपने पुरुषत्व के प्रथम संधान का डंका पीट रहा होता है तब औरत बिना कोई शिकायत किए एक और रक्तश्राव को सम्हाल रही होती है। ऐसे रास्ते तलाश रही होती है कि दोनो के बीच प्रेम के उत्कर्ष का सुख सहज रूप में प्राप्त हो सके। पुरुष जहाँ एक भोक्ता का सिंहनाद कर रहा होता है, वहीं स्त्री शर्माती सकुचाती भोग्या बनकर ही तृप्ति का भाव ढूँढती है।

स्त्री देह में एक जीव का बीजारोपण शारीरिक और मानसिक तकलीफों का एक लम्बा सिलसिला लेकर आता है। इस पूरी प्रक्रिया में कभी कभी तो जान पर बन आती है। लेकिन सामान्य स्थितियों में भी अनेक हार्मोन्स के घटने बढ़ने से शुरुआती तीन-चार महीने मितली, उल्टी और चक्कर आने के बीच ही कटते हैं। बहुत अच्छी देखभाल के बावजूद ये कष्ट प्रायः अपरिहार्य हैं। जहाँ किसी अनुभवी महिला द्वारा देखभाल की सुविधा उपलब्ध नहीं है वहाँ समस्या गम्भीर हो जाती है।

जब हम किसी कष्ट को बड़ा और असह्य बताना चाहते हैं तो उसकी तुलना ‘प्रसव वेदना’ से करते हैं। लेकिन उसका क्या कीजिए जिसे प्रकृति ने ही इस वेदना का पात्र बना रखा  है। कोई पुरुष दुःख बाँटने की चाहे जितनी कोशिश कर ले, यह कष्ट सहन करने का भार औरत के ही हिस्से में रहेगा। अत्यन्त पीड़ादायी प्रसव के बाद महीनों चलने वाला रक्त श्राव हो या नवजात के साथ रात-दिन जाकर उसकी सफाई-दफाई करने और स्तनपान कराने का क्रम हो, ये सभी कष्ट अपरिहार्य हैं। इन्हें स्त्री प्रकृति का वरदान मानकर गौरव का अनुभव भले ही करती है और इससे कष्ट के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन भी हो जाता होगा, लेकिन कष्ट की मात्रा कम नहीं होती।

ऊपर मैने जो कष्ट गिनाए हैं वो तब हैं जब स्त्री को भले लोगों के बीच सहानुभूति और संवेदना मिलने के बावजूद उठाने पड़ते हैं। अब इसमें यदि समाज के हम नर-नारी अपनी नासमझी, पिछड़ेपन, ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ, काम, क्रोध, मद, लोभ, उन्माद, महत्वाकांक्षा, आदि विकारों के वशीभूत होकर किसी स्त्री को अन्य प्रकार से भी कष्ट देते हैं तो इससे बड़ी विडम्बना कुछ नहीं हो सकती है।

मुझे ऐसा लगता है कि प्रकृति ने स्त्री के लिए जैसी जिम्मेदारी दे रखी है उसे ठीक से निभाने के लिए उसने पुरुष को भी अनेक विशिष्ट योग्यताएं दे रखी हैं। शारीरिक ताकत, युद्ध कौशल, शक्तिप्रदर्शन, निर्भीकता, मानसिक कठोरता, स्नेहशीलता, अभिभावकत्व, और विपरीत परिस्थितियों में भी दृढ़्ता पूर्वक संघर्ष करने की क्षमता प्रायः इनमें अधिक पायी जाती है। लेकिन यह भी सत्य है कि पुरुषों के भीतर पाये जाने वाले ये गुण स्त्रैण विशिष्टताओं की भाँति अनन्य नहीं हैं बल्कि ये स्त्रियों में भी न्यूनाधिक मात्रा में पाये जाते हैं।

