हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

सोमवार, 30 नवंबर 2009

एक वी.आई.पी. शादी जयपुर में...।

 

विकास परिणय प्रीति आजकल शादियों का मौसम चल रहा है। ज्योतिषियों ने बता दिया कि शादी के लायक शुभ मुहूर्त की तिथियाँ गिनती की ही हैं। इसका नतीजा यह हुआ कि एक ही तिथि में अनेक शादियों के निमन्त्रण मिल जा रहे हैं। अकेले सबको निभा पाना कठिन हो गया है। लेकिन कुछ खास शादियाँ ऐसी होती हैं जिनमें आप जाने को बाध्य होते हैं और कदाचित्‌ स्वयम उत्सुक भी। ऐसी ही एक असाधारण शादी का न्यौता मुझे मिला और मैने दिल्ली से जयपुर जाने वाली बारात में शामिल होने का कार्यक्रम बना लिया। इलाहाबाद से दिल्ली के लिए प्रयागराज एक्सप्रेस और जयपुर से वापस इलाहाबाद के लिए ज़ियारत एक्सप्रेस में आरक्षण महीना भर पहले ही कराया जा चुका था।

शादी तमिलनाडु कैडर के एक आई.पी.एस. अधिकारी की थी जो राजस्थान कैडर की अपनी बैचमेट से ही शादी कर रहा था। यह दूल्हा मेरा साला था इसलिए बारात में मेरी पोजीशन का अन्दाजा आप सहज ही लगा सकते हैं। लगातार जीजाजी... जीजाजी... सुनने का आनन्द ही (और खतरे भी) कुछ और है।:)

बस में बाराती बारात दिल्ली से जयपुर एक बस से जाने वाली थी। मुझे आगे की सीट मिली। बस में दूल्हे के माता-पिता, बड़े भाई, बहन, बहनोई, चार जोड़ी मौसी-मौसा, तीन जोड़ी मामा-मामी और इतने ही चाचा-चाची मौजूद थे। उन सबके बच्चे, बहुएं और दोस्त-मित्र मिलकर बस का माहौल पूरा बाराती बना रहे थे। अधिकांश बाराती मेरी ही तरह पूर्वी उत्तर प्रदेश के बस्ती, गोरखपुर, कुशीनगर, प्रतापगढ़, जौनपुर, सुल्तानपुर, बस्ती, और लखनऊ जैसे शहरों से रात भर ट्रेन की यात्रा करके पधारे थे। सभी अपने-अपने होटल से तैयार होकर प्रातः दस बजे के नियत समय पर बस में इकठ्ठे हो गये। लेकिन जो कुछेक बाराती स्थानीय दिल्ली के निवासी थे उन्होंने उम्मीद के मुताबिक तैयार होकर आने में पूरा समय लिया और बस दोपहर बाद डेढ़ बजे कूच कर सकी।

बस के चलते ही प्यास की पुकार सुनकर बिसलेरी की दो दर्जन बोतलें और बिस्किट वगैरह खरीदने के लिए बस रोकी गयी। फिर आगे बढ़े तो प्रायः सभी परिवारों के कैमरे निकल आये। महौल बारात के बजाय पिकनिक मनाने जैसा बन गया। मेरा सोनी का डिजिटल कैमरा ऐन वक्त पर बैटरी डिस्चार्ज्ड होने का सन्देश देकर बन्द हो गया। चलते समय चेक तो किया था लेकिन शायद कोई कसर रह गयी थी। खैर... मायूस होने का समय नहीं था, क्योंकि ‘जीजाजी’ अन्ताक्षरी खेलने के लिए बीच की सीटों पर बुला लिए गये। नयी उम्र के बच्चों और कुछ कम नयी उम्र की महिलाओं ने ऐसा शमां बाँधा कि हम केवल मूक श्रोता बने रह गये। कभी-कभार इस या उस टीम की गाड़ी फँस जाने पर अपने विद्यार्थी जीवन में याद रहे कुछ गाने सुझाते रहे और महिला बनाम पुरुष टीम की अन्ताक्षरी को  अनीर्णित समाप्त कराने में सफ़ल रहे।

करीब तीन बजे सबको ध्यान आया कि सुबह का हल्का नाश्ता तो बस के प्रस्थान करते समय ही नीचे उतर चुका था और अब बिस्किट-पानी भी लड़ाई हार चुके थे। योजना तो थी जयपुर पहुँचकर भोजन करने की; लेकिन पेट को क्या मालूम की जयपुर अभी काफ़ी दूर है। उसने तो ईंधन खत्म होने की नोटिस सर्व कर दी। फौरन मोबाइल बजने लगे। बस से करीब पन्द्रह मिनट आगे चल रहे दूल्हे मियाँ की टवेरा गाड़ी से सम्पर्क किया गया तो उन्होंने अपने दोस्तों के साथ एक काम लायक ढाबा खोज ही लिया। ‘परम पवित्र भोजनालय’ पर दूल्हे ने पन्द्रह मिनट के भीतर पीछे से आ रही बारात के लिए खाना तैयार करने का फरमान जारी कर दिया था।

दूल्हे के साथ ब्लॉगर

बारात को खिलाना कोई हँसी-खेल तो है नहीं...। लेकिन नये नवेले पुलिस अफ़सर दूल्हे की बात में शायद कोई विशेष प्रभाव रहा हो कि ढाबे पर जब हमारी बस पहुँची तो टेबल सज चुकी थी। सबने प्लेटें भरीं और पनीर, राज़मा, आलू-गोभी, चना-छोला की रसदार सब्जियों और अरहर की तड़का दाल के साथ गर्मागरम रोटियों की धीमी खेप पर हल्ला बोल दिया। अच्छी भूख पर जब गरम और स्वादिष्ट भोजन का जुगाड़ हो गया तो उससे मिलने वाली तृप्ति के क्या कहने...। एक घण्टे में सभी मीठी सौंफ़ फाँकते डकारते हुए बस में सवार हो गये।

इसके बाद जयपुर पहुँचने में आठ बज गये। जहाँ बारात को ठहरना था उस स्थान का लोकेशन किसी को पता नहीं था। कन्या पक्ष को मोबाइल पर बताया गया। एक गाड़ी रास्ता बताने आ पहुँची। लेकिन शायद अन्जान जगह पर समूह की बुद्धि लड़खड़ा जाती है। यहाँ भी उहापोह में करीब एक घण्टा खराब हो गया। ‘होटेल मोज़ैक’ में पहुँचकर हमने अपने आप को धन्य मान लिया। वहाँ की व्यवस्था देखकर ही हमारी आधी थकान जाती रही। एक शानदार कमरे की चाभी काउन्टर से लेकर हम लिफ़्ट से कमरे तक आये। बिस्तर पर बैठते ही उसमें धँसने का एहसास हुआ। फिर सम्हालकर लेट गये। सामने टीवी पर रिमोट चलाया तो भारत-श्रीलंका के बीच हो रहे कानपुर टेस्ट के तीसरे दिन के खेल की झलकियाँ आ रही थीं। इसे देखकर तो खुशी से बल्लियों उछल पड़े। फ़ॉलोऑन के बाद टाइगर्स के दूसरी पारी में भी ५७ रन पर चार विकेट गिर चुके थे। अविश्वसनीय सा लगा।

