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सोमवार, 12 मई 2008

परिवर्तन


गंगा, यमुना व अदृश्य सरस्वती;
इनकी त्रिवेणी पर फिर पहुँच गया हूँ।
वही घाट है, नावें हैं,
और वही नाविक हैं;
लेकिन उनकी आँखों में
कौतूहल भरी मुस्कान को छिपाकर
‘हमें’ बैठा लेने का
वह आग्रह नहीं है,
जो तब हुआ करता था।

घाट पर वही चौकियाँ हैं,
उनपर छोटी-छोटी कंघियाँ व शीशे हैं,
वही अक्षत्‌ और चंदन है,
उनपर धूप में तने हुए छाते हैं;
और जिनके नीचे वही तिलक वाले पण्डे हैं;
जिन्हे हमसे कोई उम्मीद नहीं हुआ करती थी।
आज उनकी आँखों में
हमे देखकर चमक सी आ गयी है;
क्योंकि आज हम, सपरिवार
गंगा नहाने आये हैं।
और तब,
हम उन्हे गंगा दिखाने आते थे।

वहीं एक ‘बड़े हनुमान जी’ है।
जो तब भी लेटे हुए थे,
और अब भी
वैसे ही प्रसाद दे रहे हैं।

-सिद्धार्थ

6 टिप्‍पणियां:

  1. अच्‍ंछे चित्र अच्‍छी कविता
    मजा आ गया,

    हमें हमारे प्रयाग के दर्शन करवा कर :)

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  2. यादों का आज से बहुत सुन्दरता से मिलाया है, बधाई.

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  3. मुझे उपेन्द्र जी बताते हैं कि उनके जमाने में अगर छात्र आत्मविश्वास से भरा होता था तो सिविल लाइन्स के हनुमान जी से काम चला लेता था परीक्षा के पहले। अगर बण्टाधार तय मानता था तो लेटे हनुमान जी तक दौड़ लगाता था। :)

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  4. प्रयाग दर्शन: कल और आज, के लिए शुक्रिया.

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  5. sundar vichaaron ke sath chitron ka khoobsoorat sanyojan. badhayi.

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