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गुरुवार, 24 जुलाई 2008

पेण्ड्युलम के सवाल


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

ब्लॉग लेखन प्रारंभ करने के बाद मुझे जिन लोगो के लिखने से प्रेरणा मिलती रही है और जिनका सम्बल मिलता रहा है उनमें घुघूती बासूती जी एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। पिछले दिनों घुघूती जी ने एक कविता पोस्ट की 'पैन्ड्यूलम' शीर्षक से। मैं इसपर तत्काल टिप्पणी नहीं कर सका क्योंकि एक बार पढ़कर इसपर कुछ कह सकना मेरे वश में नहीं था। मैने इसे प्रिण्ट किया, दो-तीन बार पढ़ा और कुछ प्रतिक्रिया लिखने की कोशिश की। इनका भावुक लेखन कभी-कभी विचलित कर देता है। मुझे नहीं मालूम कि मैने इस कविता को कहाँ तक समझा है, लेकिन इस पेण्ड्यूलम के बहाने 'मुझे' जो महसूस हुआ उसने एक लम्बी कविता का रूप ले लिया है। इसे ज्यों का त्यों पेश कर रहा हूँ। इसकी कुछ पंक्तियाँ मूल कविता से सादर व साभार उधार ले ली गयी हैं। उम्मीद है आप इसे पढ़कर जिस लायक समझें खट्टी-मीठी प्रतिक्रिया अवश्य देंगे:-

पेण्ड्युलम की चाल
या लोलक के दोलन का सवाल
मैंने शिशु-मन्दिर में पढ़ा था
सिर्फ़
पूछे गये प्रश्नों के उत्तर
याद कर आगे बढ़ा था

आज,
घुघूती जी की प्रेरणा से
एक गोले को रस्सी के सहारे
खूँटी से बाँधकर लटकाता हूँ।
फ़िर स्थिर गोले को
धीरे से पकड़कर
एक किनारे पर छोड़ जाता हूँ।

यह गोला
पहली बार में अपने-आप
किनारे नहीं जाता है
डुलाये बिना, मृत सा पड़ा यह
खुद को लटका ही पाता है।

जब कोई हाथ
या हवा का झोंका
इसे बलपूर्वक धकेलता है
तब उसी शक्ति का संचय कर
यह उमंग से
दोलन का खेल खेलता है


यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ
इस छोर से उस छोर तक
उस छोर से इस छोर तक
आता और जाता, जाता और आता
अधिक समय बीच में रहता
कम समय छोरों पर जाता

दोनों छोर हैं अतिरंजित
एक छोर रंगा उमंगों में
दूजा रंग है काला मातम सा
बीच का हिस्सा है शेष जीवन
अहा! क्या साम्य है

सोचता हूँ लेकिन,
यह दोलन चक्र चलता कैसे है?
ऊपर वाली खूँटी से?
उससे बँधी डोरी से?
या धरती के गुरूत्व की बर-जोरी से?

विज्ञान कहता है
तीनो लग जाते हैं
इस गति को चलाने में
दोलन की आवृत्ति,
गति और आयाम बनाने में

तब तक यह जीवन है
जब तक साँसे हैं
इसके टूट जाने के बहाने
तो बस जरा से हैं
हमारी साँसो की डोर बँधी है
उस अद्वैत परमात्मा से
जो सत्-चित्त-आनन्द है
और इस दुनिया की सारी माया,
सारा प्रपञ्च
उसकी ही मुठ्ठी में बन्द है

यह धरती है स्थूल प्रकृति
मिट्टी, आग, पानी, हवा व आकाश
ये मिलकर बनाते हैं
प्राणी का स्थूल रूप
जिसे दिखाता है प्रकाश

चलते हुये पेण्ड्युलम की तीन अवस्थाएँ
यह साफ़-साफ़ बताती हैं
बचपन, जवानी और बुढापा
इन सबकी बारी
बारी-बारी से आती है

पूछता हूँ तब,
बचपन और जरावस्था
कैसे हुए अतिरंजित?

