हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

बुधवार, 11 नवंबर 2009

गर्ज़ू नचनिया तेल दै दै नाचे...!

 

ग्रामीण परिवेश में बिताए बचपन के दिनों से मेरे मन में अमिट रूप में जो चरित्र अंकित हैं उनमें ‘नाच पार्टी’ में स्त्री पात्रों की भूमिका निभाने वाले मर्दों की छवि विशेष कौतूहल का विषय रही है। यह ‘नाच’ शादी-विवाह के अवसर पर बारातियों के मनोरंजन के लिए आती थी। बारात के मालिक की प्रतिष्ठा इस ‘नाच’ की ख्याति के स्तर से भी नापी जाती थी। इस नाट्यदल पार्टी की ख्याति उसमें शामिल ‘पुरुष नर्तकियों’ की संख्या और गुणवत्ता के आधार पर तय होती थी।

image कमनीय काया, पतली लोचदार कमर, लम्बे-काले-असली बाल, सुरीला गला, गोरा-चिकना चेहरा और उसपर फिल्मी हिरोइनों की नकल करते हुए देर तक नाचने की क्षमता इत्यादि इस पेशे की मांग हुआ करती थी। एक मर्द के भीतर इतने स्त्रैण गुणों का एक साथ मिलना दुर्लभ तो था ही, यदि कोई ‘लवण्डा’ इस कोटी का मिल जाता था तो उसकी नाच देखने दूर-दूर से ‘नचदेखवा’ टूट पड़ते थे।

अलग-अलग गाँवों से आने वाले ये समूह इस नाच कार्यक्रम को अपने अनुसार चलाने की होड़ में कभी-कभार भिड़ भी जाते थे। यहाँ तक कि लाठियाँ निकल आतीं और सिर-फुटौवल की नौबत भी आ जाती। एक नामी ‘नचनिया’ को उसके डान्स पर खुश होकर ईनाम देने वालों की होड़ भी लग जाती। बारात में आये दूल्हे के रिश्तेदार एक दूसरे के नाम से रूपया न्यौछावर करते और स्त्री के श्रृंगार में नाचने वाला लवण्डा ढोलक और नगाड़े की थाप पर एक खास शैली में उन्हें ‘शुक्रिया अदा’ करता। अचानक दर्शक दीर्घा में बैठे किसी खास रिश्तेदार (दूल्हे के बहनोई, फूफा आदि) के पास पहुँचकर उसके ऊपर साड़ी का पल्लू फेंक देने और बदले में जबरिया ईनाम ऐंठ लेने की कला भी इनको खास अकर्षक बनाती और तालियाँ बटोरने के काम आती।

मुझे याद है जब बिजली के लिए जेनरेटर का चलन गाँवो में नहीं था, तो शादी-विवाह या अन्य बड़े आयोजनों पर पेट्रोमेक्स जलाए जाते थे। मिट्टी के तेल से चलने वाला यह ‘पंचलाइट’ ही रात के अंधेरे को दूर करने वाला उत्कृष्ट साधन माना जाता था। इस गैसलाइट को संक्षेप में ‘गैस’ ही कहा जाता था। नाच के आयोजन में इसकी भूमिका भी महत्वपूर्ण थी। मंच के सामने ऊपर बाँस या बल्ली में दो ‘गैस’ लटकाये जाते थे। जमें-जमाये कार्यक्रम के दौरान अचानक जब प्रेशर कम हो जाने पर गैस से रोशनी के बजाये आग की लपटें निकलने लगतीं तो सभी ‘गैसड़ी’ को पुकारने लगते। वह सबकी लानत-मलानत सुनता हुआ गैस को नीचे उतारता, तेल डालता, गैस में हवा भरता और दुबारा टांग कर नीचे आ जाता। इस दौरान नाच का जोकर मंच से लोगों को अपनी ठिठोली से सम्हालता।