इसी बीच कमरे में रखे फोन की घण्टी बजी। रिसीवर उठाया तो होटेल स्टाफ़ ने बताया कि नीचे चाय-नाश्ते की टेबल पर प्रतीक्षा की जा रही है। वाह... इन्हें कैसे पता चला कि हमें अभी-अभी चाय की तलब लगी है...? बेसमेन्ट में जाकर नाश्ता करने के बाद ही तैयार होने का निर्णय लिया गया और हमने फौरन लिफ़्ट में घुसकर ‘-1’ दबा दिया। हाल में लगे अनेक किस्म के आइटमों का जोरदार नाश्ता देखकर हम सहम गये और डिनर का अनुमान लगाते ही परेशान से हो लिये। कितनी तो वेरायटी थी। सबका नाम तो अबतक नहीं जान पाया।बारात की प्रतीक्षा में बैण्ड पार्टी

नाश्ते के बाद कमरे में आकर बाथरूम की ओर गये। वहाँ की फिटिंग्स को देखकर उन्हें छूने में सहम से गये। पता नहीं क्या छूने से कहाँ पानी निकल पड़े। आखिर जब सही बटन दबाने पर हल्का गुनगुना पानी बरामद हो गया तो फौरन नहा लेने का मन बन गया। दूधिया सफेदी में चमकता संगमरमर का बाथटब नहाने के लिए आमन्त्रित कर रहा था। करीब आधा दर्जन छोटे-बड़े तौलियों और इतने ही प्रकार के साबुन, क्रीम शैम्पू वगैरह से सुसज्जित स्नानघर में अधिकाधिक समय बिताने का लोभ हो रहा था लेकिन आये तो थे हम बारात करने। इसलिए जल्दी से नहाकर बाहर हो लिए और नये कपड़े में सजधजकर नीचे इन्तजार कर रहे रिश्तेदारों के बीच पहुँच गये।

बाराती नृत्य दूल्हा भी नाच उठा

इस समय तक मेरे भीतर का ब्लॉगर जाग चुका था और डिजिटल कैमरे की बैटरी डिस्चार्ज होने पर मायूस होने लगा था। गनीमत यह थी कि मोबाइल का कैमरा काम कर रहा था जिससे इस बारात में आगे चलकर कुछ शानदार तस्वीरें खींची जा सकीं।

उस समय बारात में  दूल्हे (एम.बी.बी.एस./ आई.पी.एस.) के साथी जिनमें अधिकांश डॉक्टर थे और कुछ नव चयनित अधिकारी थे, बैंड वालों से कुछ चुनिन्दा गीतों की सूची डिस्कस कर रहे थे। महिलाएं अपने साज-श्रृंगार को पूरा करने के बाद बाहर आ गयी थीं लेकिन अभी भी एक दूसरे से पूछकर अन्तिम रूप से आश्वस्त होने की प्रक्रिया में जुटी हुई थीं। दूल्हे की गाड़ी किसी कन्फ़्यूजन में सज नहीं पायी थी लेकिन उस ओर किसी का खास ध्यान नहीं था। सभी अपनी सजावट के सर्वोत्तम रूप को पा लेने का यत्न कर रहे थे। दुल्हा तो राजकुमार जैसा दिख ही रहा था। रात के साढे दस बजे तक बारात पूरी तरह सज नहीं पायी थी। फिर पता चला कि बैण्ड वालों के जाने का समय नजदीक आ रहा है। बस क्या था... लाइट, कैमरा, साउण्ड...

प्रकाश पुंज श्रृंखला

दूल्हे के दोस्त और नजदीकी रिश्तेदार बैण्ड पर झूमने लगे। आतिशबाज अपना काम करने लगे। आज मेरे यार की शादी है... ये देश है बीर जवानों का... नानानानानारे... नारे... नारे.... धमक धमक की आवाज और भांगड़े की धुन की थाप पर धीरे-धीरे सबके पैरों में हरकत आ गयी। थोड़ी देर में ही महिलाओं ने भी मोर्चा सम्हाल लिया। सर्वत्र खुशी और उत्साह से फूटती हँसी और खिलखिलाहट बैण्ड और ताशे की ऊँची ध्वनि में विलीन होती रही, और कैमरों की फ्लैश लाइटें आतिशबाजी के ऊँचे स्फुलिंग की रोशनी में नहाती रहीं। मानो इतना प्रकाश भी कम पड़ जाता इसलिए दर्जनों बल्बों से सज्जित ज्योति कलश भी प्रदीप्त होकर कतारबद्ध चल रहे थे। तभी इस ब्लॉगर की खोजी निगाह इन प्रकाशपुंजों के नीचे चली गयी। धक्‌ से मुहावरा कौंधा- “दीपक तले अंधेरा”

 ज्योति-बाला २
ज्योति-बाला ३
ज्योति-बाला ४
ज्योति-बाला ५
ज्योति-पुंज धारी १
ज्योति पुंज धारी
ज्योति-बाला-१

इन रोशनी के स्तम्भों को अपने सिर, कन्धे और कमर पर थामे हाथ जिन लड़कियों और औरतों के थे उनके चेहरे पर शादी जैसा कोई माहौल ही नहीं था। उनकी आँखें जैसे शून्य में निहार रही थीं। किसी से निगाह मिलाना तो जैसे उन्होंने सीखा ही नहीं था। जिस बारात में शामिल सभी लोग अपना सर्वोत्तम प्रदर्शित करने को आतुर थे उसकी शोभा के लिए रोशनी ढोने वाली ये गरीब मजदूरनें तो बस बीस-पच्चीस रूपये की कमाई के लिए ही इस बारात में शामिल थीं। नंगे या टूटी हवाई चप्पलों वाले  धूल बटोरते पैर, मैली-कुचैली वेश-भूषा, और उलझे हुए धूलधूसरित बालों में खोये हुए ये मलिन चेहरे देखकर मेरा मन कुछ समय के लिए विचलित हो गया। आगे-आगे चलने वाले बैण्ड के सदस्यों को तो फिर भी एक यूनीफॉर्म मिला हुआ है। नाचते-गाते बारातियों द्वारा लुटाये जा रहे नोटों को बटोरने का सुभीता भी इन्हीं को है, लेकिन ये राह रौशन करती बालाएं तो पहलू बदल-बदलकर बारात के विवाह मण्डप तक जल्दी पहुँच जाने की कामना में ही रुक-रुक कर चल रही हैं।

अब आगे का वर्णन ये तस्वीरें ही करेंगी। मैं तो चला अब राजस्थानी अगवानी की रीति देखने जो मेरे लिए बिल्कुल नयी थी।

पारम्परिक स्वागत

जिस परिसर में विवाह मण्डप बना था उसके मुख्य प्रवेश पर बने तोरण द्वार पर लाल फीता बँधा था। उसके उस ओर दुल्हन की सहेलियाँ स्वागत के लिए खड़ी थीं। एक सहेली या दुल्हन की छोटी बहन ने सिर पर कलश ले रखा था। दोस्तों के कन्धे पर चढ़कर आये दूल्हे को दुल्हन की भाभी ने तिलक लगाया, दूल्हे ने फीता काटा और सभी नाचते गाते भीतर प्रवेश कर गये। इस प्रक्रिया में कुछ रूपयों का आदान-प्रदान भी हुआ।

भव्य मन्च

भीतर विशाल प्रांगण में एक भव्य मंच सजा था। वैदिक मन्त्रोच्चार के साथ वेदिका पर तिलक चढ़वाने के बाद दूल्हे ने दूल्हन के साथ मंच पर आसन ग्रहण किया। दूल्हे के दोस्तों और दुल्हन की सहेलियों के बीच कुछ मीठी तकरार के बाद दुल्हन ने ऊँचा उठा दिये गये दूल्हे के गले में उछालकर जयमाला डाल दी। दूल्हा नीचे उतरा और दुल्हन को जयमाल डालकर उसे जीवनसंगिनी बना लिया।

जयमाल सम्पन्न

इस अनुपम सौन्दर्य से विभूषित वैवाहिक कार्यक्रम में इस विन्दु तक शामिल होने के बाद मुझे अपनी अगली यात्रा का ध्यान आया। जयपुर से सीधे इलाहाबाद लौटने के लिए जियारत एक्सप्रेस का समय (२:१५ रात्रि) नजदीक था। मैने सबसे विदा ली और चलते-चलते उस परिसर में स्थापित इस प्रतिमा की तस्वीर लेकर स्टेशन की ओर चल पड़ा।

नयनाभिराम

शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

कौन कहता है कि राजनीति का पतन हो रहा है...?