ऐसी हालत को देखते हुए एक सभ्य समाज में स्त्री के प्रति किए जाने वाले व्यवहार में प्रकृतिप्रदत्त इस पीड़ा को कम करने के लिए भावनात्मक सम्वेदना, सहानुभूति और कार्यात्मक सहयोग देना अनिवार्य है। उसकी कठिनाई को उसके प्रति सहृदयता, संरक्षण और सामाजिक सुरक्षा देकर कम किया जा सकता है। समाज में उसकी प्रास्थिति को सृजन और उत्पत्ति के आधार के रूप में गरिमा प्रदान की जानी चाहिए, उसे एक जननी के रूप में समादृत और महिमा मण्डित किया जाना चाहिए, जीवन संगिनी और अर्धांगिनी के रूप में बराबरी के अधिकार का सम्मान देना चाहिए और सबसे बढ़कर एक व्यक्ति के रूप में उसके वहुमुखी विकास की परिस्थितियाँ पैदा करनी चाहिए।

इसके विपरीत यदि हम किसी औरत की कमजोरी का लाभ उठाते हुए उसका शारीरिक, मानसिक वाचिक अथवा अन्य प्रकार से शोषण करते हैं तो निश्चित रूप से हम सभ्यता के सोपान पर बहुत नीचे खड़े हुए हैं।

आजकल स्त्री विमर्श के नाम पर कुछ नारीवादी लेखिकाओं द्वारा कुछेक उदाहरणों द्वारा पूरी पुरुष जाति को एक समान स्त्री-शोषक और महिला अधिकारों पर कुठाराघात करने वाला घोषित किया जा रहा है और सभी स्त्रियों को शोषित और दलित श्रेणी में रखने का रुदन फैलाया जा रहा है। इनके द्वारा पुरुषवर्ग को गाली देकर और महिलाओं में उनके प्रति नफ़रत व विरोध की भावना भरकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली जा रही है। यह सिर्फ़ उग्र प्रतिक्रियावादी पुरुषविरोधवाद होकर रह गया है। यह प्रवृत्ति न सिर्फ़ विवेकहीनता का परिचय देती है बल्कि नारी आन्दोलन को गलत धरातल पर ले जाती है।

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हमें कोशिश करनी चाहिए कि सामाजिक शिक्षा के आधुनिक माध्यमों से स्त्री-पुरुष की भिन्न प्रास्थितियों को समझाते हुए उनके बीच उच्च मानवीय मूल्यों की स्थापना हेतु मिल-बैठकर विचार-विमर्श करें और कन्धे से कन्धा मिलाकर साझे प्रयास से एक प्रगतिशील समतामूलक समाज के निर्माण की दिशा में आशावादी होकर काम करें।

आइए हम खुद से पूछें कि प्रकृति ने औरतों के साथ क्या कम हिंसा की है जो हम इस क्रूरता को तोड़्ना नहीं चाहते...? यदि तोड़ना चाहते है तो सच्ची सभ्यता की राह पर आगे क्यों नहीं बढ़ते...?

(सिद्धार्थ)

बुधवार, 11 मार्च 2009

होली की छुट्टी में बैठे-ठाले...? (भाग-२)

 

image मैं यहाँ प्रयाग में बैठा तो हूँ लेकिन संजय की तरह अपने गाँव की रंग बिरंगी होली को ठीक-ठीक देख पा रहा हूँ। जैसा कि मैने कल पिछली कड़ी में बताया था आधी रात के बाद होलिका दहन फाग और जोगीरा के गलाफाड़ प्रदर्शन के बीच सम्पन्न हो चुका होगा। सुबह-सुबह घर के बच्चे सम्मत से आग लाकर घर का चूल्हा जलवा चुके हैं। एक दिन पहले ही हरे बाँस का पलौझा (सबसे ऊपरी सिरा जो अधिक खोखला, पतला और हल्का होता है) काटकर देसी पिचकारियाँ बनायी जा चुकी हैं। धूप होने से पहले ही गाँव के मर्द और लड़के सम्मत उड़ाने यानि होलिकादहन की राख का भभूत उड़ाने चल पड़ते हैं।

