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मंगलवार, 30 सितंबर 2008

ढपोर शंख की कथा… ज्ञान जी के लिए

आज मानसिक हलचल पर गुरुदेव ने ढपोर शंखी कर्मकाण्ड और बौराए लोग की चर्चा की। लेकिन अन्त में आते-आते उनका जिज्ञासु मन ढपोर शंख पर आकर अटक गया। हम यह जुमला अक्सर सुनते हैं।कहाँ से आया यह ढपोर शंख? कदाचित् यह कम लोग जानते हैं। लेकिन जिस अर्थ में यह प्रयोग होता है, शायद सबको पता है।

मैने बचपन में यह कहानी किसी पण्डित जी से सुनी थी। तबसे लम्बा समय बीत गया है। जुमला तो हमेशा ताजा होता रहा, लेकिन कहानी आज ज्ञानजी के बहाने ताजा करने की कोशिश करता हूँ।

प्राचीन समय में एक ब्राह्मण अपनी गरीबी के कारण भीक्षाटन से अपना और अपने परिवार का पेट पालता था। जब परिवार में सदस्यों की संख्या बढ़ने लगी तो दिन भर मांगने पर भी गुजारा सम्भव नहीं हो पाता। भुखमरी की नौबत आ गयी। किसी ने उन्हें बताया कि समुद्र देवता यदि प्रसन्न हो जाँय तो उसकी गरीबी दूर हो जाएगी। ब्राह्मण देवता समुद्र के तट पर पहुँच कर तपस्या करने लगे।

समुद्र देवता ने ब्राह्मण की आर्त प्रार्थना सुनी। तपस्या से प्रसन्न हुए और ब्राह्मण के समक्ष प्रकट होकर वरदान माँगने को कहा।
ब्राह्मण बोले, “हे रत्नाकर, मुझ गरीब ब्राह्मण को अपने परिवार के भरण-पोषण में कठिनाई उत्पन्न हो गयी है। भीख मांगकर भी बच्चों का पेट भरने में असमर्थ हो गया हूँ। पूजा-पाठ, और अध्ययन करने का समय भी नहीं मिल पाता। मेरी इस समस्या का कोई समाधान कर दें प्रभो! मेरी दूसरी कोई इच्छा नहीं है।”

समुद्र ने ब्राह्मण को एक शंख देकर बताया- “रोज स्नानादि करने के बाद पूजा-पाठ से निवृत्त होकर पवित्र मन से जो भी इस शंख से मांगोगे वह फौरन उपलब्ध हो जाएगा। इसे ले जाओ, और अपनी आवश्यकता की वस्तुएं इससे प्राप्त कर लेना।”

ब्राह्मण देवता प्रसन्न होकर समुद्र को आभार प्रकट करते हुए घर की ओर चल पड़े। रास्ते में शाम हो गयी, और उन्हें एक वणिक के घर रुकना पड़ा। सायंकाल भोजन के लिए ब्राह्मण ने वह अद्भुत शंख बाहर निकाला, स्नान करके उसकी पूजा की और उससे भोजन प्रदान करने की प्रार्थना की। तत्काल ब्राह्मण के समक्ष स्वादिष्ट व्यञ्जनों का थाल आ गया।

अपने मेजबान वणिक के परिवार के लिए भी भोजन की आपूर्ति ब्राह्मण ने उसी शंख के माध्यम से कर दी। चमत्कृत वणिक ने पूछा तो ब्राह्मण ने पूरी कहानी उसे सुना दी, और निश्चिन्त हो कर सो गया।

यह सब देखकर लालची वणिक के मन में लोभ का संचार हो गया था। उसने रात में सो रहे ब्राह्मण की पोटली से शंख चुराकर दूसरा साधारण शंख रख दिया। ब्राह्मण ने घर जाने की जल्दी में भोर में ही अपनी यात्रा प्रारम्भ कर दी।

घर पहुँचकर कई दिनों की भूखी पत्नी और बच्चों को ढाढस बधाया, और झट स्नान करके पूजा पर बैठ गये। शंख देवता का आह्वाहन करने पर जब कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तो उन्हें बड़ा दुःख पहुँचा। उल्टे पाँव वणिक के पास पहुँच कर अपनी विपदा सुनायी। चतुर वणिक ने उन्हें सुझाया कि यह गड़बड़ जरूर समुद्र ने की होगी। कदाचित् वह शंख एक बार प्रयोग हेतु ही बना रहा हो।

भोले ब्राह्मण देवता समुद्र की तट पर जा पहुँचे। फिरसे तपस्या प्रारम्भ कर दी। इस बार समुद्र देव ने अपने भक्त की आवाज फौरन सुन ली। प्रकट हुए। ब्राह्मण ने पूरी कहानी सुना दी, और समस्या के स्थायी समाधान की प्रार्थना की।

सबकुछ जानकर समुद्र ने एक दूसरा शंख दिया और बोले- “इसे ले जाओ… घर जाने से पहले पोटली से बाहर मत निकालना। इससे जो भी मांगोगे उससे दूना देने को तैयार रहेगा।”