 

दस साल पहले संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) के साक्षात्कार में एक सदस्य ने मुझसे पूछा था कि भारत के राजनेताओं और पश्चिमी देशों के राजनेताओं में मौलिक अन्तर क्या है? मेरे बायोडेटा में शायद यह देखकर कि मैं पत्रकारिता का विद्यार्थी रह चुका हूँ उन्होंने मुझसे यह मुश्किल सवाल पूछ दिया था। तब सरकारी सेवा में दो साल तक रह लेने के बाद मुझे नेता नामक जीव के बारे में जो अनुभव हुआ था उसके आधार पर मैने कुछ स्पष्ट टिप्पणी न करना ही उचित समझा। अकस्मात् मुझे कोई सटीक अन्तर सूझ भी नहीं रहा था।

...फिर उन्होंने ही बताया कि भारत में राजनीति पेशेवर नहीं है। इसमें एक खास पारिवारिक पृष्ठभूमि के लोग ही आगे बढ़ पाते हैं। भकुआकर मैं उनकी बात सुनता रहा... कह रहे थे कि यदि आप किसी दूसरे पेशे में लगे हुए हैं तो  आप नेता नहीं हो सकते और यदि आप नेता हैं तो किसी दूसरे पेशे में नहीं जा सकते। लेकिन पश्चिमी लोकतन्त्रों में आप किसी भी पेशे में रहते हुए चुनाव लड़ सकते हैं, जीत सकते हैं, मन्त्री बन सकते हैं और फिर वापस अपने काम पर लौट सकते हैं।

मुझे उनकी बातें तब बिल्कुल ‘हट के’ लगी थीं लेकिन बाद में जब मैने इस पर विचार किया तो उनकी बात ठीक ही लगी। यहाँ आप अच्छे डॉक्टर, वकील, शिक्षक, इन्जीनियर, मैनेजर, प्रशासक, कलाकार, फौजी, नर्तक, चित्रकार, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री  आदि हैं तो अच्छी नेतागीरी नहीं कर सकते। सरकारी नौकरी करने वाले तो बाकायदा इस काम से प्रतिबन्धित हैं। यहाँ जो नेता है वह सिर्फ नेता ही है। वह चुनाव लड़ने-लड़वाने, जीतने-हारने, और विधायक, सांसद और मन्त्री बनने या न बन पाने   के अलावा कुछ नहीं कर सकता। अनेक परिवार पूरी तरह इस राजनीति कर्म को ही समर्पित हैं।

मुझे यह सोचकर मन ही मन कोफ़्त सी होने लगी थी कि एक स्वतंत्र पेशा  के रूप में राजनीति का  कैरियर चुनने का विकल्प सबके पास मौजूद नहीं है। अपनी निजी प्रतिभा, अभिरुचि और परिश्रम से अन्य सभी व्यवसाय अपनाए जा सकते हैं लेकिन किसी व्यक्ति में इन गुणों की प्रचुरता के बावजूद राजनीति के क्षेत्र में सफलता की गारण्टी नहीं है।  देश में कितनी प्रतिभाएं भरी पड़ी हैं लेकिन राजनीति के क्षेत्र में वही लोग पीढ़ी दर पीढ़ी चलते आ रहे हैं। टाइम्स ऑफ़ इण्डिया का लीड इण्डिया कैम्पेन भी शायद इसी सोच के आधार पर शुरू किया गया था लेकिन अपेक्षित बदलाव दिखायी नहीं दिये।

लेकिन जरा ठहरिए...  पिछले दस बारह साल में राजनीतिक पटल पर जो कुछ घटित हुआ है उसे देखकर आप क्या कहेंगे? अपने देश में एक उच्च कोटि का वैज्ञानिक राष्ट्रपति बना और प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री प्रधानमन्त्री बन गया। विडम्बना देखिए कि यह सब तभी सम्भव हुआ जब इस प्रकार का निर्णय किसी खानदानी राजनैतिक परिवार द्वारा लि्या गया। इन विभूतियों ने अपने जीवन के उद्देश्य तय करते समय कभी नहीं सोचा होगा कि उन्हें राजनैतिक सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचना है। न ही इन्होंने इस दिशा में कोई स्वतन्त्र प्रयास किया होगा। वस्तुतः इनका राजनीति में आना और टिके रहना इनके असली आका के प्रसादपर्यन्त ही सम्भव हुआ। कलाम साहब को जब पूरा देश चाहता था तब भी वो हटा दिये गये थे। इसलिए इन दो उदाहरणों को अपवाद ही माना जाना चाहिए।

ये सारी बातें आज मेरे मन में आने की एक खास वजह है। मेरी मुलाकात एक ऐसे दुर्लभ प्राचीन कालीन नेता जी से हुई जो उत्तर प्रदेश में विधायक रह चुके हैं। उत्तर प्रदेश राज्य की विधान सभा के माननीय सदस्य जो अत्यन्त गरीब और बदहाल हैं...।

 

पूर्व विधायक श्री रामदेव जी

श्री रामदेव

पुत्र-रामनाथ

ग्राम-पुरा लच्छन

पोस्ट/तहसील-मेजा

कांगेसी बिधायक-मेजा

(१९७४-१९७७)

आजकल एक बार विधायक हो जाने का मतलब  आप सहज ही जान सकते हैं। मधु कोड़ा जी का उदाहरण तरोताजा है। कुल जमा चार पाँच सालों में आर्थिक विकास की जो गंगा उन्होंने बहायी है उसका वर्णन यहाँ करना जरूरी नहीं है। सभी कोड़ा साहब की तरह मधु ही मधु तो इकठ्ठा नहीं कर पाएंगे लेकिन किसी भी विधायक के लिए अब देखते-देखते करोड़ों जुटा लेना सामान्य बात हो गयी है। बड़ी सी चमचमाती गाड़ी में चार-चार बन्दूकधारियों के साथ घूमते, नौकरशाहों पर रोब गाँठते ये जनता के नुमाइन्दे जिस ओर निकल पड़ते हैं उस ओर तीमारदारों की लाइन लग जाती है। एक बार विधायकी का दाँव लग गया तो पूरी जिन्दगी के पौ-बारह हो जाते हैं। पीढ़ियाँ निहाल हो जाती हैं।

ऐसे में यदि आपको एक ऐसा पूर्व विधायक मिल जाय जिसको अपनी रोजी-रोटी के लिए खेत में मजदूरी करनी पड़ रही हो, तहसील में जाकर किसी वकील का बस्ता ढोना पड़ रहा हो और १०-२० रूपए लेकर दस्तावेज नवीसी करनी पड़ रही हो तो क्या कहेंगे? जी हाँ, इलाहाबाद की मेजा विधान सभा का प्रतिनिधित्व १९७४ से १९७६ तक करने वाले विधायक रामदेव जी आज भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले भूमिहीन दलित परिवार के मुखिया हैं। उनके तीन बेटों को शिक्षा नसीब न हो सकी। खेतों में मेहनत मजदूरी करना और बैलों के साथ हल चलाना उनका जीविका का साधन है।

“आपने बच्चों को पढ़ाया नहीं...?”