सम्मत स्थल से राख का प्रसाद (भभूत) एक दूसरे के मस्तक पर लगाकर यथोचित चरण-स्पर्श या आशीर्वाद का अभिवादन करेंगे। जोगीरा के शब्द और भाव बरसने लगेंगे। सभी इस प्रसाद को गमछे और कुर्ते की थैलियों में भरकर गायन मण्डली के साथ गाते-बजाते गाँव के भीतर बाहर के सभी देवस्थलों (बरम बाबा, कालीमाई, कोटमाई, भवानीमाई, महादेव जी, इनरा पर के बाबा) पर जाकर उस विभूति को चढ़ाकर प्रणाम करेंगे। इन सभी स्थलों पर प्रार्थना परक फाग गाया जाएगा।

रास्ते में मिलने वाले सभी लोगों को व अपरिचित राहगीरों को भी सम्मत की राख का प्रसाद विधिवत पोता जाएगा। इस ‘धुरखेल’ का शिकार सबको बनाया जाएगा। इस समय बाँस की पिचकारियों में नाबदान का पानी भरकर हर एक के ऊपर फेंकना गाँव के बच्चे अपना नैसर्गिक अधिकार मान लेते हैं। उन्हे इससे कोई रोक भी नहीं सकता। बड़े लोग भी बाल्टी में गोबर-मिट्टी घोलकर एक दूसरे को और हर आने-जाने वाले को आपादमस्तक नहलाने का काम एक शौर्य प्रदर्शन की भाँति करते हैं। इस बात की जानकारी क्षेत्रीय लोगों को तो होती है लेकिन यदि कोई बाहरी मुसाफिर इस समय राह पर आता मिल गया तो उसकी दुर्गति करने में भी कोई संकोच नहीं करता है। ग्यारह-बारह बजे तक धुरखेल व कनई-माटी (कीचड़-मिट्टी) का खेल चलता रहेगा। उसके बाद सभी अपनी-अपनी दुर्गति कराने के बाद चीथड़ों में लिपटकर नहर या बोरिंग पर नहाने जाएंगे। ऐसी म्लेच्छ अवस्था में घर में प्रवेश वर्जित हो जाता है।

नहाकर घरमें आने के बाद  गुझिया, नमकीन, मालपूआ, पूड़ी, खीर, और तेज मसालेदार सब्जी का गम्भीर भोजन होगा। अब रंग खेलने की बारी आएगी। लाल गुलाबी हरे रंगों में डूबी मानव आकृतिया झुण्ड में चलेंगी तो उन्हें अलग-अलग पहचानना मुश्किल हो जाएगा। प्रायः सबके चेहरे विविध रंगों और अबीर से पूरी तरह ढके होंगे। गाँव के सभी टोलों से लड़कियों-बच्चों की रंग-टोलियाँ घर-घर में जाकर रंग-स्नान का आदान-प्रदान करेंगी। बड़े लड़के और मर्द फाग मंडली में शामिल होकर सबके दरवाजे पर जाएंगे। छोटे-बड़े के पद के अनुसार पारम्परिक रीति से अभिवादन होगा। सबके दरवाजे पर जाजिम बिछाकर एक-दो फाग गाया जाएगा। गृहस्वामी सबको यथा सामर्थ्य जलपान कराएगा। यह क्रम शाम ढलने तक चलता रहेगा। गायक मण्डली के सदस्य शाम तक अपने ऊपर रंग गुलाल की अत्यन्त मोटी परत चढ़ा चुके होते हैं।

 

होलीघर के आंगन में रंग होली (6)  बाहर फाग मण्डली का सत्कार
होली (3)       रंग स्नान होली (7)     ठण्ड‍ई में भाँग तो नहीं?

शाम को रंग का प्रयोग बन्द करके सभी नहा-धोकर एक-दूसरे से होली मिलने निकलते हैं। घर-घर में जलपान की व्यवस्था होती है। सब जगह कुछ न कुछ लेना ही पड़ता है। रात में इसे पचाने के लिए विशेष दवा का इन्तजाम करना पड़ता है।

