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मंगलवार, 20 मई 2008

प्रयाग थोड़ा अलग जो है!

इलाहाबाद के संगम क्षेत्र से पश्चिम की ओर यमुना के तट पर पत्थर की ऊँची सीढ़ियाँ बना कर तैयार किया गया है ‘सरस्वती घाट’। घाट से ही सटा हुआ एक पार्क है और पार्क के पश्चिमी छोर पर शंकर जी का एक अत्यंत प्राचीन मंदिर है- ‘मनकामेश्वर’, जहाँ मन्नतें मांगने वाली औरतों और मर्दों का ताँता लगा रहता है। यमुना किनारे यहाँ से थोड़ा और पश्चिम बढ़ें तो दो जोड़ी विशाल स्तम्भोंके सहारे झूलता हुआ ‘नया यमुना पुल’ आ जाता है जो वास्तु और अभियंत्रण का शानदार नमूना है। शाम के वक्त इसे देखने और यहाँ टहलने आने वालों की अच्छी खासी भीड़ जमा हो जाती है। इस नये पुल के थोड़ा और पश्चिम पुराना ‘दुतल्ला’ पुल है। दोनो पुलों के बीचोबीच ‘बोट क्लब’ है, जहाँ हाल ही में ‘त्रिवेणी-महोत्सव’ का शानदार आयोजन हुआ था।

इस प्रकार यमुना के उत्तरी तट का यह पूरा इलाका शाम के वक्त शहरवासियों को खुली हवा में सांस लेने, पिकनिक मनाने, धार्मिक श्रद्धा की पूर्ति करने, बोटिंग का लुत्फ़ उठाने और किशोर वय के लड़के-लड़कियों को पार्क के कोने में बैठ कर गप्पें लड़ाने का एकसाथ अवसर देता है। लोगों के इस दैनिक जुटान को देखते हुए ठेला-खोमचा लगाने वाले भी ठीक-ठाक धंधा कर लेते होंगे, ऐसा मेरा अनुमान है।

रविवार की शाम को पहुँचने पर जब ‘सरस्वती-घाट’ के ठीक सामने कोई ठेला या खोमचा नहीं दिखायी दिया तो मेरी बेटी थोड़ी व्यग्र हो उठी। बड़े हनुमान जी का दर्शन करने के बाद हम सीधे यहीं आ गये थे कि शाम को घाट पर आरती देखने के साथ-साथ बच्चों की कुछ ऑउटिंग हो जाएगी। चारो ओर नज़र दौड़ाने पर यह समझ में आ गया कि घाट पर बनी दो पक्की दुकानों के ठेकेदार मालिकों ने अपने धंधे के हित में किसी छोटे खोमचे वाले को इधर फटकने नहीं दिया होगा। वाहन से उतर कर हम अभी सामने यमुना की ओर निग़ाह डाल ही रहे थे कि दो-तीन छोटे-छोटे लड़के हाथ में प्लास्टिक की कुर्सियाँ उठाये हमारी ओर चल पड़े। उनके बीच हमें जल्दी से अपनी कुर्सी पर बैठा लेने की होड़ काफी कुछ बता रही थी।

ख़ैर, हम बच्चों को लेकर सीढ़ियाँ उतरते हुए यमुना जी के तट पर जा पहुँचे। वहाँ भी नाव वालों के बीच सवारी बैठाने की घोर प्रतिस्पर्धा थी। हम इस पचड़े में पड़े बगैर यमुना जी को प्रणाम कर वहीं से गोधूलि बेला में नये पुल की कुछ तस्वीरें अपने मोबाइल में कैद करके वापस सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। इस दौरान हमारे आगे-पीछे वही दो-तीन लड़के मंडराते रहे और आँखें मिलते ही आइस्क्रीम, कॉफ़ी, कुरकुरे, चाउमिन, कोल्ड-ड्रिंक्स, बर्गर, सैन्डविच, पनीर-पकौड़े, कुल्फ़ी आदि की पेशकश एक खास शैली में करते गये। कुछ वैसे ही जैसे विन्ध्याचल, बनारस, या दूसरे तीर्थों में पण्डागण यात्रियों के पीछे लग जाते हैं। हालत यह हो गयी कि हमें मजबूरन एक जगह कुर्सी पर जगह लेनी पड़ी। इसके साथ ही वे लड़के अन्य कुर्सियों के लिए ग्राहक तलाशने चल दिये। ऑर्डर लेने एक दूसरा लड़का आया। उसने उपलब्ध सामग्री की जो सूची बतायी वह ऊपर गिनाये गये खाद्य पदार्थों की लिस्ट से भिन्न काफी छोटी थी। बहुत सोच-विचार के बाद गर्म मौसम व बच्चों की पसंद को देखते हुए ‘पिस्ता-कुल्फ़ी’ खाने का निर्णय हुआ। इससे निरापद व सस्ता वहाँ कुछ भी मौजूद नहीं था। अठ्ठारह रुपये का दाम सुनकर हम आश्वस्त हो गये कि कुल्फ़ी अच्छी होनी चाहिये। आकर्षक पैक में लिपटी हुई कुल्फ़ी जब खोल से निकालकर मुंह से लगायी गयी तो धीरे-धीरे इसकी घटिया क्वालिटी उजागर होने लगी और थोड़ी ही देर में सबने मुँह का स्वाद बिगड़ जाने पर अफसोस करते हुए उस लड़के को लानत भेंजना शुरूकर दिया।… यह तो सरासर डकैती है, …इससे बढ़िया तो जाकर किसी बस-अड्डे पर जेब काटते, …तबसे इसी लूट के लिए पीछे पड़े थे, …सारा मजा खराब कर दिया, इससे अच्छा तो गाँव-गाँव घूमकर ‘बरफ़’ बेचने वाले दो रुपये में खिला देते है… आदि-आदि।