“कहाँ साहब, हम गरीब आदमी ठहरे... बच्चों का पेट पालें कि स्कूल भेंजें...?”

बात बात में दोनो हाथ जोड़कर अपनी सरलता का परिचय देते  रामदेव जी ने जब अपनी राम कहानी बतायी तो मेरे मन में एक हूक सी उठने लगी। खुद भी मुश्किल से दर्जा पाँच पास कर सके थे। कांग्रेस पार्टी के जलसों में आया जाया करते थे। बहुगुणा जी ने हरिजन सुरक्षित सीट से टिकट दे दिया तो विधायक बन गये लेकिन अपने घर परिवार के लिए कोई संसाधन नहीं जुटा सके। लखनऊ की सत्ता की गलियों में पहुँच जाने के बावजूद बच्चों को गाँव के प्राइमरी स्कूल से आगे नहीं ले जा सके।

तीनो बेटों की कम उम्र में शादी कर दी। स्थानीय अनपढ़ समाज से बाहर कोई रिश्ता नहीं हुआ। बेटों ने खेतों में मजदूरी की और घर में बच्चे पैदा किए। तीनो के मिलाकर बारह लड़कियाँ और एक लड़का। सभी अशिक्षित रहे और मजदूर  बन गये। पैतृक सम्पत्ति के नाम पर खेत का जो छोटा टुकड़ा मिला उस पथरीली जमीन पर थोड़ी सी ज्वार, बाजरा और मक्का की फसल अपने श्रम से उगा लेते हैं, लेकिन चावल गेहूँ दाल तो खरीदना ही पड़ता है।

“बी.पी.एल. कार्ड बनवा लिए हैं कि नहीं...?” सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान से खरीदारी की सुविधा देने वाले इस कार्ड की बावत पूछने पर सकुचा जाते हैं।

“है तो साहब, लेकिन कहाँ मिल पाता है...। राशन का खर्चा बहुत है... वहाँ से कभी-कभार दस-बीस किलो चुपके से ले आता हूँ... थोड़ी लाज भी लगती है साहब... बड़ी कठिनाई है... ” उनके बार-बार हाथ जोड़ने से मुझे उलझन होने लगती है।

“आपका मकान कैसा है?” ब्लॉगर ने साहस करके पूछ ही लिया।

“कच्चा है साहब... हम बहुत गरीब हैं”...चेहरे पर वही संकोच तारी है।

“भूतपूर्व विधायक को तो सरकार अनेक सुविधाएं देती है। आपने कोशिश नहीं की...?” मेरा आशय राजनैतिक पेंशन, मुफ़्त  की यात्रा सुविधा इत्यादि से था।

“साहब ट्रेन और बस का ‘पास’ तो है लेकिन हमें खेत-खलिहान और तहसील तक ही जाना होता है... उसके लिए साइकिल या पैदल से काम चल जाता है। कभी लखनऊ या इलाहाबाद जाना होता है तभी पास का काम पड़ता है।”

“पेंशन तो मिल रही है न...?”

“डेढ़ हजार में क्या होता है साहब?”

“बस डेढ़ हजार...?” मुझे आश्चर्य हुआ।

“असल में साहब, मैं टाइम पर फॉर्म नहीं भर पाया था... सरकार का कोई दोष नहीं है” विनम्रता में हाथ बदस्तूर जुड़ा हुआ है।

मैने सम्बन्धित बाबू को बुलाकर पूछा तो पता चला कि समय-समय पर पेंशन पुनरीक्षण (revision) की प्रक्रिया का लाभ इन्हें मिला ही नहीं है। मई ’९७ से इनकी मूल पेंशन १४५०/- रूपये पर अटकी हुई है। कांग्रेस छोड़कर भाजपा में पहुँच चुके रामदेव जी की खराब माली हालत पर जब यहाँ के सांसद प्रत्याशी की निगाह पड़ी तो उन्होंने विधान सभा सचिवालय में पैरवी करके इनकी पेंशन में सुधार करा दिया था। उसी प्राधिकार पत्र के अनुसार भुगतान शुरू कराने के लिए रामदेव जी ने कोषागार की राह पकड़ी थी।

मैने देखा कि इनकी पेंशन सितम्बर-९८ से १९००/-, अप्रैल-२००४ से २५००/-, अगस्त-२००५ से ३६००/- और दिसम्बर-२००७ से ७०००/- कर दिए जाने का आदेश एक साथ जारी हुआ था। यानि विधायक जी अपनी मेहनत मजदूरी, और तहसील की मुंशीगीरी में इतना उलझे रहे कि अपनी पेंशन भी समय से नहीं बढ़वा सके। मूल पेंशन पर देय महंगाई भत्ता जोड़कर एकमुश्त एरियर की धनराशि लाखों में मिलने की बात सुनकर उनके चेहरे पर जो खुशी उतर आयी उसका बयान करना मुश्किल है। बार बार हाथ जोड़कर ऊपर वाले के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते रहे। आँखों की कोर से नमी झँकने लगी थी।

क्या आज का कोई विधायक या टुटपुँजिया नेता भी इस दारुण दशा का शिकार हो सकता है?  किसी विधायक के इर्द-गिर्द चलने वाले लटकन भी ठेकेदारी और रंगदारी का धन्धा चमकाकर मालदार और रौबदार हो लेते हैं। राजनीति के क्षेत्र में उतरने वाले अब इतना विकास तो आसानी से कर लेते हैं कि उन्हें कभी रामदेव जी जैसे दिन न देखने पड़े। मधु कोड़ाओं के तो कहने ही क्या...।

फिर कौन कहता है कि राजनीति का पतन हो रहा है...? :)

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

शनिवार, 14 नवंबर 2009

बाल दिवस पर चच्चा, दादा और परदादा से भेंट

 

आज सुबह-सुबह बच्चों को ‘हैप्पी चिल्ड्रेन्स डे’ बोलकर ऑफिस गया तो इस वादे के साथ कि शाम को कहीं घुमाने ले जाएंगे। आज ‘सेकेण्ड सैटर्डे’ के कारण ट्रेजरी में काम कम होने की उम्मीद थी। मन में खुशी थी... जल्दी लौट आऊंगा और बच्चों की ख़्वाहिश पूरी करने और अपने गुरुदेव व गिरिजेश भैया के चच्चा जी से मिलकर उन्हें जन्मदिन की बधाई देने उनके गंगातट विहार के समय ही शिवकुटी की ओर जाऊंगा।

लेकिन ऑफिस में जाते ही दिमाग में बसे बच्चे आँखों के सामने आने वाले बुजुर्गों के साथ घुलमिलकर अलग अनुभूति देने लगे।

कुंजबिहारी चटर्जी (१९१४)

सबसे पहले २१ सितम्बर १९१४ में जन्में कुंजबिहारी चटर्जी  मुस्कराते हुए आये तो उनके साथ जैसे पूरा कमरा ही मुस्कान से भर गया। पिछले साल पहली बार भेंट होने के बा्द से ही उनकी आँखें जैसे मुझे हमेशा तृप्ति का संदेश देती हैं। आज भी उन्हें देख कर मुग्ध हो गया।