ब्राह्मण दूनी प्रसन्नता से घर लौट पड़े। राह में अन्धेरा हुआ। उसी वणिक के घर रुके। लालची वणिक तो प्रतीक्षा में था ही। खूब सत्कार किया, और हाल पूछा। ब्राह्मण ने पूरी बात बतायी और यह भी बता दिया कि दूसरा शंख घर ही जाकर बाहर निकालेगा। दूना देने की बात भी बता डाली।

लोभी वणिक रात में जगता रहा। ब्राह्मण के सो जाने के बाद उसने पोटली से शंख निकाला और उसके स्थान पर पहले वाला शंख रख दिया। … ब्राह्मण देवता सबेरे मुँह-अन्धेरे उठकर अपने घर के लिए प्रस्थान कर गये।

वणिक ने अगले दिन जल्दी-जल्दी स्नान करके नया शंख निकाला और पूजनोपरान्त अपनी इच्छित वस्तुओं की लम्बी फेहरिश्त पढ़नी शुरू कर दी।

“महल जैसा मकान दें!”
शंख से आवाज आयी- “एक नहीं दो ले लो…”

वणिक प्रसन्न होकर मांगने लगा।
“अप्सरा जैसी पत्नी दें!”
फिर आवाज आयी, “एक नहीं दो ले लो...!”

-“सर्वगुण सम्पन्न पुत्र दें!”
-“एक नहीं दो ले लो...”
-“सात घोड़ों वाला रथ दें”
-“एक नहीं दो ले लो…”
-“एक राजा का राज-पाठ दें”
-“एक नहीं दो ले लो…”

सूची बढ़ती गयी, और दूने का वादा होता गया। अन्ततः वणिक बोला, “अब मैं थक गया, मुझे कुछ और नहीं चाहिए, बस…”

कुछ और समय बीता तो सामान प्रकट होने की प्रतीक्षा अब व्याकुलता में बदलने लगी…। परेशान होकर वणिक ने शंख से पूछा, “आप कैसे दाता हैं जी, पहले वाले शंख ने तो जो भी मांगो, तुरन्त दे दिया था।”

शंख हँसकर बोला, “ अरे मूर्ख, देने वाला शंख तो वही था जिसे उसका असली अधिकारी ले गया। मैं तो बोलता भर हूँ। “अहम् ढपोर शंखनम्, वदामि च ददामि न”

(स्मृति पर आधारित)

18 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर! इसे कहते हैं ब्लॉगर सिनर्जी!

    मैने इस पोस्ट का लिंक दे दिया अपनी ढ़पोरशंखीय पोस्ट पर। अब बात पूरी हुई!

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  2. वाह !! बोलते तो बहुत थे मतलब आपकी कहानी से समझ आया ..बहुत धन्यवाद आपका..और कहानी भी रोचक थी

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  3. भूली बिसरी कहानी याद दिला दी आपने -यानी आप ढपोरशंख नहीं हैं -आभार !

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  4. आप हिन्दी की सेवा कर रहे हैं, इसके लिए साधुवाद। हिन्दुस्तानी एकेडेमी से जुड़कर अपना सक्रिय सहयोग करें।
    ***********************************

    सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
    शरण्ये त्रयम्बके गौरि नारायणी नमोस्तुते॥


    शारदीय नवरात्रारम्भ पर हार्दिक शुभकामनाएं!
    (हिन्दुस्तानी एकेडेमी)
    ***********************************

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  5. ये जुमला सुना तो बहुत था पर पूरी कहानी आज आपने बता दी ।
    शुक्रिया ।

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  6. ज्ञानजी के लिखे हुए साथ अब ये कहानी पढकर कथा सम्पूर्ण हुई..बहुत खुशी हुई ..ऐसे ही बतलाते रहीये ..
    - लावण्या

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  7. अरे वाह. कहानी भी याद आ गयी और हमारे मास्टर साब भी जो इसे सुनाते थे. बहुत आभार.

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  8. Bahut hi majedar Aur sikshaprad kahani ,sath hi dhpor shnkh ka arth jankar bhi achcha lga ,yah jumla bachpan se bahut suna hain Arth aaj pta chla .

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  9. बहुत सुंदर सिद्धार्थ भाई...आनंद आया, स्मृतियां ताजी हुईं..

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  10. बहुत सुंदर सिद्धार्थ भाई, आनंद आया ....स्मृतियां ताजी हुईं....

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  11. बहुत दिनों बाद यह कथा सुनी.आनन्द आ गया. बहुत आभार!!

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  12. कहानी याद नही आ रही थी सुनाने का आभार।

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  13. बहुत सुंदर भूली बिसरी कहानी याद दिला दी आपने

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  14. क्या आपको कोई लेख भेजे जा सकते हैं

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  15. बहुत दिनों बाद यह कथा सुनी, बहुत आभार!

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