हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

सोमवार, 22 जून 2009

सच्चाई की परख सबमें है... पर करते क्यों नहीं?

 

यह दुनिया भी ग़जब निराली है। इसमें रहने वाले लोग अपनी सामाजिक प्रास्थिति में अपने व्यवहार को किसी न किसी आचार संहिता से निर्देशित करते हैं। सबका अपना वैल्यू सिस्टम है जो व्यक्ति के अनुवांशिक लक्षण, पारिवारिक पृष्ठभूमि, शिक्षा के स्तर, सामाजिक स्वरूप और इतिहास बोध से निर्धारित होता है। लेकिन ऐसा देखने में आया है कि प्रायः सबने इस आचरण नियमावली के दो संस्करण बना रखे हैं। एक अपने लिए और दूसरा दूसरों के लिए। एक ही सिचुएशन में जैसा व्यवहार वे स्वयं करते हैं वहीं दूसरों से बिल्कुल भिन्न व्यवहार की अपेक्षा करते हैं।

imageकुछ ऐसा व्यवहार इन बातों में झलकता है, “मेरे घर आओगे तो क्या लाओगे?”“मैं तुम्हारे घर आऊंगा तो क्या दोगे?”

हमें अपने आस-पास ऐसे लोग सहज ही मिल जाएंगे जो किसी भी मुद्दे पर अपनी सिनिकल राय रखने से बाज नहीं आते। मुहल्ले का कोई लड़का परीक्षा में फेल हो गया तो तुरन्त उसकी ‘आवारगी’ के किस्से सुना डालेंगे, किसी लड़की को बाइक चलाते या ब्वॉयफ्रेण्ड के साथ देख लिए तो उसकी बदचलनी का आँखों देखा हाल बयान कर देंगे। इतना ही नहीं, यदि किसी ने यूनिवर्सिटी भी टॉप कर लिया तो कहेंगे प्रोफ़ेसर से अच्छी सेटिंग हुई होगी। लोक सेवा आयोग से चयनित भी हो गया तो इण्टरव्यू में जुगाड़ और घूसखोरी तक की रिपोर्ट पेश कर देंगे।

लेकिन यही सब यदि उनके परिवार के बच्चों ने किया हो तो फेल होने का कारण ऐन वक्त पर तबियत खराब होना या ‘हार्ड-लक’ ही होगा, लड़का फिर भी बड़ा मेहनती और जहीन ही कहा जाएगा, लड़की पढ़ी-लिखी, आधुनिक और प्रगतिशील कही जाएगी, टॉपर लड़के की उत्कृष्ट छवि तो लोगों को बुला-बुलाकर बतायी ही जाएगी, कमीशन भी उच्च आदर्शों का प्रतिरूप हो जाएगा जहाँ प्रतिभाशाली अभ्यर्थियों को पहचानने की अद्‌भुत प्रणाली विकसित हो गयी हो।

image मनुष्य की इस दोरुखी प्रवृत्ति का कारण समझने की कोशिश करता हूँ तो सिर्फ़ इतना जान पाता हूँ कि यथार्थ और आदर्श का अन्तर अत्यन्त स्वाभाविक है और इसे बदला नहीं जा सकता। अच्छी मूल्यपरक नैतिक शिक्षा और सत्‍संगति से इस अन्तर में थोड़ी कमी लाई जा सकती है।

मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि किसी कार्य की सफलता या असफलता के पीछे जो वाह्य और आन्तरिक कारक होते हैं उनकी व्याख्या व्यक्ति अपनी सुविधानुसार ही करता है। अपनी सफलता का श्रेय वह अपने आन्तरिक कारकों को देता है और असफलता का ठीकरा वाह्य कारकों पर फोड़ता है। लेकिन दूसरे व्यक्ति की समीक्षा के समय यह पैमाना उलट जाता है; अर्थात्‌ दूसरों की सफलता उनके वाह्य कारकों की वजह से और असफलता उनके आन्तरिक कारणों से मिलती हुई बतायी जाती है। इस मनोवृत्ति का सटीक उदाहरण समाचार चैनेलों के स्टूडियो में चुनाव परिणामों पर पार्टी नेताओं की बहस सुनते समय मिलती है।

लेकिन यह मनोवृत्ति चाहे जितनी स्वाभाविक और प्राकृतिक हो, इसे अच्छा नहीं कहा जा सकता। यह सोच एक शिष्ट और सभ्य समाज के सदस्य के रूप में हमें सच्चा नहीं बनाती। यह सत्यनिष्ठा और शुचिता के विपरीत आचरण ही माना जाएगा। जिनका मन सच्चा और आत्मा पवित्र होगी वे ऐसी विचित्र सोच को अपने विचार और व्यवहार में स्थान नहीं देंगे। हमारे वैदिक ऋषि, सन्त महात्मा, और सार्वकालिक महापुरुष इसीलिए महान कहलाए क्योंकि उन्होंने अपने व्यवहार में इस प्रवृत्ति को पनपने नहीं दिया। उन्होंने केवल उसी एक आचार संहिता का पालन किया जिसकी अपेक्षा उन्होंने दूसरों से भी की। विपरीत परिस्थितियों में भी उन्होंने सिद्धान्तों के साथ समझौता नहीं किया।

