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शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

पालकी, मेंथी, धनिया, सोवा चाहत यार… (बैठे-ठाले)

दीपावली के अगले दिन पारम्परिक रूप से थकान मिटाने और आराम करने का दिन होता है। हमारे यहाँ इस प्रतिपदा के दिन को ‘परुआ’ भी कहा जाता है। परुआ का एक अर्थ आलसी और कामचोर भी होता है। कृषि कार्यों के दौरान जो बैल हल खींचने या अन्यथा मेहनत से बचने के लिए अपने स्थान पर ही बैठ जाता है, और लाख पिटाई के बाद भी नहीं उठता है, उसे परुआ बैल कहा जाता है।

बचपन में हम लोग दीपावली के अगले दिन मिट्टी के दीये इकठ्ठा करते थे, उनमें बारीक छेद करके डोरी डालकर तराजू बनाते। दिन भर मिट्टी, बालू, राख, भूसी इत्यादि तौलने का खेल होता रहता। लड़कियाँ मिट्टी के खिलौने के रूप में जाँता (गेहूँ पीसने की घरेलू चक्की), चूल्हा, और रसोई के बर्तन आदि से खेलती। लड़के कुम्हार की बनायी मिट्टी की घण्टी बजाते। पूरा दिन इस लिए ‘स्पेशल’ होता था कि इस दिन कोई भी ‘पढ़ने’ के लिए नहीं कहता था। पढ़ाई से पूरी छुट्टी होती थी।

अन्य क्षेत्रों में इस दिन की पहचान किस रूप में होती है; इसकी विशेष जानकारी मुझे नहीं है। मेरे कुछ कायस्थ मित्र बताते हैं कि वे दीपावली के दिन रात में कलम की पूजा करने के बाद उसे बन्द करके रख देते हैं; और अगले दिन कलम नहीं पकड़ते हैं; यानि लिखने-पढ़ने का काम एक दिन पूरी तरह से बन्द रहता है। यहाँ हमारे ब्लॉगर मित्र यदि अपने-अपने क्षेत्र की परम्परा के बारे में बताएं तो रोचक संकलन तैयार हो जाएगा।

चित्रकृति: blueeyedcurse.com से साभार

मुझे हर साल की तरह इस साल भी परुआ बनकर घर में पड़े रहने की प्रतीक्षा थी; लेकिन सरकारी नौकरी ने सारा मजा किरकिरा कर दिया। छुट्टियों की लम्बी श्रृंखला को देखते हुए सरकार ने बैंकों और कोषागारों की छुट्टियाँ कम करते हुए Negotiable Instruments Act के अन्तर्गत प्रतिपदा और ‘भैया दूज’ को कार्यालय खोलने का निर्णय ले लिया। मुझे कोषागार जाना पड़ा। वहाँ दिन भर हम बैठे रहे। कुछ कायस्थ कर्मचारियों ने तो उपस्थिति पंजिका पर हस्ताक्षर तक नहीं किया। कलम न उठाने का नियम जो टूट जाता। पूरे दिन कोई काम हाथ नहीं लगा। पब्लिक तो इस दिन छुट्टी मना ही रही थी। सभी कर्मचारी इकठ्ठा होकर लोकचर्चा में व्यस्त रहे।

अमर बहादुर जी उप-कोषागार में रोकड़िया हैं। बैठे-ठाले चर्चा के बीच उन्होंने एक ‘स्वरचित’ दोहा सुनाया और इसके अर्थ पर बहस शुरू हो गयी। दोहा इस प्रकार था-

पालकी मेंथी धनिया सोवा चाहत यार।
लेसुन कहइ पीआज से गाजर अस ब्यौहार॥

चर्चा में अनेक सब्जी विशेषज्ञ और पाक-शास्त्री कूद पड़े। …इसका मतलब है कि पालक, धनिया और मेंथी के साग में सोया को मिलाना चाहिए। … या यह कि घनिया तो खुद ही अन्य सब्जियों में मिलायी जाती है; सोया के साथ भी और बगैर सोया के भी। …सोया सभी सब्जियों में नहीं मिलाया जा सकता। …इसे कच्चे सलाद में भी नहीं मिलाते। …जबकि धनिया सदाबहार है। …इसकी खुशबू हर सब्जी और सलाद को महका देती है।

