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सोमवार, 28 अप्रैल 2008

ये मुझे क्या हो गया?

मस्तिष्क, आत्मा और मन। एक विवेचक, दूसरी चिन्तक और तीसरा अति क्रियाशील।
सक्रियता की गति इतनी तेज कि मस्तिष्क के विवेचन और आत्मा के चिन्तन से प्राप्त निष्कर्ष पीछे छूट जांय। यानि इनका सब करा-धरा धरा का धरा रह जाय।
मन रूपी पतंग की डोर थोड़ी ढीली हुई और वह उड़ चला। फिर तो इतना तेज चला कि मस्तिष्क व आत्मा दोनो मिलकर भी उसे सम्हाल पाने में असमर्थ रहे। डोर हाथ से छूटी जा रही थी।
आस-पास के वातावरण की गतिशील वायु उसे उड़ाये जा रही थी। वह ऊपर बढ़ता गया।
लेकिन वह कबतक उड़ता? उसी वायु के थपेड़े उसे फाड़ भी तो सकते थे! उसकी शक्ति किसी ठोस आधार के अभाव में क्षीण होती जा रही थी।
यह ठोस आधार उसे कैसे मिलेगा? उसकी कमानी कैसे मजबूत होगी? धरती छोड़ते समय ही वह कमजोर थी।
हाँ, इतनी मजबूत अवश्य थी कि धरती छोड़ सकी थी।
उँचाई पर जाकर जब तेज झोंकों का सामना हुआ तो धरती की याद आने लगी।
वह धीरे-धीरे डगमगाता हुआ, हिचकोले खाता हुआ, लुंज-पुंज अवस्था में नीचे गिरने लगा। धरती की ओर।
मन आहत हो चुका था। कड़वी सच्चाई का सामना करके वह निढाल हो चुका था।
उसकी दयनीय दशा देखकर आत्मा रो उठी। माँ की तरह।
लेकिन मस्तिष्क इसकी विवेचना में जुट गया। क्यों, कब, कहाँ, कैसे, और किसलिए? यह भी कि इसमें दोष किसका? स्वयं मन का, आत्मा का, मस्तिष्क का, या किसी और का?
आत्मा भी थोड़ी स्थिर हुई तो मन्थन करने लगी। लेकिन मन की कातरता के पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर।
अतः कदाचित्‍ वह निष्पक्ष नहीं हो पायी। दूसरों पर दोष मढ़ने लगी। ठोस आधार न दे पाने वालों को कोसने लगी। भाग्य को कोसने लगी। खुद को भी दोष में सनी हुई महसूस करने लगी। क्लान्त हो उठी।
तभी मस्तिष्क ने सावधान किया। अपना रास्ता मत भूलो। स्वयं को पहचानो।वातावरण और परिस्थितियों से ताल-मेल बैठाओ। निराश मत हो। आत्मा चुप थी। मस्तिष्क उसे उपदेश दिये जा रहा था।
बीच में, मन जर्जर अवस्था में ही कराहते हुए बोल उठा- नहीं, …यह सामान्य परिस्थिति नहीं है। इसके साथ सामंजस्य असम्भव नहीं तो अत्यंत कठिन अवश्य है। यह काम एक स्वस्थ और प्रसन्न आत्मा ही कर सकती है। …लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। आत्मा दुःखी है। उसे समायोजन का कौशल भूल गया है। वह भावुक हो चली है। वह सही कदम नहीं उठा सकती। तुम्ही कुछ करो।
सेवक स्वामी पर हावी था।
मस्तिष्क किंकर्तव्यविमूढ़ सा चुप रहा। उसका हौसला भी पस्त होने लगा। सारा जोश ठण्डा पड़ गया। विवेक जाता रहा।
तभी आत्मा से धीमी आवाज़ आयी- हाँ, तुम्ही कुछ कर सकते हो। हौसला बनाये रखो। हम तुम्हारा साथ देने की पूरी कोशिश करेंगे।
मस्तिष्क फिर भी चुप रहा। उसकी अवस्था भी शेष दोनो की भाँति हो गयी थी।
यह एक विचित्र परिस्थिति थी। तीन भिन्न-भिन्न दॄष्टिकोण एकाकार हो गये थे। तीनो दुःखी, तीनो चिन्तित,… किंकर्तव्यविमूढ़, एक ही सोच में।
मन को शरारत सूझी। बड़े भाइयों (या स्वामी जनों) को अपने बराबर देखकर मुस्कराने लगा।

4 टिप्‍पणियां:

  1. अभी तक यही पढ़ा था कि मन एव मनुष्यानाम् कारण बंधन मोक्षयो... आपने तो सेवक को स्वामी पर हावी कर दिया। अच्छा है। पहली बार आत्मा और मन के ऐसे रिश्ते को पढ़ा। मंथन जारी रखिए। अमृत का निकलना तय है।

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  2. अभ्यास योग। मन का निग्रह अभ्यासयोग से। कर्टसी रामकृष्ण परमहंस।
    अच्छा लिखा जी।

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  3. अच्छा लिखा है फिर से पढ़ना पड़ेगा गहराई में उतरने के लिये.

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  4. अमूर्त का चिंतन और वह भी इतने सरल शब्दों में पहली बार पढ़ा है| मजा आ गया |

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