imageगाँव के  छोटे बच्चे नाच देखने के बजाय नाच पार्टी की तैयारी और कलाकारों के सजने-सवँरने की प्रक्रिया को ताकने- झाँकने में अधिक रुचि लेते थे। नाच की ‘हिरोइन’ को दाढ़ी बनवाते, मूँछ साफ कराते और लुंगी लपेटकर बींड़ी पीते देखना उन्हें ज्यादा रोमांचक लगता। ये राजा हरिश्चन्द्र,  तारामती, मन्त्री, राजकुमारी विद्यावती, उसकी  सहेली,  रानी सारंगा, जोकर, सिपाही, साधू, फकीर, पागल, देवी, देवता, सेठ, मुनीब, कर्जदार, गब्बर, बसन्ती, बीरू और जय इत्यादि स्टेज के पीछे बने एक छोटे से घेरे में अपना मेक-अप करते तो बच्चे उस घेरे की कनात में छेद ढूँढकर या बनाकर  उनकी एक झलक पा जाने को आतुर दिखायी पड़ते। स्त्री पात्र का साज-श्रृंगार तो जैसे किसी बड़े रहस्य की बात थी। इससे पर्दा उठाने की फिराक में कुछ किशोर वय के बच्चे भी लगे रहते थे।

image किसी भी नाच का यूएसपी उसका मुख्य नर्तक ही होता था। इस कलाकार को एक खास तरह की इज्जत मिलती थी। कदाचित्‌ इसी इज्जत की लालच में बहुतेरे लड़के तरुणाई में साड़ी चढ़ाने को तैयार हो जाते थे। आर्थिक और सामाजिक कारण चाहे जो रहे हों लेकिन जिसके शरीर में नचनिया के हार्मोन्स का स्राव होने लगता वह किसी नाच के मंच तक अपना रास्ता बनाने के लिए चल ही पड़ता।

जैसा कि साहित्य, संगीत और कला के क्षेत्र में प्रायः देखा जाता है, इसमें प्रतिभा और क्षमता के अनेक स्तर पाये जाते हैं। विविधता तो होती ही है। इसमें अच्छे और खराब का कोई सर्वमान्य वस्तुनिष्ठ पैमाना न होने से इस क्षेत्र में उतरने के लिए किसी को मनाही नहीं है। कोई भी व्यक्ति कवि, गीतकार, कहानीकार, लेखक, चित्रकार, गायक, नर्तक या वादक होने के बारे में सोच सकता है और इस दिशा में शुरुआत कर सकता है। लेकिन आगे बढ़ने के लिए उसकी स्वीकार्यता पाठकों, दर्शकों, श्रोताओं और रसग्राहियों के बीच होनी जरूरी हो जाती है। अपने ब्लॉगजगत में भी यह सब खूब साफ-साफ दिखायी देता है। यहाँ भी अनेक कवि और लेखक बहती गंगा में हाथ धोते मिल जाएंगे। टीवी चैनेल्स के रियलिटी शो के माध्यम से अपनी किस्मत आजमाने के मौके नये कलाकारों को भी अब काफी मिलने लगे हैं।

लेकिन ऐसी सुविधा ग्रामीण कलाकारों के पास नहीं थी। नाचने का कीड़ा काट लेने के बाद उन्हे किसी नाचपार्टी में शामिल होने के लिए अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का मौका मिलना बहुत कठिन था। नचदेखवों की भीड़ जिसकी नाच देखने आयी होती उसके अलावा किसी नौसिखिए को मंच पर देखना उन्हें गँवारा नहीं था। अपनी रेखिया मूँछ और शुरुआती दाढ़ी को उगना शुरू होते ही सफाचट कराकर किशोरी का वेश बनाए हुए नवोढ़ा जब बहुत मिन्नत करता तो उसे दो-चार मिनट असली नाच की शुरुआत से पहले नाचने को दे दिए जाते।

जब झुण्ड के झुण्ड अलग-अलग गाँवों से आने वाले नचदेखवों के बीच बैठने के स्थान को लेकर नोंक-झोंक हो रही होती, बारातियों को जनवासे से खाने-पीने के लिए बिटिहा के घर पर बुलाया जा रहा होता, क्षेत्र के कुछ बड़े आदमी थोड़ी देर के लिए ‘मेन आर्टिस्ट’ का एकाध नाच-गाना देकने के लिए आसन जमा रहे होते; उसी शोर-शराबे के बीच अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए इस नये लवण्डे को मंच दे दिया जाता। तैयारी पूरी होते ही उसे बाद में या अन्त में नाचने का वादा करके उतार दिया जाता। फिर वह पूरी रात साड़ी चढ़ाए नेपथ्य में इस आस में बैठा रहता कि नाटक पूरा हो जाने के बाद वह फिर नाचेगा।