रामधारी पाण्डेय जी से पहली मुलाकात हुई थी लेकिन लगा जैसे कितना पुराना साथ रहा हो। कोषागार में आते हुए उन्हें ६३ साल हो चुके हैं। रामधारी पाण्डेय (१९०६) दोनो विश्वयुद्ध, सविनय अवज्ञा (१९३०) और भारत छोड़ो आन्दोलन (१९४२) का प्रत्यक्ष अनुभव समेटे हुए उनका मस्तिष्क अभी भी जाग्रत है। कमर जरूर झुक गयी है। उनकी वंशावली की पाँचवीं पीढ़ी का जवान लड़का उन्हें लेकर आया है जो बताता है कि इनका जन्म अगस्त-१९०३ का है। फोटो खिंचाने के लिए सहर्ष तैयार हो जाते हैं और जाते समय हाथ उठाकर आशीर्वाद देना नहीं भूलते।

अमीर अहमद (१९१८) अमीर अहमद (नब्बे साल) का चेहरा तो अभी भी बुलन्द है लेकिन पैर में पक्षाघात हो जाने से खड़े नहीं हो सकते। दो-दो जवान नाती उन्हें टाँग कर लाए हैं। आवाज की बुलन्दी बरबस ध्यान आकृष्ट करती है।

राम सुन्दर दूबे भी बहुत प्रसन्न हैं। उम्र पूछने पर पहले सकुचाते हैं, फिर मुस्काते हैं और फिर बताते हैं कि ८८ वर्ष का हो गया हूँ। खुद अपनी साइकिल चलाकर आए हैं।  १९४२ में सिविल पुलिस में भर्ती हुए थे। इलाहाबाद की पुलिस लाइन्स को तबसे देख रहे हैं।

“अच्छा, तब तो आपने भारत छोड़ो आन्दोलन में अंग्रेजी फोर्स की ओर से स्वतंत्रता सेनानियों पर खूब लाठियाँ भाँजी होंगी?”रामसुन्दर दुबे (१९२१)

सामने बैठा प्रशिक्षु कोषाधिकारी को यह प्रश्न उनके साथ कुछ ज्यादती सा लगता है। “नहीं सर, ये लोग आन्दोलन का समर्थन करते थे। विपिन चन्द्रा की किताब में लिखा है... इसी लिए तो आन्दोलन सफल हो गया। अंग्रेजों ने तभी तो भारत से चले जाने का मन बना लिया...”

“उन्हें कु्छ बताने दो यार... किताब तो हमने भी पढ़ी है।”’ मैं फुसफुसाता हूँ...

“अरे साहब, क्या करें... नौकरी करना मजबूरी थी...। लेकिन हमने उनलोगों पर कभी हाथ नहीं उठाया। उनके बीच से बचते-बचाते निकल जाते थे। वर्दी अंग्रेजों ने दी थी लेकिन हमारा दिल तो देश के साथ था। कभी हमने उन्हें रोका तक नहीं... सब जानते थे कि ये सिपाही हमारे साथ हैं”चम्पाकली(९०) बेटी (६८) के साथ

चम्पाकली(९०) अपनी बेटी (६८) के साथ आयी हैं। दोनो पेंशनर हैं। ऊँचा सुनती हैं लेकिन इशारे से सभी जरुरी बातें बता देती हैं। कमला(७०) और मैना(९०) भी माँ-बेटी हैं, दोनो पेंशन पाती हैं और आज संगम-स्नान करके ट्रेजरी आयी हैं।

कमला (७०),मैना (९०) माँ-बेटी

दिनभर ऐसे बुजुर्गों का आना जाना लगा रहता है। सबसे दुआ-सलाम, हाल-चाल...

शाम चार बजे घर से याद दिलाया जाता है कि बच्चे गंगा किनारे शिवकुटी की सैर को जाने के लिए तैयार हो रहे हैं। आज समय से घर आ जाइए। ठीक पाँच बजे ऑफिस छोड़ देता हूँ। घर आकर देखता हूँ कि कोई अभी तैयार नहीं है। इसलिए कि किसी को विश्वास नहीं था कि मैं इतना समय से आ जाऊंगा। झटपट तैयारी शुरू हो लेती है। मैं ब्लॉग वाणी खोलता हूँ। हलचल पर जाकर पता चलता है कि  “बड्डेब्वाय”(!) की तबीयत ठीक नहीं है। शुभकामनाएं अब मिलकर देना ठीक नहीं है। बच्चा पार्टी ऊधम मचाने के मूड में है। अभी कल ही तो एक स्टार पार्टी से लौटे हैं। अभी हैंगओवर बना हुआ है।

पार्टी टाइम गुब्बारे लगते प्यारे चटपटा है जी...

गाड़ी की दिशा उत्तर के बजाय दक्षिण की ओर मोड़ देता हूँ। सिविल लाइन्स का सुभाष चौक... जिसके आग्नेय कोण पर सॉफ़्टी कॉर्नर है। फ्रीजर से आइसक्रीम की भाप उड़ रही है। बदली के मौसम में भीड़ कुछ कम है। रेलिंग से लगे चबूतरों पर काठ के पीढ़े बिछे हैं। विद्यार्थी जीवन के जमाने से इन पीढ़ों पर बैठकर हॉट या कोल्ड कॉफी, सॉफ़्ट ड्रिंक, आइसक्रीम इत्यादि का मजा लेने का आनन्द बार-बार दुहराने का मन करता है। आज बच्चों को वही ले गया।

“बेटी, क्या खाएगी? आइस क्रीम...? ”

“कौन सी?

“चॉकलेट फ्लेवर! ” समवेत स्वर...

ओके...!

“छोटू...! चार चॉकलेट आइसक्रीम... तीन कोन और एक कप... जल्दी”

“ईश्वर कोन में नहीं खा पाएगा। उसे कप में चम्मच के साथ दिलाइए... ” मायके से लाये लड़के के लिए पत्नी की सलाह पर अमल करना ही था।

“तुम्हें क्या ले दूँ? ” 

“कुछ नहीं... आज मेरा प्रदोष है”

“मुझे फिर कभी अकेले लाइएगा... आप कुछ ले लीजिए...”

“क्यों नहीं,  जरूर लूंगा, चच्चा का बड्डे है जी...”

मेरे ऑर्डर की प्रतीक्षा कर रहा लड़का ‘मिक्स्ड फ्लेवर’ का आदेश पूरा करने चल पड़ता है। थोड़ी ही देर में सतरंगी मीनार कोन पर सजाए हाजिर... जितने फ्लेवर उतने रंग... एक दूसरे पर चढ़े हुए... बच्चे अपनी चॉकलेट फ्लेवर के चुनाव पर पछताने लगे... कई स्वाद एक साथ...

“ओ डैडी, हमें अब कुछ और भी खिलाना पड़ेगा...।” क्षतिपूर्ति की सिफारिश बेटी ने की।

बगल में ही चाटवाले के गरम तवे से भाप उड़ती हुई दिख गयी। बर्गर, टिकिया, पानी-बताशा, चाऊमिन, और गुलाबजामुन भी...। सड़क पर खड़े-खड़े इसका भी आनन्द चटकारे लेकर...