दूसरी लाइन पर तो झगड़ा होने लगा। लहसुन, प्याज और गाजर; इन तीनो के बीच सम्बन्ध ढूँढे नहीं मिल रहा था। ...ये तीनो कच्चे और पकाकर दोनो तरह से खाये जाते हैं, ...इनके पौधों में पत्तियाँ जमीन से ऊपर और खाद्य भाग जमीन की सतह से नीचे होते हैं। ...विज्ञान की दृष्टि से गाजर पौधे की जड़ है; जबकि लहसुन और प्याज पौधे के तना-भाग हैं। ...कुछ लोग लहसुन-प्याज को सात्विक भोजन नहीं मानते; लेकिन गाजर के प्रति थोड़ी उदारता बरतते हैं। ...व्रत में गाजर का हलवा चाव से खाया जाता है। लेकिन लहसुन प्याज अभी भी ‘अछूत’ बने हुए हैं।

गर्मा-गर्म चर्चा जब अछूत के जिक्र से झगड़े में तब्दील होने लगी तो खामोशी से बैठे समर बहादुर सिंह ने मुस्कराते हुए सबको शान्त होकर दोहा दुबारा सुनने के लिए कहा-

पालकी में थी धनिया, सोवा चाहत यार।
ले सुन! कहै ‘पी’ आजसे, गा जर अस व्यौहार॥

अब इसका अर्थ स्पष्ट किया गया-

‘धनिया’ अर्थात् नायिका ‘पालकी’ यानि डोली में बैठी थी। (पुराने जमाने में यात्रा करने का अच्छा साधन यही माना जाता था।) नायक का यार (यानि खलनायक) उसके साथ सोना चाहता था। इससे क्षुब्ध होकर नायिका अपने ‘पी’ यानि पिया से यह उलाहना देती है कि आजसे ऐसा व्यवहार (ऐसे दोस्त का व्यवहार) जल जाय अर्थात् समाप्त हो जाय। :)

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

9 टिप्‍पणियां:

  1. लगभग दस वर्ष पूर्व मेरे नाऊ ( नाईं )ने मेरी दाढी बनाते समय यह दोहा उसके दोनों अर्थ सहित सुनाया था !

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  2. बहुत सुन्दर - बैठे-ठाले का उत्कृष्ट कवित्त/विचार-मन्थन ऐसा ही होता है।
    बढ़िया पोस्ट! काश हम भी ऐसा लिख पायें।

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  3. हमारे लिए तो परुआ के मतलब बचपन में वही रहे हैं जो आप कह रहे हैं. और ये दोहा अर्थसहित तो मैंने अपने पिताजी से भी सुना है.

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  4. बहुत बढिया सिद्धार्थ भाई...ये दोहा तो पहली बार सुना...मगर इस किस्म का शब्दविलास काव्य में पढ़ा है...
    धन्यवाद

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  5. मैंने तो यह पहली बार पढ़ा यही आपके ब्लॉग पर इस तरह भी कोई रिवाज़ होता है :) ..दोहे बहुत अच्छे लगे ......शुक्रिया जानकारी देने के लिए

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  6. दोहे का उलट पलट बहुत ही रोचक रहा!! आभार!

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  7. बहुत ही सुंदर रही आप की यह चर्चा, भाई महे तो मालूम नही हमारे यहां क्या रिवाज है, हां इतना याद है की कई बार सरसो के असली तेल का एक बडा सा दिया जला कर उस के ऊपर कोई बरतन रख कर (सारी रात जला कर) आंखो मे डालने केलिये काजल बनाया जाता था.
    धन्यवाद

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  8. रोचक चर्चा....इस तरह के बतकूचन चलने पर मजा आना स्वाभाविक है। अच्छी पोस्ट।

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