रात के अन्तिम प्रहर में जब नाच समाप्त होने को होती और भीड़ लगभग छँट चुकी होती तब उसकी नाच कौन देखता। नाच का मालिक उसे समझाता कि अब तो गैस का तेल समाप्त हो चला है। गर्ज का मारा कलाकार इस मौके के लिए मानों पहले से तैयार बैठा हो। तेल का गैलन हाजिर...। यही वो दृश्य रहा होगा जब यह कहावत प्रचलित  हुई होगी-

“गर्जू नचनिया तेल दै दै नाचे”

एक दिन ऑफिस के लन्च रुम में जब विनोदी स्वभाव के मेरे बॉस ने अपनी खास शैली में यह लोकोक्ति सुनायी थी तो अचानक छूटी हँसी ने मेरे मुँह का जिगराफ़िया बिगाड़ दिया था। साथ बैठे कुछ दूसरे लोग जिन्हें पूरब की गऊ-पट्टी का देहाती ‘लवंडा नाच’ देखने का कोई अनुभव नहीं था वे हक्का-बक्का थे। मेरी श्वांस नली में फँस गये भुने हुए चने के टुकड़े से जब राहत मिली तब मैंने संयत होकर उन्हें कुछ बताने की कोशिश की।

चर्चा में एक साथी ने जब कहा कि यह हाल कुछ-कुछ उन तथाकथित कवियों जैसा ही है जो अपनी जेब में ताजी कविता की पाण्डुलिपि लिए घूमते रहते हैं और कोई शिकार नजर में आते ही उसे चाय-पानी का न्यौता देकर फाँस लेते हैं, तो सभी उनका समर्थन करते दिखे। जबरिया कवि से पीड़ित होने का अपना-अपना अनुभव बाँटने लगे।

अब सोच रहा हूँ कि  कुछ ऐसा ही भाव उन लेखकों और कवियों के भीतर भी पैठा रहा होगा जो अपनी मेहनत से लिखी किताब को किसी प्रकाशक से पैसा देकर छपवाते हैं और फिर अपने  लोगों के बीच उसकी प्रतियाँ सादर, सप्रेम या सस्नेह भेंट करते हैं। जेब से पैसा खर्च करके पढ़ने की आदत हमारे समाज में कम तो हुई ही है लेकिन ‘तेल देकर नाचने’ को तैयार लोगों ने भी इस प्रवृत्ति को खाद-पानी देकर मजबूत बनाया है।

इसी विचित्र मनःस्थिति से उत्पन्न दुविधा के कारण मैने अपने खर्च से  किसी इष्टमित्र या रिश्तेदार को ‘सत्यार्थमित्र’ पुस्तक की प्रति मुफ़्त भेंट नहीं की। कुछ लोग शायद नाराज भी हों।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

19 टिप्‍पणियां:

  1. शादी में आज भी नाच गाने वाली पार्टी आती है, लेकिन उसका रूप बदल गया है। अब फिल्‍म के कलाकार या बार बालाएं आती हैं। इतना भद्दा प्रदर्शन वे लोग और उनके साथ घर वाले करते हैं कि शर्म आ जाए। ये बड़े-बड़े नाम नचैयों की तरह ही नाचते हैं।

    जवाब देंहटाएं
  2. 'नाच' और `गेस' बत्ती दोनों अभी भी जिन्दा हैं ! हाँ नाच का स्वरुप शायद बहुत बदल गया है.