अस्तु, हमें सोचना चाहिए कि अपने व्यवहार को सच्चाई के करीब रखने के लिए और अपने विचार में शुचिता लाने के लिए हमें दुनिया के प्रति क्या धारणा बनानी चाहिए। अपनी सामाजिक भूमिका के लिए क्या पॉलिसी बनानी चाहिए।

केन्ट एम. कीथ ने इसकी जाँच के लिए एक दिग्दर्शक यन्त्र बनाया है। मेरा मानना है कि यदि उनके जाँच यन्त्र से हम जितना ही तादात्म्य बिठा सकें हम सच्चाई और सत्यनिष्ठा के उतने ही नजदीक पहुँचते जाएंगे। आइए देखें क्या है यह परीक्षण:

INTEGRITY TEST:

  • लोगों को मदद की जरूरत होती तो है लेकिन यदि आप मदद करने जाय तो वे आपके प्रति बुरा बर्ताव कर सकते हैं। फिर भी आप मदद करते रहें।
  • यदि आप किसी की भलाई करने जाते हैं तो लोग इसमें आपकी स्वार्थपरता का आरोप लगा सकते हैं। फिर भी आप भलाई करते रहें।
  • आप आज जो नेक काम कर रहे हैं वह कल भुला दिया जाएगा। फिर भी आप नेकी करते रहें।
  • यदि आप सफलता अर्जित करते हैं तो आपको नकली दोस्त और असली दुश्मन मिलते रहेंगे। फिर भी सफलता प्राप्त करते रहें।
  • ईमानदारी और स्पष्टवादिता आपको संकट में डाल देती है। फिर भी आप ईमानदार और स्पष्टवादी बने रहें।
  • आप यदि दुनिया को अपना सर्वश्रेष्ठ अर्पित कर दें तो भी आपको घोर निराशा  हाथ लग सकती है। फिर भी अपना सर्वश्रेष्ठ अर्पित करते रहें।

इस जाँच यन्त्र का मूल अंग्रेजी पाठ यदि पढ़ना चाहें तो यहाँ मिल जाएगा।

मुझे लगता है कि हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए यह बताने वाली एक आवाज हमारे भीतर ही उठती रहती है। लेकिन पता नहीं क्यों हम इस आवाज को अनसुना करते रहते है। प्रकृति ने हमें सच्चाई की परख करने के लिए एक आन्तरिक दृ्ष्टि दे रखी है लेकिन हम इस दृष्टि का प्रयोग नहीं कर पाते। काम, क्रोध, मद और लोभ हमारे व्यवहार को दिशा देने में अधिक प्रभावशाली सिद्ध होते हैं। ये चारो हमारे विवेक को भ्रष्ट कर देते हैं।

अरे, यह पोस्ट तो घँणी उपदेशात्मक होती जा रही है। अब पटाक्षेप करता हूँ। यहाँ तक पढ़ने वालों का धन्यवाद।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

22 टिप्‍पणियां:

  1. जिस परीक्षण की बात यहाँ की गयी है, उसके लिये निस्पृहता की आवश्यकता बहुत अधिक है, और मेरी दृष्टि में यही एक गुण सबसे पहले विलुप्त हो रहा है मनुष्यता से ।

    प्रविष्टि तो एकदम से प्रभावित कर गयी । जरूरी लगी । धन्यवाद ।

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  2. बढिया पोस्ट। ऐसे ही कुछ विचार मदर टेरेसा के भी कहीं पढे थे । महान मस्तिष्क एक ही जैसी सोच रखते हैं ।

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  3. बहुत प्रभावशाली लेखन. प्रभावित करना शुरु कर दिया है मगर उसके पहले जल्दी से बता दें कि मैं जब आपके यहाँ आऊगा तो क्या दोगे??

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  4. गब्बर सिंह यह कह गया -जो डर गया समझो मर गया .मैं समझता हूँ यही हमारा साध्य वाक्य है ,काम-क्रोध-मोह -लोभ सब के सब इसी से कही न कहीं जुड़े हैं .जिस परिभाषा को मैंने गब्बर सिंह के जरिये प्रस्तुत किया है वस्तुतः वही सभी आदि -ग्रंथो में उच्च स्तर पर परिभाषित है .आपकी यह पोस्ट बहुत अच्छी लगी ,बधाई .