होली के दिन सबसे रोचक होता है जोगीरा पार्टी का नाच-गाना। गाँव के दलित समुदाय के बड़े लड़के और वयस्क अपने बीच से किसी मर्द को ही साड़ी पहनाकर स्त्रैंण श्रृंगारों से सजाकर नचनिया बनाते हैं। यहाँ इसे  ‘लवण्डा’ नचाना कहते हैं। जोगीरा बोलने वाला इस डान्सर को जानी कहता है। दूसरे कलाकार हीरो बनकर जोगीरा गाते हैं। और पूरा समूह प्रत्येक कवित्त के अन्त में जोर-जोर से सररर... की धुन पर कूद-कूद कर नाचता है। वाह भाई वाह... वाह खेलाड़ी वाह... का ठेका लगता रहता है।

कुछ जोगीरा दलों के (दोहा सदृश) कवित्तों की बानगी यहाँ पेश है :

[दोहे की पहली लाइन दो-तीन बार पढ़ि जाती है, उसके बाद दूसरी लाइन के अन्त में सबका स्वर ऊँचा हो जाता है।]

जोगीरा सर रर... रर... रर...

फागुन के महीना आइल ऊड़े रंग गुलाल।

एक ही रंग में सभै रंगाइल लोगवा भइल बेहाल॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...

गोरिया घर से बाहर ग‍इली, भऽरे ग‍इली पानी।

बीच कुँआ पर लात फिसलि गे, गिरि ग‍इली चितानी॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...

चली जा दौड़ी-दौड़ी, खालऽ गुलाबी रेवड़ी।

नदी के ठण्डा पानी, तनी तू पी लऽ जानी॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...

चिउरा करे चरर चरर, दही लबा लब।

दूनो बीचै गूर मिलाके मारऽ गबा गब॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...

सावन मास लुग‍इया चमके, कातिक मास में कूकुर।

फागुन मास मनइया चमके, करे हुकुर हुकुर॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...

एक त चीकन पुरइन पतई, दूसर चीकन घीव।

तीसर चीकन गोरी के जोबना, देखि के ललचे जीव॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...

भउजी के सामान बनल बा अँखिया क‍इली काजर।

ओठवा लाले-लाल रंगवली बूना क‍इली चाकर॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...

ढोलक के बम बजाओ, नहीं तो बाहर जाओ।

नहीं तो मारब तेरा, तेरा में हक है मेरा॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...

बनवा बीच कोइलिया बोले, पपिहा नदी के तीर।

अंगना में भ‍उज‍इया डोले, ज‍इसे झलके नीर॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...

गील-गील गिल-गिल कटार, तू खोलऽ चोटी के बार।

ई लौण्डा हऽ छिनार, ए जानी के हम भतार॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...

आज मंगल कल मंगल मंगले मंगल।

जानी को ले आये हैं जंगले जंगल॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...

कै हाथ के धोती पहना कै हाथ लपेटा।

कै घाट का पानी पीता, कै बाप का बेटा?

जोगीरा सर रर... रर... रर...

 

ये पंक्तियाँ पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार के भोजपुरी लोकगायकों द्वारा अब रिकार्ड कराकर व्यावसायिक लाभ के लिए भी प्रयुक्त की जा रही हैं। शायद यह धरोहर बची रह जाय।

 (समाप्त)

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

मंगलवार, 10 मार्च 2009

होली की छुट्टी में बैठे-ठाले...? (भाग-१)

 

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होली की छुट्टी है और मैं अपने गाँव पर नहीं हूँ। जीवन में ऐसा पहली बार हुआ है। यहाँ इलाहाबाद में बैठा हुआ मन को समझा रहा हूँ कि इस साल अपने पूज्य दादाजी के दिवंगत होने के कारण होली का जश्न और रंगों की हुड़दंग मेरे घर में नहीं मनायी जाएगी तो वहाँ जाने का कोई फायदा नहीं होगा। पर मन है कि भाग-भाग कर उस मस्ती और मसखरी के माहौल में डूब जाने व रंग-गुलाल से अटे पड़े मानव समूह के बीच खो जाने के लिए मचल रहा है।

महीने भर से गाँव के गवैये ढोलक की थाप और झाल की झंकार पर ‘फगुआ’ गाते रहे होंगे।

धनि-धनि ए सिया रउरी भाग, राम वर पायो।

लिखि चिठिया नारद मुनि भेजें, विश्वामित्र पठायो।

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लरिकैयाँ के मोर संहाती हो लरिकैयाँ के मोर संहाती हो