वह बेचारा लड़का चुपचाप सुनता रहा और अंत में इतना बोल सका, “मुझे क्या कह रहे हैं सर, हम तो किसी तरह कमाते-खाते हैं। आप मालिक से बात कर लीजिए।”

मुझे बात समझ में आयी तो खुद पर अफ़सोस होने लगा। नाहक इस बच्चे को यह सब सुनना पड़ा। असली क़सूरवार तो कोई और ही होगा। मैने सबको चुप कराकर उसे उसके नब्बे रुपये अदा किए और उठ गया। सोचने लगा- इतनी सुंदर और मनोरम जगह को भी बाजारू संस्कृति ने खराब कर रक्खा है।

बच्चों को गाड़ी में बैठने को कहकर मैं दुकान के कैश काउण्टर पर बैठे संभ्रान्त से दिख रहे व्यक्ति के पास चला गया। अपनी चिंता उसे जतलाने के उद्देश्य से मैने कहा कि आपलोग ऐसे पवित्र स्थान पर दुकान चला रहे हैं तो इतना जरूर ख़याल रखिये कि यहाँ से लौट कर जाने वालों के मन में अच्छा ‘इम्प्रेशन’ बने। यह स्थान इलाहाबाद की संस्कृति को प्रतिबिम्बित करता है। आपको इसकी नाक बचाये रखने की जिम्मेदारी निभानी चाहिए।

पहले तो उसे बात समझ में नहीं आयी लेकिन जब उसके कुरेदने पर मैंने घटिया कुल्फ़ी की बात बतायी तो उसने झटसे उसके ‘सप्लायर’ को फोन मिलाया और मुझे सुनाते हुए उससे बोला- “मैं आपके माल का कोई पेमेण्ट नहीं करूंगा, सुन लीजिए, कस्टमर कितना कमप्लेन कर रहें हैं” उसने फोन मुझे पकड़ा दिया। अब मैं क्या करता? पूरी कहानी विनम्रता पूर्वक फोन पर भी सुनानी पड़ी। उधर से सिर्फ़ इतना जवाब मिला कि “बात तो आपकी ठीक है।”

मुझे हैरत तो तब हुई जब दुकान मालिक ने उस बच्चे को बुलाकर कुल्फी के पूरे पैसे वापस करने को कहा। …मैं कन्फ़्यूज हो गया। मैने बच्चे की मेहनत की दुहाई दी, मुफ़्त में कुछ भी न खाने का दृढ़ मत व्यक्त किया, कुल्फी का उचित मूल्य रख लेने का आग्रह किया; लेकिन वह व्यक्ति पैसे वापस करने पर अडिग रहा। बोला- साहब मैने यह दुकान ‘बिज़नेस’ के लिए नहीं खोली है। मुझे तो बस ‘शौक’ है…।

मैं और कन्फ़्यूज हो गया। इस बीच मेरी पत्नी गाड़ी से उतर कर आ गयीं। उन्हे माज़रा समझते देर नहीं लगी। बोली- आप फिर उलझ गये समाज सुधार के चक्कर में? चलिए देर हो रही है।मैं वहाँ से चला तो आया लेकिन मन की हलचल अभी शांत नहीं हुई है। क्या निष्कर्ष निकाला जाय?

1 टिप्पणी:

  1. अच्छा, यमुना तट पर इलाहाबादी नाटक चलता है। वाराणसी में भी यह सांस्कृतिक बाजारवाद देखा था। इलाहाबाद में तो काम के बोझ तले दबे हैं, निकल नहीं पाये। :-)

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