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  5. बहुत बढियां -कहना आसान -चरितार्थ करना बेहद मुश्किल -पर उपदेश कुशल बहुतेरे !
    आपने इस मामले को अपनी सुगठित लेखनी से उभारा -यह मन को भाया !
    रामचरित मानस की अनेक अर्धालियाँ याद हो आयीं !
    arvind mishra
    http://bhujang.blogspot.com/2009/06/blog-post.html

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  6. मनुष्य की दोरुखी प्रवृत्ति का बहुत अच्‍छा विवेचन किया है .. आशा है आपके इस आलेख से पाठकों के मस्तिष्‍क में अच्‍छे विचार पनपेंगे और तद्नुरूप ही वे समाज में अपने क्रियाकलापों को बनाए रखेंगे .. एक अच्‍छे आलेख के लिए बधाई।

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  7. सिध्दार्थ जी, काफी गहरे विषय को उठाया गया है। मनोविज्ञान को छूती हुई उम्दा पोस्ट।

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  8. वर्णित स्थिति को पाने के लिये उदारमना होना आवश्यक है । यह गुण दुर्लभ है । चर्चा भी दुर्लभ है क्योंकि कोई इस बारे में बात करना नहीं चाहता ।

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  9. अगर यही सोच हम सब की बन जाये, इन्ही विचारो पर हम अमल करे तो हम इंसान ना बन जाये, लेकिन हमे बचपन से जेसा महोल मिलता है हम वेसे ही बन जाते है, बात बात पर झुठ, छोटी छोटी चोरिया, चुगलियां, हेर फ़ेरिया.... हम सोचते है कि हमारे बच्चे अभी छोटे है उन्हे कुछ नही पता, लेकिन वो तो यह सब सीख रहे है बाबा, फ़िर जेसे नीम के पेड मै आम नही लग सकते ज़ो हमारे ऎसे विचार हो तो बच्चे तो हम से दो कदम आगे ही हो गे,इस लिये अगर चाहते हो कि हमारा समाज साफ़ सुधरा हो तो सब से पहले हमे सुधरना होगा.
    आप का लेख आंखे खोलने वाला है.
    धन्यवाद
    मुझे शिकायत है
    पराया देश
    छोटी छोटी बातें
    नन्हे मुन्हे

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  10. “मेरे घर आओगे तो क्या लाओगे?” व “मैं तुम्हारे घर आऊंगा तो क्या दोगे?”
    अर वाह! यह तो वही बात हुई- चित मै जीता और पट तुम हारे!! पर सही है, आज की मानसिकता यही हो गई है॥

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  11. Sab yahi adarsh ka paalan karne lagenge to sabhi sant nahi ho jayenge ?

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  12. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  13. Neki kar aur Kuaen mein Daal./ Jo bole so kundi khole.


    Agar Duniya mein sub log acche ho jayenge to duniya ka maza khatma Na ho zayega. Har tarah ka taste hona chayiye na. Isi liye Bhagwaan ne Ek se Bhad kar ek Namoone Banye hein. Watch kariye ye duniya bhi ek Cartoon Channel hai.

    Post Gyanvardhak thi.

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  14. मुझ जैसे स्वार्थ परक को आपकी पोस्ट ने सोचने पर मजबूर कर दिया
    हम तो आपसे मिलने कार्यशाला में भी इस लिए पहुचे ठ की शायद तरबूज खाने को मिल जाये
    वीनस केसरी

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  15. एक आदमी की बड़ी हरी बगिया थी... एक राहगीर गुजरा और उसने कहा 'बड़ी मनभावन बगिया है' उस आदमी ने कहा 'अरे क्यों नहीं होगी? मेहनत करता हूँ !' कुछ दिनों के बाद वक्त बदला और वही राहगीर फिर से उधर से गुजरा 'भैया आपकी बगिया तो उजड़ गयी !'... 'हाँ भाई सब भगवान् की मर्जी !'

    तो सफलता पर खुद क्रेडिट लेना और विफलता पर भाग्य और दूसरों पर दोषारोपण करना तो इंसान की आदत है !
    बहुत अच्छी पोस्ट !

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  16. आपने गहराई से निकाला हुआ अमृत ज्ञान हम सब तक पहुंचाया, इसके लिए आभार।

    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  17. अरे सिद्धार्थ जी विवेक तो हम सब में होता ही है कम ज्यादा . समझते भी हैं . लेकिन आचरण में तो छद्म ही प्रबल हो जाता है. हम ट्राफिक लाईट की लाल बत्ती पार कर लें बच जाएँ तो होशियार , और दूसरा करे तो अनाचार . यही तो है सत्य के साथ दोगला व्यभिचार .

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  18. यथार्थ और आदर्श का अन्तर अत्यन्त स्वाभाविक है और इसे बदला नहीं जा सकता। अच्छी मूल्यपरक नैतिक शिक्षा और सत्‍संगति से इस अन्तर में थोड़ी कमी लाई जा सकती है।
    samasya ka samadhan to aapne sujhaaya hi hai jaroorat iske kriyanvayan ki hai.jo sirf sarkari prayaso se nahi ho sakati.ham sabko bhagidhari nibhani hogi.

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  19. सफलता और असफलता के कारकों के विषय में मेरी सोच भी बहुत कुछ आप ही की तरह थी. पर मेल्कम ग्लेडवेळ की पुस्तक 'आउट लायर्स' (Outliers) ने इस सोच को गलत साबित कर दिया. रेश्नालाईज़ करना वाकई गलत है, पर सफलता या असफलता व्यक्तिगत कारकों से भी अधिक बाहरी कारकों पर निर्भर करती है.

    देखते हैं की यह पुस्तक पढ़कर भी आप इन्ही विचारों पर कायम रहते है या नहीं.

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