जोबना पे कर हो जनि घाती, ई पिया के मोर थाती

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चइत के चान निराली ए आली, चइत के चान निराली

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आ हो गोरी सुन्दर तेरो काहें बदन मलीन

आज उसका उरोज होगा। गाँव के बाहर पूरब की तरफ चकबन्दी में ‘सम्मत’ के लिए छोड़ी गयी जगह पर गाड़े गये हरे बाँस के नीचे गन्ने की सूखी पत्तियों (पतहर) और लकड़ियों का अम्बार लग गया होगा। जो कमी रह जाएगी उसे पूरा करने के लिए गाँव के साहसी लड़के रात की योजना बना रहे होंगे। किस-किसके घर से या खेत से पतहर उड़ाना है, किसकी टूटी मड़ई (छप्पर) टांग लाना है, कहाँ पर लावारिस या अरक्षित लकड़ी उठायी जा सकती है। इस पर मन्त्रणा हो रही होगी। इन सामग्रियों के मालिक भी सुरक्षा इन्तजाम की चिन्ता कर रहे होंगे।

ऐन वक्त पर पंडितजी साइत देखकर बताएंगे कि मंगलवार को सम्मत फूँकना वर्जित है इसलिए होलिकादहन का कार्य बारह बजे रात के बाद ही होगा।

गाँव के सभी घरों से मर्द और लड़के कुछ उपले और लकड़ी वगैरह लेकर सम्मत स्थल पर रात को बारह बजे जाएंगे। उनके साथ एक और जरूरी चीज होगी। आज दिन में घर के सभी सदस्यों को सरसो का उबटन (बुकवा) लग रहा होगा। यह उबटन शरीर की मैल को छुड़ा कर उसके साथ ‘झिल्ली’ बनाता है। यही झिल्ली घर-घर से लाकर इस सम्मत में डाल दी जाती है। यानि होलिका के साथ देह की सारी मैल भी स्वाहा हो जाती है।

सम्मत जलाकर उसी की रोशनी में जमीन पर बैठकर फाग मण्डली जो विशिष्ट गायन करती है उसे सुनकर कान के कीड़े भी झड़ जाते हैं। वयस्क किस्म के दोहे, कवित्त और फूहड़ मजाक के माध्यम से प्रकृति सुलभ यौनाचार के शब्दरुप जिस उन्मुक्त भाव से फूटते हैं उसका वर्णन इस माध्यम पर नहीं किया जा सकता। यह वा‍क्‌व्यवहार शायद मन के भीतर जमी मैल को बाहर निकाल देता हो। इस परम्परा के पीछे गाँव में यौन शिक्षा का प्रथम परिचय देने के उद्देश्य से वसन्त के इस मौसम में शायद यह एक अनगढ़ माध्यम भी रहा हो। इस दिन ऐसी बातों का कोई बुरा नहीं मानता बल्कि उत्सव के अंग के रूप में ही लेता है।

कबीरा बनाम जोगीरा

होली के अवसर पर जो यौनक्रिया सम्बन्धी दोहे और कवित्त कहे जाते हैं उन्हें ‘कबीरा’ या ‘जोगीरा’ कहे जाने का रोचक किस्सा पता चला है। बनारस की धरती पर रहते हुए सन्त कबीर ने अपने जमाने में धार्मिक पाखण्ड और वाह्याडम्बर पर चोट करने वाले दोहे कहे। जोगी के वेश में भोगी बने मदमस्त और कामुक लोगों के विरुद्ध उनकी देसी रचनाएं ‘जोगीरा’ कही गयीं। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप इन जोगियों ने भी जवाबी कार्यवाही की और कबीर के नाम पर बहुत सी फूहड़ बातों को अपनी कविताई का विषय बनाया और होली के मौके पर उन्हें गाली देने का बहाना ‘कबीरा’ बनाकर गढ़ लिया। बाद में इस श्रेणी की सबकी कविताई इन्ही दो लेबेल्स के अन्तर्गत प्रसारित होती रही है।

