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सोमवार, 26 मई 2008

दादाजी की बीमारी और बस की सवारी

मेरे दादा जी उम्र का शतक पूरा करने के काफी करीब पहुँच गये हैं। शरीर में दो खराबियाँ जवानी के दिनों में ही आ गयी थीं, जो अब भी बरकरार हैं। एक तो काफ़ी ऊँचा सुनते हैं और दूसरे फ़िसलकर गिरने से दाहिना घुटना टूटकर कमजोर हो गया है। बताते हैं कि उस जमाने में बिना अस्पताल गये देहाती ‘हड़जोड़’ नामक लता बाँधकर ठीक करने के प्रयास में वे स्थायी रूप से लंगड़े हो गये थे। फिरभी इन दो सीमाओं (limitations) का उनके जीवन पर कोई खास दुष्प्रभाव नहीं पड़ा। कुछ साल पहले तक घर के बच्चे उनका बहरापन ‘सेलेक्टिव’ होने का प्रमाण जुटाते रहते थे। दूसरी ओर पैर से कमजोर होने के बाद भी उनकी लम्बी दूरी की पैदल यात्राओं के वृत्तांत हमलोग खूब सुना करते थे।

लेकिन जबसे दादाजी नब्बे का स्कोर पार किए हैं तबसे लगता है ‘नर्वस- नाइन्टीज़’ का शिकार हो गये हैं। लेकिन भगवान का शुक्र है अभी आउट होने से बचे हुए हैं। चार साल पहले उन्हे हल्का पक्षाघात हुआ था लेकिन हफ़्ते भर में ही नर्सिंग होम से सकुशल बाहर आ गये थे। इसके बाद थोड़ी निगरानी बढ़ा दी गयी थी। समझ लीजिए कि अभी तक ‘रनर’ लेकर बैटिंग जारी है। लेकिन इस सप्ताह मुझे अचानक सूचना मिली कि बिस्तर से नीचे लुढ़क जाने के बाद ‘बाबाजी’ एक बार फिर गोरखपुर के उसी अस्पताल में भर्ती हो गये हैं, स्थिति ठीक नहीं है। आनन-फानन में मुझे इलाहाबाद से रवाना होना पड़ा। सरकारी बस से। यहाँ बिताए छात्र जीवन के दौरान रोडवेज़ की बस में बहुत बार यात्रा कर चुका था, लेकिन इस बार की यात्रा कुछ अलग जान पड़ी।

रात्रि-सेवा की बस में जाते समय तो रास्ते भर इसी चिंता में नींद नहीं आयी कि कहीं मुझे अंतिम दर्शन मिल भी पाएगा कि नहीं। भोर में चार बजे अस्पताल पहुँचने पर पाया कि दादाजी के साथ ही तीमारदार भी आराम से सो रहे थे। सुबह की विजिट के बाद डॉक्टर उन्हे डिस्चार्ज करने वाले थे। सी.टी.स्कैन की रिपोर्ट संतोषजनक थी। दस बजे डॉक्टर ने देखने के बाद उन्हे घर ले जाकर सेवा करने की सलाह दी। थर्ड-अम्पायर का मन-माफिक फैसला देखने के बाद मैने प्रयाग वापसी के लिए बस स्टेशन की राह पकड़ी।

गोरखपुर से इलाहाबाद आने के लिए कोई सीधी बस मौके पर मौजूद नहीं पाकर मैने आजमगढ़ की बस मे जगह ले ली। हल्की बूँदा-बाँदी के बीच कीचड़ में खड़ा होकर ‘पवन-गोल्ड’ की प्रतीक्षा करने से बेहतर यही लगा कि इस खटारे की सवारी कर ली जाय। बस-कंडक्टर संभावित यात्रियों की बाँह पकड़कर इस बस में बैठाने को आतुर था। ड्राइवर भी बस को ‘स्टार्ट’ रखकर एक झूठा उपक्रम करता रहा कि यात्री बस के तुरन्त छूटने की आस लगाए रहें।

बस के भीतर का माहौल बिल्कुल सरकारी कायदे के अनुसार था। घुसते ही सामने सांसद/विधायक/स्व.संग्राम-सेनानी के लिए आरक्षित सीट थी। इसके पीछे महिला सीट का आरक्षण प्रदर्शित था। बस में यात्रियों की संख्या काफी कम थी इसलिए खाली सीटों पर अपने स्थान से सरक चुकी गद्दियाँ साफ-साफ अपने साथ हुए दुर्व्यवहार की कहानी कह रही थीं। सीट की पीठ के नाम पर जंग लगी लोहे की पाइप के फ्रेम पर लटका हुआ कुशन था जिसके रेक्सीन से जहाँ-तहाँ झाँकता हुआ जूट का चिथड़ा इसकी उम्र बता रहा था। कहीं-कहीं समूची पीठ ही नदारद थी।