    जवाब देंहटाएं
  3. मेरी टिप्पणी के रूप में अज्ञेय की यह कविता छाप देना:
    एक तनी हुई रस्सी है जिस पर मैं नाचता हूँ।
    जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ
    वह दो खम्भों के बीच है।
    रस्सी पर मैं जो नाचता हूँ
    वह एक खम्भे से दूसरे खम्भे तक का नाच है।
    दो खम्भों के बीच जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ
    उस पर तीखी रोशनी पड़ती है
    जिस में लोग मेरा नाच देखते हैं।
    न मुझे देखते हैं जो नाचता है
    न रस्सी को जिस पर मैं नाचता हूँ
    न खम्भों को जिस पर रस्सी तनी है
    न रोशनी को ही जिस में नाच दीखता है:
    लोग सिर्फ़ नाच देखते हैं।
    पर मैं जो नाचता
    जो जिस रस्सी पर नाचता हूँ
    जो जिन खम्भों के बीच है
    जिस पर जो रोशनी पड़ती है
    उस रोशनी में उन खम्भों के बीच उस रस्सी पर
    असल में मैं नाचता नहीं हूँ।
    मैं केवल उस खम्भे से इस खम्भे तक दौड़ता हूँ
    कि इस या उस खम्भे से रस्सी खोल दूँ
    कि तनाव चुके और ढील में मुझे छुट्टी हो जाये -
    पर तनाव ढीलता नहीं
    और मैं इस खम्भे से उस खम्भे तक दौड़ता हूँ
    पर तनाव वैसा ही बना रहता है
    सब कुछ वैसा ही बना रहता है।
    और वही मेरा नाच है जिसे सब देखते हैं
    मुझे नहीं
    रस्सी को नहीं
    खम्भे नहीं
    रोशनी नहीं
    तनाव भी नहीं
    देखते हैं - नाच !

    __________________________________
    ब्लॉग जगत में भाँति भाँति के नाच प्रचलित हैं। कुछ ऐसे हैं जिनका नाच उपर लिखी कविता जैसा है।
    कुछ नंगे होकर नाच रहे हैं तो कुछ उन्हें कपड़ा पहनाने की कोशिश करते नाच रहे हैं।
    कुछ दूसरे का कपड़ा उतारने के लिए नाच रहे हैं तो कुछ भोंपू ले गरियाते नाच रहे हैं
    कुछ इस लिए नाच रहे हैं कि नाच होना चाहिए तो कुछ इस गलतफहमी में नाच रहे हैं कि उनसे बड़ा नचनिया कोई नहीं...
    ...
    इस नाच पर एक ठो पोस्ट बन सकती है। हम संकेत दे दिया हूँ। लेकिन लिखना हमरे बस का नायं है।
    अब रही बात गर्जू हो तेल देकर नाचने की तो भैया अभी वह नौबत नहीं आई। सब अघाए लोग हैं, और फोकट के ब्लॉग प्लेट्फॉर्म पर पैसा और बिजली फूँकते नाच रहे हैं। कई तो अपनी जिन्दगी का रोजनामचा ही बिगाड़ चुके हैं।
    लेकिन! लेकिन!!
    संकेत गर्जू होने के आने लगे हैं।
    हमरो देखो हमरो देखो, ऐसे मेल आने लगे हैं। लोग स्पैमियाने लगे हैं।
    गरज तो इत्ती बढ रही है कि इस आभासी दुनिया के लिए लोग
    असली जिन्दगी में भी बड़बड़ाने, गरियाने और शायद लतियाने लगे हैं।...

    इति श्री आलसी विरचितम नखलौ खंडे गर्ज़ू नचनिया तेल दै दै नाचे...! टिप्पणी रूप भाष्यम।

    जवाब देंहटाएं
  4. अभैयों देखेला मिल जायेला. गाँव में अलगे मजा बा ऐसन नचनियां पार्टी के

    जवाब देंहटाएं
  5. हां ये लोक-कलाएं आज आभिजात्य वर्ग बडे शौक से देखने जाता है, किसी भी लोक-महोत्सव में.खजुराहो नृत्योत्सव इसका अच्छा उदाहरण है जहां सभी नृत्य, प्रांत विशेष के कलाकार ही प्रस्तुत करते हैं हरिश्चन्द्र-तारामती नौटंकी मैने वहीं देखी.