इसी बीच एक और बचपन दिखा... देखने की इच्छा नहीं हुई लेकिन बच कैसे पाते? चमचमाती कारों के आगे-पीछे फैलते हाथ, आइसक्रीम खाते बच्चों के पीछे खड़े होकर उन्हें अपलक निहारती आँखे, चाट की दुकानों पर खाली होते पत्तलों पर टपकती लार, और याचना को अनसुना करके आगे बढ़ जाने वालों के पीछे-पीछे दौड़ने वाले पैर जिन बच्चों के थे उनके चेहरे पर १४ नवम्बर कहीं नहीं लिखा पाया। मोबाइल कैमरे से तस्वीर खींचते हुए भी एक स्वार्थभाव का अपराध बोध ही पीछा करता रहा।

अन्ततः तय हुआ कि अपने बच्चों की आज की तस्वीरें नहीं लगायी जाएंगी। बस उस एक लड़की को देखिए जिसने कैमरा देखते ही मुस्कराने की असफल कोशिश की थी।

एक बचपन जो पीछे रह गया है..मैं  समझ नहीं पाया कि उसकी मुस्कान फोटू खिंचाने पर थी या उन चन्द सिक्कों पर जो उसे अभी-अभी मिले थे। यह भी कि इनकी गरीबी और बदहाली का ब्लॉगपोस्ट बनाना कितना उचित है...?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

 

Technorati Tags:

बुधवार, 11 नवंबर 2009

गर्ज़ू नचनिया तेल दै दै नाचे...!

 

ग्रामीण परिवेश में बिताए बचपन के दिनों से मेरे मन में अमिट रूप में जो चरित्र अंकित हैं उनमें ‘नाच पार्टी’ में स्त्री पात्रों की भूमिका निभाने वाले मर्दों की छवि विशेष कौतूहल का विषय रही है। यह ‘नाच’ शादी-विवाह के अवसर पर बारातियों के मनोरंजन के लिए आती थी। बारात के मालिक की प्रतिष्ठा इस ‘नाच’ की ख्याति के स्तर से भी नापी जाती थी। इस नाट्यदल पार्टी की ख्याति उसमें शामिल ‘पुरुष नर्तकियों’ की संख्या और गुणवत्ता के आधार पर तय होती थी।

image कमनीय काया, पतली लोचदार कमर, लम्बे-काले-असली बाल, सुरीला गला, गोरा-चिकना चेहरा और उसपर फिल्मी हिरोइनों की नकल करते हुए देर तक नाचने की क्षमता इत्यादि इस पेशे की मांग हुआ करती थी। एक मर्द के भीतर इतने स्त्रैण गुणों का एक साथ मिलना दुर्लभ तो था ही, यदि कोई ‘लवण्डा’ इस कोटी का मिल जाता था तो उसकी नाच देखने दूर-दूर से ‘नचदेखवा’ टूट पड़ते थे।

अलग-अलग गाँवों से आने वाले ये समूह इस नाच कार्यक्रम को अपने अनुसार चलाने की होड़ में कभी-कभार भिड़ भी जाते थे। यहाँ तक कि लाठियाँ निकल आतीं और सिर-फुटौवल की नौबत भी आ जाती। एक नामी ‘नचनिया’ को उसके डान्स पर खुश होकर ईनाम देने वालों की होड़ भी लग जाती। बारात में आये दूल्हे के रिश्तेदार एक दूसरे के नाम से रूपया न्यौछावर करते और स्त्री के श्रृंगार में नाचने वाला लवण्डा ढोलक और नगाड़े की थाप पर एक खास शैली में उन्हें ‘शुक्रिया अदा’ करता। अचानक दर्शक दीर्घा में बैठे किसी खास रिश्तेदार (दूल्हे के बहनोई, फूफा आदि) के पास पहुँचकर उसके ऊपर साड़ी का पल्लू फेंक देने और बदले में जबरिया ईनाम ऐंठ लेने की कला भी इनको खास अकर्षक बनाती और तालियाँ बटोरने के काम आती।

मुझे याद है जब बिजली के लिए जेनरेटर का चलन गाँवो में नहीं था, तो शादी-विवाह या अन्य बड़े आयोजनों पर पेट्रोमेक्स जलाए जाते थे। मिट्टी के तेल से चलने वाला यह ‘पंचलाइट’ ही रात के अंधेरे को दूर करने वाला उत्कृष्ट साधन माना जाता था। इस गैसलाइट को संक्षेप में ‘गैस’ ही कहा जाता था। नाच के आयोजन में इसकी भूमिका भी महत्वपूर्ण थी। मंच के सामने ऊपर बाँस या बल्ली में दो ‘गैस’ लटकाये जाते थे। जमें-जमाये कार्यक्रम के दौरान अचानक जब प्रेशर कम हो जाने पर गैस से रोशनी के बजाये आग की लपटें निकलने लगतीं तो सभी ‘गैसड़ी’ को पुकारने लगते। वह सबकी लानत-मलानत सुनता हुआ गैस को नीचे उतारता, तेल डालता, गैस में हवा भरता और दुबारा टांग कर नीचे आ जाता। इस दौरान नाच का जोकर मंच से लोगों को अपनी ठिठोली से सम्हालता।

imageगाँव के  छोटे बच्चे नाच देखने के बजाय नाच पार्टी की तैयारी और कलाकारों के सजने-सवँरने की प्रक्रिया को ताकने- झाँकने में अधिक रुचि लेते थे। नाच की ‘हिरोइन’ को दाढ़ी बनवाते, मूँछ साफ कराते और लुंगी लपेटकर बींड़ी पीते देखना उन्हें ज्यादा रोमांचक लगता। ये राजा हरिश्चन्द्र,  तारामती, मन्त्री, राजकुमारी विद्यावती, उसकी  सहेली,  रानी सारंगा, जोकर, सिपाही, साधू, फकीर, पागल, देवी, देवता, सेठ, मुनीब, कर्जदार, गब्बर, बसन्ती, बीरू और जय इत्यादि स्टेज के पीछे बने एक छोटे से घेरे में अपना मेक-अप करते तो बच्चे उस घेरे की कनात में छेद ढूँढकर या बनाकर  उनकी एक झलक पा जाने को आतुर दिखायी पड़ते। स्त्री पात्र का साज-श्रृंगार तो जैसे किसी बड़े रहस्य की बात थी। इससे पर्दा उठाने की फिराक में कुछ किशोर वय के बच्चे भी लगे रहते थे।

image किसी भी नाच का यूएसपी उसका मुख्य नर्तक ही होता था। इस कलाकार को एक खास तरह की इज्जत मिलती थी। कदाचित्‌ इसी इज्जत की लालच में बहुतेरे लड़के तरुणाई में साड़ी चढ़ाने को तैयार हो जाते थे। आर्थिक और सामाजिक कारण चाहे जो रहे हों लेकिन जिसके शरीर में नचनिया के हार्मोन्स का स्राव होने लगता वह किसी नाच के मंच तक अपना रास्ता बनाने के लिए चल ही पड़ता।

जैसा कि साहित्य, संगीत और कला के क्षेत्र में प्रायः देखा जाता है, इसमें प्रतिभा और क्षमता के अनेक स्तर पाये जाते हैं। विविधता तो होती ही है। इसमें अच्छे और खराब का कोई सर्वमान्य वस्तुनिष्ठ पैमाना न होने से इस क्षेत्र में उतरने के लिए किसी को मनाही नहीं है। कोई भी व्यक्ति कवि, गीतकार, कहानीकार, लेखक, चित्रकार, गायक, नर्तक या वादक होने के बारे में सोच सकता है और इस दिशा में शुरुआत कर सकता है। लेकिन आगे बढ़ने के लिए उसकी स्वीकार्यता पाठकों, दर्शकों, श्रोताओं और रसग्राहियों के बीच होनी जरूरी हो जाती है। अपने ब्लॉगजगत में भी यह सब खूब साफ-साफ दिखायी देता है। यहाँ भी अनेक कवि और लेखक बहती गंगा में हाथ धोते मिल जाएंगे। टीवी चैनेल्स के रियलिटी शो के माध्यम से अपनी किस्मत आजमाने के मौके नये कलाकारों को भी अब काफी मिलने लगे हैं।