खैर, इसके पीछे वाली बस के कंडक्टर ने जब दबाव बनाया तो करीब डेढ़ दर्जन यात्रियों को लेकर जोरदार घरघराहट के साथ बस चल पड़ी। चूँ-चाँ,…खटर-खटर,…धड़्क-तड़्क,…फ़टाक-तड़ाक,…घों-घों,…पें-पें…आदि की अनगिनत ध्वनियाँ कर्ण-मंथन करने लगीं। शहर से बाहर निकलते-निकलते दर्जनों ठहराव लेकर ड्राइवर ने यह जाहिर कर दिया कि उसे कोई जल्दी नहीं है। बस में यात्रियों की संख्या पूरी किये बग़ैर शहर छोड़ने का मन कत्तई नहीं था उसका।

बस में आगे की सीट पर बैठे होने की वजह से अगले हिस्से में पसरी हुई गंदगी और सामने लिखी इबारतें पढ़ने का अवसर मिल गया। ड्राइवर की सीट के ठीक ऊपर लिखा था- “सावधानी हटी, दुर्घटना घटी”। बस की गति अपने आप में सावधानी की गारण्टी दे रही थी। जब एक के बाद एक तीन बसों ने इसे ओवरटेक कर लिया तो कंडक्टर ने प्रश्न खड़ा कर रहे यात्रियों को कछुए और खरगोश की कहानी याद दिला दी। कुछ यात्री बस-चालक से गति तेज करने की गुहार लगाने लगे तो उसने उस ओर इशारा कर दिया जहाँ लिखा था- “कृपया चालक पर तेज गति से बस चलाने हेतु दबाव न डालें।”

वहीं कुछ और भी उपयोगी बातें लिखी हुई थीं। जैसे- “संयम से होती स्व-रक्षा, गति से पहले हो सुरक्षा।” ड्राइवर के लिए यह सलाह भी कि, “करें विचारों का कण्ट्रोल, बचाएं डीजल व पेट्रोल।” कदाचित्‌ कंडक्टर की मनमानी रोकने के उद्देश्य से यह सूचना लिखी थी- लगेज दर- ४० पैसा प्रति कुन्तल प्रति किमी. वहीं एक जगह बस का रजि. नं. UP 50- F1582 और अंबेडकर डिपो का फोन नं. 05462-221428, 9415501857(ARM) लिखा हुआ था। इच्छुक यात्रियों की सुविधा के मुताबिक लिखकर बताया गया था कि, “परिवाद पुस्तिका चालक के पास है।”

यह सब लिखा देखकर लगा कि सरकार अपने यात्रियों का कितना ख़याल रखती है। मैं मुग्ध होकर यह सब पढ़ रहा था, तभी मेरी ओर बीड़ी (सिगरेट इसका उन्नत संस्करण है) के धुँए की तेज महक आई। मैं व्यग्र होकर पीछे देखने लगा ताकि यह गलती कर रहे व्यक्ति को मना कर सकूँ। लेकिन खोज बेकार जा रही थी।

धुँए के अगले भभके ने मेरा ध्यान ड्राइवर की ओर खींचा। उसके एक हाथ में बीड़ी देखा तो हैरत हुई, फिरभी मैंने उसे मना करके ‘डिस्टर्ब’ करना उचित नहीं समझा। चुपचाप अपने मोबाइल कैमरे के पार से उसे देखता रहा। अब आप भी देखिए…


चालक की बायीं ओर साफ-साफ मोटे अक्षरों में लिखा था- यात्रा के दौरान धूम्रपान निषेध।

पुनश्च:- [
घर आकर मैने ऊपर नोट किये हुए दोनो नम्बरों पर फोन मिलाया तो मोबाइल स्विच्ड-ऑफ था और बेसिक फोन की घंटी बजती रही लेकिन उठा नहीं, शायद मृत(dead) पड़ा हो।]

5 टिप्‍पणियां:

  1. सरकारी विभाग में यात्री सुविधाओं की योजना पूरी जोर शोर से बनती है। क्रियान्वयन की शुरुआत जोर शोर से होती है। पर कर्मचारी की प्रतिबद्धता में कमी के चलते सब वैसा ही हो जाता है - जैसा आपकी पोस्ट में है।

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  2. बहुत सही लिखा आपने!!! यू. पी में ये सब जायज है. ...पता नही कब ये हमारा यू.पी सुधरेगा....नौबत यहाँ तक आ पहुची है की आज मुम्बई,गुडगाँव , दिल्ली आदि जैसे महानगरों के लोग हम यू.पी वालो को हेय की दृष्टि से देखते है....

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  3. सही खाका खींचा है।

    आपके दादा जी स्वस्थ होंगे इसकी कामना करते है।

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  4. आपका ये यात्रा वृतांत दिलचस्प है ओर अपने उद्देश्य को पूरा करता है ,पढने मे मजा आया.......
    दादा जी को प्रणाम ....

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  5. बहुत दिन से ब्लॉग भ्रमण नहीं हो पा रहा था। इसलिए, देर से टिप्पणी कर रहा हूं। बढ़िया वृतांत है, जागरुक न होना स्थाई भाव हो गया है। खैर, लौटकर आइए आपका इंतजार है।

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