रात में गाने बजाने और गला साफ करने के बाद सभी घर लौट आएंगे। सुबह होने पर घर-घर से छोटे बच्चे कोई बर्तन लेकर सम्मत से आग का एक छोटा टुकड़ा लेने जाएंगे। होली के पकवान बनाने के लिए चूल्हा इसी आग से जलाया जाएगा। घर की औरतें और लड़कियाँ मालपूआ, खजूर, गुझिया, नमकीन, पू्ड़ी, खीर और गर्म मसालेदार सब्जी बनाने में लग जाएंगी। मांसाहारी घरों में बकरे या मुर्गे का मांस भी बनेगा। घर के मर्द और लड़के धूप होने से पहले ही ‘सम्मत उड़ाने’ पहुँच जाएंगे।

शेष बातें कल होंगी इसलिए कल ही बताउँगा... (जारी)

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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मंगलवार, 3 मार्च 2009

अब चाहिए एक हाइब्रिड नेता...।

 

parlament2 देश की सबसे बड़ी पंचायत के चुनाव का बिगुल बज चुका है। आदर्श आचार संहिता लागू होने से ठीक पहले सरकारें अपने मतदाताओं को खुश करने के लिए एक से बढ़कर एक घोषणाओं, शिलान्यास, उद्‌घाटन, लोकार्पण और जातीय भाईचारा सम्मेलन जैसे कार्यक्रम पूरी तन्मयता से कर रही थीं। समय कम पड़ गया। आजकल नेताजी जनता की सेवा के लिए दुबले होते जा रहे हैं। इस समय अब मतदाता के सामने सोशल इन्जीनियरिंग के ठेकेदार पैंतरा बदल-बदल कर आ रहे हैं।

वोटर की चाँदी होने वाली है। भारतीय लोकतंत्र का ऐसा बेजोड़ नमूना पूरी दुनिया में नहीं मिलने वाला है। यहाँ राजनीति में अपना कैरियर तलाशने वाले लोग गजब के क्षमतावान होते हैं। इनकी प्रकृति बिलकुल तरल होती है। जिस बरतन में डालिए उसी का आकार धारण कर लेते हैं। जिस दल में जाना होता है उसी की बोली बोलने लगते हैं। पार्टीलाइन पकड़ने में तनिक देर नहीं लगाते।

आज भाजपा में हैं तो रामभक्त, कल सपा में चले गये तो इमामभक्त, परसो बसपा में जगह मिल गयी तो मान्यवर कांशीराम भक्त। कम्युनिष्ट पार्टी थाम ली तो लालसलाम भक्त। शिवसेना में हो जाते कोहराम भक्त, राज ठाकरे के साथ लग लिए तो बेलगाम भक्त। और हाँ, कांग्रेस में तो केवल (madam) मादाम भक्त...!

कुछ मोटे आसामी तो एक साथ कई पार्टियों में टिकट की अर्जी लगाये आला नेता की मर्जी निहार रहे हैं। जहाँ से हरी झण्डी मिली उसी पार्टी का चोला आलमारी से निकालकर पहन लिया। झण्डे बदल लिए। सब तह करके रखे हुए हैं। स्पेशल दर्जी भी फिट कर रखे हैं।

हर पार्टी का अपना यू.एस.पी.है। समाज का एक खास वर्ग उसकी आँखों में बसा हुआ है। जितनी पार्टियाँ हैं उतने अलग-अलग वोटबैंक हैं। सबका अपना-अपना खाता है। राजनीति का मतलब ही है - अपने खाते की रक्षा करना और दूसरे के खाते में सेंध मारने का जुगाड़ भिड़ाना। आजकल पार्टियाँ ज्वाइण्ट खाता खोलने का खेल खेल रही हैं ताकि बैंक-बैलेन्स बढ़ा हुआ लगे। कल के दुश्मन आज गलबहिंयाँ डाले घूम रहे हैं। carcat        कार्टून: शंकर परमार्थी 

नेताजी माने बैठे हैं कि वोटर यही सोच रहा है कि अमुक नेताजी मेरी जाति, धर्म, क्षेत्र, रंग, सम्प्रदाय, व्यवसाय, बोली, भाषा, आदि के करीब हैं तो मेरा वोट उन्हीं को जाएगा। उनसे भले ही हमें कुछ न मिले। दूसरों से ही क्या मिलता था? कम से कम सत्ता की मलाई दूसरे तो नहीं काटेंगे...! अपना ही कोई खून रहे तो क्या कहना?