लेकिन ऐसी सुविधा ग्रामीण कलाकारों के पास नहीं थी। नाचने का कीड़ा काट लेने के बाद उन्हे किसी नाचपार्टी में शामिल होने के लिए अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का मौका मिलना बहुत कठिन था। नचदेखवों की भीड़ जिसकी नाच देखने आयी होती उसके अलावा किसी नौसिखिए को मंच पर देखना उन्हें गँवारा नहीं था। अपनी रेखिया मूँछ और शुरुआती दाढ़ी को उगना शुरू होते ही सफाचट कराकर किशोरी का वेश बनाए हुए नवोढ़ा जब बहुत मिन्नत करता तो उसे दो-चार मिनट असली नाच की शुरुआत से पहले नाचने को दे दिए जाते।

जब झुण्ड के झुण्ड अलग-अलग गाँवों से आने वाले नचदेखवों के बीच बैठने के स्थान को लेकर नोंक-झोंक हो रही होती, बारातियों को जनवासे से खाने-पीने के लिए बिटिहा के घर पर बुलाया जा रहा होता, क्षेत्र के कुछ बड़े आदमी थोड़ी देर के लिए ‘मेन आर्टिस्ट’ का एकाध नाच-गाना देकने के लिए आसन जमा रहे होते; उसी शोर-शराबे के बीच अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए इस नये लवण्डे को मंच दे दिया जाता। तैयारी पूरी होते ही उसे बाद में या अन्त में नाचने का वादा करके उतार दिया जाता। फिर वह पूरी रात साड़ी चढ़ाए नेपथ्य में इस आस में बैठा रहता कि नाटक पूरा हो जाने के बाद वह फिर नाचेगा।

रात के अन्तिम प्रहर में जब नाच समाप्त होने को होती और भीड़ लगभग छँट चुकी होती तब उसकी नाच कौन देखता। नाच का मालिक उसे समझाता कि अब तो गैस का तेल समाप्त हो चला है। गर्ज का मारा कलाकार इस मौके के लिए मानों पहले से तैयार बैठा हो। तेल का गैलन हाजिर...। यही वो दृश्य रहा होगा जब यह कहावत प्रचलित  हुई होगी-

“गर्जू नचनिया तेल दै दै नाचे”

एक दिन ऑफिस के लन्च रुम में जब विनोदी स्वभाव के मेरे बॉस ने अपनी खास शैली में यह लोकोक्ति सुनायी थी तो अचानक छूटी हँसी ने मेरे मुँह का जिगराफ़िया बिगाड़ दिया था। साथ बैठे कुछ दूसरे लोग जिन्हें पूरब की गऊ-पट्टी का देहाती ‘लवंडा नाच’ देखने का कोई अनुभव नहीं था वे हक्का-बक्का थे। मेरी श्वांस नली में फँस गये भुने हुए चने के टुकड़े से जब राहत मिली तब मैंने संयत होकर उन्हें कुछ बताने की कोशिश की।

चर्चा में एक साथी ने जब कहा कि यह हाल कुछ-कुछ उन तथाकथित कवियों जैसा ही है जो अपनी जेब में ताजी कविता की पाण्डुलिपि लिए घूमते रहते हैं और कोई शिकार नजर में आते ही उसे चाय-पानी का न्यौता देकर फाँस लेते हैं, तो सभी उनका समर्थन करते दिखे। जबरिया कवि से पीड़ित होने का अपना-अपना अनुभव बाँटने लगे।

अब सोच रहा हूँ कि  कुछ ऐसा ही भाव उन लेखकों और कवियों के भीतर भी पैठा रहा होगा जो अपनी मेहनत से लिखी किताब को किसी प्रकाशक से पैसा देकर छपवाते हैं और फिर अपने  लोगों के बीच उसकी प्रतियाँ सादर, सप्रेम या सस्नेह भेंट करते हैं। जेब से पैसा खर्च करके पढ़ने की आदत हमारे समाज में कम तो हुई ही है लेकिन ‘तेल देकर नाचने’ को तैयार लोगों ने भी इस प्रवृत्ति को खाद-पानी देकर मजबूत बनाया है।

इसी विचित्र मनःस्थिति से उत्पन्न दुविधा के कारण मैने अपने खर्च से  किसी इष्टमित्र या रिश्तेदार को ‘सत्यार्थमित्र’ पुस्तक की प्रति मुफ़्त भेंट नहीं की। कुछ लोग शायद नाराज भी हों।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

रविवार, 1 नवंबर 2009

इलाहाबाद का फेफ़ड़ा... जहाँ साँसें ताजा होती हैं!

 

संगोष्ठी स्मृति भेंटबहुत दिनों बाद आज छुट्टी टाइप मूड के साथ बिस्तर छोड़ने को मिला। जगने के बाद तुरन्त कोई जरूरी काम नहीं था। सिविल सर्विसेज की मुख्य परीक्षा के सिलसिले में कोषागार के द्वितालक दृढ़कक्ष (double-lock strong-room) को सुबह -सुबह खोलने की जिम्मेदारी भी आज नहीं निभानी थी। आज कोई पेपर नहीं था। इधर ब्लॉगरी में भी कोई नयी बात होती देखने की उत्सुकता नहीं थी। गंगा जी का पानी शान्त होकर अब अघोरी के किस्से कहने लगा है। ब्लॉगर संगोष्ठी की स्मृतियाँ ही बची हैं।

बिस्तर पर ही मुझे सूचना मिली कि मेरा परिवार मेरी भली पड़ोसन (प्रशिक्षु आई.ए.एस.) के साथ उनकी गाड़ी से ही सभी बच्चों समेत सुबह की ठण्डी हवा खाने पार्क में जा रहा है। मैने करवट बदलकर ‘ओके’ कहा और नींद की एक बोनस किश्त के जुगाड़ में पड़ गया। ....लेकिन कुछ देर बाद ही काम वाली के खटर-पटर से जागना पड़ा। सूने घर में अकेले पड़े बोर होने से अच्छा था कि मैं भी उधर ही निकल लूँ जहाँ बच्चे गये थे। स्कूटर से अल्फ्रेड पार्क जाने में पाँच मिनट लगे।

यह वही पार्क है जिसमें चन्द्र शेखर आजाद (को अंग्रेजो ने मार डाला था।)  को जब अंग्रेजों ने घेर लिया तो उन्होंने खुद को गोली मार ली और मरते दम तक आजाद रहे। २७ फरवरी, १९३१ को जब वे इस पार्क में सुखदेव के साथ किसी चर्चा में व्यस्त थे तो किसी मुखवीर की सूचना पर पुलिस ने उन्हें घेर लिया। इसी मुठभेड़ में आज़ाद शहीद हुए। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इसका नाम अब ‘चन्द्रशेखर आज़ाद राजकीय उद्यान’ कर दिया गया है।

ताकि भटक न जायें इलाहाबाद विश्वविद्यालय से दक्षिण जी.टी.रोड से लगे हुए करीब १८३ एकड़ क्षेत्र पर फैले इस विशाल परिसर में अंग्रेजों के जमाने से स्थापित अनेक संस्थाएं आज भी अपने गौरव और ऐतिहासिकता के कारण बाहरी पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। इसी परिसर में इलाहाबाद संग्रहालय है, अल्फ्रेड पब्लिक लाइब्रेरी है, हिन्दुस्तानी एकेडेमी है, और मदन मोहन मालवीय स्पोर्ट्स स्टेडियम भी है। इसी परिसर में उद्यान विभाग द्वारा संचालित दो पौधशालाएं हैं जो आम, अमरुद, आँवला और सजावटी फूलों के पौधे बहुत कम कीमत पर उपलब्ध कराती हैं। परिसर में कहाँ क्या है...