एक में छिपी है
अन्जान सम्भावना
जो भविष्य में आकार लेगी
दूजे में बैठी है
चुक गये होने की कसक
जो चुपचाप मन मार लेगी

क्या यही है ‘अनुभूति का शिखर’
परम सुख या परम दुःख
खौलना या हिम सा जम जाना
कि एक छोर पर जाकर
शक्तिहीन सा ठहर जाना
उल्टे पाँव
वापस हो जाना नीचे की ओर
जहाँ कोई ठहराव नहीं है
निराशा, दारुण्य, अन्धेरा
या मासूम, निश्छ्ल, अबोध बचपन का
भाव नहीं है

धरती का यथार्थ
सबसे निकट तभी आता है
जब पेण्ड्युलम अपने यात्रा-पथ के
बीचो-बीच
सबसे गतिमान चरण में जाता है।

यहीं से शुरू होती है
गुरुत्व से विपरीत
ऊपर उठने की कवायद
जो सामर्थ्य के हिसाब से
ले पाती है अपना आयाम,
गति और आवृत्ति,
फ़िर भी किनारे से लगकर
ठहर जाने से
बच नही सका कोई शायद

फिर चरम की ओर जाने को
और वहीं ठहर जाने को
मन उतावला क्यों है?
बीच के यथार्थ से पलायन को
यूँ बावला क्यों है?

यथार्थ में,
अच्छा लगता है गुनगुना पानी
या गुनगुनी धूप
जब सर्दी का जोर हो
अच्छा लगता है
धरती का ठण्डापन
जब प्रचण्ड गर्मी चहुँओर हो

हमें तो,
इस चरम पंथ से डर लगता है
इसलिए इस पेण्ड्युलम का मध्यमार्ग
एक सुहाना सफ़र लगाता है।
(सिद्धार्थ)

6 टिप्‍पणियां:

  1. क्या कहें, सिद्धार्थ. आपको आज तक मैने इस स्तर पर तो नहीं ही आंका था, और इसे स्वीकार करते हुए मुझे कोई ग्लानि नहीं हो रही है. मैं हर्षित हूँ कि मैं गलत साबित हुआ.

    एक बहुत ही स्तरीय रचना पेश की है. ऐसी गहराई कम ही देखने में आती है:

    तब तक यह जीवन है
    जब तक साँसे हैं
    इसके टूट जाने के बहाने
    तो बस जरा से हैं
    हमारी साँसो की डोर बँधी है
    उस अद्वैत परमात्मा से
    जो सत्-चित्त-आनन्द है
    और इस दुनिया की सारी माया,
    सारा प्रपञ्च
    उसकी ही मुठ्ठी में बन्द है


    --बस, अब यह जान लो कि तुमने ही अपने प्रति अपेक्षायें बढ़वा ली हैं और यह स्तर बनाये रखना होगा. निश्चित ही मेहनत लगेगी मगर करो. हम क्या करें, तुमने खुद ही तो अपने को उस शिखर पर पहुँचा लिया है जहाँ से अब मैदान की बात नहीं कर सकते.

    -बहुत बहुत बधाई इस अद्भुत रचना के लिए और अनेकों शुभकामनाऐं.

    --शायद तुम्हें मैं ढंग से टिप्पणी नहीं कर रहा था, वो वाली शिकायत भी जाती रहेगी अब तो. :)

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  2. वाह, सशक्त टेक्नो-साइण्टिफिक-ह्यूमन-आध्यात्मिक पोस्ट।
    सत्यार्थमित्र के लेखन में सभी शेड्स हैं।

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  3. सिद्धार्थ जी,आपने मेरी कविता पर कविता लिखकर मुझे व मेरी कविता को जो सम्मान दिया है उसके लिए धन्यवाद। सच कहूँ तो आपकी कविता मेरी कविता से बेहतर है। मेरी कविता केवल भावना प्रधान है जबकि आपकी जीवनदर्शन प्रधान है। मैंने अपनी कविता में जीवन के इन तीन आयामों, बाल्यावस्था, यौवन और वृद्धावस्था के बारे में नहीं सोचा था। उम्र के जिस पड़ाव में हूँ बस वहीं से जीवन को देखा था। आपने कविता को यह जो नया दार्शनिक रूप दिया मुझे बहुत पसन्द आया। एक बार फिर धन्यवाद सहित,
    घुघूती बासूती

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  4. घुघुतीजी की कविता पढ़कर अभी हम एक गहरी सोच से ऊबर न पाए कि आपने हतप्रभ कर दिया... दोनो कविताएँ एक से बढ़ एक...अति उत्तम...
    जो हम कहना चाहते थे...आपने उसे कई गुना सुन्दर रूप दे दिया...

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  5. हमें तो,
    इस चरम पंथ से डर लगता है
    इसलिए इस पेण्ड्युलम का मध्यमार्ग
    एक सुहाना सफ़र लगाता है।

    आपकी इस रचना की जितना प्रशंसा की जाए कम ही है। उच्चकोटि की रचना के लिए साधुवाद।

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  6. वाह...kya sundar chintan....

    man भावुक और मुग्ध हो गया सिद्धार्थ जी...

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आपकी टिप्पणी हमारे लिए लेखकीय ऊर्जा का स्रोत है। कृपया सार्थक संवाद कायम रखें... सादर!(सिद्धार्थ)