    जवाब देंहटाएं
  6. आप ने बहुत सुंदर तरह से गुजरे जमाने का द्र्श्य दिखाया, बाकी मै Dr. Smt. ajit gupta जी की बात से सहमत हुं.
    धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  7. आने वाली पीढी इस लेख को अचरज से पढेगी क्योंकि वह सोच भी नहीं सकेगी कि मर्द औरत का भेस धारण करके नाचेगा। या यह भी हो सकता है कि गे संस्कृति इतनी विकसित हो जाएगी कि नचनिये आम सडक पर भी दिखेंगे :)

    जवाब देंहटाएं
  8. साहित्यकारों के साथ यही दिक्कत है कि स्वयं तो अपनी किताब देने में कतराते हैं, पर दूसरे पर ऐसे अधिकार जमाते हैं जैसे वह उनका जम्नसिद्ध अधिकार हो।
    --------
    बहुत घातक है प्रेमचन्द्र का मंत्र।
    हिन्दी ब्लॉगर्स अवार्ड-नॉमिनेशन खुला है।

    जवाब देंहटाएं
  9. Lajawaab !! Bahut bahut laajawaab !!

    Aapke is aalekh ne kai bhoolee bisri yaden ko aankhon ke saamne laa khada kiya...

    Itna sateek aur jivant varnan kiya hai aapne ki bas mugdh bhaav se padhti gayi...

    जवाब देंहटाएं
  10. shandar varnan gaun ke naach ka. aapne to ek pura resarch paper hi tyar kar dala. aane wale do dino me chhutti ki wajah se aaj purani yadon ko taja karte huye aaram se blog padhne ka mauka mila. est mitron aur ristedaron ki narajgi to mujhe samajh me nahi aati, lekin jo aap se ye ummid karte hain ki aap unhe book den aur we padhe unpar aapko jarur naraj hona chahiye. aapki pahli book market me aai hai aur aapka utsah vardhan karne ke liye kaha tak unhe jyada se jyada books sell karvane ko sochna chahiye ulte khud hi free ke chakkar me pad gaye hain..........

    जवाब देंहटाएं
  11. भाई वाह! पूरी भीडियो फिलिम चला दी आपने. और भाई गिरिजेश राव को उनके टिप्पणी रूप भाष्य के लिए बधाई ज़रूर दें. कहीं नचनिया लवंडा मिल जाए त ओसे डबल गेयर में सुकिरिया आदा भी करवा दें..... :-)

    जवाब देंहटाएं
  12. बहुत सुन्दर आलेख है. पुरानी यादों का ऐसा वर्णन जैसे कोई डौक्युमेंट्री देख रहे हों. आज के युवा इसे पढ़कर आश्चर्यचकित अवश्य होंगे किन्तु इसकी रोचकता इस लेख को पूरा पढ़ने के लिए बाध्य कर देगी.
    महावीर शर्मा

    जवाब देंहटाएं
  13. इन दिनो क्वचिदन्यतोअपि.....पर नायिका भेद पढ रहे हैं और इधर आपने एक नयी प्रकार की नायिका प्रस्तुत कर दी.
    गुजरे जमाने में, जब स्त्रियां नाटक नहीं करती थीं तो नाटकों में युवा लडके ही स्त्रियों के रोल करते थे, और पूरी भाव भंगिमा के साथ.

    जवाब देंहटाएं
  14. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  15. आपके इस आलेख ने नौटंकियों की याद ताजा कर दी।
    "कमनीय काया, पतली लोचदार कमर, लम्बे-काले-असली बाल, सुरीला गला, गोरा-चिकना चेहरा और उसपर फिल्मी हिरोइनों की नकल करते हुए देर तक नाचने की क्षमता इत्यादि इस पेशे की मांग हुआ करती थी। एक मर्द के भीतर इतने स्त्रैण गुणों का एक साथ मिलना दुर्लभ तो था ही, यदि कोई ‘लवण्डा’ इस कोटी का मिल जाता था तो उसकी नाच देखने दूर-दूर से ‘नचदेखवा’ टूट पड़ते थे।"
    बहुत सूक्ष्म और सटीक निरीक्षण है आपका।
    बचपन में देखे गये नाटकों की याद आती है। स्त्री का अभिनय करने वाले पुरुष पात्रों को देख कर लगता ही नहीं था कि वे पुरुष होंगे। कुछ लड़कों में शर्त लग जाती थी कि अमुक स्त्री पात्र वास्तव में स्त्री है या पुरुष। इस झगड़े पर निश्चयात्मक निर्णय प्रायः कोई अनुभवी या वरिष्ठ व्यक्ति ही देता था और जब कोई स्त्री पात्र आशा के विपरीत पुरुष निकलता था तो बहुत निराशा होती थी।