बहुत से औषधीय पौधे भी इस परिसर में यत्र-तत्र बिखरे हुए मिल जाते हैं। हाल ही में ‘भैया दूज’ के दिन श्रीमती जी ने ताना मारा कि इलाहाबाद आने के बाद लगता है आप गोधन कूटने और भाई को सरापने का पारम्परिक अनुष्ठान छुड़वा ही देंगे। ललकारे जाने पर ताव में आकर मैंने भजकटया, झड़बेरी, बरियार और चिचिड़ा (लटजीरा) सब का सब जुटाकर रख दिया था। गोबर्धन पूजा में लगने वाली ये कटीली झाड़ियाँ मैं यहीं से खोज कर लाया था। मेरी इज्जत रख ली इस उद्यान ने।

सुबह-सुबह नारियल पानी...शहर के बीचोबीच बसे इस हरे-भरे उद्यान में दूर-दूर से आकर टहलने, ताजी हवा खाने, व्यायाम करने, दोस्तों-यारों के साथ मधुर क्षण गुजारने और पिकनिक मनाने वालों की अच्छी भीड़ लगी रहती है। पार्क बन्द होने का समय रात ९:०० बजे से सुबह ४:०० बजे तक का ही है। शेष समय यहाँ कोई न कोई  लाभार्थी मौजूद ही रहता है।

सुबह पहुँचा तो गेट पर नारियल पानी वाला मिला, “इतनी सुबह कौन तुम्हारा ग्राहक होता है जी?”

“दिन भर लगाता हूँ जी, कोई न कोई इस समय भी आ जाता है।” फ्रूट सलाद और बहुत कुछ

सामने की ओर केला, पपीता, सेब, खीरा, ककड़ी, अंकुरित चना, मूली, इत्यादि का सलाद बनाकर बेचने वाले ठेले लगे हुए थे। जूस का खोमचा भी दिखा।  भीतर घुसते ही नीम, पीपल, पाकड़ और अन्य बड़े-बड़े पेड़ों की छाँव में खड़ी कारों, जीपों और दुपहिया वाहनों की कतार बता रही थी अन्दर बहुत से साहब और सेठ लोग भी हैं। दिनभर शहर के प्रदूषण में इजाफ़ा करने वाली गाड़ियाँ यहाँ हरियाली के बीच मानो खुद को रिफ़्रेश कर रही थीं।हरी ताजगी लेती गाड़ियाँ

मुझे अपने बच्चों को ढूँढने में देर नहीं लगी थी। चादर बिछाकर योगासन करती मम्मी लोग के पास बैठे बच्चे बोर हो रहे थे। मैने उन तीनो को साथ लिया और पार्क का चक्कर लगाने निकल पड़ा। शरदकालीन फूलों का खिलना अभी शुरू नहीं हुआ है। क्यारियाँ तैयार की जा रही हैं। कुछ जगह तो अभी जुताई ही हुई है। लेकिन सदाबहार किस्म के फूल बदस्तूर मुस्कराते मिले। उनकी मुस्कराहटों के बीच करीब पौने तीन किलोमीटर के पैदल परिक्रमा पथ पर टहलने के बाद सुस्ताते हुए अनेक बुजुर्ग, जवान, औरतें और बच्चे मिले। झाड़ि्यों की झुरमुट के पीछे और घने पेड़ों के नीचे लगी बेन्चों पर बैठे लड़के-लड़कियाँ भी मिले।

 हम यहाँ बोर होने नहीं आये हैं..!

रविवार का लाभ उठाते हुए कुछ साप्ताहिक सैर करने वाले परिवार भी मिले। हमने अपने बच्चों की फोटुएं उतारी। वागीशा और सत्यार्थ के साथ पड़ोस की कीर्तिचन्द्रा भी अपनी मम्मी को छोड़कर तोप पर सवारी करती हुई तस्वीर खिंचाने में खुश हो रही थी। मास्टर सत्यार्थ ने जरूर अपने उत्साह पर हावी होते डर को प्रकत करने के लिए कुछ क्षण के लिए मुँह रुआँसा कर लिया। लेकिन कैमरे का फ्लैश बड़ों बड़ों से ऐक्टिंग करा देता है तो वह कैसे बच जाता।

पार्क में एक सफेद रंग की गुम्बजाकार इमारत मिली जिसके केन्द्र में एक ऊँचा चबूतरा था। पता चला कि इस चबूतरे पर किसी जमाने में महारानी विक्टोरिया की बड़ी सी प्रतिमा विराजमान थी। पार्क के बीचोबीच जो बड़ा सा घेरा बना है उसके चारो ओर लगी बेंचों पर बैठकर अंग्रेज बहादुर लोग अपनी-अपनी मेमों के साथ सुबह-शाम हवा खाते थे। घेरे के बीच में जो गोल चबूतरा है उसपर बैंडसमूह पाश्चात्य संगीत बजाते थे। अभी भी उस चबूतरे को ‘बैण्ड-स्टैण्ड’ ही कहा जाता है। आजादी के बाद विक्टोरिया महारानी यहाँ से हटा दी गयी हैं जो अब संग्रहालय की शोभा बढ़ा रही हैं।

महारानी विक्टोरिया का चबूतरा थोड़ा सुस्ता लें..
बीता जमाना बैण्ड स्टैण्ड वाला घेरा
मैं तो डर गया डर हुआ काफूर
ध्यान-योग की कक्षा सूरज उग चुका है
विश्राम करते दादा जी लोग थक गया डैडी..!

उद्यान में एक तरफ कोई योगगुरू कुछ लोगों को ध्यान और योगासन सिखा रहे थे। कुछ लोग बिना गुरू के ही अपना अभ्यास कर रहे थे। कुछ कम-उम्र और हम‍-उम्र जोड़े भी अपनी बतकही में व्यस्त थे। हमने उधर ध्यान न देना ही उचित समझा और अपने साथ के बच्चों को फोटो खिंचाने के इधर से उधर ले जाता रहा। इसी उपक्रम में संयोग से एक रोचक स्नैप ऐसा भी क्लिक हो गया है।यह भी खूब रही......

औरतनुमा पुरुष जाते हुए और पुरुषनुमा महिला आती हुई’  इस तस्वीर में आ गयी है यह घर आने पर पता चला। यद्यपि टहलने वालों की भीड़ वापस लौट चुकी थी और `इतवारी’ टाइप कम ही लोग बचे रह गये थे लेकिन बच्चों ने घूम-घूमकर इतना मजा किया, और फोटू खिंचाने में इतना मशगूल रहे कि काफी देर तक बाहर गाड़ी में प्रतीक्षा करती मम्मी लोगों को इनकी खोज करने के लिए फॉलोवर को भेंजना पड़ा।

तन्दुरुस्ती हजारो नियामत है

मैने भी कैमरा समेटा और डाँटे जाने का मौका न देते हुए स्कूटर की ओर बढ़ लिया।  चलते चलते एक मोटे से पेंड़ में लटके बहुश्रुत संदेश की फोटू भी कैमरे में कैद कर ली। इस परिसर को किसी ने इलाहाबाद का फेफ़ड़ा कहा था जहाँ शुद्ध ऑक्सीजन की आपूर्ति लेने दूर दूर से लोग आते हैं। आप भी इसे देखिए और अपनी अगली इलाहाबाद यात्रा पर इस परिसर के लिए कम से कम एक दिन जरूर रखिए। धन्यवाद।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)