जो लोग देश के विकास के लिए चिन्तित हैं, राष्ट्र को आगे बढ़ाने के लिए भ्रष्टाचार, अपराध, अशिक्षा, और अराजकता को मिटाने का स्वप्न देखते हैं, वे भकुआ कर इन नेताओं को ताक रहे हैं। इनमें कोई ऐसा नहीं दिखता जो किसी एक जाति, धर्म, क्षेत्र, रंग, सम्प्रदाय, व्यवसाय, भाषा, बोली आदि की पहचान पीछे धकेलकर एक अखिल भारतीय दृष्टिकोण से अपने वोटर को एक आम भारतीय नागरिक के रूप में देखे। उसी के अनुसार अपनी पॉलिसी बनाए। आज यहाँ एक सच्चे भारतीय राष्ट्रनायक का अकाल पड़ गया लगता है।

हमारे यहाँ के मतदाता द्वारा मत डालने का पैटर्न भी एक अबूझ पहेली है। जो महान चुनाव विश्लेषक अब टीवी चैनलों पर अवतरित होंगे वे भी परिणाम घोषित होने के बाद ही इसकी सटीक व्याख्या प्रस्तुत कर सकेंगे। इसके पहले तुक्केबाजी का व्यापार तेज होगा। कई सौ घंटे का एयर टाइम अनिश्चित बातों की चर्चा पर बीतेगा। इसे लोकतन्त्र का पर्व कहा जाएगा।

मेरे मन का वोटर अपने वोट का बटन दबाने से पहले यह जान लेना चाहता है कि क्या कोई एक व्यक्ति ऐसा है जो अपने मनमें सभी जातियों, धर्मों, क्षेत्रों, रंगो, सम्प्रदायों, व्यवसायों, भाषाओं और बोलियों के लोगों के प्रति समान भाव रखता हो? शायद नहीं। ऐसा व्यक्ति इस देश में पैदा ही नहीं हो सकता। इस देश में क्या, किसी देश में नहीं हो सकता।  इस प्रकार के विपरीत लक्षणों का मिश्रण तो हाइब्रिड तकनीक से ही प्राप्त किया जा सकता है।

इस धरती पर भौतिक रूप से कोई एक विन्दु ऐसा ढूँढा ही नहीं जा सकता जहाँ से दूसरी सभी वस्तुएं समान दूरी पर हों। फिर इस बहुरंगी समाज में ऐसा ज्योतिपुञ्ज कहाँ मिलेगा जो अपना प्रकाश सबपर समान रूप से डाल सके?

प्लेटो ने ‘फिलॉस्फर किंग’ की परिकल्पना ऐसे ही नहीं की होगी। उन्होंने जब लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलते देखा होगा और इसमें पैदा होने वाले अयोग्य नेताओं से भरोसा उठ गया होगा तभी उसने ‘पत्नियों के साम्यवाद’ का प्रस्ताव रखा होगा। यानि ऐ्सी व्यवस्था जिसमें हाइब्रिड के रूप में उत्कृष्ट कोटि की संतति पायी जा सके जिसे अपने माँ-बाप, भाई-बन्धु, नाते रिश्ते, जाति-कुल-गोत्र आदि का पता ही न हो और जिससे वह राज्य पर शासन करते समय इनसे उत्पन्न होने वाले विकारों से दूर रह सके। राजधर्म का पालन कर सके।

आज विज्ञान की तरक्की से उस पावन उद्देश्य की प्राप्ति बिना किसी सामाजिक हलचल के बगैर की जा सकती क्या? ...सोचता हूँ, इस दिशा में विचार करने में हर्ज़ ही क्या है?

(सिद्धार्थ)