    जवाब देंहटाएं
  16. जब पेट्रोमैक्स खत्म होने को हो तो सबसे आगे बैठे रमदेउआ के लडके को देखना चाहिये, नचनियो के उपर बार बार टॉर्च की रोशनी बंद चालू कर मजा लेगा और आगे बैठे कुछ ठरकी बूढे तो गमछा उछाल कर अपने जवानी के दिनों को नापने में लग जाएंगे..... :)

    मेरे देखे हुए तमाम नाच नचैयों की याद ताजा हो गई है इस पोस्ट के जरिये। और याद आ रहा है वह बर्फ वाला जो अक्सर हर नाच वगैरह के समय शामियाने की रस्सी के सहारे साईकिल खडी कर बर्फ बेचता था और पचास पैसे में मिलने वाली उस पानी वाली बर्फ का स्वाद आज के मॉल में मिलने वाले पचास रूपये के बर्फ के मुकाबले कई गुना ज्यादा था।

    जवाब देंहटाएं
  17. Such kahu to ye blog pad ke gaav ki yaade taaza ho gai, mere bal man pe ankit kuch dhudli yaade abhi bhi hai jinhe mai kisse kahani ke roop me kabhi kabhi apne so-called corporates sahkarmiyo ya Modern dosto ko sunata hu to unhe to ye sab GAWATI sa lagta hai par ha kuch aise bhi kadardaan mile jo ise ek event k roop me metro cities me prmote karne ke bhi ikchuk lage.....sayad ye blog mujhe madad kare apne mudh dosto ko ek sahi tasweer dikhane me....:-)

    जवाब देंहटाएं
  18. yaar ye shauk to mujhe aajtagaid hai.har sal hamare gaaon ke mele me nautankee hotee hai . haan gas batee naheen jalatee aur speaker jud gaya hai.jab gaaon me hota hoon to jata hee hoon.

    haan baithata baithata ichchhabhar naheen .jinke liye ho raha hota hai ve ' sankoch karne 'lagte hain .jaldee hee uth aata hoon .

    bakee girijesh jee ne to bauddhik darshan aur blagikee 'katha' kah hee dee hai .dino din unse asahamat ho pana mushkil hotee ja rahee hai :)

    eh sujhav :
    siddharth bhaiyya ,BLOG SANGAM TO AAP KARA HEE CHUKE HO .jakee rahee bhavana jaisee !kyon na aapka padosee hone ke nate ham PRATAPGADHIYON KO BHEE THODA ' NAACH 'DIKHLANE KA MAUKA ' MIL JAI.

    BLAGAREE SAMMELAN KE BAAD THODA GOBAR PATEEWALA.VAHEE . DARSHAK SIRF 'BLOGGER YA CHIDHDHK ' HOGA
    AUR NAAM (SIRF SUJHA RAHA HOON)

    CHTHBLOGEE NAUTANKEE

    SWAROOP JAISA PANCHON KA AADESH UPDESH .
    CHANHEN TO ' IMRAN BETWA ' SE KAH DENGE GAS BATEE ,BIN MAYIK WALEE , (KHAS KARKE BIJALEE KEE GAAARANTEE )KE KARAN EK ' AUDDESEEY' AAYOJAN !

    TO KAUNAU HUKUM HOI TA APNE ' AWADH PRAWAS 'PE VINATEE KARE !

    ps:NAGAREE ME NA LIKH PANE KE DUSSAHAS KE LIYE CHAMA.
    SIDDHARTH BHAIYAA NAGAR PRIVERTAN KAR DENGE ?

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणी हमारे लिए लेखकीय ऊर्जा का स्रोत है। कृपया सार्थक संवाद कायम रखें... सादर!(सिद्धार्थ)